वंशीधर का दिमाग उलझता जा रहा है। मानवाधिकार आयोग और हठीपुरवा उन्हें परेशान कर रहा है। निरंजन प्रसाद भी उसी वाद में दंडित हुए हैं पर वे हाथ पाँव कम चला रहे हैं। सोचते हैं वंशीधर करेंगे ही। इसीलिए उनकी दस बात सह भी लेते हैं।
रात के ग्यारह बज गए हैं पर वंशीधर को नींद नहीं आ रही है। वे उठते हैं, थोड़ी देर बुदबुदाते हैं, फिर लेट जाते हैं पर नींद का कहीं पता नहीं। भुने काजू हाथ में लेकर एक एक टुकड़ा मुँह में डालते हैं, कुटकुटाते हैं। प्रतिहिंसा की अग्नि धीरे धीरे प्रज्ज्वलित हो उठती है। हठी पुरवा का चित्र उभरता है। तन्नी, नन्दू, हरवंश, और अंजलीधर का भी। अभी कल ही सूचना मिली कि तन्नी ग्राम प्रधान हो गई है। तन्नी के पिता मंगल के ही प्रकरण में वे दंडित हुए हैं। भुने काजू कुटकुटाते हुए वे बुदबुदा रहे हैं। 'उन्हें कुछ करना है।..... हठी पुरवा को सबक सिखाना है। वे वंशीधर हैं उनका दाँव अचूक होता है।..... वे कोतवाल थे.... सी.ओ. थे तो लोग उनके पीछे पीछे भागते थे। उनके हुक्म पर किसी की भी खाल उधेड़ दी जाती थी। पर आज. ... वही वंशीधर जेल में है।' बुदबुदाते हुए उन्होंने दीवाल में एक मुक्का जड़ दिया। उन्हें लगा कि दीवाल उनके मुक्के से थरथरा उठी है यद्यपि यह उनका मुगालता ही था। कम जगह में भी वे कदमताल करते रहे। कभी 'थम' के साथ वे जोर से पैर पटकते। जब थक गए तो लेट गए और फिर नींद झपट पड़ी। उन्होंने स्वप्न देखना शुरू किया एक आदमीनुमा जानवर उनका पीछा कर रहा है। वे भाग रहे हैं.... भागते जा रहे हैं।
विपिन के प्रयास से गुलरिहा में गाँव के विकास पर एक गोष्ठी का आयोजन। जिलाधिकारी भी नए आ गए थे। आते ही उन्होंने जनपद के विकास को अपनी प्राथमिकता बताया। विपिन, तन्नी, और करीम ने जब उनसे मिलकर ग्राम विकास गोष्ठी का उद्घाटन करने के लिए निवेदन किया, वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। तत्काल स्वीकृति दे दी।
तन्नी, करीम, अंगद सभी पुरवों में घूमकर गोष्ठी में भाग लेने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते रहे। स्त्रियाँ भी उत्साहित थीं। इस तरह की गाँव में यह पहली गोष्ठी थी जिसमें गाँव के विकास पर कुछ चर्चा होनी थी। तन्नी और करीम ने पुराने प्रधान जी और चौधरी प्रसाद जी को विशेष रूप से उपस्थित रहकर अपनी बात रखने के लिए कहा। भुल्लुर तो गोष्ठी का प्रचार ही कर रहे थे। भुल्लुर चुन्नू की दूकान पर बैठे गोष्ठी पर ही चर्चा कर रहे थे कि राम दीन ने पूछ लिया, 'कुछ मिलबौ करी?' 'अब हीं सिर्फ सोच मिली कि आगे कैसे बढ़ा जाइ सकत है।' भुल्लुर की बात पर रामदीन ने पलटकर पूछा, 'सोच से का होई?'
'सोच सही रही तो सही रास्ता मिली आगे बढ़े की खातिर।' भुल्लुर कहाँ चुप रहने वाले थे।
'तौ सिर्फ बातें होई हैं। बातन से का होई?' रामदीन ने बीड़ी का एक सुट्टा लगाते हुए कहा।
'बातन से तो राज मिल जात है बातन से ज़िन्दगी बनि जाति है।' भुल्लुर समझाने लगे। 'बात बात मा बतबढ़ होय गई और बातन मा बाढ़िगै रारि गावा जात है न।' राम दीन बोल पड़े।
'तुमहूँ कहाँ की बात कहाँ खोंस दिहैउ। आल्हा गाइब और गोष्ठी करब का एक कै दिहौ। यही लिए कहा जात है कि पहले सही सोच पैदा करो। यही लिए गोष्ठी होय रही है।' कहते हुए भुल्लुर उठ पड़े। रामदीन ने भी अपनी राह पकड़ी।
गोष्ठी की तैयारी के लिए माँ जी की कुटिया पर एक बैठक हुई जिसमें करीम, अंगद, तन्नी, रामदयाल, नन्दू, हरवंश, मोलहू सम्मिलित हुए।
'कुछ तैयारी करनी पड़ेगी।' माँ जी ने तख्ते पर बैठते हुए कहा।
'क्या क्या करना होगा माँ जी?' करीम बोल पड़े।
'पहले तो यह तय करना होगा कि गोष्ठी कहाँ की जाय? कोई ऐसी जगह होनी चाहिए जहाँ सौ-पचास आदमी बैठ सकें।'
'माँ जी, गाँव में कोई हाल तो है नहीं, प्राइमरी स्कूल का छोटा सा बरामदा है। उसी के सामने तम्बू लगाया जा सकता है।'
करीम ने सुझाव दिया।
'क्यों यहीं ठीक रहेगा न?' माँ जी ने सभी से पूछा।
'हाँ, यहीं ठीक रहेगा।' सभी का समवेत स्वर।
'एक काम हमें और कर लेना चाहिए?'
'क्या माँ जी?' मोलहू बोल पड़े।
'हमें पूरे गाँव का एक सर्वे कर लेना चाहिए। सभी पुरवों में किसके पास पक्का मकान नहीं है? किसके यहाँ शौचालय नहीं है? किसके पास कोई ज़मीन नहीं है? किसके पास आमदनी का जरिया नहीं है? कितने वृद्ध ऐसे हैं जिनकों पेंशन नहीं मिल रही है? क्या कोई असाध्य रोग से बीमार है? किन घरों में ईंधन की दिक्कत हैं? किन घरों में बिजली नहीं है? इन सब सूचनाओं का एक चार्ट बन जाना चाहिए जिससे जिलाधिकारी के सामने उसे रखा जा सके।' माँ जी बताती रहीं।
'माँ जी आपने हम सब को सही राह दिखाया लेकिन भाव-ताव पर भी कुछ चर्चा होनी चाहिए।' रामदयाल बोल पड़े।
'जरूर होनी चाहिए।' हम लोग इस पर गंभीरता से विचार करेंगे। माँ जी ने प्रसन्नता व्यक्त की। अभी एक सप्ताह का समय है। हम सब को तैयारी में जुट जाना चाहिए। ग्राम पंचायत सचिव से भी सहयोग लिया जाय। जिलाधिकारी आ रहे हैं, इसलिए सचिव भी सक्रिय होंगे।
वंशीधर जैसा होशियार आदमी ज्यादा दिन जेल में रहे, यह कैसे संभव है? उसके पास विकल्प है कि वह अस्पताल में अपना समय बिताए। लोगों से खूब बतियाए। बातों से पेट भरे अपना भी और दूसरों का भी। हुआ वही। वंशीधर जिला अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में पहुँच गए। पैसे की कमी न थी। यहाँ पूरी आज़ादी थी। वे जैसा चाहें रहें। जिस तरह की योजनाएँ चाहें, बनाएँ। उनका पैसा मानवाधिकार आयोग में काम नहीं आया इसका उन्हें अफ़सोस रहता है अन्यथा उन्हें जेल की हवा क्यों खानी पड़ती? अब तक वे साम, दाम, दण्ड, भेद से अपना काम निकाल ही लेते थे। आज उनके अवकाश ग्रहण का दिन है। यदि वे निलम्बित होकर जेल में न होते तो....? सोचकर थोड़े विचलित हो गए। आज का दिन जश्न का दिन होता। पुलिस अधीक्षक सहित संगी साथी उन्हें सम्मान के साथ विदा करते। खूबियों का बखान करते हुए न जाने क्या क्या कहते ! पर आज सोचते हुए वे बाहर देखने लगे। किसी को तो आना चाहिए। तिवारी लँगोटिया यार बनता था वह भी....। वे कमरे में ही चहल कदमी करने लगे। यह दुनिया कितनी स्वार्थी है? काम पड़ता है तो पाँव छूती है, काम निकंल गया तो पहचानने से इन्कार कर देती है।
चहल कदमी करते हुए वे एक दो बार बाहर झाँक कर देख भी लेते हैं। अस्पताल में हैं इसलिए घर के लोगों, रिश्तेदारों का आना जाना लगा रहता है। आज अभी कोई नहीं है। उन्होंने बाहर झाँका। एक आदमी आता दिखा। पर यह तो डकैत भीरू है। इसको कितना पीटा था मैंने? आज भीरू.... वे कुछ सहमें। तब तक भीरू ने 'सलाम हुजूर' कहकर चौंका दिया।
'कहो कैसे हो भीरू?'
'हुजूर अब सब काम छौड़ कै घरै रहित है। एक रिश्तेदार का देखे आयन रहा। हियें पता चला कि आप भर्ती हो। आप का देखै चला आयन। मालिक आप के तबियत ठीक है न?'
'बिलकुल ठीक तो नहीं है। एकदम से ठीक होते तो भर्ती क्यों होते?'
'ठीकै कहत ही मालिक। कौनो न कौनो राज रोग बड़कवी का लागिन जात है।'
'बीमारी बड़े छोटे में भेद नहीं करती।'
'मालिक बड़कन का बड़ा रोग छोटकन का छोट रोग यहै ठीक है। छोटकन का बड़ा रोग होय जाय तब तो वै गए काम से। भगवानौ नियाव करत हैं नाहीं तो ई धरती धॅंसि न जाय?' 'भीरू तुम्हारी सोच अब भी वही पुरानी है। तुम चोरी डकैती करते थे तब क्या धरती धँसी? आज नहीं करते तो क्या ऊपर आ गई? पर यह बताओ तुम्हारा खर्च कैसे चलता है?'
'मालिक ई न पूछो।'
'क्यों? क्या बात है?'
'हुजूर लड़के कुछ काम धन्धा करत हैं वहिस काम चलत है।'
'तुम्हारा खर्च तो बहुत ज्यादा ही था।'
'जब आमदनी रही तब रहा। अब जब आमदनी नहीं है तो खरचव कुछ कमै कीन जात है।'
'शाम को जब तलब लगती है तब ?'
'हुजूर मांस, मच्छी, शराब सब छोड़ दीन है। नए लड़के तो जाने काउ काउ खाय लागे, छोड़िन नाहीं पउते। पुड़िया न पावें तो छटपटाय लागत हैं।'
'तुमने सब कुछ छोड़ दिया!'
'हाँ मालिक।'
'तुम डकैती-चोरी करके भी समाज में घुलमिल लेते हो। कुछ शंका नहीं लगती?'
'मालिक चोरी-डकैती बड़कवन के हिया डारित रहा। छोटकवन कै मदद करत रहेन। इलाका मा कौनो गरीब के लड़की की शादी होय तो भीरू के मदद जरूर पहुँचत रही।' 'ओ! इसी लिए जनता डाकुओं का गुणगान पहले भी करती रही। सुलताना डाकू पर नौटंकी भी बनी और उसे देखने के लिए जनता का हुजूम।'
'मुला हम लोग छोटे-चोर-डकैत रहेन मालिक। जे पढ़ि लिख गए, वै तो बड़ी बड़ी डकैती डारत हैं।'
'ठीक कहते हो भीरू। अब दिमाग से डकैती होती है। जिसके घर डकैती होती है उसे पता भी बाद में लगता है।' 'भीरू तुम से कोई काम कहा जाय तो?'
'मालिक हम ऊ सब काम बन्द कै चुकेन है। माफ करो मालिक। अब चली हुजूर।' कहकर भीरू उठ पड़े। वंशीधर भीरू का जाना देखते रहे।
गुलरिहा का प्राथमिक विद्यालय। आज इतवार है पर गाँव के लोग उत्साहित हैं। ठीक साढ़े दस बजे जिलाधिकारी की गाड़ी आकर रुकी।
करीम और तन्नी ने जिलाधिकारी को मंच तक पहुँचाया। तहसीलदार भी साथ थे। मंच पर उनके बैठते ही जनता ने तालियों से उनका स्वागत किया। विपिन ने कुछ प्रबुद्ध लोगों को भी आमंत्रित किया था। मंच पर उन्हें भी बिठाया गया। गाँव की दो बच्चियों के स्वागत गान से कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। प्रारंभ में तन्नी ने गाँव की सर्वे रिपोर्ट प्रस्तुत की। जिलाधिकारी महोदय इससे बहुत प्रभावित हुए। करीम ने कहा, 'गाँव में सभी के पास ज़मीन थोड़ी है। सबै लघु और सीमान्त किसान हैं। बिना कुछ और धन्धा किए किसी का खर्चा पूरा नहीं होगा। माँ जी के मार्गदर्शन मा हम लोग विकल्प डेयरी और अँचार का काम कर रहे हैं पूरी ईमानदारी से। सब का खाता खुला है। जो भी जिस परिवार का बनता है उसके खाते में जमा हो जाता है। हम लोग इस प्रयास में हैं कि सभी पुरवों के सभी परिवार कुछ और कमाई कर सकें। और क्या क्या कीन जाइ सकत है? गाँव के लोग कैसे आगे बढ़ि सकत हैं यहै सोचे का है? एक बात जरूर कहा चाहित है। माँ जी हम लोगों से बार-बार कहती हैं कि ईमानदारी से काम करो। हम सब यह मा परेशान हन कि अगर हम सबसे सरकारी योजनाओं मा घूस माँगा गवा तो काम कैसे होई?' इतना कहकर करीम बैठ गए। राम दयाल पहले से ही फनफना रहे थे। तन्नी ने उन्हें अपनी बात रखने के लिए बुलाया। वे उठे, इधर उधर नज़र दौड़ाई और कहा, 'मालिक राम राम। हम ई जाना चाहित है कि हमार अनाज माटी के भाव बिकात है और कम्पनियाँ वही का भूजभाजि के कुछ बनाय दिहिन तौ पचीस-तीस गुना दाम पर बेंचति हैं। हमार मक्का चौदह रुपया किलो बिकात है। वही से कौनौ कम्पनी बनाय दिहिस 'कार्नफ्लेक्स' तौ तीन-चार सौ रुपया किलो बेंचि के मालामाल होय रही हैं। चौदह रुपया किलो मा किसान काउ खाई काउ विकास करी? और सब चीज़ के दाम जब चाहें लोग बढ़ाय लेत हैं मुला अनाज के भाव जस कै तस। आप मालिक लोग हौ, हम किसानन के बारे मा कुछ करो।' इतना कहकर राम दयाल अपनी जगह पर जाकर बैठ गए। तन्नी ने प्रबुद्ध लोगों में डा. त्रिवेणीशंकर को उद्बोधन के लिए आमंत्रित किया। वे उठे। उनके चेहरे की मुस्कान से लग रहा था कि इस ग्राम पंचायत के काम ने उन्हें भी प्रभावित किया है। उन्होंने कहना शुरू किया, 'सम्माननीय जिलाधिकारी महोदय, बहनों एवं भाइयो। आपके अब तक के प्रयास से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आपने अपने काम से हम लोगों को बहुत अच्छा फीडबैक दिया है। आपके गाँव की सर्वे रिपोर्ट अत्यन्त पारदर्शी और आँख खोलने वाली है। यदि इसी तरह काम करते रहे तो आप लोग खुद दूसरों का मार्गदर्शन करेंगे। हर आदमी के पीछे खेती तो घटती ही जा रही है। यहाँ सभी लघु और सीमान्त किसान हैं। यही स्थिति धीरे धीरे पूरे देश में होगी। सिर्फ खेती से किसान की सभी जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। जो विशिष्ट ढंग की खेती कर रहे हैं उनकी बात जाने दीजिए। सामान्य अनाज की खेती से थोड़ी ज़मीन में कितना उगेगा? नए बच्चे इसीलिए खेती में रुचि नहीं ले रहे हैं। किसी विशेष प्रोजेक्ट के तहत कुछ काम करना हो तो बात अलग है। खेती के साथ आपने डेयरी और अँचार बनाने का काम शुरू किया है, यह अच्छी पहल है। इससे लोगों की आमदनी बढ़ेगी। पर अनाज उगाना भी ज़रूरी है। सरकार को इसे प्रोत्साहित करने के लिए कुछ नए उपाय खोजने होंगे। भाई रामदयाल जी ने अनाज के भाव और उससे बने उत्पाद के भाव के अन्तर की ओर इशारा किया है। यह एक वाजिब सवाल है। कच्चामाल और उत्पाद के भावों में क्या अनुपात हो, यह एक मौलिक और बड़ा सवाल है। हमें लगता है कि गाँव के लोग काफी जागरूक हैं। हमें बताया गया है कि माँ अंजलीधर ने जिन्हें गाँव के लोग 'माँ जी' के नाम से संबोधित करते हैं, गाँव की दिशा ही बदल दी है। एक व्यक्ति की दृष्टि, कर्मठता और विवेक से भी गाँव बदल सकता है। माँ जी ने इसे करके दिखाया है। मैं उन्हें नमन करता हूँ।' इतनी बात कहकर डा. त्रिवेणीशंकर ने अपना आसन ग्रहण किया। अब जिलाधिकारी महोदय की बारी थी। जैसे ही तन्नी ने उनका नाम लिया, वे खड़े हो गए। उन्होंने कहा, 'मैंने सोचा था कि गोष्ठी का उद्घाटन कर मैं आधे घण्टे में लौट आऊँगा। पर यहाँ आकर मैंने ग्रामवासियों की पहल से बहुत कुछ सीखा। फिर आधे घण्टे में जाने का प्रश्न ही नहीं था। मैं विपिन, तन्नी और करीम को धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने मुझे आमंत्रित कर कुछ सीखने का अवसर दिया। माँ अंजलीधार जैसे लोग विरल हैं पर ऐसे लोगों से ही समाज में कोई बदलाव हो सकता है। यहाँ के लोगों ने उसे कर दिखाया है। सभी सरकारी योजनाओं का लाभ इस ग्राम पंचायत को मिले, यह सुनिश्चित किया जाएगा। यहाँ के कार्यकर्त्ता पारदर्शी काम करेंगे। इससे पूरी पंचायत का भला होगा। विकास सही दिशा में हो, इसके लिए हम सभी को जागरूक होना होगा। इस पंचायत की जागरूकता देखकर मैं स्वयं चकित हूँ। मैं आश्वस्त करता हूँ कि इस ग्राम पंचायत के विकास में प्रशासन पूरा सहयोग करेगा। यदि किसी भी योजना में कोई रिश्वत की माँग करता है तो फोन से मुझे सूचित कीजिए।' ग्रामवासियों ने तालियों की गड़गड़ाहट से जिलाधिकारी महोदय के आशीर्वचनों का स्वागत किया। उपस्थित लोग गद्गद् ।
भुल्लुर चुन्नू की दूकान पर बैठे गुनगुना रहे थे। दूकान पर चुन्नू और भुल्लुर दो ही लोग थे। भुल्लुर गुनगुनाते हुए आँखें बन्द किए संत रैदास का यह पद गा उठे-
प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अँग अँग बास समानी। प्रभु जी तुम धन वन हम मोरा। जैसे चितवत चन्द चकोरा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा। प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती । जाकी ज्योति बरै दिनराती । प्रभु जी तुम मोती हम धागा।
'ऐसी भक्ति करै रैदासा' वे देर तक दुहराते रहे। रामदीन ने आकर उन्हें झकझोरा 'लागत है रैदास जी के चेला होइ गयो ।'
'चेला तो हम कोहिक नहीं बनेन भुला रैदास जी बात तो सांचु कह रहे हैं।'
'सांचु बातन से पेट भरी कि कुछ करहू का परी।' रामदीन ने जेब से दस का सिक्का चुन्नू की ओर फेंकते हुए कहा-दो कप। चुन्नू ने दो कप चाय बनाई। सामने हाजिर किया। भुल्लुर और रामदीन चुस्कियाँ लेते हुए अपने अपने तर्क देते रहे। फिर बोल पड़े, 'भाई भुल्लुर हम तो गोष्ठी मा आय नहीं पाएन। वही दिन रिश्तेदारी मा तेरही रही जाब जरूरी रहा। मुला हुआ क्या?' 'गोष्ठी मा बहुत सही बातें हुईं। डी. एम. साहब भी बहुत खुश रहे। कहि गए हैं कि यहि ग्राम पंचायत के कौनो काम रुकै न पाईं।'
'ई तो अच्छी बात हुई। मुला सुना है पुराने प्रथान जी और चौधरी प्रसाद शामिल नहीं हुए।' 'कुछ दिन तक ई खींचतान तौ चलबै करी।'
'मुला इससे कौनो फायदा न होई।'
'लोग आपन-आपन नफा-नुक्सान देखत हैं। सबके भला तो केऊ-केऊ चाहत है।'
'ई तन्नी की परधानी में का सबकै भला होई?'
'उम्मीद तो यही है। उम्मीद पर दुनिया कायम है।' भुल्लुर आकाश की ओर ताकते हुए बोलते रहे। चाय ठंडी हो गई थी। बची हुई चाय वे एक ही घूँट में पी गए।
'सही काम भी सबको अच्छा नहीं लगता। गाँव में राजनीति घुस गई है। जौन काम हमरे हाथे होय वहै ठीक। वहै काम दोसरे हाथे होय तो नहीं ठीक।' भुल्लुर हाथ नचाकर बताते रहे।
'यही तो हो ही रहा है गाँव जँवार से संसद तक। हमरे हाथे पुण्य उनके हाथे पाप । यहै हमें सबका लै बीती।' रामदीन का दिमाग भी दौड़ लगाता रहा।
'विपिन, तन्नी करीम बराबर दौड़ लगाते रहे। जिलाधिकारी को भी अपने वचन याद थे। किसी भी योजना में कोई अड़चन नहीं पड़ी। हर योजना का लाभ लेने के लिए हठीपुरवा हाज़िर। तन्नी और करीम को दम मारने की भी फुर्सत नहीं। प्रधानमंत्री आवास, मजरों के लिए बिजली, पात्र वृद्धों के लिए पेंशन, पुरवों को जोड़ने वाली सड़कों की मंजूरी के लिए तीनों आकाश-पाताल एक किए रहे। माँ अंजलीधर भी रोज हाल-चाल लेतीं। क्या करना चाहिए इस पर अपनी राय देतीं। अधिकारी कर्मचारी अंगद के पाँव बन कभी कभी बिना रिश्वत के पाँव उठाने से इन्कार कर देते तब जिलाधिकारी का दिया फोन नम्बर ही ब्रह्मास्त्र बन काम आता। अधिकारी झक मार कर काम करने के लिए मजबूर होते। विपिन की पत्रकारिता भी कम प्रभावी न थी।
करीम जल्दी से जल्दी कुछ काम शुरू कराने के लिए व्यग्र रहते। तन्नी और वे घर से रुखा-सूखा खाकर सुबह ही निकलते, शाम को घर लौटते। पंचायत सचिव भी कभी-कभी कन्नी काट जाते। उनकी आमदनी पर अंकुश लग गया था। उनकी पत्नी पूछती भी-'इस समय तुम्हारी जेब खाली क्यों रहती है?' वे कहते, 'आपत्ति काल है।' जब सचिव धुआँधार पैसा वसूलते थे तब पत्नी उनकी जेब से सौ पचास निकाल कर अपने गुल्लक में डाल लिया करती थीं। इधर जेब खाली जा रही थी। इससे वे भी चिन्तित हो उठी थीं। बच्चों के लिए टाफियाँ भी कम हो गई थीं। उन्हें भी घर की रोटी पर गुज़ारा करना पड़ रहा था। 'इतना सूखा तो कभी नहीं था।' सचिव की पत्नी बार-बार ताकीद करतीं। सचिव कुनमुनाते, झुंझलाते पर काम तो करना ही पड़ता। काम सभी डिजिटल होने से भी हाथ बंध गए थे।
अंजलीधर मड़ई में बैठी अखबार देख रही थीं। वंचितों, किसानों की समस्याओं पर कुछ भी लिखा मिलता तो वे उसे ग़ौर से पढ़ती और स्वयं भी मंथन करतीं। किसान कैसे आगे बढ़ेंगे? उनके बच्चे कैसे अच्छी तालीम प्राप्त कर सकेंगे? बिना अच्छी तालीम के अपनी उपार्जन क्षमता भी कैसे बढ़ा पाएँगे? इन्हीं प्रश्नों पर वे विचार कर रही थीं कि पाँच लोग जिसमें दो महिलाएँ थीं आते दिखे। आते ही सभी ने माँ जी को प्रणाम किया। अंजलीधर ने सभी को पास के तख्ते पर बैठने का संकेत किया। तीन पुरुष तख्ते पर बैठ गए। दो महिलाओं को माँ जी ने अपने तख्ते पर बिठा लिया।
'कहो कैसे आना हुआ?' माँ जी ने मुस्कराते हुए पूछा।
'हम लोग बगल की ग्राम पंचायत से आए हैं। हम भी कुछ करना चाहते हैं। आपका आशीर्वाद चाहिए।'
'क्या करना चाहते हो?'
'यही तो समझ में नहीं आ रहा है।'
'पर सबसे पहले यही तो समझना होगा कि हमारा रास्ता किधर जाता है?'
'आप का कहना सही है। इसीलिए, हम लोग आपके पास आए हैं।'
'क्या आप चाहते हैं कि सभी की आमदनी बढ़े? सभी लोग मज़े में रह सकें?
सभी के बच्चे पढ़-लिख सकें।'
'हाँ, चाहते तो हम लोग भी यही हैं।'
' सब लोग मिलकर कोई काम करना चाहते हो या अलग अलग अपने लिए कुछ करना चाहते हो?'
'आप जैसा सुझाव दें।'
'देखो भाई, सबका भला चाहते हो न?'
'हाँ चाहते तो हैं।'
'तो बहुत सा काम-खेती-पाती अलग अलग करते ही हो। कुछ ऐसा भी काम सोचो जिसमें सभी लोग काम करके कुछ कमा सकें। खेत तो सभी के पास कम ही है।'
'हाँ खेत तो बँटते-बँटते कम ही हो रहा है।'
'कुछ न कुछ और तो करना ही पड़ेगा जिससे आमदनी हो सके।'
'बात तो सोलह आना सही है माँ जी। बिना कुछ और कमाए खर्च कैसे पूरा होई ?'
'पर सब लोग मिलकर कुछ करना चाहते हो तो ईमानदारी से काम करना होगा।'
'मुला लोग कहते हैं कि ईमानदारी करबौ तो कमाई न होई।'
'कुछ लोग तो कहेंगे ही। तुम्हें ही यह सोचना होगा कि ईमानदारी की रोटी खाना चाहते हो या बेईमानी की।'
'सवाल मुश्किल है माँ जी।'
'मुश्किल काहे है? कहो न कि ईमानदारी कै कमाई खावा जाई।' एक महिला टप से बोल पड़ी। 'बेईमानी कितने दिन चली?'
माँ जी हँस पड़ीं। महिला को आगे आते देख उन्हें अच्छा लगा।
'सब लोग मिलकर कोई काम करना चाहते हो तो बेईमानी कैसे चल पाई? ईमानदारी और विश्वास पर ही मिल जुल कर कोई काम किया जा सकता है।' माँ जी ने समझाते हुए जैसे कहा, महिला बोल पड़ी, 'बिलकुल ठीक।'
इसी बीच करीम भी आ गए। तख्ते पर वे भी एक किनारे बैठ गए।
'सभी लोग गाँव में एक बैठक करो। हम भी आएँगे, करीम भाई भी चलेंगे। सब के साथ बैठकर विचार किया जाय। आपसी बातचीत से रास्ता सूझेगा। पर काम ईमानदारी से ही करना होगा। नए बच्चों को भी बैठक में बुलाओ।' कह कर माँ जी आश्वस्त हुई। करीम ने भी सिर हिलाया।
'तो हम लोग आपस में बात करके फिर आप से मिलेंगे।' कहकर जैसे ही लोग उठे, दोनों महिलाएँ आँचल के खूट हाथ में लेकर माँ जी का चरण स्पर्श करने को उठीं पर माँ जी ने उन्हें गले लगा लिया। दोनों गद्गद्। माँ जी में उन्होंने कुछ विशेष देखा। माँ जी की साफगोई से भी महिलाएँ प्रभावित हुई। करीम अभी तक चुप थे पर वे दल को भेजने पुरवे के किनारे तक गए। दुआ-सलाम कर लौटे।
माँ जी कुछ सोच रही थीं। करीम के आते ही उन्होंने कहा, 'करीम भाई, मैं सोचती हूँ... ।' 'क्या माँ जी?' करीम उत्सुक हो पूछ बैठे।
'सोचती हूँ इस पुरवे के लोग अब स्वयं हर काम सँभालने में समर्थ हो गए हैं। यह कारवाँ बढ़ता जायगा। मुझे कुछ दूसरे पुरवों में अपना अड्डा बनाना चाहिए। शायद मैं कुछ और पुरवों के भी काम आ पाऊँ। महात्मा बुद्ध भी एक जगह कई दिन नहीं रुकते थे। केवल बरसात में ही एक जगह पर विश्राम करते। अन्य महीनों में चलते रहते। कहा भी गया है चरैवेति... चरैवेति। दो टिक्कर कहीं भी बन जायगा। रहने के लिए कोई मड़ई भी मिल ही जायगी।'
'पर यह पुरवा आप को छोड़ नहीं पाएगा माँ जी। हम लोग आपके बिना अनाथ हो जाएँगे।' करीम कुछ दुखी हो गए। 'ऐसा क्यों सोचते हो करीम ? मैं कब तक बैठी रहूँगी? पर्वाना तो कभी भी आ सकता है।'
'ऐसा न सोचें माँ जी।'
'करीम भाई..... एक करीम ही काफी है गाँव को दिशा देने के लिए।' माँ जी कह कर मुस्करा उठीं। 'ये लोग भी कुछ करना चाहते हों तो हम लोग प्रोत्साहित तो करें। बिना करीम के मेरा भी काम कैसे चलेगा? तुम्हें भी उस गाँव में दूसरे करीम पैदा करने होंगे। और फिर गाड़ी चल निकलेगी। किस लिए आए थे ? यह तो बताया ही नहीं।'
'माँ जी, मैं यह बताने आया था कि गाँव के सभी पात्र वृद्धों के लिए पेंशन स्वीकृत हो गई है। आवास में भी गाँव को वरीयता मिल रही है। प्रधान बिटिया ने कहा कि माँ जी को इसकी सूचना आप ही दें। वह आज वत्सला बिटिया के यहाँ रुक गई हैं।' 'कहा न, तुम लोगों द्वारा गाँव का भला ही होगा। नीयत साफ हो और कर्म करने की क्षमता हो तो सभी का सहयोग मिलता है।'
'पर माँ जी, कुछ अधिकारी-कर्मचारी ऐसे भी मिलते हैं जो रिश्वत न पाने पर मुँह ऐंठे रहते हैं।'
'यह तो होगा ही करीम। हर जगह फूलों की सेज नहीं मिलती। काँटे भी मिलते हैं। तुम लोगों का साहस कठिनाइयों से पार पा लेगा ही, इतना मैं जानती हूँ।'
'लेकिन माँ जी आप दूसरी ग्राम पंचायतों को मदद करें, उन्हें आगे बढ़ाएँ, पर इस पुरवे को छोड़ें नहीं। आपका होना ही हम लोगों में साहस भरता है।' कहते कहते करीम कुछ दुखी हो गए।
'भाई करीम, यह दुखी होने का समय नहीं है। सबके भले में अपना भला, यह भाव तो विकसित करना होगा। जब तक यह मन और शरीर कुछ कर पाए, दूसरों के ही काम आता रहे।'
'आप ठीक कहती हैं माँ जी, पर हम लोगों का मन नहीं मानता।'
'करीम भाई, बिना तुम्हारी राय के क्या कोई काम कर पाऊँगी? अभी चिन्तित होने की ज़रूरत नहीं है। दूसरे गाँवों में कुछ किया जाएगा तो भी तुम्हें ही आगे आना होगा।' करीम कुछ संतुष्ट से हुए। माँ जी को प्रणाम कर घर की ओर चल पड़े सोचते हुए-
'या खुदा लाज बचाना। कहीं दाग न लगे।'
माँ जी भी वत्सला के पिता पार्श्वधर को स्मरण कर रोमांचित हो उठीं। 'तुमने जो सिखाया उसी पर आगे बढ़ रही हूँ।' वे बुद्बुदा उठीं। 'जब तक प्राण हैं.....।' वे पार्श्वधर की स्मृतियों में खो गईं।
वंशीधर अब भी अस्पताल में ही बैठे-लेटे जाल बुन रहे हैं। वे जबतक चाहेंगे अस्पताल में बने रहेंगे। वे वंशीधर हैं। उनका दिमाग़ दौड़ता रहता। मानवाधिकार आयोग, कचहरी, हठीपुरवा जेल सभी के दृश्य आपस में धक्का-मुक्की करते हुए। पर उनकी परेशानी कम न होती। निरंजन प्रसाद ने भी वकील कर रखा है। पैरवी भी कर रहे हैं पर जानते हैं सी.ओ. छूटेगा तो हम भी....। इसी से निश्चिन्त से। आखिर कमाया ज्यादा उन्होंने ही। तो खर्च और दौड़ धूप भी उन्हीं के जिम्में।
वंशीघर सोचते रहे। अचानक नागेश लाल का चित्र कौंधा। उन्होंने फोन मिला दिया। 'प्रणाम हुजूर' सुनते ही वंशीधर रोब में आ गए। 'तुम्हारे ही मामले में मैं जेल की हवा खा रहा हूँ और तुम ....।' वे गरज उठे। 'हुजूर..... हुजूर' कहते नागेश लाल सकपका गए। बात नहीं निकली। 'यह सारा खर्चा कौन देगा? तुम्हारा बाप ?.... बोलता क्यों नहीं....? सोच लो वंशीधर जेल में भी सी.ओ. ही रहेगा....।' नागेश एक चुप हज़ार चुप। 'बोलते क्यों नहीं मियाँ? काम पड़ा तो घिघियाते रहे। काम बन गया तो किनारा कर लिया। मुकदमें का खर्च कौन देगा..... नागेशलाल देगा...... नागेश लाल. ...ना..गे...श.... ला....ल पेशगी जमा करो.....
नागेश लाल पेशगी जमा करो। फोन कट गया था पर वंशीधर का बड़बड़ाना जारी रहा। तब तक एक बच्चा चाय ले आया। चाय हाथ में लेते हुए भी वे सहज नहीं हो पा रहे थे। संवेगों के उभार में पूरा शरीर एक यंत्र बन जाता है। ऐसे में स्वाभाविक सहज क्रियाएँ कहाँ हो पाती हैं?
यह नागेश लाल तो मिलने भी नहीं आया। उसे पता जरूर चला होगा कि सी.ओ. साहब.. ...। पर झाँकने भी नहीं आया.... किस किस को रोब में लोगे वंशीधर ?... कभी सामान्य जन की तरह भी जियोगे? यही तो नहीं सीखा है वंशीधर ने।. ....अब क्या सीखेगा ? मरते दम तक सी.ओ. ही रहेगा।