अर्चना का संघर्ष अब एक नई दिशा में बढ़ चुका था। गांव के कुछ महिलाएँ और अन्य लोग, जो पहले इस प्रथा को धर्म और परंपरा के रूप में मानते थे, अब धीरे-धीरे उनके विचारों से प्रभावित हो रहे थे। अर्चना का यह विचार कि सती प्रथा एक कुप्रथा है और इसे समाप्त करना ही समाज की भलाई के लिए आवश्यक है, अब अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने लगा था। लेकिन जैसे-जैसे यह आंदोलन बढ़ रहा था, अर्चना को यह समझ में आने लगा कि बदलाव लाना इतना आसान नहीं है।
गांव में जहां कुछ महिलाएँ अर्चना के साथ खड़ी हो गई थीं, वहीं बहुत से पुरुषों और बुजुर्गों के लिए यह एक बड़ा बदलाव था। वे इस प्रथा को समाज के संस्कार और धर्म का अभिन्न हिस्सा मानते थे। अर्चना और उसके साथियों को प्रतिरोध और आलोचना का सामना करना पड़ रहा था। कुछ लोग अर्चना को ‘अवधार्मिक’ और ‘धर्मविरोधी’ कहकर उसकी आलोचना करते थे, जबकि कुछ ने उसे गलत रास्ते पर जाने के लिए चेतावनी दी।
पहला बड़ा कदम: राधा की स्थिति
राधा की स्थिति अर्चना के लिए एक अहम मोड़ बन चुकी थी। वह दिन-ब-दिन टूटती जा रही थी। एक तरफ समाज का दबाव, दूसरी तरफ उसका मन जो उसे अपने जीवन को संजीवनी देने की इच्छा करता था, एक संघर्ष में फंसा हुआ था। राधा को अर्चना की बातें याद आईं, और उसने अर्चना से मिलने का निश्चय किया।
एक दिन, जब राधा ने अर्चना से मिलने के लिए घर छोड़ा, तो वह अर्चना के पास आई और गहरी चिंता में डूबे हुए शब्दों में बोली, “अर्चना, मुझे क्या करना चाहिए? मुझे लगता है कि मैं इस प्रथा का पालन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं देख पा रही हूँ। मेरे घरवाले और समाज के लोग मुझे दबाव डाल रहे हैं। अगर मैं इस प्रथा का पालन नहीं करती, तो मुझे तिरस्कृत कर दिया जाएगा। लेकिन, मैं जानती हूँ कि यह गलत है। तुम्हें जो कहना था, वह अब मुझे समझ में आ रहा है, लेकिन समाज का दबाव इतना बड़ा है।”
अर्चना ने राधा को गहरी आत्मीयता से समझाया, “राधा दीदी, तुम्हारे पास जीवन जीने का अधिकार है। तुम्हें अपनी आत्मा के साथ शांति पाकर मरने की आवश्यकता नहीं है। अगर हम सती प्रथा का विरोध नहीं करेंगे, तो यह हमेशा के लिए हमारी पीढ़ियों को अपना शिकार बनाती रहेगी। हम एक नई राह पर चल सकते हैं, और तुम्हारा जीवन तुम्हारी शक्ति है।”
राधा की आँखों में आंसू थे, लेकिन उसने धीरे-धीरे सिर झुकाया और कहा, “मैं तुमसे वादा करती हूँ, अर्चना, मैं सती प्रथा का पालन नहीं करूंगी। मैं अपने जीवन को जीने का अधिकार चाहती हूँ।”
यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था। राधा ने अपनी आत्मनिर्भरता की ओर पहला कदम बढ़ाया था। यह अर्चना के लिए न केवल राधा की मुक्ति का क्षण था, बल्कि पूरे गांव में बदलाव की एक शुरुआत भी थी। राधा ने अर्चना के साथ मिलकर इस आंदोलन को और भी मजबूती से आगे बढ़ाने का संकल्प लिया।
समाज की मानसिकता में परिवर्तन
अर्चना और राधा ने मिलकर धीरे-धीरे औरतों को इस कुप्रथा के खिलाफ जागरूक करना शुरू किया। अर्चना के विचार और उसकी तर्कपूर्ण बातें अब औरतों के दिलों में घर कर रही थीं। लेकिन यह काम आसान नहीं था। गांव के पुरुष और पंडित वर्ग अर्चना को दुराग्रही मानते हुए उसे लगातार गलत रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे थे।
"यह तो हमारे धर्म की बात है, अर्चना! तुम क्या समझती हो? जो हमारी परंपराएँ हैं, वही सही हैं," गांव के एक बुजुर्ग पंडित ने कहा।
अर्चना ने संयम से जवाब दिया, “अगर हमारी परंपराएँ और धर्म महिलाओं के जीवन को नष्ट करने के लिए हैं, तो वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म का असली मतलब तो मानवता की सेवा और असल न्याय है।”
यह बात कुछ लोगों के दिल में बैठी, लेकिन कई लोग अब भी सती प्रथा को एक अपवित्र अपराध के रूप में देखने से पीछे नहीं हटे थे। अर्चना और राधा ने स्थानीय सभा में एक बैठक का आयोजन किया, जहाँ महिलाओं को अपनी आवाज़ उठाने का मंच दिया गया। बैठक में उन महिलाओं को बुलाया गया, जिन्होंने कभी इस प्रथा को सहा था, या जिनके परिवारों में सती प्रथा का पालन हुआ था।
इन कहानियों ने समाज को झकझोर कर रख दिया। कई महिलाएँ जो पहले इस कुप्रथा को भाग्य समझती थीं, अब खुद को जागरूक महसूस करने लगी थीं।
मुख्य प्रतिरोध: पुरानी सोच और आस्था
समाज में बदलाव लाने के इस संघर्ष में अर्चना को सबसे बड़ा प्रतिरोध पुरानी सोच से मिल रहा था। बुजुर्ग और धर्म के ठेकेदार इस बात से घबराए हुए थे कि अगर महिलाएं इस कुप्रथा के खिलाफ खड़ी हो गईं, तो उनका सम्मान और आस्था खत्म हो जाएगी। वे सोचते थे कि इस प्रथा का उन्मूलन से समाज की संरचना ही बदल जाएगी, और यह उनके लिए स्वीकार्य नहीं था।
एक दिन, गांव के एक बड़े पंडित ने अर्चना से कहा, “तुम यह क्या कर रही हो, अर्चना? तुम अपनी परंपराओं को नष्ट करने पर तुली हो। सती प्रथा हमारी धार्मिकता का हिस्सा है। इसे तुम अपने छोटे-छोटे विचारों से नहीं बदल सकती हो।”
अर्चना ने ठान लिया था कि वह अब पीछे नहीं हटेगी। "धर्म का असली मतलब है प्रेम, समानता और न्याय। मैं अपने गाँव और समाज को यह समझाना चाहती हूं कि यह प्रथा केवल एक कुप्रथा है और इसे समाप्त करना ही मानवता का कर्तव्य है।"
अर्चना का हौसला अब और भी बढ़ चुका था। उसने अपने संघर्ष को और अधिक मजबूत किया, और धीरे-धीरे समाज में बदलाव के संकेत मिलने लगे थे।