अभी कुछ दिन पहले मुझे गुड़गाँव के एक नामी-गिरामी अस्पताल में अपनी पत्नी के इलाज के सिलसिले में रहना पड़ा था। वहाँ एक कम उम्र की नर्स मुझे जानी-पहचानी-सी लगी। कुछ वर्ष पहले मैं मणिपुर में ही था, अतः मैने सहज भाव से नर्स से पूछ ही लिया कि क्या वह मणिपुर से थी। नर्स ने बताया कि वह दार्जिलिंग से है और उसका नाम नेहा राय है। उसके नाक-नक्श से साफ था कि वह बंगाली न होकर दार्जिलिंग की बौद्ध है। उसे देखकर मुझे न जाने क्यों लगता था कि वह मेरेे एक पुराने साथी बी. डी. राय की बेटी है। जब मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उससे पूछ ही लिया, कि क्या वह दार्जिलिंग के किसी बी. डी. राय तथा उनके बेटे कपिल मुनीदेव राय से परिचित है ? उसने कुछ देर अपने दिमाग पर जोर डाला और ‘नही’ कहकर चली गयी, परन्तु मेरे भीतर बहुत पुरानी यादें उकेर गयी।
इतने बरसों बाद बी. डी. राय का नाम स्मृति में कौंध गया। उस अपनी तरह के अनोखे व्यक्ति की एक-एक बात पुरानी रील की तरह आँखों के सामने तैर गयी। 1970 के अक्तूबर में बेसिक ट्रेनिंग के बाद मैं केन्द्रीय रिजर्व पुलिस में पहली पोस्टिंग पर 25वीं बटालियन अगरतला, त्रिपुरा पहुंचा था। पहली-पहली नौकरी, वह भी घर से इतनी दूर। एक साल पहले तो दूरदराज के उस स्थान का नाम भी नहीं सुना था। बिल्कुल दूसरी दुनिया ही लग रही थी।
बहत्तर घन्टे की रेल यात्रा के बाद, जिसमें तीन बार ट्रेन बदलनी पड़ी थीं, रेल-यात्रा का आखिरी स्टेशन था धर्मानगर, जिसके आगे रेल जाती ही नहीं थी। वहाँ से अगरतला तक 170 किलोमीटर की यात्रा बस द्वारा करनी पड़ी। चारों ओर जंगल; लहरदार, घुमावदार रास्ता। किसी तरह थका-मांदा अपनी बटालियन तक पहुंचा। मन-ही-मन स्वयं को कोस रहा था, कहाँ फंस गया हँू, क्या सोच कर यह नौकरी ज्वायन की, अच्छी भली सरकारी नौकरी थी, जिसे छोड़कर कोई दूसरी अच्छी नौकरी मिल सकती थी। बढ़िया श्रेणी से एम.एस-सी. करने का क्या फायदा हुआ ? कई बार मन में आया कि वापस लौट चलूं।
खैर, जैसे-तैसे अपनी बटालियन पहुंचकर एडजूटेंट को रिपोर्ट की। उसने प्रश्न किया, ‘आप बस में क्यों आये? आपको लेने के लिए धर्मानगर रेलवे स्टेशन पर जीप भेजी गयी थी।’ बाद में पता चला कि मुझे लेने गये ड्राइवर महोदय और उसके साथी को पता लगा था कि ट्रेन कुछ लेट है, इसलिए वे स्टेशन से बाहर एक पेड़ के नीचे जीप खड़ी करके सो गये थे, और बाद में ट्रेन आने के समय उनकी आँख नहीं खुली।
अगले दिन का भी अनुभव उससे कुछ कम भयंकर नहीं था। सुबह-सुबह यूनिफाॅर्म पहनकर सीओ से आॅफिस में जाकर मिलने के लिए तैयार हो गया तथा एडजूटेंट के तम्बू में पहुंच गया। एडजूटेंट सख्त मिजाज का व्यक्ति था, परन्तु उसने मुझे भलमनसाहत भरे स्वर में बताया कि कमाण्डिंग अफसर कर्नल बी. डी. मल्होत्रा पुराने अंग्रेजों के समय के हैं, अंग्रेजियत उनकी रग-रग में भरी है। किसी जमाने में मशहूर आई.एम.ए. देहरादून के एडजूटेंट रह चुके हैं, जरा-सी अंग्रेजी गलत होने पर भड़क जाते हैं। सीआरपी में भी वे फौज के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं, कराते हैं, इसलिए उसने मुझें पहले-से ही सावधान रहने की ताकीद की, ताकि शुरू में ही कुछ गड़बड़ न हो जाए। सीओ साहब के तम्बू या टैण्ट आॅफिस, जो एक शानदार स्विस काॅटेज टेैण्ट था, के बाहर पट्टी लगी थी, जिस पर लिखा था, ‘द डेन’। आखिर वह शेर की मांद जैसी ही तो थी, जहाँ जाने में सब घबराते थे।
शेर के सामने मेरी बाकायदा पेशी की परेड हुई। सामने सफेद मूँछ वाले, बेहद रौबदार कर्नल साहब ने नीचे से ऊपर तक-जूतें से पीकैप तक-मेरा मुआयना किया। शायद कुछ कमी नहीं मिली। मैंने एडजूटेंट के वर्ड आॅफ कमाण्ड के साथ सावधान, तेज चल, थम, सेल्यूट आदि यान से किया था, मेरे हिसाब से सबकुछ ठीक ही हुआ होगा, तभी तो कर्नल साहब ने ऐसे सिर हिलाया, जैसे कह रहे हों, ‘सब कुछ ठीक ठाक है।’ मुझसे कुछ सवाल भी पूछे, फिर बोले, ‘ओके! तुम्हें ई कम्पनी में पोस्ट कर देते हैं। वहाँ गोलियाँ चलती रहती हैं, इससे धीरे-धीरे तुम्हारा गोलियों का डर भी निकल जाएगा।’ पेशी डिसमिस हुई। फिर कुछ सोचकर अंग्रेजों की तरह शब्द चबाते हुए अंग्रेेजी में शाम को अपने रेजिडेंस पर डिनर पर आने का निमंत्रण, हुक्म के अंदाज में देकर, मुझे रुखसत किया।
बाहर निकल कर लगा कि टाइगर ने थोड़ा ही डराया, और सस्ता छोड़ दिया। अब शाम के डिनर का भय था कि टाइगर के साथ डिनर के दो-अढ़ाई घन्टे कैसे झेल पाऊंगा ?
थोड़ी देर बाद एडजूटेंट चैहान सीओ के पास से अपने आॅफिस में आया और मुझसे मेरी ‘फूड हैबिट’ के बारे में पूछा। मैंने बताया कि शाकाहारी हँू, ड्रिंक, स्मोक नहीं करता। सुनकर उसका माथा ठनका। दुबारा सीओ के आॅफिस में यह सब बताने गया। वापस आकर बोला कि सीओ नाॅनवेज खाने और ड्रिंक्स के शौकीन हैं और मेरे बारे में जानकर बोले कि मुझे बता दूं कि अब शाम को उनके यहाँ डिनर पर मुझे आने की जरूरत नहीं है। उनके अनुसार मुझमें अभी ओएलक्यू (आफिसर लाइक क्वालिटी), अर्थात अधिकारी जैसा गुण नहीं है। थोड़ा अपमान-जैसा भाव तो मन में आया, पर खुशी भी हुई कि चलो पीछा तो छूटा। पूरे ‘ब्राउन-साहेब’ थे हमारे सीओ। स्वयं को अंग्रेज समझते थे और सुना था कि उसी तर्ज पर बाकी सबको ‘नेटिव’ कहते थे। उनके आॅफिस की बहुत बड़ी टेबिल पर सिर्फ एक किताब थी, जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा था, ‘किंग्स इंग्लिश’। एडजूटेंट ने यह भी बताया कि उन्हें बहुत सारे शौक हैं, जैसे बटालियन में केवल दो ही दिन आते हैं, पर निश्चित नहीं है कि किस दिन और किस समय आ जाएँ; पर जिस दिन भी आते हैं, सबको खूब खींच जाते हैं, पूरी चाबी भर जाते हैं। बटालियन का काम सुचारू चलता रहता है। यह भी काम करने का आखिर एक स्टाइल ही तो था !
अगले दिन जीप द्वारा अपनी ई कम्पनी में जाना था। चलने से पहले एडजूटेंट चैहान ने ब्रीफ किया और यह भी बताया था कि मेरी कम्पनी के पास में एक दूसरी कम्पनी भी है, जिसके कम्पनी कमाण्डर बी. डी. राय हैं, और बहुत टेढ़े आदमी हैं। सीओ सहित ऊपर के सब अधिकारी उनसे परेशान रहते हैं।
जाहिर है कि मुझे बी. डी. राय के बारे में जिज्ञासा हुई, ऐसा कौन बी. डी. राय है जिससे उच्च अधिकारी भी परेशान हैं और वह फिर भी नौकरी में जमा हुआ है।ं बार-बार मुझे सीओ का रौबीला चेहरा और बातचीत का लहजा याद आ रहा था। उनसे भी पंगा लेने वाला उनसे कनिष्ठ अधिकारी कौन और कैसा होगा ?
ड्राइवर ने बताया कि मेरी ई कम्पनी की दूरी वहाँ से लगभग 150 किलोमीटर है तथा पहँुचने में साढ़े चार-पांच घन्टे लग जायेंगे। रास्ते में घुमावदार पहाड़ी रास्ता था, कहीं-कहीं थोड़ी बहुत बसावट नजर आती थी, परन्तु चारों तरफ हरियाली भरपूर थी। मार्ग में एक-दो पुरानी बसें मिली जो यात्रियों से ठसाठस भरी थीं। पेट्रोल पम्प बर्मा शैेल के थे जिनका चिन्ह गैण्डा था। एक-दो पुरानी जीपें भी मिली, जिन्हें आर्मी से नीलामी में खरीदा गया होगा और अब खचाखच सवारी ढोने का काम कर रही थीं। आदमी, औरतें, बच्चे भूसे की तरह ठूंस कर भरे हुए थे, कुछ तो बाहर ही लटके हुए थे। ड्राइवर ने बताया कि ट्रांसपोर्ट के साधन बहुत कम हैं और सवारियाँ बहुत ज्यादा। इसलिए यही हाल रहता है। ढाई-तीन घन्टे के घुमावदार रास्ते के बाद कुछ मैदानी इलाका आया और एक छोटा-सा कस्बा आया जिसका नाम ड्राइवर ने उदयपुर बताया।
‘यहाँ प्रसिद्ध माताबाड़ी मन्दिर है, सा‘ब ! दर्शन करेंगे क्या ?’ ड्राइवर ने प्रश्न किया।
मैंने सोचा, दर्शन करने में कोई बुराई नहीं है। जहाँ आया हँू वहाँ तो भगवान भरोसे ही जीना पड़ेगा। प्रसाद, फूल आदि लेकर मैंने भी देवी के दर्शन किये। मन्दिर से निकलते हुए देखा कि दो भक्त एक बकरे को बलि के लिए ले जा रहे थे। कौतुहल-वश मैं भी रुक गया। उन्होंने बकरे के पैर धोये, माथे पर बड़ा-सा सिंदूर का लाल टीका लगाया। फिर उसे बलि-स्थल की ओर ले जाने लगे, पर बकरा टस से मस न हुआ। फिर एक आदमी ने उसके गले की रस्सी खींची और दूसरे ने पीछे से धक्का दिया पर वह पैर जमाकर अड़ गया। वह कातर दृष्टि से देख रहा था, मिमिया रहा था, शायद उसे अनुमान हो गया था कि उसके साथ क्या घटित होने वाला है ! फिर भी वे दोनो व्यक्ति खींच-धकेलकर उसे बलि-स्थल तक ले ही गए। दर्शक इकट्ठे हो गये थे। पण्डित जी थाली में पूजन सामग्री लेकर आ गए और उन्होंने धीमी आवाज में कुछ मंत्र उच्चारे। फिर मन्दिर के ही एक व्यक्ति ने दाँव से एक ही वार में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, कटने के कुछ क्षण बाद तक बकरे का धड़ हरकत करता रहा, फिर शान्त हो गया। पक्की नाली में उसका गरम खून बहता आ रहा था, एक तरफ गिरे सिर से उसकी कातर आँखें सब को निहार रही थीं। मन्दिर में लोग जोर-जोर से प्रार्थना गा रहे थे, शायद किसी की मन्नत पूरी हुई थी।
आधा-पौना घंटा चलने के बाद एक छोटा-सा नगर आया अमरपुर। आगे चलने पर कुछ दुकानें दिखाई दीं जिनमें बांस तथा टिन की छत के नीचे खाने-पीने, कपड़े-बर्तन तथा जरूरत का सामान बिक रहा था। मुझे बताया गया कि यह नूतन बाजार है और सप्ताह में दो बार यह लगता है। उस दिन सब खाली पड़ा था, वह शायद बाजार का दिन नहीं था।
आगे चलकर एक जगह टिन की छत के 50-60 बाशेनुमा घर थे। ड्राइवर गाइड की तरह लगातार बताता जा रहा था, ‘यहाँ गोमती हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट में काम करने वाले इंजीनियर और उनके स्टाफ के लोग रहते हैं, जो प्रोजेक्ट साइट पर रोजाना अप-डाउन करते हैं।’ जगह का नाम था जतनबाड़ी। हमारी दो कम्पनियाँ इसी प्रोजेक्ट की सुरक्षा में लगाई गई थीं।
बातचीत के दौरान ड्राइवर से बी. डी. राय के बारे में भी और पूछताछ की। उसने बताया कि बी. डी. राय साहब अलग तरह के आदमी हैं। शरीर से नाटे कद के हैं, सर्विस में बहुत पुराने हैं, उनके नीचे काम करने वाले उनसे बहुत खुश रहते हैं, परन्तु ऊपर वाले उनसे घबराते हैं। अपना काम बहुत ही अच्छी तरह करते हैं, कोई उनके काम में बाल बराबर भी कमी नहीं निकाल सकता। लोग कहते हैं कि वे दस्तूरी हैं और जो नियम लिखित हैं केवल उन्हें ही मानते हैं। ‘लेकिन बहुत शराब पीते हैं, रात-रात भर आग जलवाकर बरामदे में बैठे रहते हैं। कहीें इधर- उधर भी नहीं जाते। जिसे मिलना हो उनके आॅफिस में जाकर मिले, वहीं बैठे-बैठे सब जगह की रिपोर्टें मंगाकर सब-कुछ अच्छी तरह कन्ट्रोल करते रहते हैं। पर, सर उनसे दूर रहना ही अच्छा।’ उसने बना मांगे अपनी राय भी मुझे दे दी।
आम हिदायत होते हुए कि मैं बी. डी. राय से दूर रहूं, उनसे मिलने की जिज्ञासा बलवती होती गयी।
जतनबाड़ी से लगभग चालीस मिनट बाद सीआरपी का गेट आया, जहाँ मेरी गाड़ी की एण्ट्री की गयी। उसके दाहिनी तरफ एक बाशा था, ड्राइवर ने बताया, यह बी. डी. राय साहब का बंगला है। बहुत थका हुआ था, लेकिन गेट संतरी ने सूचना दी कि बी. डी. राय साहब ने उन्हें आदेश दिया हुआ है कि ई कम्पनी में जाने से पहले मैं साहब से मिलता जाऊँं, वे मेरा इन्तजार कर रहे हैं। यूनिफाॅर्म ठीकठाक करके मैं संतरी के साथ पैदल ही बी. डी. राय के बंगले पर पहुंचा। बहुत साधारण-सा घर था, राय साहब फुल फील्ड यूनिफार्म में बैठे थे। मेज पर दो गिलास, एक आधा भरा हुआ और दूसरा खाली, उल्टा, रखे हुए थे। पास में एक रम की बोतल रखी थी। अंगीठी में आग जल रही थी। मैंने पूरे सम्मान से सैल्यूट किया और अपना परिचय दिया। बी. डी. राय ने खड़े होकर हाथ मिला कर मेरा स्वागत किया, मेरे कन्धे से जरा ही ऊंचे थे। बैठा कर पूछा, ‘रम लेंगे ?’ मैंने कहा कि मैं नहीं पीता। तुरन्त बोले, ‘पीना भी मत।’ चाय मंगाई। कुछ ज्यादा बातें नहीं की, बस इतना ही कहा, ‘आँख और कान खोल कर रखना और किसी पर अधिक विश्वास नहीं करना, मुझ पर भी नहीं।’ उन्होंने यह भी बताया कि एक महीना पहले कुछ विद्रोही मिजों ने प्रोजेक्ट पर हमला किया था, दो मजदूरों को मार दिया और खाने-पीने तथा और जो कुछ सामान ले जा सकते थे, ले गये। ये मिजो चिट्टागोंग हिल ट्रैक्ट से आये थे, जो पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का हिस्सा है। अब सिक्योरिटी सख्त कर दी गयी है’ तथा फिर से दोहराया, ‘कुमार साहब, आँख और कान खोल कर रखना।’
मैं अपनी ई कम्पनी में पहुंचा। यहाँ कम्पनी कमाण्डर का बाशा ऊँचाई पर, एक टीले पर स्थित था तथा कम्पनी के नम्बर दो अधीनस्थ अफसर सेना के रिटायर्ड सूबेदार थे, तीन प्लाटून कमाण्डर सब इंस्पेक्टर थे। सभी मेरा इंतजार करते मिले। दूसरी बार चाय पी, साथ में अच्छा गर्म नाश्ता था। बाशे में दो कमरे थे, एक छोटी रसोई और सामने बरामदा। बाहर का दृश्य भी सुन्दर था। पास में बहती हुई गोमती नदी और दूर-दूर तक हरियाली ही हरियाली। दूर एक गाँव दिखाई दे रहा था। आसमान बिल्कुल साफ, एकदम नील-गगन। रात में इतने टिमटिमाते तारे कभी नहीं देखे थे। गर्म पानी में नहाया तो थकान से कुछ राहत मिली। गर्म खाना खाकर कम-से-कम छः दिन बाद ट्रांजिस्टर पर समाचार सुनकर आराम और तसल्ली के साथ सोया।
अगले दिन देखभाल कर कम्पनी का चार्ज लिया। आॅफिस, स्टोर, कोत, मैस इत्यादि देखे, तीनों प्लाटूनों का निरीक्षण किया। सब कार्य ठीक से हो गये तो शाम के समय बी. डी. राय की कम्पनी में गया।
अपने टैण्ट आॅफिस में राय बिगड़ रहे थे कि कमाण्डेंट की जगह एडजूटेंट चैहान ‘फाॅर कमांडेंट’ लिखकर कैसे खुद के हस्ताक्षर से उनका एक्सप्लेनेशन काॅल कर रहा था। मेरे सामने ही राय ने अपने हाथ से एक सख्त उत्तर लिखा। अपने कम्पनी क्लर्क को बुलाया, उस पर ‘फाॅर कम्पनी कमाण्डर’ लिखकर उसके हस्ताक्षर कराये और लिफाफे में बन्द करके डाक में भेजने का आदेश दिया। मुझे आश्चर्यचकित देखकर राय ने कहा, ‘अगर कमाण्डेंट के स्थान पर बी. डी. राय से आठ साल जूनियर अफसर उससे जवाब-तलब कर रहा है तो राय के स्थान पर उसका क्लर्क अपने हस्ताक्षर से जवाब क्यों नहीं दे सकता ?’ बात में दम था, पर मैं जानता था कि इससे राय की परेशानी बढ़ने वाली थी, इसलिए मैं चुप रहा। फिर राय ने पहले दिन की तरह दार्जिलिंग से लाई हुई बढ़िया वाली गर्मागर्म चाय पिलाई, अपने आप आॅफिस में ही मंगाकर रम पी तथा मुझे वहाँ की ड्यूटी के बारे में, उस स्थान के बारे में, प्रोजेक्ट और उसके अधिकारियों के बारे में, वहाँ के लोगों तथा खतरों के बारे में बहुत-सी जानकारियाँ दीं। बी. डी. राय पद में मेरे समकक्ष ही थे, पर उनके पास बरसों का अनुभव था। कद के बहुत छोटे थे, शायद पहाड़ी होने के कारण उन्हें भर्ती के समय कद में छूट मिली थी। उनका कद मात्र 5 फुट 2 इंच था जिसे खुद वे ‘बासठ इंच’ कहकर हँस देते थे। उम्र थी लगभग 52-53 साल, परन्तु देखने में उनकी उम्र का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता था। हमेशा खाकी यूनिफार्म में तैयार रहते थे-कपड़े के जंगल शूज, कंधे पर पुराने धूमिल हो गए कपड़े के रैंक स्टार, सर पर पुराना जंगल हैट-यह उनकी ड्यूटी, घर, बाहर, सोने, जागने, सबकी एक ही पक्की ड्रैस थी।
यह वह समय था जब अफसरों तथा अन्य रैंक के बीच बड़ा अन्तर तथा पर्याप्त दूरी रहती थी। अब रोजाना ही लगभग राय से मेरी मुलाकात होने लगी थी। प्रायः कई घन्टे बी. डी. राय के साथ गुजरते।
एक दिन राय काफी भावुक थे। फलसफाना अन्दाज में बोलते रहे, कोई किसी का नहीं होता, सब अपने लिए ही होते हैं। शायद मेरी आँखों में आने वाले सवाल वे समझ गये। आखिर उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले, लगभग सात साल के बाद, वे छुट्टी पर अपने घर दार्जिलिंग गए थे। पत्र द्वारा अपने आने की सूचना पहले ही दे दी थी, बाद में टेलीग्राम भी कर दिया था, पर स्टेशन पर कोई उन्हें लेने नहीं आया। निराश होकर अपना सामान लादकर किसी तरह घर पहुंचे। पत्नी से पूछा कि उन्हें स्टेशन पर कोई क्यों नहीं मिला, ‘मैंने तो काफी देर इंतजार भी किया’, तो पत्नी ने बताया कि तीनों बच्चे स्टेशन पर ही गये हुए हैं। थोड़ी देर बाद बच्चे भी आ गये और बाहर से ही बोले कि बाबा नहीं आये। माँ के यह बताने पर कि बाबा आ गये हैं, ये बैठे तो हैं, तो बच्चों ने कहा, ‘इस आदमी को तो स्टेशन पर देखा था। यही बाबा हैं क्या ?’ बी.डी. राय ने भी उन बच्चों को स्टेशन पर देखा था, पर पहचानते नहीं थे। राय को यह बात अन्दर तक कचोट गयी थी कि यह कैसे हुआ ? न वह अपने बच्चों को पहचान पाये और न बच्चे उन्हें ? सात साल के अन्तराल में बच्चे बड़े हो गये थे। वह इतने साल तक क्यों घर नहीं गये ? पूछने पर पहले तो वे चुप रहे पर बाद में धीरे-धीरे उन्होंने अपना दिल खोलकर रख दिया।
सन 62 के चीनी हमले के समय वह तत्कालीन नेफा के तेजू में तैनात थे। लड़ाई के बाद चीनी सेना के दो सिपाही उनकी कस्टडी में थे, शायद चीनी सेना की वापसी, विद्ड्रा करते समय, वे अपने समूह से अलग हो गये थे या रास्ता भटक गये थे, और पकड़े गये। राय की एक प्लाटून तेजू की खुली जेल की सुरक्षा में थी। वहीं उन कैदियों को रखा गया था। दोनों कैदी सिपाही बहुत भले और मेहनती थे और गार्ड की देखरेख में उन्हें जो भी काम दिया जाता, उसे चुपचाप, ईमानदारी और सफाई से करते। चाहे सब्जी लगानी हो, टोकरी बुननी हो, कुर्सी बुननी हो-सब काम लगन और कौशल से करते। भागने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की। इस तरह आठ महीने बीत गये। अब गार्ड भी उन पर भरोसा करने लगे थे। उन्हें कई बार आसपास जाने भी देते, पर वे जल्दीे ही वापस लौट आते। फिर एक दिन वह अप्रत्याशित घट गया जिसकी आशंका बिल्कुल नहीं थी। अंधेरे पक्ष की रात में गार्ड की कोठरी का ताला काट कर, उसकी रायफल लेकर तथा ड्यूटी संतरी का गला काटकर वे दोनों कैम्प से गायब हो गये। किसी को कानों-कान खबर नहीं हो पाई कि किस वक्त गये, कैसे कोठरी खोली, किसी को पता नहीं। जब अगला संतरी आया तो पता चला कि संतरी मरा पड़ा है और कैदी गायब हैं। फायर अलार्म बजाया गया, पूरी प्लाटून उनकी खोज में जुट गई। सड़क, पगडंडी, गाँव-गली, पोखर-तालाब, जंगल-गड्ढे, सब ढूंढ डाले गए, पर उनका कोई सुराग नहीं मिला। कोई ऐसा आदमी भी नहीं मिला जिसने उन दो चीनियों को कहीं देखा हो। कोर्ट आॅफ इन्क्वायरी बैठी, संतरियों को बचाकर राय ने सारी जिम्मेदारी अपने सर ले ली। बहुत बड़ा केस बना। मुकदमे चले, विभागीय जाँचें र्हुइं। कई साल तक केस चले। जिद्दी बी. डी. राय ने स्वयं केस लड़े, कोई डिफेंस असिस्टेंट या वकील नहीं किया। पीछा छूटने में कई साल लग गये, अदालत से तो निर्दोष सिद्ध हो गए परन्तु विभागीय जाँच में लापरवाही साबित हुई। इस लम्बी लड़ाई में वह आधा ही जीत पाये। उन्हें बहाल तो कर दिया गया, परन्तु प्रमोशन पर रोक लगा दी गई। इस सबसे राय टूट चुके थे। उस बीच न तो उन्हें छुट्टी मिली, न वह अपने घर गये। उनके साथ के अफसर और जूनियर प्रमोशन पाकर कमाण्डेंट बन चुके थे, यहाँ तक कि एक तो डीआईजी बन चुका था। हिमाकत और पीड़ा ने राय को विद्रोही बना दिया था। अब जो भी अफसर उनके सामने होता, वे उसे टक्कर देते। एक ही पद पर सोलह-सत्रह साल हो गये थे, अतः काम उन्हें पूरा आता था। मैं उनसे सहानुभूति रखता था, वह यह जान गये थे। कम्पनी कमाण्डर को चार बोतल रम या व्हिस्की प्रतिमाह मिल सकती थी, वे अपनी चार तथा मेरे हिस्से की चार भी लेने लगे। कई बार कम पड़ती तो बी.एस.एफ. या आर्मी कैण्टीन से मंगा कर उन्हें दे देता था। मैं सोचता था कि अगर वे रम के सहारे ही चल रहें हैं तो अच्छा है, वह ही उन्हें बिना तकलीफ के मिलती रहे। स्थिति यह थी कि अगर रम न मिले तो वे लोकल या देसी पीते थे, जो और भी गलत था। मुझे था कि एक सताये हुए इन्सान को कुछ राहत दे सकूं।
यहाँ कुछ किस्से लिखना भी ठीक रहेगा। हमारी रेज के डीआईजी जे. के. सेन थे, जो बहुत टेढ़े अफसर थे। अचानक एक दिन सिगनल से सूचना मिली कि तीन दिन बाद वे आ रहे है तथा दोनों कम्पनियों का निरीक्षण करेंगे। मेरे मातहत तीनों प्लाटून कमाण्डरों तथा इंस्पेक्टर सूबेदार भगत सिंह ने पूरे जोश के साथ साफ-सफाई, गेरू-चूना, हथियारों की सफाई, मैस की सफाई, राशन-सब्जी का प्रबंध युद्धस्तर पर आरम्भ कर दिया था। कम्पनी के बारे में जो मुझे जानना चाहिए था, उसे पढ़-समझ कर मैंने याद कर लिया था। मेरा यह पहला इंस्पेक्शन था, इसलिए तैयारी काफी बड़े स्तर पर कराई। अपनी सभी पोस्टों पर जाकर बारीकी से स्थितियों को देखा-परखा, रिकाॅर्ड्स चैक किये, साफ-सफाई, गेरू-चूना, पेंट-पालिश, हथियार, कोत, लंगर, रहने के बैरक आदि की सफाई के साथ जो भी काम हो सकते थे, कराये और चैक किये। इस कारण दो दिन तक बी. डी. राय से नहीं मिल सका। दो दिन बाद राय से मिला तो वे निश्चिंत थे, जैसा चलता आ रहा था, चल रहा था, कहीं कोई भाग-दौड़ नहीं, कोई चूना-गेरू या दिखावा नहीं। यह उनका आत्मविश्वास था या अनुभव, या मन में कुछ और चल रहा था, मैं परख नहीं पा रहा था। मैंने दबी जुबान में कहा भी कि डी.आई.जी. सेन कुछ ज्यादा टेढे बताये जाते हैं। उन्होंने जवाब दिया, ‘जानता हँू, वह भी मुझे जानता है।’ फिर रम के दो सिप लेकर बोले, ‘दिल्ली में आराम से बैठना ही ड्यूटी नहीं होती, उसे पता होना चाहिए कि आॅपरेशन एरिया में क्या कठिनाइयाँ होती हैं, क्या खतरे हैं, क्या दिक्कतें हैं। यहाँ आकर व्हिस्की पान कर, मुफ्त का मुर्गा-मछली खाकर इंस्पेक्शन का लम्बा-सा नोट लिख देना कि ये कमियाँ हैं, बहुत आसान है। क्या यही इंस्पेक्शन होता है ? हम लोग भी तो उनको बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते। हद दर्जे की चापलूसी करते हैं। पिछली बार, दो साल पहले दूसरे कमाण्डेंट गुरमेल सिंह के समय यही डीआईजी सेन आया था। हम पर हावी हुआ। वह सीओ खुशामद करता रहा, खिलाता-पिलाता रहा तथा अपनी इन्सल्ट कराता रहा। डीआईजी सेन कमांडेंट गुरमेल सिंह से बोलता है, ‘गुरमेल, यू आर ए फूल!’ छः फुट ऊंचा एक्स आर्मी अफसर खिसिया कर हँसता हुआ कहता है, ‘यस सर, यस सर ! आई एम डेमफूल !’ और यह सब वह अकेले में नहीं, अफसर मेस, सभी बटालियन अफसर, लोकल अफसर तथा महिलाएँं-सबकी मौजूदगी में कहता था। क्या इज्जत रही ? डीआईजी सेन में बहुत अहंकार है, ईगो है। चलो, इस बार तमाशा देखना, मैं कैसे पंचर करता हँू।’ मेरे पल्ले कुछ बातें पड़ीं, कुछ नहीं पड़ीं, सोचा कुछ बातें सही हैं, पर अफसर की अगाड़ी और घोडे की पिछाडी से बचना ही चाहिए। बी. डी. राय फिर बोले, ‘मैंने पच्चीस-तीस साल में यहाँ दो तरह के सीनियर देखे हैं, एक खाने वाले और दूसरे गुर्राने वाले। पर यह खाता भी है और गुर्राता भी है।’
अगले दिन डीआईजी सेन की फ्लेग जीप की सवारी एस्कोर्ट के साथ पहुंची। मैंने और बी.डी. राय ने स्वागत किया। उतरते ही बी. डी. राय को टोकने के लहजे में डीआईजी सेन ने पूछा, ‘राय, आपने शेव क्यों नहीं की है ?’ बी. डी. राय ने तपाक से उत्तर दिया, ‘मैं एक दिन छोड़कर एक दिन शेव करता हँू और आज शेविंग करने का दिन नहीं है !’ ईंट का जवाब पत्थर से सुनकर सब हक्के-बक्के रह गये।
डीआईजी का अगला सवाल था, ‘आपने इंस्पेक्शन के समय के लिए प्राॅपर ड्रेस क्यों नहीं पहनी ?’
राय ने टका-सा जवाब दिया, ‘यह आॅपरेशनल एरिया है, पीस स्टेशन नहीं है। उसी के मुताबिक मेरी ड्रेस बिल्कुल ठीक है।’ और राय ने उन्हें नियम का हवाला भी साथ-साथ दे दिया।
डीआईजी का अनुमान था कि उनका खाने-पीने, ठहरने का प्रबंध सरकारी या गोमती प्रोजेक्ट के गैस्ट हाउस में होगा, परन्तु बी. डी. राय ने उन्हें बताया कि उनका इंतजाम यहीं टैण्ट में, सबके बीच किया गया है, ताकि वे यहाँ रहने की वास्तविकता और कठिनाइयों को जान सकें। दूसरे, डाक बंगले में लोकल एमएलए आयेगा, अतः डीआईजी को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि निर्वाचित विधायक या सांसद, सरकारी अफसरों से सीनियर होते हैं। इस बात में थोड़ा दंश था जो निश्चय ही डीआईजी को चुभा होगा।
एक के बाद एक ऐसी बातें हो रही थीं, जिनसे डीआईजी महोदय चिढ़ते जा रहे थे, पर बी. डी. राय पर वे भी लगातार चोट करने से नहीं चूक रहे थे। उन्होंने चारों ओर नजरें घुमाकर कहा, ‘राय, तुम्हारी कम्पनी ने इंस्पेक्शन के लिए साफ-सफाई का कुछ काम भी नहीं किया, आखिर क्यो ?’ राय ने बताया कि यह आॅपरेशनल एरिया है, अतः इसकी कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। डीआईजी को उनके ठहरने के स्थान पर छोड़कर हम दोनों नीचे राय के बंगले के पास आकर डिनर के बारे में बातें करने लगे।
अपने टैण्ट से डीआईजी ने देखा, एक सिपाही एक बड़े-से मुर्गे को दौड़कर पकड़ने का प्रयास कर रहा था और मुर्गा बचने के लिए डीआईजी के टैण्ट के चारों ओर पंख फड़फड़ाता, काँव-काँव करता दौड़ रहा था। आखिर सिपाही उसे पकड़ने में कामयाब हुआ और उसे लेकर मैस की ओर जाने लगा तो डीआईजी ने उसे बुलवा कर पूछा कि किसका मुर्गा है, उसे कहाँ ले जा रहे हो। बेचारा सिपाही घबराकर बोला, ‘राय साहब का मुर्गा है, आपके डिनर के लिए काटने ले जा रहा हँू।’ खाने के शौकीन डीआईजी ने मुर्गा देखकर कहा, ‘यह तो बूढ़ा मुर्गा है। इसे नहीं खाऊंगा।’ फिर झुंझलाते हुए यह कहकर अपने टैण्ट में चले गये कि अब वह थोड़ा आराम करेंगे और डिनर के समय मिलेंगे।
जो कुछ घट रहा था मेरे लिए वह सब अनोखा था। मैंने बी. डी. राय से कहा कि मैं भी कपड़े बदल कर आऊंगा, तो राय ने मुझे रोक लिया और कहा कि अपनी कम्पनी से कपड़े यहीं मंगा लो, यहीं बदल लेना। डिनर में अभी दो घन्टे हैं। और वे अपनी आदत के अनुरूप रम का पैग बनाकर आग के सामने बैठ गये। फिर धीरे-धीरे बोले, ‘मुझे लगता है कि डीआईजी यहाँ किसी खास उद्देश्य से आया है, या भेजा गया है। बात यह है कि यह मुझे सुधारना चाहता है, और मैं इसे सुधारना चाहता हँू। रैंक पर क्यों इतना घमण्ड, इसे पता है कि अगर मेरी कम्पनी से चीनी पीओडब्ल्यू न भागते तो मैं भी डीआईजी होता।’ इतने में लंगर सिपाही और मैस हवलदार आये और पूछने लगे कि वे क्या करें, डीआईजी साहब ने बूढ़े मुर्गे को मुर्गा काटने को मना किया है। बी. डी. राय ने उन्हें फटकारते हुए कहा, ‘मुर्गा बुड्ढा है तो डीआईजी भी बुड्ढा है। यही कटेगा।’ वही हुआ जिसकी आशंका थी। डिनर में थोड़ा खाने के बाद शायद सेन साहब को मुर्गा पसन्द नहीं आया, वे उठ खड़े हुए। हम भी पूरा खाये बिना उठ गये। अगले दिन सुना कि रात में बंेचारे डीआईजी साहब मच्छरों के कारण ठीक से सो भी नहीं पाये। टैण्ट के बाहर ही घूमते रहे। मैंने अनुमान लगाया, हो सकता है, भूख के मारे न सो पाये हों।
अगले दिन मैं अपनी कम्पनी की तैयारी में लग गया क्योंकि उससे अगले दिन मेरी कम्पनी का निरीक्षण होना था। बाद में सुना कि इंस्पेक्षन के दौरान कम्पनी आॅफिस में डीआईजी ने बी. डी. राय को कई बातों में धेरने का प्रयास किया, परन्तु असफल रहे। शायद उस इलाके के बारे में, वहाँ के गाँवों के बारे में, जनजातियों के बारे में जितना बी. डी. राय जानते थे, कम ही लोग जानते थे। राय की एफ कम्पनी की दो प्लाटून सड़क के पास ही ड्यूटी कर रही थीं। वहाँ जाकर डीआईजी ने देखा-भाला, कुछ कमियाँ बताईं, सुझाव दिये। यहाँ तक तो सब ठीक रहा। परन्तु एक प्लाटून ऊँची पहाड़ी पर, जिसे पाॅइंट एट-जीरो-एट कहा जाता था, स्थित थी। वहाँ जाने के सम्बन्ध में बी. डी. राय ने सुझाव दिया कि व्यर्थ में आपको तकलीफ होगी, चढ़ाई का मामला है, अतः रहने दें, परन्तु डीआईजी नहीं माने। राय ने तो यह भी कहा कि बूढ़ा होने के कारण उन्हें स्वयं भी वहाँ जाने में परेशानी होती है, आखिर उम्र का मामला है। परन्तु डीआईजी को ‘बूढ़े’ शब्द पर ऐतराज हो आया। उन्होंने जाने की ठान ली। खैर, प्रोटेक्शन पार्टी को साथ ले, चलने में मदद के लिए लाठी आदि लेकर चले। आधे-पौने घण्टे चलकर हाँफते-हाँफते सेन साहब का बुरा हाल हो गया, किसी तरह मंजिल तक पहँुचे। वहाँ पहुंचते ही बाँस की बनी मेक शिफ्ट कुर्सी पर धम्म से बैठ गये। अरे यह क्या ! कुर्सी डीआईजी महोदय का बोझ और बैठने का प्रेशर संभाल न सकी, टूट गयी, साहब गिर पड़े और टूटे बांस का कुछ हिस्सा उनको चुभ भी गया। फिर तो उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया। बोले, ‘राय ! तुम मुझे जानबूझकर मार देना चाहते हो ! यू वान्ट टू किल मी !’ कहावत है कि जब मुसीबत आनी होती है तो कारण स्वयं ही बन जाते हैं। राय ने तो साहब को नेक सलाह ही दी थी कि रास्ता दुर्गम है, उम्र के लिहाज से ऊपर न जायें, पर उन्होंने नहीं माना तो राय का क्या दोष ! डीआईजी के लिए नीचे से कुर्सी मंगाई गयी, जिस पर उन्हें बैठाकर सिपाहियों ने उन्हें नीचे पहुंचाया। राय शान्त रहे और डीआईजी के अगले कदम का इंतजार करते रहे। नीचे आते ही डीआईजी ने जुबानी और लिखित में आदेश दिया कि अगले दो महीनों में पाइंट एट-जीरो-एट तक सड़क बनाई जाये तथा वहाँ की एफ कम्पनी का निरीक्षण सस्पेंड किया जाता है, दो माह बाद किया जाएगा।
अब उन्हें मेरी ई कम्पनी के निरीक्षण के लिए आना था। हम तैयार थे। मैंने अपने बाशे को तैयार कर रखा था, पर्दे व कुछ फर्नीचर गोमती प्रोजेक्ट के अधिकारियों से मंगा कर लगवा दिये थे। उनके चीफ इंजीनियर भी उस दिन प्रोजेक्ट देखने आये हुए थे, उन्हें भी भोजन पर आमंत्रित कर लिया था। डीआईजी साहब के अहम की कुछ पूर्ति होती दिख रही थी। चीफ इंजीनियर ने उन्हें प्रोजेक्ट दिखाने, और चाय पर आमंत्रित कर लिया था। उन्हें नक्शे पर व साइट पर, दोनों जगह प्रोजेक्ट की ब्रीफिंग दी। बढ़िया चाय पिलाई। चाय पर सीनियर इंजीनियर भी मौजूद थे। मैं देख रहा था डीआईजी आनन्दित थे, कुर्सी टूटने पर शरीर और अहम को लगी चोट ठीक हुई प्रतीत हो रही थी।
अगले दिन सवेरे उन्होंने मेरी कम्पनी का निरीक्षण आरम्भ किया। कम्पनी हैडक्वार्टर पर सबकुछ ठीक रहा। कुछ सुझाव उन्होंने दिये, जिन्हें हमने चुपचाप डायरी में नोट कर लिया कि उनका अनुपालन करेंगे। मगर असली बम प्लाटून पोस्ट पर फटा। आॅपरेशन एरिया में होने के कारण पूरी प्लाटून ‘स्टैण्ड टू’, अर्थात सब अपने हथियारों के साथ अपने मोर्चे में थे। डीआईजी यहाँ तक तो ठीक रहे। उन्होंने ‘स्टैण्ड डाउन’ कराया, पूरी प्लाटून दौड़कर एक स्थान पर आकर लाइन में लग गयी। प्लाटून कमांडर को आकर डीआईजी के सामने हथियार के साथ सैल्यूट करना था और रिपोर्ट देनी थी। बिल्कुल नियम के अनुसार प्लाटून कमांडर ने अपने दाहिने कंधे पर अपनी स्टेनगन के साथ आकर बांये हाथ से सैल्यूट किया, कि डीआईजी अचानक भड़क उठे, ‘इस प्लाटून कमाण्डर ने मुझे बांये हाथ से, टट्टी के हाथ से, सैल्यूट किया, इसे फौरन निलंबित करो।’ परन्तु प्लाटून कमांडर, जो पुराना इन्स्ट्रक्टर (हथियारों का अनुभवी उस्ताद) था, अड़ गया कि ड्रिल मैनुअल के हिसाब से बिल्कुल सही किया है। हथियार तो दाहिने कंधे पर ही होता है। अब डीआईजी ने चिल्लाकर कहा, ‘ड्रिल मैनुअल को बदलो’। बात बिगड़ती देख मैंने प्लाटून कमांडर को एक तरफ ले जाकर धीरे-से समझाया और जोर से कहा, ‘वापस जाओ और दोबारा से सही ढंग से रिपोर्ट करो।’ बेमन से प्लाटून कमांडर पीछे गया, स्टेनगन को बांये कंधे पर शीलिंग आर्म करके दाहिने हाथ से डीआईजी को सैल्यूट किया और रिपोर्ट किया। इस बार सैल्यूट से डीआईजी संतुष्ट हो गयेे। फिर उन्होंने एक-एक जवान का निरीक्षण शुरू किया। एक जवान के पास जाते, निचली पलक को हाथ से नीचे करते। इसी तरह उन्होंने सबका निरीक्षण किया, मुझे और प्लाटून कमांडर को समझ नही आ रहा था कि यह हो क्या रहा है, और अब आगे क्या होगा। आखिर में बोले, आप लोग जवानों को ठीक खाना दे रहे हंैं। यही जांच कर रहा था। खैर, मेरी कम्पनी में मोटे तौर से सब-कुछ ठीक-ठाक ही हो गया था।
सेन साहब के रुखसत होने के बाद दोनों कम्पनियों को चैन मिली, सब-कुछ पुराने ढर्रे पर आ गया। एक दिन पहाड़ी तक सड़क बनाने की बात भी आयी। राय का मत था कि उनके रहते यह डीआईजी अब यहाँ नहीं आयेगा, अतः कुछ करने की जरूरत नहीं। हाँ, राय मुझ पर पूरे मेहरबान रहे। अपने अनुभव से मुझे काफी-कुछ बताते रहे, कैसे इंन्क्वायरी करनी चाहिए, एकाउण्ट और हथियारों को कैसे चैक करना चाहिए, उन्हें ये सब चीजें बड़ी अच्छी तरह आती थीं। इससे मेरे ज्ञान में निरन्तर वृद्धि हुई।
सोचा था कि डीआईजी सेन नामक बला टल गयी है, पर ऐसा नहीं हुआ। तीन महीने बाद एक दिन क्रेश सिगनल आया कि डीआईजी ने सड़क बनाने का जो टास्क बी. डी. राय को दिया था, उसे देखने आ रहे हैं। मैं सोच रहा था, अब कौन-सा बम फूटेगा। राय ने कोई सड़क-वड़क नहीं बनवाई थी, आराम से बैठे थे। लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि डीआईजी के संदेश के बावजूद राय बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए।
उन्होंने मुझसे कहा कि अपनी कम्पनी के कुछ जवानों को भी उनकी कम्पनी के साथ वर्किंग के लिए उनके पास भेज दूं। अगले दिन उन्होंने एक सीधा चैड़ा रास्ता नीचे से पोस्ट तक साफ करवा दिया, दोनों साइडों पर चूने से लाइनें डलवा दींे। दोनों तरफ ईंटें तिरछी करके गाड़ दी गयीं। उस सीधी चढ़ाई पर गाड़ी तो क्या, कैसे भी कोई चढ़ नहीं सकता था। डीआईजी सेन पधारे तथा बिना कोई अन्य बात किये बी. डी. राय को आदेश दिया, ‘चलो, सड़क दिखाओ!’ बी. डी. राय ने सामने सड़क की ओर इशारा किया, ‘सर, सामने सड़क बना दी गयी है।’ उनकी जीप कठिनाई से उस सड़क पर लभग दो सौ मीटर चली, आगे चढ़ाई नहीं चढ़ पाई तथा घुर्र-घुर्र कर रुक गयी। डीआईजी ने राय से फिर पूछा, ‘कहाँ है सड़क ?’ राय ने बिना विचलित हुए उत्तर दिया, ‘सर, हम सड़क पर ही चल रहे हैं। वह देखिये,’ उन्होंने चूने के निशानों और गड़ी हुई ईंटों की ओर इंगित करते हुए कहा, ‘सड़क ऊपर तक जा रही है।’ डीआईजी भुनभुनाए, ‘इस गे्रडियेन्ट पर कौन जा सकता है ?’ राय बोले, ‘सर, आपने ग्रेडियेन्ट पर जाने का आदेश नहीं दिया था। सड़क कहा था, सो बन गयी।’
मामले ने काफी तूल पकड़ा, काफी नोक-झोक हुई। डीआईजी चीखते-चिल्लाते, नाराजगी जाहिर करते हुए तुरन्त वापस चले गये। माहौल तनावपूर्ण हो गया था, परन्तु राय संयत थे, समभाव में थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। शायद उन्हें ऐसी प्रतिक्रिया का पहले से ही अंदाजा था और वह इसके लिए तैयार थे।
कुछ दिनों बाद वार्षिक कम्पनी रोटेशन के तहत मेरी कम्पनी अगरतला एयरपोर्ट पर तैनात हो गयी। उस समय तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से हजारों की संख्या में शरणार्थी ़ित्रपुरा में आ रहे थे। माहौल गर्मा रहा था। सेना तथा अन्य बलों में कर्मियों के अवकाश पर रोक लगा दी गई थी। ऐसे समय बी. डी. राय का परिवार-पत्नी, दो बेटियाँ तथा एक पुत्र- अगरतला रहने के लिए आ गया था। उनके लिए आवास ढूंढ़ने में मैने भी बी. डी. राय की चुपचाप मदद की थी। नाराज कमाण्डेंट ने राय को आदेश दिया कि ‘अगरतला फैमिली स्टेशन नहीं है, इसलिए परिवार को वापस भेजें। आपने कोई अनुमति भी नहीं मांगी और न ही किसी को इस सम्बन्ध में बताया।’ राय अड़ गये तथा उत्तर में लिख दिया कि भारत का संविधान अपने हर नागरिक को देश में कहीं भी रहने तथा आने-जाने का अधिकार देता है। मैं सरकारी कर्मचारी हँू, मेरे ऊपर पाबंदी लग सकती है, मेरे परिवार पर नहीं। मैंने उसे नहीं बुलाया, इसलिए अनुमति की जरूरत नहीं थी। मेरी पत्नी और बच्चे स्वयं ही आ गये तो मैं क्या कर सकता हँू। उन्हें भारत का संविधान इजाजत देता है कि कोई भी भारतीय भारत के किसी भी स्थान पर जा सकता है। बात कानूनसंगत थी, अतः बी.डी. राय ने परिवार को अगरतला में ही रखा।
राय के रिटायरमेंट में अभी दो से कुछ अधिक वर्ष शेष थे कि उन्हें एक सील बंद पीला लिफाफा मिला, जो दिल्ली स्थित सीआरपी निदेशालय से भेजा गया था। राय ने उसे पढ़ा, बिल्कुल शान्त रहे और उसे जेब में रख लिया, तथा किसी को कोई आभास नहीं दिया कि पत्र में क्या लिखा था। बटालियन एडजूटेंट चैहान ने गुपचुप रूप से मुझे बताया कि बी. डी. राय को सीआरपी से ‘अक्षमता’ के आधार पर अनिवार्य सेवामुक्त, अर्थात कम्पलसरी रिटायर कर दिया गया है। यही आदेश सीलबन्द लिफाफे में था। स्वभावतः मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। पूरी बटालियन में सबसे अधिक सहयोग तथा काम सीखने का अवसर मुझे बी. डी. राय से मिला था। बड़े बेमन से दुःखी होकर मैं राय के निवास पर, यह सोचते हुए कि कैसे और क्या कहूंगा, पहुंचा। दरवाजा बन्द था, अन्दर से नाच-गाने की आवाजें आ रही थीं। खटखटाने पर दरवाजा खुला। भीतर का दृश्य कल्पनातीत था। जश्न का माहौल था, पूरा परिवार किसी नेपाली गीत की धुन पर घूम-घूम कर नृत्य कर रहा था। मुझे खींचकर नृत्य में शामिल करने के लिए ले जाना चाहा, पर मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि यह कर सकूं। थोड़ी देर बाद घर के बने व्यंजनों के साथ चाय आई, पर न आज चाय का मन था, न कुछ खाने का। बटालियन हैडक्वार्टर से बी. डी. राय को विदाई के लिए आयोजन में आने का अनुरोध किया गा, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। उनकी कम्पनी ने अपने लेवल पर उन्हें विदाई देनी चाही, मगर उन्होंने उसे भी अस्वीकार कर दिया।
अगले दिन राय सपरिवार अगरतला से चले गये। केवल मैं ही उन्हें अगरतला एयरपोर्ट से कलकत्ता की आधे घन्टे की फ्लाइट में एयरक्राफ्ट के अन्दर तक जाकर विदा कर सका क्योंकि मेरी एयरपोर्ट पर ही ड्यूटी थी और मेरे लिए यह आसान था। विदाई के समय भी बी. डी. राय वैसे ही थे, जैसे सदा दिखाई देते थे। उनके जाने के बाद मैंने एक-दो पत्र उन्हें लिखे भी, पर किसी का उत्तर नहीं आया।
पचास वर्ष से अधिक गुजर गये, परन्तु बी. डी. राय को मैं कभी भुला नहीं पाया। कौन इतने बुरे समय में भी डांस कर सकता है ? कौन डीआई.जी सेन जैसे दम्भी व्यक्ति के अहम में पंचर कर सकता है ? सुख-दुःख में इतना समभाव कितने लोग रख सकते हैं ? लाभ-हानि में कैसे अपने को टूटने नहीं देना चाहिए, यह बी. डी. राय में ही दिखाई दिया। शायद वे उस मनःस्थिति में पहुंच चुके थे, जिसे कबीर ने निम्न प्रकार व्यक्त किया था-
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जाकोे कछु न चाहिए, वे साहन के साह।।
तभी तो सम्भवतः सभी इच्छाओं, चिन्ताओं से मुक्त रहते हुए, लगभग 30 वर्ष नौकरी करके उन्हें मुक्ति का अहसास हो रहा था और वे ऐसे चले गये जैसे कभी उस नौकरी में थे ही नहीं। हाँ, एक बात और, मैंने एक-दो बार उनका पूरा नाम जानने की इच्छा भी जताई थी, पर उन्होंने हर बार यही कहा कि मेरा नाम तुम ‘बंगाली दार्जिलिंग राई’ समझना, यही काफी है। यह राय नहीं राई है, बांगला का राई अंग्रेजी में आर ए आई लिखा जाता है, पर यह राय नहीं राई है।
यही थी बी. डी. राय की कहानी, जो नर्स नेहा राय को देखकर मेरे जेहन में कौंध गई। उसने अपना नाम और दार्जिलिंग ठिकाना बताकर बावन वर्ष पूर्व साथ रहे एक ‘भद्रमानुष’, जो सच्चे अर्थों में स्थितप्रज्ञ था, की याद दिला दी, जो सच्चे वीतरागी की तरह अच्छी-भली नौकरी को छोड़कर चला गया-‘राजीव-लोचन राम चले तजि बाप का राज बटेऊ की नाईं।’