Kaarva - 1 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कारवाॅं - 1

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कारवाॅं - 1

 अनुच्छेद एकतन्नी, नन्दू, हरवंश अदालत में पेश किए गए। न्यायिक दंडाधिकारी ने पत्रजात पर नज़र दौड़ाई। दोनों पक्षों को सुना। माओवादियों से सम्पर्क पर उनका भी माथा ठनका। पुलिस की माँग पर तीनों को दो सप्ताह की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया। रामसुख, नरसिंह थे ही कान्तिभाई भी पहुँच गए थे। उन्होंने मानवाधिकार से जुड़े एक अधिवक्ता को तत्काल अपने पक्ष में खड़ा कर दिया था। भारत में कई राज्यों के अनेक जनपदों में नक्सलवादी सक्रिय हैं। आन्ध्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार होते हुए एक लाल गलियारे की चर्चा अक्सर की जाती है। नेपाल में भी माओवादियों ने सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की है। अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई, कमजोरों के शोषण एवं बेरोजगारी ने नक्सलवाद को अपनी जड़ें जमाने में मदद की है।'किसी के साथ माओवाद जैसा शब्द जुड़ जाने से ही अधिकारी चौंक जाते हैं।' वकील आशुतोष ने सांत्वना देने की कोशिश की।'अब क्या किया जाय?' कान्तिभाई ने वकील साहब से पूछा।पुलिस जो आरोप लगा रही है उसके लिए जो पत्रज़ात प्रस्तुत कर रही है, उसका अध्ययन मैं आज ही कर लूँगा। कल ही जमानत की अर्जी दाखिल करूँगा। इसी बीच रामसुख ने मक्का का लावा भुनाकर तन्नी, नंदू, हरवंश को पकड़ाया। उन्होंने ले तो लिया पर एक भी लावा मुँह में डालने की इच्छा न हुई। तन्नी ने इसके पहले कभी कोई अदालती कार्यवाही नहीं देखी थी। वह समझती थी कि अदालत के सामने पहुँचने पर दूध और पानी अलग हो जाएगा। पर आज लगा कि नीर-क्षीर अलग होने में न जाने कितने दिन लगेंगे। उसका उदास चेहरा भूख-प्यास से निर्लिप्त, नंदू-हरवंश एक बार जेल जा चुके थे। उसका अनुभव उन्हें था पर वे भी सोच रहे थे कि क्या जेल से कभी पिंड छूटेगा या किसी न किसी बहाने जेल में ही ज़िन्दगी कटेगी?जैसे नन्दू, हरवंश, तन्नी को लेकर सिपाहियों ने जेल की ओर रुख किया, तीनों की आँखों से आँसू भरभरा पड़े। रामसुख-नरसिंह भी अपने को रोक नहीं सके। कान्ति भाई सभी को समझाते रहे। आशुतोष ने भी ढाढस बंधाने की कोशिश की। पर तीनों जेल गेट तक गए।दरोगा सुकान्त ने एक बार इन चेहरों को देखा फिर दूसरी ओर देखने लगे। ऊपर के अधिकारी का दबाव न होता तो वे इन बच्चों के खिलाफ पैरवी न करते। उनका ज़मीर कसमसा रहा था पर पुलिस बल में ज़मीर वरिष्ठों के हुक्म के आगे पानी भरता है। पूरे प्रशिक्षण में आदेश पालन ही सिखाया जाता है। इन्हें क्या पता कि 'जी हुजूर' 'जी सर' कहलाते, रटाते नवीन परिस्थितियों को सँभालने की क्षमता भी विकसित नहीं हो पाती।सुकान्त के फोन की घंटी बजी। उन्होंने देखा उपाधीक्षक वंशीधर पूछ रहे थे'क्या हुआ?''सर, न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है।' सुकान्त की आवाज़ ।'तुम बहुत दबे-दबे बोल रहे हो, क्या बात है?' वंशीधर ने डपटा'दरोगागीरी कैसे कर पाओगे?''नहीं सर, आपसे दब कर बोलना ही फर्ज़ है।''ठीक कहते हो', वंशीधर खिलखिलाए ।सुकान्त चलकर कैन्टीन में बैठ गए। एक पेड़ा और पानी आ गया। पर सुकान्त का दिमाग बेचैन है, उथल-पुथल मची है।'तुमने गलत किया', अन्तरात्मा कहती।'नहीं, नहीं बिलकुल ठीक किया। एक दरोगा को यही करना चाहिए। यही कर ही सकते हो। जो किया उसकी चिन्ता मत करो।' उनके अन्दर का दरोगा तर्क देता रहा। तब तक चाय नमकीन आ गई। पेड़ा खा कर पानी पिया। नमकीन खाते हुए चाय को घूँट-घूँट पीते रहे। मन में उथल-पुथल चलती रही। दरोगा का कार्यभार ग्रहण करने चला था तभी माँ ने कहा था, 'निर्दोष को बचाना।' अन्तरात्मा उसी का हवाला देकर बार-बार कोंचती। उनके अन्दर का दरोगा इन सब का उत्तर देता।'अगर नौकरी करना है तो अंतरात्मा की आवाज़ नहीं चलेगी।'अन्दर बैठे दरोगा ने साफ किया।'नौकरी तो करनी ही है', उसने सोचा।'तब उधेड़बुन व्यर्थ है।' अन्दर का दरोगा हावी होने लगा। चाय ख़त्म हुई। माँ का चेहरा सामने नाच गया। फोन की घंटी फिर बज उठी। वंशीधर ने कहा, 'आकर मिलो।' 'जी सर', उनके मुख से निकला ।जेल-गेट से रामसुख, नरसिंह और कान्तिभाई स्टेशन पर आ गए। मन उदास । कान्ति भाई बराबर समझाते रहे पर रामसुख और नरसिंह का चेहरा अन्दर का दर्द उगलता रहा।'तीनों की माई पूछेंगी,। क्या जवाब दूँगा उन्हें ?' रामसुख के मुख से निकला। 'कैसे समझा मिलेगा उन्हें?' नरसिंह भी सोचते रहे। 'समझाना कठिन ज़रूर है पर कोई विकल्प भी तो नहीं है।' कान्ति भाई की आवाज़ भी साफ नहीं निकल रही थी। 'हृदय पर पत्थर रखकर इस मुकदमें की पैरवी करनी होगी।' कान्तिभाई की आँखों में भी तीनों बच्चों का चेहरा कौंध गया। उन्होंने लावा की पुटकी खोली, कहा, 'भूखेप्यासे रहकर लड़ाई लड़ना कठिन है। इसलिए खातेपीते, ताकत बटोरते संघर्ष करना होगा।' उन्होंने एक मुट्टी लावा लेते हुए कहा, 'आप लोग भी लीजिए।' रामसुख और नरसिंह ने भी एक एक मुट्ठी लिया।रामसुख, नरसिंह और कान्तिभाई स्टेशन पर उतरे। कान्तिभाई का घर शहर में ही था। वे घर जा सकते थे पर उन्होंने भी दोनों के साथ हठी पुरवा का रुख किया। एक ही रिक्शे में तीनों बैठ गए। रिक्शा चल पड़ा। ज्यों ज्यों पुरवा नज़दीक आता जा रहा था, राम सुख और नरसिंह यही सोचते उदास होते जा रहे थे कि क्या उत्तर देंगे हम लोगों के प्रश्नों का?जैसे ही रिक्शा हठी पुरवा के नज़दीक पहुँचा, रामदयाल मिल गए, 'तीनों बच्चे नहीं लौटे?' जैसे ही उन्होंने पूछा, 'अभी नहीं आ पाए हैं।' कान्तिभाई बोल पड़े। 'जल्दी ही उन्हें लाया जायगा।' रामसुख और नरसिंह को थोड़ी राहत मिली। पुरवा निकट आ जाने पर रिक्शा छोड़ कर तीनों पैदल चल पड़े। जो भी इन्हें देखता, इनके साथ हो लेता। सभी को उत्सुकता, 'क्या हुआ?' कान्तिभाई रामदयाल को समझाते हुए आगे बढ़ते गए। भँवरी की मड़ई में माँ अंजलीधर बैठी दो बच्चियों को गणित हल करा रही थीं। गोधूलि का समय हो गया था। उन्होंने बच्चियों को स्नेह से पुचकारा और कहा, 'शेष काम कल किया जाएगा।' बच्चियाँ अपना बस्ता समेटने लगीं। इसी बीच कान्तिभाई, रामसुख और नरसिंह के साथ मड़ई तक पहुँच गए।'कुशल तो है?' सभी को दूसरे तख्ते पर बैठने के लिए कहते हुए माँ जी ने पूछा। 'दो सप्ताह की न्यायिक हिरासत में हैं तीनों बच्चे। हमने वकील की व्यवस्था कर दी है। वे उन्हें छुड़ाने के लिए तैयारी करेंगे।' कान्तिभाई ने बताया। तब तक भँवरी भी लालटेन जलाकर घर से निकली। नन्दू और हरवंश की माँएँ भी मड़ई पर आ गईं। सभी का एक ही प्रश्न, 'छूटे नहीं?' माँ जी ने कमान सँभाल ली। सब को बताया, 'अभी कुछ समय लगेगा लेकिन तीनों छूटेंगे।' तीनों की माँओं की आँखें आँसुओं से डबडबा आईं। पुरवे के लोग थोड़े उदास ज़रूर हुए पर माँ जी हैं तो बच्चे ज़रूर छूटेंगे, यह विश्वास उन्हें राहत दे रहा है। गाँव के सभी लोग आते-जाते रहे। दुखी, उदास होते हुए भी जानवरों को चारा देना है, घर का काम करना है। इससे छुट्टी कहाँ? इसी बीच अंगद आ गए। वे भी दुखी थे। सभी की दृष्टि माँ के चेहरे पर। माँ ने कहा, 'अंगद भाई, लड़ाई लड़ते हुए खेती और डेयरी का काम भी उत्तमतापूर्वक करना है।बिना आर्थिक और मानसिक मजबूती के लड़ाई भी नहीं लड़ी जा सकती।''ठीक कहती हैं माँ जी।' अंगद बोल पड़े।'कान्ति भाई, आप भी घर जाओ। बच्चों को छुड़ाने का हर संभव प्रयास हो।' माँ जीने कहा। 'होगा माँ जी। बच्चों को हर कीमत पर छुड़ाया जायगा।' कान्ति भाई उठते हुए बोल पड़े । 'कल सुबह हम लोग फिर जा रहे हैं। पूरी कोशिश की जाएगी।' राम सुख उनके साथ सड़क तक पहुँचाने गए।'सभी लोग अपना काम करो। बच्चों को छुड़ाने का काम होगा, जाओ।' माँ जी के इतना कहते सभी लोग अपने घरों की ओर चल पड़े। पर नंदू, हरवंश और तन्नी की माँएँ बैठी रहीं। तीनों चुप थीं उनके साथ माँ जी भी मौन। कुछ क्षण यों ही बीता। मौन भी बहुत कुछ कहता हुआ। चारों महिलाएँ चुप पर मौन संवाद चलता रहा। 'बच्चा भूखा होगा। चलो रोटी बना लो।' माँ जी ने भँवरी से कहा। माँ के शब्दों ने भँवरी को जैसे आविष्ट सा कर लिया। वे उठीं और रोटी बनाने के लिए घर के अन्दर चली गईं।'बच्चों के पिता भूखे-प्यासे लौटे हैं। हम-तुम चाहे न खाएँ पर उनके लिए रोटी बनाना ज़रूरी है।' माँ जी के कहते नंदू और हरवंश की माँएँ भी उठीं। अपने घरों की ओर चल पड़ीं। आत्मीयता से कहे शब्द कितना प्रभाव छोड़ते हैं?माँ अकेली हो गईं। तख्ते पर बैठी विचारमग्न। जब भी वे संकट का अनुभव करती हैं, पति का ध्यान आ जाता है। मन में उनका चित्र उभरा जैसे वे हाथ उठा कर कह रहे हों-बढ़ते चलो। कदम रुकना नहीं चाहिए। इसके बाद ही नंदू, हरवंश, तन्नी का चेहरा सामने आ गया। लगा जैसे तीनों से बात हो रही हो।'डरना नहीं बेटी' माँ ने तन्नी से कहा।'नहीं माँ जी, डर कैसा? आप हैं न?''ज़रूर हूँ बेटी। तुझे निकाल लाऊँगी।''जानती हूँ माँ जी।''बेटे नन्दू, तू भी दुखी मत होना''दुखी क्यों होऊँगा? कदम तो मैंने ही बढ़ाया था।''पर तेरा कदम बढ़ाना ज़रूरी था बेटा।''मैं भी यही सोचता रहा माँ जी। सच्चाई के लिए लड़ने पर कष्ट तो झेलना ही पड़ता है। डेयरी का काम चलता रहे माँ जी। गाँव का सपना उससे जुड़ा है।''चल रहा है बेटा। गाँव एक जुट होकर चल रहा है। आगे भी चलेगा। तू चिन्ता न कर।''आप हैं न माँ जी? चिन्ता कैसी?''मैं तो पुरवे की हो गई हूँ नंदू। कैसे अलग हो पाऊँगी? बेटा हरवंश तेरा खिला चेहरामुरझाना नहीं चाहिए।''नहीं माँ जी। नंदू भैया हैं, आप हैं, तन्नी है। पूरा पुरवा साथ है तो चेहरा मुरझाने का सवाल ही नहीं माँ जी।' रील घूम गई। बत्सला विपिन का बिम्ब। बताऊँ कि हठी पुरवा के तीनों बच्चे जेल में हैं। तुम्हें तीन चार दिन नहीं बताऊँगी। खबर पाते ही भगोगे यहाँ के लिए। दो चार दिन तो बर्दवान में रह लो। तुरन्त भगोगे तो घर के लोग क्या सोचेंगे ? विपिन की माँ खिली-खिली घूम रही होगी। दो चार दिन तो उनके साथ रह लो।'नहीं बताना अभी', माँ जी बुदबुदा उठीं। इसी बीच तरन्ती के पिता केशव आ गए। वे शहर से लौटते हुए माँ जी से मिलने चले आए।आते ही उन्होंने माँ जी को प्रणाम किया। माँ जी आशीष देते बोल पड़ीं, 'भैया तरन्ती को अभी नंदू, हरवंश, तन्नी के बारे में खबर न करना। दो-चार दिन तो हँसी-खुशी में बीत जाए। कुछ दिन बाद उसे धीरे से बता देना। यह भी कह देना कि दुखी न हो। हम लोग प्रयत्न करके सबको जेल से बाहर ले आएँगे।' 'ठीक है माँ जी। क्या तीनों को ज्यादा दिन जेल में रहना पड़ेगा ? सुना है ऐसे मामलों में जल्दी ज़मानत नहीं मिलती।''जल्दी भी हो सकती है या कुछ देर भी लग सकती है। पर ज़मानत तो मिलेगी ही।' माँ अंजलीधर ने ढाढस बंधाया।'वीरू, अपनी पढ़ाई करो।' माँ जी ने वीरू को पुकारा। वीरू ने आकर छप्पर से टँगे अपने बस्ते को उतारा। तख्ते पर रखी लालटेन के सामने बैठ गया। 'माँ जी आपके लिए रोटी ले जाऊँ ?' केशव ने पूछा।'नहीं भाई, आज भँवरी के साथ ही खाऊँगी। कह रखा है।तुम्हारे घर की रोटी भी खाऊँगी, पर आज नहीं।''कल मेरे घर की बनी रोटी खाइए माँ जी।'केशव ने प्रस्ताव रखा।'तुम्हारी छुट्टी कब रहती है?''इतवार को ।''तो इतवार को तुम्हारी पत्नी के हाथ की रोटी खाऊँगी।''तो ठीक है माँ जी।' प्रणाम करते हुए केशव उठे और घर की ओर चल पड़े।माँ अंजलीघर पूरे गाँव की माँ हो गई हैं। उनके लिए रोटी किसी भी घर में बन जाती है। उन्होंने अपना एक नियम बना रखा है। जिस घर में उनकी रोटी बनती है वहाँ वे दो पाव आटा और बीस रुपये भेज देती हैं। रोटी सब्जी या रोटी दाल जो भी मिल जाता है, प्रेम से खाती हैं। उन्होंने सभी को समझाया है कि मैं पेंशन पा रही हूँ। मुझे मुफ़्त में नहीं खाना चाहिए। माँ जी अपना सारा समय पुरवे को ही अर्पित कर चुकी हैं। बच्चे बच्चियों को पढ़ाना, महिलाओं को हुनर के साथ देश दुनिया की जानकारी देना, अखबार पढ़कर समझाना, डेयरी की प्रगति को देखना, पुरवे की समस्याओं का हल ढूढ़ना, सभी कुछ उन्हें देखना होता है। दिन में कुछ समय वे अपने आराम के लिए भी निकाल लेती हैं। उनकी व्यस्तता बढ़ी है पर स्वास्थ्य भी सुथरा हुआ दिखता है। किसी भी परिवार की कोई समस्या हो, उसे माँ जी तक पहुँचना है और माँ जी हल करने के लिए तत्पर। वे दूसरों को सुखी देखकर सुखी होती हैं।वीरेश बीजगणित का गुणन खण्ड लगाता रहा। एक प्रश्न हल नहीं हुआ तो माँ के पास चला आया। माँ जी ने चुटकियों में उसे हल कर दिया। वीरेश बहुत खुश हुआ। पढ़लिखकर मैं भी अध्यापक बनूँगा। जो सवाल बच्चे नहीं हल कर पाएँगे उसे मैं भी चटपट हल कर दूँगा। वीरेश सोचता रहा।'माँ जी, दीदी जल्दी छूट जायगी?''क्यों नहीं ? क्या तुम सोचते हो नहीं छूटेगी?पहले दिन नहीं छूट पाई, यह सच है।पर दुखी न हो, तन्नी, नंदू, हरवंश सभी को छुड़ाया जायगा।''क्या माओवादी किसी का नाम ले ले तो उसे जेल हो जाती है?''माओवादी इस सरकार का विरोध करते हैं। इसलिए जिसका नाम वे ले लेते हैंउस पर भी सरकार विरोधी होने की आशंका की जाती है।''क्या सरकार का विरोध करने पर सब को जेल ही होता है माँ जी।''नहीं, हमारे देश में प्रजातंत्र है। प्रजातंत्र में शान्तिपूर्ण ढंग से सरकार का विरोध किया जा सकता है और लोग करते भी हैं।''और माओवादी?''माओवादी हथियार उठाकर सरकार का विरोध करते हैं। इसीलिए सरकार उन्हें दबाने का प्रयास करती है।''ये माओवादी कौन हैं माँ जी?'माओ-त्से-तुंग ने जनता को साथ लेते हुए, लड़ाई लड़कर चीन को स्वतंत्र साम्यवादी देश बनाया था। माओ के ही विचारों से प्रेरित लोग जो हथियारों से क्रान्ति करना चाहते हैं, माओवादी कहलाते हैं। माओ की विचारधारा के लोग कई देशों में काम कर रहे हैं।' 'इसका मतलब यह हुआ कि माओवादी लोग इस सरकार को हराना चाहते है।''हाँ।''सरकार हारना क्यों चाहेगी ?''हारना कोई चाहता नहीं। परिस्थितियाँ हरा देती हैं।''मैं अभी छोटा हूँ। बड़ा होने पर शायद समझ पाऊँ।''कोई समझाने वाला हो और तुम्हारी रुचि भी हो तभी समझ पाओगे।''ठीक कहती हैं आप, लेकिन माँ जी, माओवादी ने हमारे पुरवे के तीन लोगों का नाम क्यों लिया?''यही तो पता करने की ज़रूरत है।''माओवादी कभी यहाँ आएँ नहीं, फिर कैसे जाना?''पता चलेगा। सब कुछ पता चलेगा।'इसी बीच भँवरी ने पुकारा, 'वीरू।'वीरू दौड़ता हुआ घर के अन्दर गया। एक लोटे में पानी लेकर लौटा। माँ जी के तख्तेपर लोटा रखते हुए पूछा'माँ जी रोटी तैयार है। ले आऊँ ?''ले आओ।' माँ जी उठीं। झोले से गिलास निकाला। हाथ धोया।वीरू एक थाली में रोटी-सब्जी ले आया। 'तुम भी जाकर खाओ' माँ जी ने वीरू से कहा। स्वयं भोजन करने लगीं। मन अब भी तीनों बच्चों को छुड़ाने के सम्बन्ध में ही सोचता रहा।'कब छूटेंगे बच्चे?'वंशीधर अपनी बैठक में सोफे पर बैठे चाय पी रहे थे। चाय में चीनी पड़ी थी पर उनका मिजाज़ गर्म था। चाय थोड़ी कड़वी लगी। ज़िन्दगी में भी हमेशा शहद नहीं घुलती, कभी कड़वाहट भी हाथ-पाँव मारती है। पत्नी से थोड़ी चख-चख हो गई थी।कुछ बड़बड़ाते वे उठे। कमरे के बाहर आते ही कुछ याद पड़ा। वे लौटकर पुनः घर के अन्दर चले गए। अपनी डायरी हाथ में लिए निकले। दरोगा सुकान्त आ गए थे। वंशीधर ने उनसे तन्नी नंदू, हरवंश के मुकदमें की जानकारी ली।'तीनों बहुत बदमाश हैं', वंशीधर ने कहा। सुकान्त चुप रहे। इस पर वंशीधर आपे से बाहर हो गए।'तुम्हें दरोगा किसने बना दिया? यह भी तमीज़ नहीं कि अधिकारी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए।''सर, कोई गलती हो गई हो तो माफ कर दें।' सुकान्त सिटपिटा गए थे। 'दरोगा का काम सीखिए। तफ्तीश कैसे की जाती है, यह भी सीखने से आती है। पढ़ाई कर लेने से ही कोई दरोगा नहीं हो जाता।'वंशीधर बड़बड़ाते रहे।'सर सीखने की कोशिश कर रहा हूँ। कोई बात समझ में न आएगी तो मदद लेकर जानने की कोशिश करूँगा।''क्या खाक कोशिश कर रहे हो? पुलिस विभाग में काम करने के लिए एक मनः स्थिति बनानी पड़ती है। बड़े से बड़े बदमाश को भी काबू करना पड़ता है। दरोगा अपने क्षेत्र का मालिक होता है। दरोगागीरी सीखो ।''सीखने की कोशिश करूँगा, सर।''सर, सर, कहने से काम नहीं चलेगा। इसमें मेहनत करनी होती है। दरोगा - गीरी चौबीस घण्टे में पच्चीस घण्टे का काम है। सीनियर अधिकारी से किस तरह का व्यवहार करना चाहिए यह भी कोई बताने की चीज़ है ? इस केस में अब तक क्या हुआ? क्या तफ्तीश पूरी हुई?''सर, जल्दी ही पूरी कर लूँगा।''क्या खाक पूरी कर लोगे? इतने दिन हो गए......। दिन-रात मेहनत करके तफ्तीश पूरी करो। कोई रियायत करने की ज़रूरत नहीं है।''जी सर।''जाओ, लेकिन ध्यान रखो, बहुत ज़रूरी केस है यह। हर कीमत पर सज़ा दिलानी है, यह सोच लो ।''जी सर।'वंशीधर की गाड़ी आ गई, वे उस पर बैठे और निकल गए।सुकान्त सिर नीचा किए सोचते हुए अपने आवास की ओर बढ़े। उनके दिमाग में माँ का चेहरा और उनका निर्देश 'निर्दोष को बचाना' एक बार फिर कौंध गया।अगले दिन कान्ति भाई, राम सुख और नरसिंह एडवोकेट आशुतोष से मिले। उन्होंने ज़मानत की अर्जी तैयार कर ली थी। सभी न्यायिक दण्डाधिकारी के कोर्ट में पहुँचे। ज़मानत की अर्जी दाखिल की। आशुतोष ने अदालत को आश्वस्त करने की पूरी कोशिश की कि संदर्भित तीनों बच्चे अपराधी नहीं हैं। इनका साथ माओवादियों से दिखाकर इन्हें गलत फँसाया गया है। सरकारी वकील ने इसका प्रतिवाद किया। उन्होंने उल्लेख किया कि नन्दू और हरवंश इसके पहले भी जेल जा चुके हैं। उस मुकदमे में ज़मानत पर छूटे थे और फिर माओवादियों के साथ जुड़ गए। ये शातिर अपराधी हैं। यदि इन्हें ज़मानत पर छोड़ दिया गया तो फिर अपराध करने से नहीं चूकेंगे....चार बजे सायंकाल न्यायिक दण्डाधिकारी का आदेश हुआ कि ज़मानत नामंजूर की जाती है। आशुतोष ने तत्काल उसकी नकल लेने के लिए प्रार्थनापत्र दिया। कांति भाई, नरसिंह और रामसुख को धक्का लगा। तीनों की आँखें डबडबा आईं। आशुतोष ने समझाया, सेशन कोर्ट से ज़मानत ज़रूर मिल जाएगी। कल ही में इसके लिए प्रयास करूँगा। कांति भाई, रामसुख और नरसिंह दुखी मन से स्टेशन की ओर पैदल ही चले। कोई किसी से बोल नहीं रहा था। सभी के मन में एक ही सवाल था-गाँव के बच्चे-बूढ़े जब दौड़कर पूछेंगे तो हम क्या उत्तर देंगे ?पैसेंजर गाड़ी पर चढ़ते हुए भी तीनों के दिमाग में यही बात कौंध रही थी। रास्ते में कान्ति भाई ने प्रस्ताव रखा कि आप दोनों आदमी रात में हमारे घर पर ही रुकें। कल फिर लौट कर हम प्रयास करेंगे और शायद ज़मानत मिल ही जाए।कान्ति भाई का विकल्प दोनों को प्रीतिकर लगा। कान्ति भाई की पत्नी ने तीनों का स्वागत किया। पूछा ज़रूर कि क्या हुआ। वे स्वयं अध्यापिका थीं। कोर्ट कचहरी की मुश्किलें समझती थीं। तीनों भोजन करके सो रहे। सबेरे फिर वही यात्रा....।आशुतोष ने सेशन कोर्ट में जमानत की अर्जी दी। वे पूरी तैयारी से आए थे। अदालत ने उनकी बातें सुनीं। और अंततः ज़मानत दे दी। आशुतोष ने शीघ्रता से कागज़ी लिखा-पढ़ी पूरी कराई। उनकी कोशिश थी कि आज तीनों की रिहाई हो जाए। कागज़ लेकर आशुतोष, रामसुख और नरसिंह के साथ जेल की ओर भागे। डिप्टी जेलर को रिहाई का कागज़ दिया। उसने भी त्वरित कार्यवाही करके रिहाई का संदेश कैदियों तक पहुँचाया। नन्दू, हरवंश को सूचना दी गई। खुशी से उनकी आँखें छलक आईं। तन्नी को दूसरे बैरक में रखा गया था। उसको भी संदेश मिला। औपचारिकताएँ पूरी होते शाम हो गईं। गेट पर ही आशुतोष, कान्ति भाई, रामसुख और नरसिंह खड़े थे। जैसे ही तीनों निकले, चारों में खुशी की लहर दौड़ गई। कान्ति भाई ने आगे बढ़कर हरवंश और नन्दू को गले लगा लिया। दोनों ने आशुतोष, रामसुख और नरसिंह का चरण स्पर्श किया। रामसुख और नरसिंह की आँखों से आँसू झर रहे थे। तन्नी ने हाथ जोड़कर चारों का अभिवादन किया। 'खुश रहो। पूरा पुरवा तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा है', कान्ति भाई ने गद्गद् भाव से कहा। सभी गेट से बाहर निकले और स्टेशन की ओर चल पड़े। रास्ते में एक जलपान गृह में सभी बैठे। राम सुख ने पुरवे के लिए एक किलो लड्डू बँधवाया। सभी ने लड्डू खाकर पानी पिया। आशुतोष जी अपने आवास की ओर निकल गए। शेष छह लोगों ने स्टेशन की ओर प्रस्थान किया। ट्रेन की यात्रा में कान्ति भाई गद्गद् भाव से बातें करते रहे। अपने शहर पहुँचते ही तीनों स्टेशन से बाहर आए। रिक्शा किया और पुरवे की ओर बढ़ गए। पुरवे के निकट पहुँचते ही जैसे ही लोगों ने तन्नी, हरवंश और नन्दू को देखा, खुशी से उछल पड़े। पूरे पुरवे में खबर फैलते देर न लगी। एक उत्सव का माहौल बन गया। जो भी सुनता मिलने के लिए दौड़ पड़ता। माँ अंजलीधर अपनी मड़ई से बाहर आकर सभी की प्रतीक्षा करने लगीं। नन्दू-हरबंश तेज चलकर आगे आए और माँ जी का चरण स्पर्श किया। तन्नी जैसे ही आगे आई, माँ ने उसे गले लगा लिया। पूरा समूह माँ जी के साथ उनकी कुटिया की ओर बढ़ गया। मड़ई में माँ जी तख्ते पर बैठ गईं। नन्दू-हरवंश और तन्नी भी बैठे। कुछ खडे रहे। लोग आते रहे और नन्दू-हरबंश और तन्नी को देखकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते रहे। बहुत से बच्चे और वृद्ध नन्दू-हरवंश और तन्नी को छूकर आश्वस्त होते। तन्नी की माँ भँवरी भी बाहर आ गई। नन्दू और हरवंश की माँएँ भी अन्य महिलाओं के साथ भागकर आईं। तीनों ने सभी का पैर छूकर आर्शीर्वाद लिया। माँओं की नज़र तीनों पर टिक जाती। माँ जी ने कान्ति भाई से कहा, 'सभी को बता दो कैसे ज़मानत मंजूर हुई।' कान्ति भाई ने संक्षेप में सारी बातें बताईं, और कहा, 'तीनों बच्चे ज़मानत पर छूटे हैं। अभी हमें मुकदमें की पैरवी करनी होगी।' पुरवे के लोगों के लिए यही बहुत था कि तीनों बच्चे लौट आए हैं। आगे की लड़ाई देखी जाएगी। पुरवे के कुछ बच्चे ढोल लेकर आ गए। वसन्त के दिन खुशी से झूमते हुए ढोल की थाप के साथ होरी गाने लगे:  ‌ ‌

             होरी खेलें रघुवीरा

             अवध मा, होरी खेलें रघुवीरा।

             केकरे हाथ कनक पिचकारी

             केकरे हाथ अबीरा !

             राम के हाथ कनक पिचकारी

             सिया के हाथ अबीरा ।

             होरी खेलें रघुवीरा।

             अवध मा, होरी खेलें रघुवीरा।