Kaarva - 4 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कारवाॅं - 4

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    अनुच्छेद चारग्राम पंचायत गुलरिहा के बारह पुरवों में हठीपुरवा...

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कारवाॅं - 4

अनुच्छेद चार

ग्राम पंचायत गुलरिहा के बारह पुरवों में हठीपुरवा ही नहीं गुलरिहा भी एक पुरवा है। प्रधान जी गुलरिहा में ही रहते हैं। गनपति प्रधान जी के यहाँ शाम को पहुँचे। प्रधान जी अपने वरामदे में चारपाई पर बैठे थे। 'जय शम्भो' कहते हुए गनपति सामने की बेंच पर बैठ गए।

'मिली बहुत परेशान न होव। गनपति आवें और महुआ के रस न पावें ई कैसे होई सकत है?' प्रधान जी बोल पड़े।

'आपै के किरपा से जीइत है मालिक। एक लड़िका है ऊ लुलिहाए रहत है। कहत है ई दारू छोड़ौ। अब आपै बतावा जाय मालिक, अतरे दिन से यहुका सेय लाएन अब कैसे फेंकि देई?'

'तोहार लड़िका नासमझ है। वह का ई पता नाहीं कि देवतउ सोमरस पियत रहे।' प्रधान जी ने मूँछ तिलोरते हुए कहा। 'हमार लड़िका हुसियारै होत ती हमें यहर-वहर ठोकर काहे खाइका परत?'

'देखौ गनपति, हमार घर तोहरै होय। हियाँ जब अड्बौ रोटी-पानी ज़रूर मिली। तोहार ललकवा बिना चलत नाहीं है तो वहो मिली। हमरे घर का अपने घर समझौ

'अपने समझि के तौ आइत है मालिक। सालभर से ललकवा कै जुगाड़ आपै करत हौ। सोचित है कैसे उरिन होब?'

'देखौ गनपति तोहरे नामे चारि बिगहा खेत है जब चहबौ उरिन होय जाबो । और न उरिन होवा चहबौ तबौ कौनउ दिक्कत नाहीं है। हमरे पास जुटी तौ तुहैं पियाइब ।'

'परधानी रही तौ रुपैवा रहबै करी मालिक।' 'परधानिउ बदला करत है गनपति ।'

'जौ बदलउ करी मालिक तबौ तोहरै आदमी कोई परधान होई। ऊ तुहसे बहिरे कैसे जाइ?'

 'ठीकै कहत हौ गनपति हमरे जीते जी परधानी दोसरे के हाथे मा तौ न जाइ पाई।'

'बिलकुल साँचुय कहत हौ मालिक। हम तौ यहइ चाहित है कि आपै हमेशा परधान रहउ।'

'तोहरे अकेलै चाहे तौ परधानी न मिली गनपति। देखतय हौ, नये-नये लोग सिर उठावत हैं।'

'उठावय देउ मालिक। सिर उठाए कोई परधान बनि जात है। परधान आपै रहबौ। हमतौ जहाँ-जहाँ जाइत है, आपै कै गुन गाइत है। जय शम्भो ।'

'ठीक कहत हो। तोहरेन अस आदमी होई जायँ तब तो कामै बनिजाय।'

'बनी मालिक... बनी। आपका सोच-विचार करै का जरूरत नाहीं है। जहाँ आपके पसीना गिरी, हुआँ गनपति खून देय का तैयार रहि हैं। जय शम्भो।'

'वाह भाई गनपति, तुमरी बातन से तो रोआँ-रोआँ प्रफुल्लित होइगा।'

अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती? प्रधान जी गनपति की बातों से प्रफुल्लित हो उठे और वरामदे की कोठरी से एक बोतल ठर्रा निकाल लाए। वर्षों से उनकी नज़र गनपति और उनके खेत पर है। वे उनके लिए ठर्रा और नमकीन का इन्तज़ाम रखते हैं। आज नमकीन नहीं था। उन्होंने पाँच रुपये का एक सिक्का जेब से निकाला। गनपति के हाथ में देकर कहा, 'झींगुर की दूकान से नमकीन ले लेना।'

गनपति बोतल और सिक्का पाकर बहुत खुश हुए। उनके मुख से निकला, 'जय शम्भो ।' बोतल अँगोछे में छिपाए हुए वे झींगुर की दूकान पर पहुँच गए। पाँच रुपये का नमकीन लिया और अँधेरे में गायब हो गए।

प्रधान जी भी पीते हैं पर वे देशी ठर्रा नहीं, अँग्रेजी पीते हैं। उनके भंडार में दोनों रहता है। कोई पीने वाला अधिकारी या सम्भ्रान्त उनके घर आता है तो उसे अँग्रेजी ही पिलाते हैं, ठर्रा नहीं। ठर्रा तो गनपति जैसे लोगों के लिए उनको रखना पड़ता है। वोट के दिन भी ठर्रा उनकी मदद करता है। ठर्रा के लिए उन्हें कुछ देना नहीं पड़ता। कुछ पुरवों में लोग महुआ से ठर्रा बनाते हैं। प्रधान जी उन्हें संरक्षण ही नहीं देते बल्कि ठर्रा सहित कुछ माहवारी भी लेते हैं।

प्रधान जी गनपति के बारे में ही कुछ सोच रहे थे कि प्रमुख जी अपने साथियों के साथ दो लक्ज़री गाड़ियों में आ गए। पुराने प्रमुख जी इस बार चुनाव में खड़े नहीं हो सकते थे, इसलिए उन्होंने एक डमी को खड़ा करके जिता लिया। डमी भी हमेशा साथ रहता है पर सारा लेन देन पुराने प्रमुख ही करते हैं। उन्हें ही लोग प्रमुख कहते भी हैं। पैसे के लेन-देन से उन्हें कोई परहेज़ नहीं हैं। वे पैसा दोनों हाथों से बटोरते हैं और चुनाव में अन्धाधुंध खर्च करके जीत दर्ज कराते हैं। दिन-रात यही सोचते रहते हैं कि कैसे पैसा आए। आज भी वे इसी अभियान में निकले हैं। जल्दी में हैं। 'चाय-पानी का इन्तज़ाम करने की ज़रूरत नहीं है। आज जल्दी है फिर कभी आऊँगा तो चाय-पानी पियूँगा। आपसे एक ज़रूरी बात करनी है। आपस में गोष्ठी कर लिया जाय', कहते हुए प्रमुख जी प्रधान जी को एकान्त में ले गए। उनसे कहा, 'ज़रूरी काम है। आपके यहाँ से मनरेगा में इस साल हमें कुछ मिला नहीं है।' 'कोशिश कर रहा हूँ।' प्रधान जी कुछ प्रबन्ध करने की सोच रहे थे।

'देखो प्रधान जी। मनरेगा के पन्द्रह मजदूरों का पूरा पैसा हमें चाहिए।'

'प्रमुख जी, हमारी ग्राम पंचायत छोटी है।'

'तभी तो पन्द्रह का लक्ष्य दे रहा हूँ। बड़ी होती तो तीस का लक्ष्य देता।' प्रमुख जी समझाते रहे। 'पच्चीस तीस जाब कार्ड ऐसे बनवाओ जिनको न काम करना है, न तुम्हें काम लेना है। जब उनके काम को प्रमाणित कर पैसा उनके खाते में डलवा दोगे तो किसकी हिम्मत है जो तुम्हारी बात को काट सके।'

'पर पैसा तो उनके खाते में ही जायगा।'

'हाँ जायगा। पर उन्होंने काम नहीं किया है इसलिए पैसे पर उनका हक नहीं बनता।

ज्यादा से ज्यादा कुछ पान-फूल वे भी ले लें। इससे ज्यादा कुछ नहीं। प्रमाणित हमने किया है, पैसा हमारा है। अगर कोई आनाकानी करता है तो एक बार पैसा ले जाए उसके बाद तो नहीं पाएगा। देखो प्रधान जी, प्रमुखी जीतने में भी पैसा खर्च करना पड़ता है। पिछली बार हमने सदस्यों को पचास हजार से एक लाख तक दिया था तब जीत पाए। इस बार हमने दूसरा दाँव खेला। अरे भाई सभी प्रत्याशी जान लेते हैं कि कितने बोट उनके पक्ष में जाएँगे। अपनी स्थिति ले दे कर पक्की कर लो फिर मुख्य विपक्षी को ही अच्छी रकम देकर पटा लो तो सभी सदस्यों को भारी रकम नहीं देनी पड़ेगी। क्या समझे ?' प्रमुख जी प्रधान जी का कन्था ठोंकते हुए कहते रहे। 'और हाँ देखो। मनरेगा से सवा करोड़ लेने का लक्ष्य रखा है। पौने दो करोड़ अन्य योजनाओं से निकालना है। तीन करोड़ सालाना भी न निकले तो प्रमुखी किस काम की? सुना है इस साल चार पहिया की गाड़ी भी तीन करोड़ की आ गई है। जानते हो यहाँ लोगों के खाते में दो-दो सौ करोड़ कमीशन का चला जाता है और किसी को पता नहीं चलता। 
लोग मस्त घूमते हैं। हम तो भैया चौबीस घण्टे के सेवक हैं। सेवा करेंगे तो दाम भी

वसूलेंगे। मुँह-पेट बाँधकर सेवा कैसे करेंगे?'

'बात तो चालीस सेर कै कहत हौ प्रमुख जी मुला....।'

'देखो-मुला, अगर, मगर, किन्तु, परन्तु कुछ नहीं। प्रधानी आगे भी चाहते हौ न, तो कुछ जुगाड़ तो करही का परी। पन्द्रह जाब कार्ड कै पूरी आमदनी समझत हौ? पूरे एक लाख सतासी हजार पाँच सौ हुए। कुछ तैयार हो तो गाड़ी में रखवा दो।' 'आज तो तैयार नाहीं है।'

'देखो प्रधान जी। हमारे हाथ में बहुत कुछ अभी भी है। सरकारी धन आप लोगों के खाते में सीधे पहुँचने लगा, इससे यह न समझो कि हम लोगों का हाथ बिलकुल कट गया।' 'प्रमुख जी, आप प्रमुख रह्यो, प्रमुख रहबौ ।'

'लेकिन जेब में भी कुछ आना चाहिए।'

'आई-आई। ब्लाक के मालिक हो तो कुछ न कुछ तो अइबै करी।'

'कुछ से काम न चली। जेब भरने की ज़रूरत है। अच्छा आज चल रहा हूँ। जब जुगाड़ हो जाय तो फोन से बता देना। यह मोबाइल भी क्या लाजवाब चीज़ है? जहाँ चाहो मिला

दो, पूरी खबर ले लो।'

'आप ठीक कहेउ। हमार लड़िका गुड़गाँव मा है। रोज बात हुइ जात है।'

प्रमुख जी चट से गाड़ी में बैठे। गाड़ी चल पड़ी। डमी भी गाड़ी में। गनपति ठर्रे-का आनन्द लेते हुए सड़क पर चल रहे थे। दोनों गाड़ियों से बचते हुए चहक कर गा उठे -

सैयां के बँगला मुरैला नाचै मनवा नाचै मोर।

'मनवा' नाचने के साथ ही उनका तन भी नाचने लगा। नाचते नाचते थक गए तो सड़क के किनारे ही मेढ़ पर लुढ़क गए।

सबेरे प्रधान जी उठे तो देखा कि गनपति खरहरा लिए दुआर बहार रहे हैं। अभी दिन नहीं निकला था। कोयल कूक रही थी। गनपति भी कोयल की 'कू' का जवाब देते हुए मगन थे। पुरवा हवा मन को स्पन्दित कर रही थी। 'काँव-काँव' करते हुए कौवे इधर-उधर आ जा रहे थे। बुलबुल का एक जोड़ा गुड़हल की डाल पर बैठा चहचहा रहा था। प्रधान जी सुरती मलते हुए गनपति तक गए, एक बेरा उन्हें पकड़ाया, शेष अपने मुँह में डालते हुए बोले-

'कहाँ रहे रात में?'

'मालिक, दुनिया बहुत बड़ी है।'

'इधर-उधर घूमते रहते हो। हमारी मड़ई खाली रहती है उसी में पड़ रहो। रात में घर की रखवाली भी हो जायगी। दो रोटी भी मिल जायगी।'

'ई तौ जानित है मालिक। दुआरे रहब तौ रोटी-पानी मिलबै करी। परधानी खवाए-पियाए से ही मिलत है।'

'बहुत लोग खा लेते हैं और वोट भी नहीं देते।' प्रधान जी की कसक बाहर आ गई।

'दोगले हैं ऐसे लोग-मालिक... दोगले ।

उनसे कोई काम नाहीं बनत। जय शम्भो ।'

तब तक एक लड़की एक लोटा पानी तख्ते पर रख गई। प्रधान जी ने लोटा हाथ में लिया और गन्ने के खेतों की ओर बढ़ गए। प्रधान जी ने सरकारी सहायता से दो शौचालय बनवाया है। एक का उपयोग घर की महिलाएँ करती हैं। दूसरा प्रायः बन्द ही रहता है। प्रधान जी शौच के लिए खेतों में ही जाना पसन्द करते हैं।

वे जाते हुए सोच रहे हैं। अच्छा हुआ कि पैसा हम लोगों के खातों में सीधे पहुँचने लगा। हम लोगों की इज्ज़त बढ़ी है।

विपिन के साथ कुमार और आशुतोष अँगनू से मिलने जेल पहुँचे। अँगनू इन दोनों को देखकर खिलखिला उठे। 'मालिक लोगन का राम राम। आखिर आप आइन गयो।'

'हाँ अँगनू, हम लोग तुम्हें छुड़ाना चाहते हैं।' विपिन बोल पड़े।

'बतावा न भैया, ई जेल हमार ससुरारि आइ। हियाँ खुशी-खुशी आइत है।'

'जानता हूँ अँगनू। पर जेल के बाहर की हवा में भी साँस लेनी चाहिए।' आशुतोष बोल पड़े।

'कौनो ज़रूरत नाहीं है मालिक। हियों के हवा ठीकै है। आपन कमवा बताओ मालिक । हमसे होइ सकी तो आपकै मदद करब।'

'यह बताओ अँगनू तुम माओवादी कब बने?'

अँगनू चौंके, फिर सँभल गए। इधर-उधर देखकर कहा, 'पहले अपना परिचय दीजिए।' वे अवधी से खड़ी बोली में आ गए थे। कुमार मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उन्होंने अपना लाल कार्ड दिखाया। अँगनू ने कार्ड लेकर जाँचा-परखा फिर कुमार को लौटा दिया।

'आप लोगों ने मेरे बारे में फाइलों से जानकारी इकट्ठी की है। अधिकांश जानकारियाँ सही ही होंगी। मैं स्नातक हूँ यह बात कहीं फाइलों में दर्ज नहीं है। फाइलों में मेरे अनेक नाम जैसे भुल्लर, जावेद आदि भी दर्ज होंगे। यहाँ में अँगनू के नाम से जेल काट रहा हूँ। जो आदमी किसी उद्देश्य के लिए काम करता है उसे जेल जाना खलता नहीं। वह तो अपना प्राण भी देने के लिए तत्पर रहता है। खैर, ये सब बातें छोड़ो।

जिस काम से आए हो, वह बताओ।'

'हम लोग तो आपको जेल से छुड़ाना चाहते हैं।' कुमार बोल पड़े।

'देखो भाई, कहा न, यह कोई मुद्दा नहीं है। अपना काम बताओ जिसके लिए आए हो।'

'आपके साथ ही तीन निर्दोष बच्चों को भी छुड़ाना चाहता हूँ।' आशुतोष ने बात रखी। 'वकील साहब, बात मेरी समझ में आई नहीं। तीन निर्दोष बच्चों का क्या मतलब?' 'तीन निर्दोष बच्चों पर माओवादी विध्वंशक होने का आरोप है। रिपोर्ट में आप के ही बयान से इन बच्चों को माओवादियों का साथ देने वाला विध्वंशक, अशान्ति फैलाने वाला बताया गया है।' वकील साहब ने समझाया

'ओ, समझ गया। पुलिस किसी को भी फँसाने के लिए माओवादी या उसका समर्थक बता देती है। हो सकता है पुलिस ने मेरे बयान में यह बात जोड़ दी हो। इन बच्चों को हत्या, डकैती जैसे अपराधों में फँसा सकती है।'

'यदि माओवादी होने का सबूत नहीं मिलता तो बाकी धाराओं से हम आसानी से निपट लेंगे।' वकील आशुतोष ने समझाने की कोशिश की।

'मुझे क्या करना होगा?'

'आपको यही कहना होगा कि इन तीन बच्चों नन्दू, हरवंश, तन्नी से हमारा कभी कोई सम्पर्क नहीं रहा। इनको कभी हमने किसी माओवादी दल के कार्यक्रम से सम्बद्ध होते नहीं देखा।'

'ऐसा कोई बयान मैंने कभी नहीं दिया जिसमें इन बच्चों को माओवादी बताया गया हो। इसलिए आपके कथनानुसार बयान देने में कोई हर्ज नहीं दिखता।'

'पर आप पर पुलिस का दबाव होगा।'

'पुलिस हुश.... पुलिस के दबाव को कोई माओवादी कब मानता है वकील साहब ?'

'इसीलिए आपके पास आया हूँ। आपके मुकदमे की भी पैरवी करना चाहता हूँ।'

'इसकी बात न करो वकील साहब। पहले इन बच्चों को छुड़ाइए।' मुलाकात का समय ख़त्म हो रहा था। तीनों ने अँगनू से हाथ जोड़ लिया। उन्होंने भी हाथ जोड़कर ही उत्तर दिया।

ग्राम पंचायत गुलरिहा के नौ पुरवों के लोग विकल्प डेयरी से जुड़ चुके हैं। प्रधान के दबाव से गुलरिहा, चंडाल पुरवा और सोतिया के लोग ही अभी विकल्प डेयरी से नहीं जुड़ पाए यद्यपि बीच बीच में आपस में इसी विषय पर चर्चा होती रहती। इन्हीं तीन पुरवों को छोड़कर सभी नौ पुरवों में महिला मंडल भी गठित हो गया है। महिलाएँ पढ़ने लगी हैं। वे अँचार बनाने में भी सक्रिय होना चाहती हैं। माँ अंजलीधर और तन्नी सभी महिला मंडलों को व्यवस्थित करतीं, उन्हें प्रेरित करतीं।

प्रधान जी विकल्प डेयरी के फैलाव से बहुत चिन्तित हो उठे। दुधहा परेशान थे ही। एक दिन सायंकाल दुधहा प्रथान जी के यहाँ इकट्ठा हुए। अमरेश और चौधरी प्रसाद भी थे।

'आपने कोई तरकीब सोची?' प्रधान जी के सामने अमरेश ने बात रखी।

'विकल्प डेयरी अपना पाँव पसार रही है और आप चुप हैं।' चौधरी प्रसाद भी बोल पड़े।

प्रधान जी की समझ में कुछ आ नहीं रहा था। वे चिन्तामग्न थे किन्तु बात का कोई उत्तर सूझ नहीं रहा था।
'जैसे विकल्प डेयरी का फैलाव हो रहा है उसी तरह आप लोग भी अपना फैलाव करो। आप लोग तो दूर दूर तक दूध दुहाते हैं। और पुरवों में सम्पर्क साधो।' प्रधान जी किसी तरह कह सके।

'यही तरकीब आपने सोची है प्रधान जी। यह तो हम लोग कर ही रहे थे। आपसे हम कुछ नए कदम की उम्मीद कर रहे थे।' अमरेश की आवाज़ कुछ तल्ख थी।

'देखो, किसी दबाव या मारपीट से विकल्प डेयरी का फैलाव नहीं रोका जा सकता। विकल्प डेयरी से जो लोग जुड़ रहे हैं वे एक नई जीवन दृष्टि के साथ जुड़ रहे हैं। विकल्प डेयरी को चलने दीजिए। आप लोग भी दूसरे पुरवों में अपना फैलाव करते चलें। जब तक विकल्प डेयरी के लोग गलती नहीं करते उन पर आक्रमण नहीं किया जा सकता।'

'पर वह महिला हठी पुरवा में कैसे रह रही है?'

चौधरी प्रसाद ने अपनी मुट्ठी तानते हुए कहा।

'क्या गुलरिहा ग्राम पंचायत कश्मीर है जहाँ दूसरे प्रदेश के लोग ज़मीन नहीं खरीद सकते? मैंने पता किया है अंजलीधर जिसे सब लोग माँ जी कहते हैं सामाजिक कार्यकर्त्ता पार्श्वधर की पत्नी है। अध्यापिका रही है। तन्नी के सम्पर्क से वह हठी पुरवा से जुड़ गई। वह पुरवे से ले कम, दे ज्यादा रही है। पहले मैं भी आप ही लोगों की तरह सोचता था लेकिन जानकारी करने तथा एक बार मिलने के बाद मेरी धारणा बदल गई। जो लोग सोचते हैं कि अंजलीधर को हटा देने से विकल्प डेयरी ख़त्म हो जायगी, उनकी सोच मुझे सही नहीं लगती। अंजलीधर ने ज़मीनी काम किया है। एक

अंजलीधर के हटने से सैकड़ों अंजलीधर खड़ी हो जाएँगी।' प्रधान जी समझाते रहे। 'आपको प्रधानी का चुनाव नहीं लड़ना है प्रधान जी?' एक दुधहा बोल पड़ा।

'लड़ना है। प्रधानी का चुनाव लडूंगा। पर धूल की बाथी बरते हुए चुनाव लड़ना अब संभव नहीं होगा। विपक्षी का विरोध मैं भी हर दशा में करता था। अब भी कर देता हूँ। पर मुझे लगता है कि सही काम को सही कहने की आदत भी डालनी चाहिए चाहे वह काम विपक्षी द्वारा ही किया जा रहा हो।'

प्रधान जी के इतना कहते ही, अमरेश बोल पड़े, 'महात्मा गाँधी की जय।'

'मैं गाँधी नहीं बन पाऊँगा। गाँधी बनना बहुत कठिन है। पर कुछ सही बातों पर 'हाँ'

करने को मन हो जाता है। आप लोग भी अपना फैलाव करो। दुनिया बहुत बड़ी है। विकल्प डेयरी को भी चलने दो।' प्रथान जी सिर खुजाते हुए कहते रहे।

'तो चला जाय। आप हमारी कोई मदद नहीं करेंगे।' चौधरी प्रसाद तड़क उठे।

'यह न कहिए। मदद करूँगा पर सही रास्ते पर।'

'सही रास्ते पर चलने में आपके मदद की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी प्रधान जी। आप कहाँ सोचते हैं? जब वोट माँगने आइएगा तब हम भी पूछेंगे।' एक नया दुधहा बोल पड़ा।

'वोट तो कहो आज ही माँग लूँ।' प्रथान जी मुस्कराए।

'जब हमारा काम नहीं करोगे, वोट किस मुँह से माँगोगे?' चौधरी प्रसाद से न रहा गया।

'लगता है अब विधायक और प्रमुख जी से काम लेना पड़ेगा।' अमरेश भी उत्तेजित हो उठे।

सभी दुधहा भरभरा कर उठे और राम राम कर चल पड़े। प्रधान जी थोड़ी दूर तक साथ-साथ गए। लौटते वक़्त सोचते रहे। क्या मैंने कोई गलती कर दी? मुझे उन्हीं से पूछना चाहिए था कि क्या किया जाए? ऐसा न करके मैंने स्वयं सुझाव दे डाला। वह भी ऐसा सुझाव जो उन लोगों को पसन्द नहीं आया। वोट से सत्ता प्राप्त करने के लिए क्या क्या करना पड़ेगा? लोगों के लिए गलत काम करना... क्या यही है वोट पाने का तरीका? वे सोच-विचार करते लौट रहे थे कि गनपति ने सलाम ठोंका,

'जय शम्भो ।'

'कहाँ रहेव गनपति? हम तुम्हें खोजते रहे।'

'तलब लाग है तौ भागि के आएन ।'

'ठीक है बैठो।' कहकर प्रधान जी अपनी कोठरी से एक पाउच और थोड़ी नमकीन निकाल कर लाए। गनपति को दिया।

'मड़ई में एक चौकी पड़ी है। खाना खाकर वहीं पड़ रहना। कहीं जाना नहीं।'

गनपति अपनी संजीवनी पाकर मड़ई में तख्ते पर जा बिराजे ।

धूप काफी तेज होने लगी थी। बैसाख के दिन। माँ अंजलीधर दोपहर में जौ-चने के सत्तू का सेवन करतीं। औरों को भी सत्तू सेवन के लिए प्रोत्साहित करतीं। इससे भोजन बनाने में थोड़ी राहत भी मिलती। सत्तू उपयोगी है। इसे गरीबी से मत जोड़िए। वे अक्सर लोगों से कहतीं ।

उत्तर भारत में साल में लगभग तीन सौ दिन धूप उपलब्ध रहती है। इसी का लाभ लेकर कम लागत में अँचार और सिरका बनाने की योजना पर काम शुरू हुआ। लहसुन और आम का अँचार ग्रामीण महिलाओं के लिए अनजाना नहीं था किन्तु उसे और उपयोगी, वैज्ञानिक एवं स्वास्थ्यप्रद बनाया गया। तन्नी और माँ जी महिला मंडलों को प्रोत्साहित करतीं। हर पुरवे में महिलाएँ इकट्ठी होतीं। अँचार बनाने की नई और स्वास्थ्य वर्द्धक तकनीकों पर विचार-विनिमय होता। व्यक्तिगत अहं विगलित होने लगा। चुगली-चाई के लिए अब किसी के पास समय नहीं। हँसी-ठिठोली भी होती पर सौहार्दपूर्ण। पुरवों का परिवेश बदलने लगा। एक आशा जगी। ग्राम पंचायत गुलरिहा में एक प्राथमिक विद्यालय था। कोई बच्चा स्कूल जाने से वंचित न रहे, इसका ध्यान रखा जाने लगा। महिला मंडल के सक्रिय हो जाने से विद्यालय के अध्यापक भी अधिक सचेत रहने लगे। पढ़ाई-लिखाई का परिवेश भी बनने लगा।

अँचार बेचने और उसकी आपूर्ति के लिए शहर में एक दूकान विपिन और कान्तिभाई के प्रयास से किराए पर ली गई। कक्षा सात तक पढ़ी महिला जगरानी को दूकान पर बिठाया गया। जगरानी काफी होशियार महिला थी। अवसर मिलने की बात थी। वह अपने घर का काम निपटा कर दस बजे दूकान पर बैठ जाती। अँचार दूकान में सजा दिए गए। अब तक तीन सौ परिवार विकल्प डेयरी से जुड़ चुके थे। सभी परिवारों की छोटी बचतों को पूँजी का रूप दिया गया। अँचार की खपत होटलों में अधिक होती। अतः होटलों में आपूर्ति का काम हरवंश देखने लगे। दूकान पर ही कुछ समय बाद कम्प्यूटर भी रखा गया। गाँव के लड़के वहीं सुबह शाम कम्प्यूटर पर थोड़ा समय देते। हरवंश ने कम्प्यूटर का प्रशिक्षण ले रखा था। अब उन्होंने अपना हाथ साफ किया, प्रशिक्षण का काम भी देखने लगे।

विभिन्न पुरवों के जिन बच्चों में निराशा के भाव पनप रहे थे, वही अब दौड़-दौड़ कर सब काम प्रसन्नतापूर्वक करते हुए भविष्य का सपना बुनते।

अंजलीधर, तन्नी, नन्दू, हरवंश, अंगद, करीम, मोलहू अपना काम निबटा कर एक बार सायंकाल अवश्य मिलते। विकल्प उत्पादों की समस्याओं पर चर्चा होती। अंजली का मार्ग दर्शन उनमें उत्साह का संचार करता। वे दुहरातीं सब को पढ़ाना है, संगठित करना है और उपार्जन हेतु तैयार करना है।

अन्य पुरवों की महिलाओं को सक्रिय होते देखकर गुलरिहा की सात महिलाएँ प्रधान जी के घर पहुँची। प्रधान की पत्नी से मिलीं। प्रधान की पत्नी दस्तखत भर कर लेती थीं। विकल्प डेयरी में महिलाओं के बचत खाते भी खुल गए थे। इससे महिलाएँ बहुत उत्साहित थीं। कुन्ती कक्षा पाँच तक पढ़ी थी। उसीने बात शुरू की

'हमहूँ सब विकल्प डेयरी से जुड़ा चाहित है परधानिन काकी।' 'तौ जुड़ौ। यहमा कौन दिक्कत है।' प्रधानिन काकी बोल पड़ीं।

काका रिसियाँय न?' कुन्ती ने प्रश्न किया। '

'काहे रिसियैहैं? दूध बेचब कोनौ गलत काम है?'

प्रधानिन काकी ने आश्वस्त किया।

'अब आप हुकुम दै दिही है तो हमार संकोच मिटिगा। मुला काका से बतियाय लिहौ।' 'बतियाय लेब। वै काहे रोकिहैं?'

सातों महिलाएँ उठीं। परधानिन काकी को प्रणाम किया और आपस में बात करती हुई चल पड़ीं।

'चार पैसा अगर हम लोग दूध बेचिकै बचइबै, तौ वहै वक़्त ज़रूरत पर काम देई।'
कुन्ती ने कहा।

'ठीक कहति हौ बहिनी। चार पैसा अपने पास रही तौ मन फनफन रही। दवा दर्मद मा काम आई।' एक महिला ने समर्थन करते हुए कहा।

सभी खुश थीं। आँखों में चमक थी। वे भी चार पैसा कमाने लगेंगी, यह भाव उनमें आत्मविश्वास भरने के लिए काफी था।

शाम को प्रधान जी घर लौटे। पत्नी ने महिलाओं से हुई बातों की चर्चा की। प्रधान जी ने खुद कहा 'धीरे-धीरे सभी पुरवों के लोग विकल्प डेयरी से जुड़ रहे हैं। हम गुलरिहा को ही कैसे बचा सकते हैं? अगर घरैतिनें विकल्प डेयरी से जुड़ना चाहती हैं तो जुड़ें। मैं खुद सोचता हूँ कि विकल्प डेयरी से जुड़ जाऊँ।'

'अपने घर से अभी दूध बेचा तो गा नाही।' प्रधान की पत्नी ने कहा।

'देखौ भई, हमें अपना वोट भी पक्का करना है। हम देख रहे हैं कि विकल्प वाले गाँव में पाँव पसार रहे हैं। अगर हम विकल्प से जुड़ जाएँगे तो उन लोगों का वोट हमें मिल सकता है। राजनीति में बहुत दूर तक सोचना पड़ता है।'

'अब हमै ई सब तौ आवत नाहीं। जउन तुहैं समझि परै करौ।'

'तुहूँ का ई सब समझै का परी। जौ कहूँ परधानी मेहरारून खातिर रिजर्व होइगै तौ तुहीं का लड़डू का परी।'

'का हमहू का तोहरे अस नाचि नाचि के हाथ जोरै का परी? ई तौ हमसे न सपरी ।' 'सपरी....खूब सपरी। दूनौ जने दौरि के वोट हथियाय लीन जाई। ई प्रजातंत्र मा बिना दउरे और हाथ जोरे गद्दी न मिली।'

विकल्प डेयरी की बैठक सायं पाँच बजे शुरू हुई। कान्ति भाई, विपिन, वत्सला भी आमंत्रित थे। अजंलीधर थी ही, विकल्प डेयरी के सदस्य भी उपस्थित थे। अधिकांश घरों की महिलाएँ भी आ गई थीं। आकाश में बादल अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। पुरवैया लहकी हुई थी। जैसे ही अंगद ने माँ जी का नाम बैठक की अध्यक्षता के लिए प्रस्तावित किया, माँ जी बोल पड़ीं, 'मुझे अध्यक्ष मत बनाओ। जो सदस्य हैं उन्हीं में से किसी को अध्यक्ष बनाकर बैठक करो। मैं रहूँगी, सारा काम जैसे करती रही हूँ करूँगी।' करीम ने जैसे ही तन्नी का नाम प्रस्तावित किया अनेक सदस्यों ने हर्ष ध्वनि के साथ समर्थन कर दिया। तन्नी अवाक् । 'मैं.... मैं....' उसका मुँह खुला का खुला रह गया। 'आज के बैठक की अध्यक्षता तुम्हें ही करनी है।' माँ जी ने भी संकेत किया। 
बिटियनौ का आगे आवै का चाही....।' करीम की पत्नी बोल पड़ीं। आज के विचारणीय विषयों में तीन बातें थीं। कुछ परिवारों के पास दुधारू जानवर नहीं थे। उन्हें जानवर कैसे उपलब्ध कराया जाय जिससे उनकी आमदनी का स्रोत बन सके । दूसरा विषय था अँचार बनाने के काम में क्या कोई सुधार की ज़रूरत है। तीसरा विषय था-उपलब्ध खेती से कैसे अधिक उत्पादन किया जाय। अंगद ने जैसे की सभी को दुधारू जानवर उपलब्ध कराने के लिए प्रस्ताव रक्खा, करीम भाई बोल पड़े 'इसके लिए तो हमें कर्ज लेना पड़ेगा।' 'पर कर्ज लेना बहुत ख़तरनाक है। ब्याज पर ब्याज बढ़ता जाता है और हम लोग कर्ज में पिस जाते हैं।' राम दयाल बोल पड़े। 'राम दयाल भाई बात ठीकै कहत हैं', राम सुख बोल पड़े। 'कर्ज़ से बहुत डर लगता है। चाहे बनिया से लीन जाय, चाहे बैंक से।' नरसिंह भी कर्ज लेने से अचकचा रहे थे। 'कितने लोगों को दुधारू जानवर की ज़रूरत है?' कान्तिभाई ने पूछा। 'सत्रह लोगों ने आवेदन किया है। इसमें से चार लोगों के पास कोई ज़मीन नहीं है।' अंगद ने रिपोर्ट प्रस्तुत की। 'बनिया और बैंक तो हैसियत के मुताबिक ही कर्ज़ देते हैं।' कान्ति भाई बोल पड़े। 'इन चार लोगों को तो हमें अपने ही स्रोतों से मदद करनी होगी। यद्यपि बैंक कहते हैं कि समूह बनाकर इन्हें भी कर्ज़ दिलाया जा सकता है।' 'एक दुधारू जानवर खरीदनें में कितना धन लगेगा?' वत्सला जी ने पूछ लिया। 'एक औसत जानवर खरीदने में पन्द्रह-बीस हजार तो लगेंगे ही।' करीम भाई बोल पड़े। 'इसका अर्थ ये हुआ कि साठ-सत्तर हजार रुपये हों तो इन चारों के लिए दुधारू जानवरों की व्यवस्था की जा सकती है।' वत्सला ने उत्सुक दृष्टि से विपिन की ओर देखा। 'वत्सला अपने प्रॉविडेंट फंड से साठ हजार रुपये का कर्ज़ ले लें। वे रुपये विकल्प डेयरी को दे दिए जाएँ। विकल्प की इस पूँजी से डेयरी उन चारों को जानवर खरीदकर दे दे। जानवरों के दूध से जो बचत होगी उससे फिर डेयरी धीरे-धीरे वत्सला जी की पूँजी लौटा देगी, जिससे फिर इस पूँजी का वत्सला जी उपयोग कर सकें।' जैसे ही विपिन ने अपना प्रस्ताव रखा, गद्गद् हो सभी की तालियाँ बज उठीं। वत्सला भी बहुत खुश दिख रही थीं। उन्हें लगा कि वे भी गाँव के लोगों के साथ जुड़ रही हैं। सर्व सम्मति से इस प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई। चारों आवेदकों के भी चेहरे खिल उठे। 'शेष तेरह लोगों के लिए क्या किया जाय?' अंगद ने समस्या रक्खी। 'कर्ज़ लेना बहुत अच्छा तो नहीं है, पर पूँजी के लिए कर्ज लेना उतना गलत भी नहीं है। तेरह आवेदक जिनके पास ज़मीने हैं, उनके किसान क्रेडिट बनवा दिए जाएँ।' कान्तिभाई ने प्रस्ताव रखा। 'बात तो ठीक है लेकिन किसान क्रेडिट कार्ड के लिए लोग घूस माँगेंतो?' जियावन बोल पड़े। 'कोशिश की जाएगी कि बिना घूस के किसान क्रेडिट कार्ड बन जाय।' विपिन आगे आ गए। 'तो ठीक है यह काम कान्तिभाई और विपिन मिलकर देखेंगे।' माँ जी ने अपनी मुहर लगाई। अँचार के सम्बन्ध में हरबंश ने बताया कि जितना अँचार बन रहा है, करीब करीब सभी की बिक्री हो जाती है। होटलों में अँचार पहुँचाया जा रहा है और भुगतान भी दो-चार दिन आगे पीछे मिल जाता है। अभी आम और लहसुन के अँचार पर ही अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। आगे हमें कोशिश करनी होगी कि दूसरे शहरों में भी हमारा अँचार पहुँच सके। धीरे-धीरे उत्पादन बढ़ रहा है। इसे खपाने के लिए अन्य बाजारों को भी देखना होगा। हरबंश के इस वक्तव्य से सभी सहमत दिखे। महिलाओं ने कहा कि हम और अधिक अँचार बनाने की कोशिश करेंगे, आपको बाज़ार तलाशना होगा।

करीम ने खेती से अधिक उत्पादन की बात उठाई। कम्पोस्ट की खाद अधिक से अधिक बनाने की कोशिश की जाय। सभी ने इस पर हुँकारी भरी। जहाँ कहीं सम्भव हो, सागौन के पेड़ लगाए जाएँ। नए बीजों को भी प्राप्त करने की कोशिश की जाय। खाद और बीज के साथ अगर समय समय पर सिंचाई की जाएगी तो फसल अच्छी होगी। 'लेकिन भाई ईंधन का भी इंतजाम होना चाहिए। खाना बनाने में बड़ी तकलीफ होती है। गाँव के लिए गैस भी जल्दी नहीं मिल पाती।' मोलहू की पत्नी बोल पड़ीं। 'क्या इसका कोई विकल्प हो सकता है?' माँ जी ने लोगों से पूछा। 'गैस पर अधिक निर्भरता ठीक नहीं है। अगर हर परिवार एक बिस्बे में सूबबूल लगा ले तो ईंधन की समस्या का हल निकल आएगा।' विपिन ने सुझाव दिया। 'कैसे?' करीम बोल पड़े। 'सूबबूल बड़ी तेजी से बढ़ता है। उसको काट दीजिए तो उसके कल्ले भी तेजी से बढ़ते हैं। एक परिवार के भोजन बनाने के लिए लकड़ी वे दे देंगे।' पर पौधे कहाँ से मिलेंगे?' जियावन बोल पड़े। 'बीज का प्रबन्ध मैं कर लूँगा। उसके पौधे बनाकर आप रोप सकते हैं।' विपिन ने कहा। 'पर यह काम जल्दी होना चाहिए, विपिन भाई।' करीम ने कहा। 'ठीक है मैं पन्द्रह बीस दिन में बीज लाने की कोशिश करूँगा।' महिलाएँ इस प्रस्ताव से बहुत खुश हुईं। अगर ऐसा हो गया तो उन्हें ईंधन के लिए तंग नहीं होना पड़ेगा। 'सूबबूल की पत्तियाँ चारे के काम भी आ जाती हैं।' विपिन ने जोड़ा। 'तब तो और अच्छी बात है।' अंगद भी खुश हुए। 'आज की बैठक तीन बातों के लिए थी। तीनों पर विचार किया गया। मैंने बिना धुँए वाला चूल्हा देखा है। यदि इसकी व्यवस्था हो जाय तो महिलाओं को धुँए से मुक्ति मिल जाएगी। मैं चाहती हूँ इसपर भी विचार हो जाए।' तन्नी ने सुझाव दिया। माँ जी बोल पड़ीं, 'जरूर जरूर।' विपिन ने बताया कि बिना धुएँ वाला चूल्हा उन्होंने भी देखा है। इस पर काम किया जाए। यह अच्छी बात होगी। फिर योजना बन गई। सभी घरों में बिना धुएँ का चूल्हा तैयार किया जाए। श्रम सब लोग खुद कर लेंगे। पाइप का खर्च डेयरी की बचत से वहन किया जाए।' सभी ने सहमति व्यक्त की। महिलाएँ बहुत खुश हुईं। 'अब मैं चाहता हूँ कि माँ जी अपनी तरफ से हम लोगों को आशीर्वाद दें।' अंगद ने निवेदन किया। माँ जी उठ खड़ी हुईं। कहा, 'हमारा आशीर्वाद तो हमेशा तुम लोगों के साथ है, लेकिन ज्ञान-कर्म और संगठन से ही मुक्ति मिलेगी। नई-नई जानकारियाँ प्राप्त करो। उन्हें समझो और जो उचित है उस पर कदम बढ़ाओ। सभी का भला चाहोगे तो काम बनेगा। जब तक मैं ज़िन्दा हूँ तुम लोगों के साथ रहूँगी। आज तन्नी की अध्यक्षता में बड़ी सार्थक चर्चा हुई। आप ने बहुत ही सही निर्णय लिया। मैं रहूँ या न रहूँ अब आप लोगों की गाड़ी चल निकलेगी। ईमानदारी से काम करो और सभी एक जुट रहो।' इतना कहकर माँ जी बैठ गईं। तन्नी ने खड़े होकर सबके प्रति आभार व्यक्त किया और कहा कि मुझ जैसी बालिका को आपने अध्यक्ष बनाया इसका प्रतिदान देना मेरे लिए सम्भव नहीं। अपनी ज़िन्दगी गाँव के विकास में लगाऊँ, यही सोचती हूँ। आप सब हम से बड़े हैं। हम बच्चे हैं। आपके निर्देशन में काम करते रहेंगे। आज की कार्यवाही सम्पन्न हुई और यह बैठक अब यहीं समाप्त होती है। नन्दू एक ओड़िया में बताशा ले आए। सभी लोग बताशा खाकर पानी पीने लगे। उसी के साथ विकास की चर्चा भी होती रही।

तीन दिन से प्रधान जी गनपति की खोज में हैं। उनके लिए देशी ठर्रा और नमकीन उनकी कोठरी में बन्द है पर गनपति का कहीं पता नहीं। गनपति के नाम से थोड़ी ज़मीन थी। उनके एक ही बेटा है। बेटे के तीन लड़के हैं। घर में पत्नी और पुत्रवधू और हैं पर गनपति आँय बाँय घूमते रहते हैं। प्रधान जी की नज़र भी गनपति के खेत पर थी। अचानक गनपति का गायब होना प्रधान जी के लिए भी चिन्ता का विषय है। वे गनपति को अक्सर खिलाते पिलाते रहे हैं। गनपति भी उनके साथ रहकर खुश दिखते। जैसे ही वे दरवाज़े पर पहुँचते, कहते 'जय शम्भो' और प्रधान जी लपक कर पूछते, 'कहाँ रहे गनपति?' गनपति कुछ आँय बाँय बताकर खरहरा पकड़ लेते और पूरे दरवाजे की सफाई कर डालते। प्रधान जी बेचैन हैं आखिर गनपति गए कहाँ? वे गनपति के घर तक गए। पता लगा-गनपति की पत्नी भी नहीं हैं। प्रधान जी चकित थे, आखिर दोनों कहाँ चले गए? सोचते-विचारते उन्होंने गनपति के लड़के से पूछा-'तुम लोगों ने पता नहीं लगाया।' 'प्रधान जी जब से वे गायब हुए हम लोग दौड़ रहे हैं पर कहीं पता नहीं चलता। आपौ कुछ मदद करौ।' 'यह तो अनहोनी हो गई राम प्रसाद।' 'बप्पा हियाँ-हुआँ घूमत रहत रहे लेकिन पता चलि जात रहा कि कहाँ हैं। तीन दिन से तौ पतै नाहीं चलत है कि कहाँ गए? घर से अम्मौ का लइ गये।' पुरवे वाले भी राम प्रसाद से सम्वेदना जताने आ जाते। प्रधान जी लौटे पर मन में शंका के बादल मँडरा रहे थे। 'क्या किसी ने गनपति से खेत लिखा लिया?' वे सोचते रहे। खेत पर नज़र तो उनकी भी थी। इतनी जल्दी कोई हाथ मार देगा वे ऐसा नहीं सोचते थे। राम प्रसाद के तीन बच्चों पर किसी की नज़र नहीं थी। पहला बच्चा प्राइमरी में कक्षा तीन में पढ़ता था और दूसरा कक्षा एक में तीसरा अभी छह महीने का था।राम प्रसाद खुद दौड़ते रहे पर कहीं भी पिता गनपति और माँ रामरती का पता न चल सका । उन्हें भी यह सन्देह होने लगा कि शायद किसी ने खेत की लालच में उनके माता-पिता का अपहरण कर लिया है। क्या किया जाए यही सबसे बड़ा प्रश्न था? प्रधान जी राम प्रसाद को बुला गए थे। वे दुखी मन से प्रधान जी के यहाँ पहुँचे। कुछ लोग प्रधान जी से दुश्मनी का भाव रखते थे। प्रधान जी ने राम प्रसाद से कहा 'शायद जो हम लोगों के विरोधी हैं उन्हीं लोगों की यह करतूत हो। राम प्रसाद कुछ भी सोचपाने में असमर्थ थे। उन्होंने कक्षा तीन तक ही अपनी पढ़ाई की थी। अपना दस्तखत कर लेते थे और मोटे अक्षरों में कुछ पढ़ भी लेते थे। प्रधान जी ने जिन लोगों का नाम लिया उनसे राम प्रसाद की कोई दुश्मनी नहीं थी। राम प्रसाद अपने खेतों में काम कर परिवार का पोषण करते । इधर-उधर की पैंतरेबाजी से उनका अधिक सम्बन्ध नहीं था। राम प्रसाद की अपेक्षा प्रधान जी अधिक चिन्तित थे। किसी ने राम प्रसाद के खेतों पर अपना हाथ साफ कर लिया। यह प्रधान जी के लिए बड़ी चुनौती थी। 'ठीक है मैं देखता हूँ, पता लगा कर ही रहूँगा। यह काम तुम मुझ पर छोड़ दो।' इतना कहकर प्रधान जी ने राम प्रसाद को विदा किया। राम प्रसाद घर लौटे पर माँ और बापू के गायब होने का दर्द उन्हें रह-रह सालता रहा। खेत में काम करते हुए, गाय को चारा-सानी देते हुए बराबर उनका दिमाग़ इसी पर चलता रहता। पत्नी भी परेशान थी। पाँच बीघा खेत ही उनकी कुल पूँजी थी, वह भी कोई लिखा लेगा तो ज़िन्दगी कैसे कटेगी? गाँव में रहना दूभर हो जाएगा। बच्चे गुल्ली डंडा खेलते। भूख लगने पर माँ से भोजन माँगते। बाबा और आजी का पता नहीं है। उसे वे भी सुनते और कुछ-कुछ समझते पर बाल मन दुःख की चादर बहुत देर तक नहीं ओढ़ पाता। बच्चे खेल कूद में मगन हो जाते। राम प्रसाद के बड़े बेटे संदीप से उसके साथी ने पूछा, 'तुम्हारे बाबा-आजी गायब हो गए हैं?' 'हाँ' संदीप ने कहा। 'ये बूढ़े लोग गायब क्यों हो जाते हैं?' साथी ने पूछा।' 'मैं नहीं जानता। भगवान जी जानते होंगे।' संदीप ने उत्तर दिया। 'क्या बाबा आजी को घर में कोई तकलीफ थीं?' 'बप्पा कहत रहे कि शराब न पियो लेकिन बाबा शराब बन्द नाहीं किहिन। शराब के लिए दूर-दूर तक भागि जात रहे।' 'का शराब अच्छी चीज़ है?' साथी ने फिर पूछ लिया। 'हमें तो पता नहीं।' बाबा जब पियत रहे तौ तू एक घूँट पी कै देखेव नाहीं? 'हमें नाहीं देत रहे।' 'जरूर बहुत नीक चीज़ होई। नहीं तौ बाबा यहि के पीछे काहे भागे रहते।' इतना कहकर साथी ने कहा, 'चलो, गुल्ली-डंडा खेलें।' संदीप भी उसी के साथ खेलने के लिए निकल गया प्रधान जी ने अपने जासूसों को लगाया। दो तीन दिन की छानबीन के बाद पता लगा कि एक आदमी ने गनपति का खेत लिखा लिया। दो गवाहों में से एक ने जासूस को यह बात बताई। गनपति और उसकी पत्नी दोनों उसी दिन से लापता हैं। कहाँ गए? कोई बता नहीं पा रहा है। अब प्रधान जी को चैन नहीं। शिकार दूसरे के हाथ लग गया। वे

धीरे-धीरे ज़मीन बना रहे थे पर....? रात में सोते समय भी वे जाग उठते । गनपति का खेत उन्हें चौंका देता। उन्होंने हजारों रुपया इसी आशा से गनपति पर खर्च कर दिया था। उनके लिए ठर्रा और नमकीन अब भी कोठरी में बन्द है। जिन्होंने ज़मीन लिखा लिया है वे भी तीर्थयात्रा पर चले गए हैं। क्या किया जाए? बार-बार वे सोचते । क्या दाखिल-खारिज में कुछ किया जा सकता है? पता यह चला कि दाखिल-खारिज हो चुका है। जिसने लिखाया है वह कम चालाक नहीं है। उसने सभी दाँव आज़मा लिए हैं। 'अब क्या हो सकता है?' प्रधान जी सोचते रहे। वे शहर की ओर चल पड़े। अपने वकील से उन्होंने पूछा। 'बेटे की ओर से तो नहीं पर बेटे के बेटों की ओर से मुकदमा दायर किया जा सकता है। जमीन पैतृक थी उस पर नातियों का हक बनता है। इस पर कोई स्थगन आदेश नहीं मिलेगा, मुकदमा चलेगा। अदालत से जो निर्णय होगा उसी का क्रियान्वयन होगा।' 'नातियों का हक बनता है?' प्रधान जी ने पूछा। 'बिलकुल बनता है। अब यह पैरवी पर निर्भर होगा कि फैसला किसके पक्ष में जाता है।' 'ठीक है मैं दो दिन बाद नातियों को लेकर आऊँगा। मुकदमें की पैरवी में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी।' इतना कहकर प्रधान जी उठे। गाँव की राह पकड़ी पर उनका मन अशान्त था। मुकदमे की पैरवी में पैसा लगेगा। कहाँ से आएगा ये पैसा? राम प्रसाद की हैसियत तो मुकदमा लड़ने की नहीं है। मैं अगर खर्च करता हूँ तो मुझे क्या मिलेगा? ज़मीन तो हाथ से निकल गई। मिलेगी या नहीं इसे कौन जाने? ऐसे मुकदमे में पैसा खर्च करना ठीक होगा या नहीं। रास्ते भर प्रधान जी यही सोचते रहे। वे बार-बार कहते कि यदि मैं पैसा लगा हूँ तो लौटेगा कैसे? अदालत का फैसला भी तुरन्त तो होता नहीं। कितने वर्ष लगेंगे ? कुछ कहा नहीं जा सकता।