गांव में अर्चना के द्वारा उठाई गई आवाज ने कुछ महिलाओं को प्रेरित किया, लेकिन समाज के कई हिस्सों में इस मुद्दे को लेकर गहरी असहमति और विरोध भी देखने को मिला। अर्चना जानती थी कि यह संघर्ष केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे समाज का था। यह उस समय की सोच और समाज की संरचना से एक जंग थी, जिसमें महिलाओं को हमेशा से एक दबे और दबाव में रहने वाली कड़ी माना गया था।
गांव की गलियों में अर्चना और उसके समर्थकों की बातें सुनकर, कई लोग उन्हें असमाजिक और धार्मिक दृष्टि से गलत मानते थे। गांव के बुजुर्गों ने अर्चना को यह समझाने की कोशिश की कि सती प्रथा का पालन करना केवल एक धार्मिक कर्तव्य था, और यह एक महिला का परम उद्देश्य था। उनका कहना था कि यह प्रथा न केवल आत्मा की शुद्धता का कारण बनती है, बल्कि यह समाज की मर्यादा और सम्मान की प्रतीक भी थी।
लेकिन अर्चना की सोच अलग थी। उसने कभी भी इस प्रथा को धर्म के नाम पर महिलाओं के शोषण के रूप में नहीं देखा था। वह जानती थी कि सती प्रथा ने महिलाओं के अस्तित्व को कुचला था और उनके जीवन के अधिकार को छीन लिया था। अर्चना ने अपनी मां शारदा देवी से एक दिन पूछा, "माँ, अगर यह सच है कि सती प्रथा धार्मिक कर्तव्य है, तो फिर महिलाएं हमेशा क्यों मजबूरी में इस रास्ते पर चलने के लिए दबाव डालती हैं? क्या उनका जीवन इतना बेकार है कि उन्हें सिर्फ एक पुरुष के साथ अपनी मौत स्वीकार करनी पड़े?"
शारदा देवी ने गहरी सांस ली और कहा, "बिलकुल, बेटी! यह प्रथा केवल एक कुप्रथा है, जो समाज ने अपने तर्कों और विचारों के आधार पर महिलाओं के लिए बनाई है। यह प्रथा महिलाओं के स्वाभिमान को नष्ट करती है, उन्हें अपनी स्वतंत्रता से वंचित करती है और उनके जीवन को मात्र एक संपत्ति के रूप में देखती है। जब तक महिलाएं अपने अधिकारों को जानने और समझने का साहस नहीं करेंगी, तब तक यह प्रथा खत्म नहीं हो सकती।"
अर्चना को अपनी मां के शब्दों से हिम्मत मिली, और उसने निश्चय किया कि वह इस प्रथा के खिलाफ और भी अधिक मजबूत होकर खड़ी होगी। अब उसे यह समझ में आने लगा था कि यह केवल एक धार्मिक मुद्दा नहीं, बल्कि महिलाओं के अधिकारों और उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न था।
समाज में गहरी जड़ें जमाए कुप्रथा
गांव का समाज, जिसमें अधिकांश लोग पिछड़े हुए थे, सती प्रथा को धार्मिक आस्था और पवित्रता से जोड़कर देखता था। महिलाओं को हमेशा अपने पति के साथ जुड़ा हुआ माना जाता था, और अगर पति का निधन हो जाता, तो महिला का जीवन पूरी तरह से नष्ट समझा जाता था। गांव के प्रमुख व्यक्ति और पंडितों का यह मानना था कि महिला को अपने पति के बिना जीने का अधिकार नहीं था। सती प्रथा को धर्म की बुनियादी नींव के रूप में देखा जाता था, जिसमें महिला को अपनी 'पवित्रता' साबित करने के लिए अपने पति के साथ अग्नि में कूदना पड़ता था।
अर्चना के गांव में एक और परिवार था, जिनकी विधवा बहन का नाम राधा था। राधा का पति कुछ महीनों पहले ही दुर्घटना में मारा गया था। राधा का जीवन पूरी तरह से उजड़ चुका था, लेकिन सती प्रथा का दबाव उसे इतना अधिक था कि वह अपने जीवन को लेकर असमंजस में थी। उसके परिवारवाले और आसपास के लोग उसे सती होने के लिए कह रहे थे, यह समझाते हुए कि इस प्रक्रिया से उसकी आत्मा को शांति मिलेगी और वह अपने पति के साथ स्वर्ग में जाएगी।
राधा की मानसिक स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। अर्चना ने राधा से एक दिन बात की, और उसे समझाने की कोशिश की। "राधा दीदी, तुम्हारे पास जीवन जीने का अधिकार है। तुम्हें अपनी आत्मा को शांति देने के लिए किसी और के साथ मरने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें अपने जीवन को जीने का मौका मिलना चाहिए।"
राधा ने सुनी, लेकिन समाज के दबाव के कारण वह अपने निर्णय पर नहीं आ सकी। वह जानती थी कि अगर उसने सती होने से इंकार किया, तो गांव में उसे तिरस्कृत किया जाएगा। इस स्थिति ने अर्चना के दिल में गहरी खाई बना दी। उसे अब यह साफ समझ में आ गया था कि सती प्रथा न केवल महिलाओं के जीवन के अधिकार को छीनती थी, बल्कि यह समाज की मानसिकता और ढांचे में गहरी जड़ें जमा चुकी थी।
सती प्रथा के प्रभाव का विश्लेषण
अर्चना ने जब इस कुप्रथा के बारे में और अधिक सोचना शुरू किया, तो उसे यह समझ में आया कि सती प्रथा समाज में महिला के स्थान को पूरी तरह से नकार देती थी। इस प्रथा के चलते महिलाओं को हमेशा पराधीनता और आत्मसमर्पण की भावना के साथ जीने की मजबूरी थी। समाज ने कभी भी महिलाओं को स्वतंत्र सोच और अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करने की कोशिश नहीं की थी।
अर्चना का यह विश्वास पक्का हो गया कि सती प्रथा को समाप्त करने के लिए केवल कानूनी कदम नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता को बदलने की आवश्यकता थी। अगर समाज के हर वर्ग को इस प्रथा के दुष्परिणामों के बारे में समझाया जाता, तो वे इसके खिलाफ खड़े होते।
इस विचार के साथ अर्चना ने अपनी मां से एक महत्वपूर्ण चर्चा की। "माँ, हमें केवल अपने गांव तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। हमें समाज के हर हिस्से में इस प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैलानी होगी। केवल हमारी आवाज से कुछ नहीं होगा। यह मुद्दा समाज के हर व्यक्ति से जुड़ा हुआ है।"
शारदा देवी ने कहा, "तुमने सही कहा, बेटी। यही समय है जब हमें औरतों के हक की आवाज उठानी होगी। अगर हम चुप रहते हैं, तो यह कुप्रथा कभी खत्म नहीं होगी। हमें हर कदम पर इसे समाप्त करने के लिए संघर्ष करना होगा।"