Kabhi Dhoop Kabhi Chhavon in Hindi Short Stories by Devendra Kumar books and stories PDF | कभी धूप कभी छांव

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कभी धूप कभी छांव

कभी धूप कभी छांव

 जीवन में भी और यूनिफार्म सर्विस के दौरान भी तरह तरह के रंग मुझे देखने को मिले, विशेष रूप से जब कई तरह के विभागों में मुझे काम करने के अवसर मिलें| कोई अदृश्य शक्ति चाहे उसे कुछ नाम दो, भाग्य, नियति या पूर्व जन्म के कर्म, या संस्कार, आपकी मेहनत या बुद्धि या बड़े बूढों का, गुरु आदि का आशीर्वाद,| ये सब आपको जब चाहे जहाँ तहां धकेल देते है|

 ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ जो अब सपना है या अच्छी खासी कहानी| जो चाहा था वह नहीं हुआ| मैं अपना छोटा शहर कभी भी नहीं छोड़ना चाहता था, पर एक बार वह जो छुटा बस छुट ही गया, केवल छुट्टी लेकर जा पाया, शादी विवाह में गया बसा कभी नहीं पाया था, जैसे मेरे पिता एक बार गाँव छोड़ कर नगर आये और गाँव में फिर कभी नहीं रह सके थे, जहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी उनका परिवार रहता खेती करता आया था| अब बच्चे विदेश नौकरी पर गए बस वहीँ के हो गए| कहते रहेंगे अब आयेंगे जब आयेंगे पर पता है भले ही जो कहें, जो चाहें वही होगा जो होना है|

 हमारी सभी कक्षा में सबसे मेधावी और मेहनती सुरेश शर्मा पढने में सबसे ज्यादा अंक पाने वाला था और इंजीनियरिंग डिग्री लेकर जिसने कई बड़ी कंपनियों में काम किया और छोड़ा, खुद का उद्योग लगाया सफल नहीं हुआ, वापिस अपने पिता के पास आकर अब तंगी में बामुश्किल जिन्दगी गुज़ार रहा है, खुद खाली बैठा है और पत्नी एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं और घर का खर्चा चलाती हैं| इसके विपरीत दसवीं से आगे न चल सकने वाला रज्जी यानि राज कुमार पुरी बड़ा उद्योगपति बना बैठा है करोडपति| सुरेश जैसे कई उसके यहाँ नौकरी करते सो बुद्धिमान वही हुए जो जीवन में सफल हुए न कि क्लास रूम की पढाई में|  

    उस समय हमारे छोटे से शहर मुज़फ्फरनगर में ज्यादा कुछ सोचने समझने को नहीं था| मेरे पिता अपना गाँव छोड़ने वाले कुटम्ब के पहले इंसान थे इस शहर में आकर रहने लगे थे| वह भी इस कारण कि एक साधारण किसान के परिवार में जब छह बेटे हों तब ज़मीन छह जगह बंट बंट कर एक के हिस्से में इतनी कम रहती कि गुज़ारा मुश्किल होता| इसलिये यह बड़ी बात हुई कि मेरे पिताजी को पढने का मौका मिल गया था और वे पढ़ लिख कर मुज़फ्फर नगर में अध्यापक बन गए थे| मेरा छोटा चाचा भी उन्ही के पास रह कर पढने आ गया था| परिवार में तो पह्ले ही नहीं, गाँव में भी इनें-गिने थे जो पढ़ गए थे व जिनकी नौकरी भी शहर में लग गयी थी| पहली वर्ल्ड वॉर बस ख़त्म हुई थी, भारी आर्थिक मंदी का जमाना था गाँव देहात में काफी तंगी थी किसान जो कड़ी मेहनत से पैदा करते थे बेहद सस्ता बिकता था सो पैसे की कमी बनी रहती थी| नौकरी पेशे में बेहद कम वेतन के बावजूद कम से कम थोडा बहुत पैसा ज़रूर बच जाता था|

 मैं तो शहर में पैदा हुआ बड़ा हुआ, मुहल्ले के कुछ हम से बड़े बच्चे एक्टर बनने के सपने लिये ज़रूर घर से बम्बई भाग जाते थे| मेरी कक्षा के छोटे लाल का बड़ा भाई मुन्नन जो काफी फैशनेबल था, भी मशहूर फ्रंटियर मेल से इसी काम के लिये भगा था| हम सोचते थे कि जल्दी ही वह फिल्म में दिखाई देगा, छ महीने बाद वापिस आया तथा उसने एक सजी धजी रिक्शा खरीद कर चलाना शुरू किया था, बच्चों का कहना था कि जब उसे फिल्म में हीरो का काम नहीं मिला वहां रिक्शा चला कर गुज़ारा किया उसे से इसने रिक्शा खरीदी अब उस के पास पूरे शहर में सबसे सजी धजी रिक्शा थी तथा वह सबसे ज्यादा बम्बई-पलट फैशनेबल रिक्शा वाला था| हमें तो वह एक फ़िल्मी  एक्टर से कम नहीं लगता था| उसे पूरी उम्मीद थे कि एक दिन देवानंद की जगह वही काम करेगा| मन्नन देवानंद का हेयर स्टाइल, बालों, कपड़ों व बोलने के देवानंद के झटकों को अपना कर उसकी नक़ल करता था|

 दो तीन साल बाद मन्नन अपनी झालरदार एक्टरों के फोटो सजी रिक्शा बेच कर फिर से बंबई भाग गया था, उसके बाद कभी वापिस नहीं आया| काफी दिनों तक हमें उसकी फिल्मों का इंतजार बना रहा था|        

   जिन्दगी का पहिया तेज़ी से घूम रहा था, बड़े परिवार तथा छोटे घर में आराम से घर चल रहा था, 1947 में बहुत से लोग नए बने देश पाकिस्तान से जान बचा कर आये  शरणार्थी हमारे मुहल्ले में आसपास एक एक छोटे कमरे बड़े बड़े परिवारों के साथ किसी तरह गुज़ारा कर रहे थे| पांच छ साल में ही काफी संभल गए थे, नई बदली परिस्थितियों में अपने को ढाल रहे थे|

अतः हमें अपना छोटा मकान उस समय कभी छोटा नहीं लगा, न ही पिताजी की कम आमदनी की अवस्था, क्योंकि सब कुछ तो तुलनात्मक होता है आस पास से बेहतर व सुविधा पूर्वक रह आरहे थे| गाय रखी हुई थी गांव से राशन पानी आ जाता था|

 आये हुए शरणार्थी अपने को पुरुषार्थी कहलाना पसंद करते थे वास्तव में थे भी जिन्होंने मेहनत व प्रयास के बल जो अपनी कठिनाईयों से लड़ाई करते हुए आगे बढ़ रहे थे| अपने साथ पढने वाले, खेलने वाले काफी संख्या में ऐसे ही थे जुझारू परिवारों से थे, साथ वाले कई साथी सुबह बिस्कुट बेचते, स्कूल के बाद भी कुछ न कुछ जो संभव था, जैसे अपने पिता छोले वाले के साथ जाकर उसकी मदद करने वाला गुल्ला असली नाम गुलशन, साबुन वाली का बेटा रज्जी असली नाम राज कुमार नरूला साबुन की टिक्की को काट कर, उस कर दबा कर अपने स्टाम्प लगाता था, यह काम कभी कभाक रज्जी के साथ मिल कर हम बच्चे भी करते थे| अब जान कर अच्छा लगता है कि रज्जी अब बड़ी इंडस्ट्री का मालिक है, कई सौ  लोगों को रोज़गार देता है| बहुत ज़रूरतमंद लोगों की मदद करता है| मुसीबत कठिनाईयों ने  ज्यादातर इन लोगों को मज़बूत किया है, आगे बढाया है, उनके पास विभाजन से पहले छावं  थी अब धूप ही धूप| यही जीवन का नियम है, प्रकृति में भी ‘सर्वाइवल फॉर फिटेस्ट’ का नियम हर तरफ दिखाई देता है| यह लोग सरवाईवर से सफल बन कर आगे ही आगे बढे|

मुज़फ्फरनगर शिक्षा के लिये एक अच्छा केंद्र  माना जाता था, उस समय वहां सबसे अच्छा विद्यालय गवर्नमेंट हाई स्कूल था, जहाँ काफी छांट कर दाखिला होता था| कक्षा पांच में अच्छे अंक अपने अध्यापकों की मेहनत के फलस्वरूप आ गए थे| इसलिये आराम से दाखिला  हो गया था| हमारे प्रिंसिपल अख्तर हुसैन बेहद सख्त थे, बगल में फौजी जनरल की तरह का बेटन रखते थे तथा उसका  हम विद्यार्थिओं पर खूब प्रयोग करते थे, कभी थोडा सा भी लेट होने पर, कभी स्कूल ड्रेस ठीक न होने पर, कभी जूते पर पोलिश न होने पर, कभी कोई शैतानी पकड़ी जाने पर| वहां के पांच साल ने क्या कुछ नहीं सिखाया| साथ पढने वाले कई नासा के, इसरो के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजिनियर बन पाए| मुज़फ्फरनगर से पढ़े विद्यार्थी उस समय की इंजीनियरिंग के लिये प्रसिद्ध रूडकी यूनिवर्सिटी में खूब संख्या में जाते थे, इसी तरह से किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में भी| अपने राम ने भी एम.एस.सी.(केमिस्ट्री) कर ली जिसका भी ठीक-ठाक स्कोप था, जल्दी नौकरी लग भी जाती थी| कुछ बहुत बड़े अरमान नहीं थे बस यहीं मुज़फ्फरनगर में कॉलेज में लेक्चरर लग जाए यहीं  सबसे बड़ी इच्छा थी| अपने विभागाध्यक्ष ने आश्वासन दिया हुआ था क्योंकि एक वेकेंसी थी| उस वर्ष मेरे सर्वाधिक अंक भी थे, पर वह थोड़े ही होता है जो सोचते हैं मेरे स्थान पर दूसरे बाहर के कैंडिडेट को रख लिया गया| उस के पढ़ने का अनुभव भी था अधिक योग्यता थी सो ख्वाब टूट गया था|

 राजस्थान के एक डिग्री कॉलेज में सेलेक्ट हो गया, ज्वाइन करने के बाद मुझे कॉलेज के संस्थापक स्वामी केशवानंद जी व प्रिंसिपल ने बताया कि अगले कुछ महीने वेतन नहीं मिल पायेगा, कॉलेज में जब सरकारी ग्रांट आ जाएगी तब एक साथ वेतन मिल जाएगा, खाने पीने और रहने के लिये कुछ थोडा गुजारा भत्ता मिल जाएगा और हॉस्टल में एक अलग कमरा भी | नौकरी तो धन के लिये की थी मेरे से छोटे भाई बहिनों की पढाई का भी खर्चा काफी होने लगा था पिताजी की आय तो सीमित थी| एक सप्ताह पढाया और बहुत सोच विचार कर छुट्टी लेकर वापिस लौट आया पर गया ही नहीं| हमारा परिवार आर्य समाजी था तथा मेरे नाना के छोटे भाई पंजाब आर्य समाज में पदाधिकारी थे, उनके कहने पर आर्य गर्ल्स कॉलेज, पानीपत में अपॉइंटमेंट पा गया, पानीपत हमारे शहर से ज्यादा दूर भी नहीं था| ज्वाइन भी कर लिया| वहां मेरे अलावा संस्कृत के शास्त्री जी, और एक और वयोवृद्ध अध्यापक बस दो अन्य ही पुरुष थे बाकी सभी महिलायें| शुरू में विशेष दिक्कत नहीं हुई खूब तैयारी से जाकर पढाया, विषय की जानकारी थी केवल पढ़ाने का अनुभव नहीं था| शुरू में कोई अधिक दिक्कत भी नहीं हुई क्योंकि प्रिसिपल भी कई बार कक्षा में पीछे आकर बैठ जाती थी, शायद यह देखने के लिये पढ़ा पा रहा हूँ या नहीं| इतनी छात्राओं के बीच पूरी तरह सहज तो नहीं हो पाता था फिर भी काम चल रहा था| धीरे धीरे फाइनल वर्ष की कुछ कुछ तेज़ सी छात्राओं ने ‘समझ में नहीं आ रहा’ कह कर दुबारा कुछ समझाने’ के बहाने ढूंढ कर बातों में और फालतू की बाते बनाने और छेड़ने और मजाक करने पर उतारू रहना शुरू किया| खी खी करके दांत फाड़ती| हमारे मुज़फ्फरनगर कॉलेज को-एजुकेशन में साथ काफी लड़कियां थी पर लड़के ज्यादा होने के कारण कोई लड़की ज़रा भी शैतानी नहीं करती थी| इस गर्ल्स कॉलेज में माहौल अलग था सारी की सारी बड़ी लडकियां थी कुछ तो ज्यादा ही खूब लम्बी तकड़ी थी और धीरे धीरे तंग करने के लिये उन्होंने उलटे सीधे सवाल पूछने शुरू कर दिए थे| उद्देश्य थोडा सता कर अपना मनोरंजन करना था| अगर बहुत सारी लड़कियों के बीच अकेला बीच फंस जाएँ वह स्थिति बेहद मुश्किल होती है, वहां समझ में आ रहा था| धीरे धीरे यह नौबत आ गयी थी जैसे ही ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिख कर बताने के लिखना शुरू करता पीछे से लड़कियां चाक फैंक कर मुझे मारती, एक दो बार डांटा भी क्लास से भी कुछ को निकाला पर वे हरकतों से बाज़ नहीं आ रही थी| सो 10-12 दिन में ही वहां छोड़ कर जाना ठीक समझा| नौकरी भी दो दो बार की किराये और दूसरे खर्चे भी किये धेला मिला नहीं था|   

 किसी को अपना कष्ट बता नहीं सकता था, टीचर्स रूम में भी सहयोगी महिला टीचर्स घर बार बच्चों की बातें करती, बडे बूढ़े संस्कृत व हिंदी अध्यापक शास्त्री जी और तबियत के थे अतः क्या करूं यह समझ में नहीं आ रहा था| एक शनिवार के दिन प्रिंसिपल को लिख कर घर जाना है दिल्ली मामाजी के यहाँ भाग आया था| एक सप्ताह में मुझे दिल्ली के एक नए खुले गवर्नमेंट स्कूल में एड-होक केमिस्ट्री के टीचर के पद पर रख लिया गया क्योंकि इस विषय के अध्यापको की उन दिनों काफी कमी चल रही थी| यहाँ सब ठीक रहा वेतन भी और जगह से अधिक था सरकारी होने के कारण| अधिकतर गरीब बच्चे विद्यार्थी थे,स्कूल के बिल्डिंग नहीं थी टेंटों में चल रहा था| पर वेतन समय पर मिलने लगा था, घर व स्कूल बहुत दूरी पर थे अतः दिल्ली की बसों में धक्के खा कर आना जाना पड़ रहा था| पर निश्चय रूप से पानीपत की लड़कियों की चाक और मजाक से बेहतर था| पर यह भी सोच लिया था कि बेहतर जगह के लिये कोशिश रहेगी, और पांच दिन पांच महीने में यूoपीoएसoसीo द्वारा केंन्द्रीय सरकार के शिक्षा मंत्रालय में वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयोग में गजटेड रैंक मिल गयी ऑफिस भी घर से अधिक दूर नहीं था| अब आकर धूप से छांव में आया था, सोचा था शायद दिल्ली में बस आराम से जिन्दगी निकल जायेगी| काम अच्छा पढाई लिखाई का था, विद्वान सहकर्मी थे अब तक का सबसे अच्छा वर्ष रहा था आशा कर रहा था कि जिन्दगी आराम और दिल्ली में कट जायेगी|

छांव के बाद धूप आनी थी, एक ऐसे ही मित्र ने ब्रेन-वाश कर केंद्रीय पुलिस संगठन का फॉर्म भरवा दिया, मैंने विरोध भी किया, बिलकुल भी न मन था न तैयारी की थी, पर मित्र के साथ दिल्ली पुलिस के किंग्सवे ग्राउंड में चला गया था| पहले फिजिकल क्वालीफाई करना था, स्कूल कॉलेज में खेलों में भाग लेता था इसलिये उस दिन के ग्रुप के 100 कैंडिडेट्स में दूसरे नंबर कैसे आ गया मुझे स्वयं आश्चर्य हुआ था| मैंने आगे के लिये भी कोई तैयारी नहीं की थी आगे के लिखित, मौखिक, ग्रुप डिस्कशन, व इंटरव्यू भी बिना तैयारी के दिए सोचा था कि हजारों कैंडिडेट्स में मेरिट में नंबर नहीं आएगा, आराम से बैठ गया था| यह सिलेक्शन प्रोसेस में हाई लेवल बोर्ड ने अलग अलग केन्द्रों में कई हज़ार लोगों की परीक्षा व अन्य कारवाई की थी जो कई महीने चली थी| पर न चाहते भी नियति घसीट रही थी| मेरा और मित्र दोनों का ही सलेक्शन हो गया था| वह तो खूब तैयारी के साथ था ही| यह पहले से भी अचम्भे की बात थी| बस सर्विस के पे स्केल में थोडा अंतर था कि शिक्षा मंत्रालय का पद गजेटेड सेकंड क्लास था पुलिस वाला फर्स्ट क्लास| फिर भी परिवार व अन्य हितेषियों में  ज्यादातर ने यही दिल्ली में रहने की सलाह दी थी| मैं डावांडोल था| दिल्ली से 4 लोग सेलेक्ट हुए थे उन्होंने भी जाने की सलाह की बल्कि दो मेरे पास पहुँच और मैं एक बार फिर मेसमेराईज सा हो गया कि ट्रेनिंग में जाकर देख आता हूँ| मेरे विभाग ने भी मुझे सिर्फ दूसरी पोस्ट के रिलीव कर दिया था ताकि वापिस आना चाहूं तो आ सकता हूँ| यह इसलिये संभव था दोनों ही सर्विस केन्द्रीय सरकार की थी| चक्रव्यूह में फंसा तो कभी निकल ही नहीं पाया|          

   दिल्ली से चुने हम चारों ट्रेनिंग के लिये मध्य प्रदेश के ट्रेनिंग कॉलेज के लिये एक साथ ही दिल्ली सराय रोहिल्ला स्टेशन से चेतक एक्सप्रेस से चले और अगले दिन दोपहर नीमच स्टेशन पहुँचे, वहां स्टेशन पर स्वागत का प्रबंध था, कई लोग ड्रेस में मौजूद थे उन्होंने सामान उतरवा कर अपनी मिनी बस में रखवाया, दूसरे डिब्बों से भी तीन लोग और आये थे सभी को वे एक मिनी बस में एक बड़ी बेहद आलिशान बिल्डिंग के पास के मैदान में उतारा जहाँ टेंटो की कतारें थी| दो के बीच एक टेंट दिया जिस में दो चारपाई दो मेज दो टेबल और दो अलमारी थी| शाम तक 12 और हमारे बैच के लोग आ चुके थे, अगले दिन भी यही सिलसिला रहा और तीन दिनों में कुल 25 लोग आ चुके थे|

 अगले ही हफ्ते से बहुत सख्त ट्रेनिंग शुरू की गयी| पहले सब के बालों की निर्मम हत्या कर बहुत छोटे छोटे कर दिये थे, यूनिफार्म, जूते बेल्ट पाउच पिट्ठू इशू किये फिर निर्मम कठिन ट्रेनिंग|

  सुबह छः बजे पीoटीo के लिये पहुंचना होता था, ग्राउंड लगभग दो किलोमीटर था सो दौड़ कर जाना, ज़ल्दी ही दौड़ कर आना होता था| पीo टी इतनी सख्त होती कि उस्ताद लोग जान निकाल देते थे, पूरा शरीर दुखता था बुरी तरह थकाते थे| वापिस आकर यूनिफार्म पहनो, किसी तरह से ब्रेकफास्ट निगल कर मोटे, भारी एम्युनिशन बूट पहनों जिनके नीचे मोटी कीलें लगी होती थी,  कमर पर पाउच पिट्ठू पहनों, कमर में मोटी वेब पीठ पीछे वाटर बोतल, सब मिला कर पांच छः किलो वजन, यहाँ मार्चिंग, कदमताल, हथियारों की ट्रेनिंग, मुश्किल से खाना ड्रेस बदल कर फिर थ्योरी क्लास, फिर गेम पीरियड, फिर रात को डिनर भी परेड ही था, चैन से कहाँ खाने देते थे, टाई,पूरे कपडे पूरे फोर्मल ढ़ंग से जाना होता था| हर जगह निगरानी के साथ| हिम्मत पस्त होती पर यही रह्ता कि जब दूसरे कर सकते हैं तुम क्यों नहीं| जैसा सबको नचाया, कुदाया, ड्रिल, हथियार                 

थोड़े ही दिन बाद एक त्रिपुरा के दूर दराज एरिया बुलंगबाशा में भेज दिया जो हर तरह से दूर,  जहाँ न कोई बाहर का बोलने वाला, जानने वाला, न दूकान,न सामान न कोई पोस्ट ऑफिस न स्कूल,यह अलग ही दुनिया थी| केवल अपनी कंपनी के लोग ही सब कुछ थे|  यही दिमाग में आता रहता कि कहाँ दिल्ली में अच्छी खासी आराम देह नौकरी छोड़ कर कहाँ फंस गया था| बिलकुल ही निहायत जंगल का एरिया, दूर गाँव की आदिवासियों की बस्ती  थी|

मेरे लिये केवल ट्रांजिस्टर ही मनोरंजन व दुनिया की जानकारी का साधन था| रात को बीबीसी, लंदन की आधा पौने घंटे की हिंदी सर्विस ही मेरे लिये सबसे ज्यादा ज्ञानवर्धक  साधन था| उसी से पता लगा था कि पूर्वी पाकिस्तान में नेशनल असेम्बली में पूर्वी पाकिस्तान की नेशनल अवामी पार्टी के मेम्बेर्स का बहुमत था उसी का लीडर शैख़ मुज़ीबुर्रहमान पाकिस्तान का प्रधान मंत्री बनाया जाना चाहिए था पर राष्ट्रपति जनरल याह्या खान ने उसे जेल में डाल कर पश्चिमी पाकिस्तान की फौज के हवाला कर दिया था तथा वहां के हालत बहुत ख़राब हैं,त्रिपुरा में भी सताए हुए वहां पहुंचते जा रहे थे| वहां पहले पाकिस्तानी  लेफ्टीनेंट जनरल टिक्का कहाँ तथा उसके बाद लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी ने आन्दोलन कुचलने के लिये बडी सख्ती व बर्बरता दिखा रहे थे, सेकड़ों हजारों बंगालियों तथा विशेष रूप से बुद्धिजीवियों और हिन्दुओं की हत्या की जा रही थी, औरतों के साथ बलात्कार किया जा रहा था उनके नेता शेख मुजीबुर्रहमान को पहले ढाका में नज़रबंध लिया फिर पश्चिमी पाकिस्तान की मियांवाली जेल में कैद कर लिया था| पूर्वी पाकिस्तान का प्रशासक  जनo नियाजी जो लोकप्रिय आन्दोलन को सेना की मदद से किसी भी हालत में सेना के बूटों द्वारा कुचल देना चाहता था ताकि कोई विरोध में सर ना उठा सके| पर यह सब तो बुलंगबाशा से दूर हो रहा था मुझे क्या लेना देना था| जितनी भी किताबें थी पढ़ डाली, अपनी पोस्ट अपनी पी टी परेड और शाम को जवानों के साथ वालीबाल यही जीवन था| फ़ोन तो दूर की बात थी घर से चिट्ठी का जबाब भी महीने भर आ पाता था| अत्यंत एकांत वास|

पर एक दिन सिग्नल आया कि अपनी कंपनी को वार्षिक चेंज-ओवर के लिये दूसरी का स्थान बदलना है, अब हमारी कंपनी अगरतला एअरपोर्ट पर होगी और वहां वाली यहाँ बुलंग बाशा में| कंपनी वाले भी खुश और हम भी| वहां पहुँच कर फिर जीवन में एक दम उल्टा बदलाव आया| ड्यूटी में भी, जिम्मेदारी में भी जीवन में भी दैनिक दिनचर्या तथा और सब में भी| यही इस फ़ोर्स में होता रहता था अब देख रहा हूँ, कभी तम्बू कभी शानदार जगह| कभी जंगल और एकांत कभी भरे बाज़ार, भीड़ भाड़ में ड्यूटी इतनी जगह इतनी तरह से  

‘चेंजिंग दि हेट’ होता था| रोजाना कोई भी फ्लाइट हो वीआईपी और सीनियर ऑफिसर का आवागमन रहता उन्हें भेजना और रिसीव भी करना पड़ता, अपना हेड क्वार्टर भी बहुत पास था वहां भी हाजरी बजानी| एयर पोर्ट ऑफिसर और एयरलाइन्स वालों की तथा सिक्यूरिटी की ड्यूटी, ईस्ट पाकिस्तान बॉर्डर से बिलकुल मिला हुआ था सो उधर से भी घुसपैठ और सभी एयरपोर्ट्स के गेट्स का कण्ट्रोल| शाम को हेड क्वार्टर में भी अक्सर हाजरी बजानी और उनके दिए आदेशों पालं करना और करवाना| इए व्यस्तता से बुलंगबाशा का जंगल अच्छा लगने लगा था|  इंडिया पाकिस्तान के बीच युद्ध के बादल गहराते जा रहे थे इतने अधिक ईस्ट पकिस्तान से रिफ्यूजी  यहाँ आ गए थे कि भारत पर बहुत आर्थिक बोझ बढ़ता जा रहा था, उधर वहां पाकिस्तानी फौज जुल्म की तलवार कि नोक पर वहां जन आन्दोलन को क्रश करने में जुटी हुई थी| पाक सेना पश्चिमी पाक सीमा और पूर्वी सीमा पर भारत को एक तरह से युद्ध के लिये ललकार रही थी|    

तीन दिसम्बर की रात को नाईट गार्ड्स को चेक करने सी.एच.एम. वरियाम सिंह को साथ लेकर चला जीप में न जाकर पैदल चले थे| जीप की हेड लाइट से तो गार्ड सकते है| हवलदार सेकंड वर्ल्ड वॉर और 1965 की इंडो-पाक वॉर में रहा हुआ था बस कम पढ़ा होने के कारण जेसीओ नहीं बन पाया था| आर्मी से रिटायर हो कर रिएम्प्लोयेड था, अचानक मुझ से उसने लाईंग पोजीशन लेने के कहा “थल्ले, साहेब जी थल्ले” इससे पहले में कुछ करता उसने मुझे खींचा और मैं जमीन पर था| तभी ऊपर से तथा साइड से कई सूं सूं करते तोप के गोले गिरे तथा जोर की आवाज के साथ हमारे ऊपर से इस्प्लीन्टर जा रहे थे| पड़े पड़े बेहद दहशत हो रही थी कि शायद आज बचना मुश्किल है| फायर अलार्म के साथ सब बंकरों में जाने के जा रहे थे| वरियाम सिंह ने कोई कुछ सेकंड पहले गोलों के आने की आवाज पहचान ली थी| ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट में गोला बारी कम हो कर रूक गयी| रन वे और आस पास गड्ढे बन गए थे| शॉक सी की हालत में वापिस बंकर में आकर सांस आया| वरियाम सिंह कह रहा था, “अब लड़ाई में देर नहीं है| हमारी फ़ौज भी चुप नहीं बैठेगी|”

हमें लग रहा था कि और भी गोला बारी हो सकती है| मुश्किल से 20-25 हुए होंगे हमारे एयर पोर्ट पर अचानक पाक की वायुसेना पीऐएफ के फाइटर प्लेन आये और भयंकर  स्ट्रेफिंग करते निकल गए हमारी कंपनी की तीनों एयरक्राफ्ट मोड पर लगाई मशीन गनों ने उन पर गोलियां और ट्रेसर चलाये और फिर एक जोरदार धमाका हुआ और मैं मिटटी में दब गया| कुछ क्षण लगा मैं मर गया हूँ पर कुछ होश आया मैं हाथ हिला पा रहा था,पर पैर नहीं| फिर धीरे धीरे आँख खोली लगा मरा तो नहीं हूँ हिलडुल सकता हूँ मिट्टी में धंसा हुआ था ऊपर बंकर की छत थी, हां बाहर से अन्दर आने का रास्ता मिटटी से भरा हुआ था| बाहर की आवाज सुनाई दे रही थी

 “मिट्टी हटाओं, मिट्टी हटाओ, जल्दी करो” फिर किसी ने जोर से पूछा, “साहब ठीक हो” मुझे सुन रहा था पर बोल नहीं पा रहा था, रोना आ रहा था तभी ऊपर से वरियाम सिंह अन्दर घुसा मैंने हाथ उठा कर कहा ठीक हूँ उसने मुझे ऊपर खींचना चाहा पर पैर काफी मिट्टी में धंसे थे, लड़के रास्ते से मिट्टी फटाफट हटा रहे थे, एक लड़के ने अन्दर घुस कर मिटटी हटाई मैं धीरे धीरे ऊपर आ गया था, ऊपर आकर धीरे से बताया की मैं ठीक हूँ| एक गिलास में पानी लाया गया पीकर काफी ठीक महसूस किया, मैं अन्दर से पूर हिला हुआ था पर बाहर से पूरा नार्मल दिखाने की चेष्टा कर रहा था| दो मिनट में चाय आ गयी थोडी पी, ट्रांजिस्टर पर प्रधानमंत्री देश को संबोधित कर रही थी,’ अब से कुछ समय पहले पाकिस्तानी एयरफोर्स के विमानों ने हमारे अमृतसर, अम्बाला,अवंतिपुर, श्रीनगर,आगरा, जोधपुर, हलवारा, अगरतला, पठानकोट,जैसलमेर फॉरवर्ड एयरफील्डस  और रडार स्टेशनों और दूसरी इमारतों पर हवाई हमले किये हैं| देश में आपात्काल घोषित किया जा रहा है तथा पाकिस्तान को इसका मुंह तोड़ जबाब दिया जा रहा है| सो लड़ाई शुरू हो गयी  थी| कोई आधे घंटे में ही सामने से गार्ड रेजिमेंट की 4-गार्ड्स की मेकेनाइज्ड इंफंट्री के कॉलम हमारे पास से गुजरते बॉर्डर क्रॉस कर रहे थे| गेट के पास के प्लाटून कमांडर ने बताया कि हवाई हमलों के लिये एक-एक गन लगाई जा रही थी| सब देख कर अब लग रहा था कि अब पाकिस्तानी की कारस्तानियों का ईलाज़ शुरू हो गया था| हाँ पाक हमले के फाइटरों ने एयर पोर्ट पर काफी नुकसान किया था दोनों रनवे पर गड्ढे पड़ गए थे पुराने पर कम नए पर और ज्यादा| मेरा बंकर हिट नहीं हुआ था लगभग दो मीटर दूर पर बम पड़ा था उससे भी यह हालत हुई थी डायरेक्ट हिट होने पर कुछ नहीं बचता न मैं न बंकर| हमारी एक छोटी बैरक भी बरबाद हो गयी थी| सूबेदार साहेब का कुत्ता उसमें शहीद हो गया था| अगले दिन 4 दिसम्बर को तडके ही इंडियन एयर फ़ोर्स हेलीकाप्टरों से स्टाफ पहंच गया और काम पर लग गया| एक रनवे रिपेयर कर दिया| शाम होने तक मिग-21 की एक स्क्वाड्रन  अगरतला पहुँच गयी थी| उन्होंने रात भर कई हवाई हमलों की उड़ाने भरी और बताया कि पाकिस्तान को उनको अच्छा जबाब दे आये थे| अगले पूरे दिन भी कई उड़ाने भरी अपने टारगेटो को अन्दर घुस कर नष्ट किया| वे अपने इलाके के आसमान में दुश्मन का पूरा विरोध ख़त्म कर  चुके थे| 24 घंटे में हम बुरी हालत से राहत पा चुके थे|                     

  पिछले कुछ महीनों में जिन्दगी ने कई रंग दिखाए बिलकुल दूरस्थ जंगल का एकाकी व नीरस जीवन तथा फिर कुछ कुछ दिन नागरिक मगर व्यस्त एअरपोर्ट ड्यूटी, बहुत अधिक लोगों से रोज़ का संपर्क व बातचीत,जान पहचान, फिर लड़ाई के हालात तथा सामान्य से अलग ड्यूटी, और अब जान जाते जाते बची|

 कुछे ही दिनों के बाद हमारी फौजों ने ईस्ट पाकिस्तान की राजधानी ढाका को घेरा हुआ था, पश्चिमी सीमा पर भी जोरदार युद्ध चल रहा था| इन दिनों अपने घर परिवार से संपर्क ख़त्म हो चुका था अतः वहां सबको मेरी चिंता रही होगी| मैं भी तथा सभी मेरे घरवाले भी दिल्ली की शांति की सर्विस छोड़ने के निर्णय को ठीक नहीं समझ रहे थे| अब मुझे भी यही लग रहा था|

पर इस एअरपोर्ट इतने लोगों से मिल पाया था, अपनी फ़ोर्स के डी.आई.जी,आई.जी., तथा   सर्वोच्च अधिकारी डी.जी.से भी, आर्मी व एयरफोर्स के भी अनेक अफसरों वहां के कोर कमांडर  लेफ्टिनेंट जनरल तो सप्ताह में चार बार आते थे ही, ग्राउंड सिचुएशन, प्लान, अपने ब्रिगेड कमांडरों की ब्रीफिंग और हम से खाकी ड्रेस लेकर अन्दर तक की पेट्रोलिंग| मुझे तथा वहां रेगुलर पेट्रोलिंग करनेवाले हमारे सिपाहियों तक को पकड़ कर ले जाकर बॉर्डर तथा बॉर्डर को पार चले जाने को खूब रिस्क लेते थे| वहां गाँव वालों से पूछ पूछ अंदरूनी बात व वहां की फौज किधर किधर हो सकती है पता करते उनके साथ चाय पीते| यही कारण था कि वे ग्राउंड से जुड़े जनरल थे उनकी 4-कोर ने ही प्लान से भी कहीं खूब पहले ढाका का घेराव कर सबको चकित कर दिया था| बाद में सुना था कि उन्होंने अपने सीनियर कमांडर  जीओसी-इन-सी ईस्टर्न कमांड के आर्डर की अनदेखी करके तेज़ एडवांस को जारी रखा था तथा पाकिस्तानी फौज को बड़ा सरप्राइज देकर ढाका में और कॉलम आने का इंतजार नहीं किया था| इतने बड़े कमांडर को इतने करीब से जानना मेरे लिये गर्व की बात थी| इसके अलावा भी कई नामी गरामी लोगों को देखने और मिलने का मौका मिलता रहा| क्योंकि अगरतला आने का एक ही साधन बाई एयर था सो मैं हर एक महत्त्व पूर्ण वीआईपी को आते जाते मिलना ही पड़ता था| कुछ लोग जो उस समय ज्यादा आते रहते थे, उनमें सिद्धार्थ शंकर रे थे जो केन्द्रीय मंत्री थे तथा प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के अत्यंत करीब और उनके तथा उनकी पार्टी के संकट मोचक माने जाते थे| वे कई बार आते थे उन्हें लेने के लिये तथा छोड़ने स्वयं मुख्य मंत्री सुखमय सेन गुप्ता आते थे लम्बी दाढी और सादे कपड़ों में मुक्य मंत्री ऋषि मुनि ज्यादा लगते थे| देख कर श्रद्धा ज्यादा होती थी| सिद्धार्थ शंकर रे शायद त्रिपुरा तथा साथ लगे पूर्वी पाकिस्तान की हालात का असली हालात जान कर श्रीमती गाँधी को सूचित करते हों|

मैंने एक बार जब यह आन्दोलन तेज नहीं हुआ था तथा बस थोडा सा नाम ही जाना था पर बाद में इतने मशहूर हुए शेख  मुजीबुर्रहमान साहेब को भी यहीं देखा था| वे कलकत्ता से आने वाली फ्लाइट से आये थे| जब ईस्ट पाकिस्तान में आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया उस समय आने वाले में मुख्य थे तब कर्नल बाद में मेजर जनरल शाबेग सिंह| मेरे सीओ के मित्र थे और हमारी बटालियन के अफसर मेस में अकसर आकर रहते थे| मुझे पता लगा की वे पूर्वी पाकिस्तान में वहां की फौज के विरोध में बनी मुक्ति बाहिनी को गठित करने, और ट्रेनिंग और हथियारों और उनकी ट्रेनिंग में गाइड करते थे| इसी मुक्ति बाहिनी ने पाक आर्मी का अपनी तरह डटकर मुक़ाबला किया था वे भी अक्सर एयर पोर्ट में आते मिलते तथा बॉर्डर के पार अन्दर भी जाते रहते थे| उस समय उनसे बीसों बार मुलाकात हुई होगी हमारी बटालियन में ही काफी रहते ड्रिंक करते हमारे सीओ के साथ कंही भी एअरपोर्ट पर आ धमकते थे| उसके बाद उनके कई प्रमोशन मिले उनका काम सराहा गया पर वे बाद में मशहूर हुए थे कि उन्होंने 1984 में भिंडरावाले के समर्थन में स्वर्ण मंदिर की ज़बरदस्त  किलाबंदी की थी और आपरेशन ब्लू स्टार में आर्मी का ज़बरदस्त मुकाबला किया और भिंडरावाले के साथ मारे गए थे| एक आर्मी हीरो बनने के बाद ऐसा ऐसा पतन होगा, यह पहले कौन सोच सकता था| इतनी बड़ी धूप छावं कम ही देखने को मिलती है? कहां आर्मी का अलंकृत मेजर जनरल कहां एक बागी आतंकवाद से लिप्त देश विरोधी जो उसी आर्मी द्वारा मारा गया उसी आर्मी के लिये हथियार उठाने के अपराध में|

  फिर एक बड़ा बदलाव आया अचानक  मेरा ट्रान्सफर ट्रेनिंग अकादमी के इंस्ट्रक्टर के रूप में आया मुझे अच्छा लगा, शांतिपूर्ण स्थान था, कुछ दिन के बाद ही वहां एक कमांडो कोर्स शुरू करने जा रहे थे इसलिये आर्मी कमांडो कोर्स, बेलगाँव के लिये किसी अधिकारी को भेजना था, मुझे कम उम्र के कारण उपयुक्त समझा गया, सो सुबह नार्मल ड्यूटी फिर उसके लिये प्री-कोर्स ट्रेनिंग दोपहर से देर शाम तक| जिसमें टफ बनाने के लिये भारी दौड़-भाग करना ज़रूरी था, प्री कोर्स में ही कई किलो वज़न घट गया था, बाकि वहां के दो महीने में इतनी रगडा पट्टी हुई की छटी का दूध याद आ गया| विशेष बात यह रही कि ठीक ठाक ग्रेड से क्वालीफाई कर गया था| वहां एक कैप्टेन नाना पाटेकर भी साथ कोर्स किया था| बरसों बाद वह आर्मी छोड़ नामी गरामी फिल्म एक्टर बन गये थे| जिसे सब अच्छी तरह से जानते हैं|

वहां अकादमी लौटने पर यह कोर्स मुझे डिजाइन करना पड़ा और अन्य सहयोगियों की मदद से यह चल निकला था| वहां आबू में  कई साल अच्छे निकले ज्यादातर पढ़ने पढ़ाने का काम था या फिर ट्रेनिंग कोर्स की दे|खभाल का| बहुत कुछ नया सिखने को मिला था|    

इसके बाद फिर बटालियन में सुदूर अरुणाचल प्रदेश में पोस्टिंग कर दी गयी थी यह एक अलग ही दुनिया जो उन दिनों बाकी से बिलकुल अलग थी उन दिनों वहां पहुंच जाना कौन सी आसान बात थी| दो दिन और तीन रात गुज़ार कर असाम मेल  वहां से निकटतम रेलवे स्टेशन तिनसुकिया तक जाना होता था फिर रियर हेड क्वार्टर में रह कर पहले गाडी से ब्रह्मपुत्र नदी को पार करने के लिये  बड़ी मोटर-बोट थी जिसे फेरी कहते थे, ड नदी का एक किनारा सदिया घाट  तथा दूसरा घाट सैखोवा घाट| बताया गया था कि सदिया कभी अच्छा खासा शहर था 1951 में असम में आये भयंकर भूचाल से ब्रहमपुत्र के रास्ता बदलने के कारण पूरा नदी ने निगल लिया था|  दूसरे तरफ फिर जीप द्वारा वहां से अगली नदी तक जाते थे जिसका नाम दिगारू था, दिगारू का अर्थ है पागल और वह सचमुच में पागल नदी थी| ऊपर पहाड़ों पर बारिश होने पर इसका अचानक  इतना तेज़ बहाव होता था उसे किसी नाव से पार करना संभव नहीं था, केवल हाथी पर सवार हो कर पार करते थे, और अगर मौसम साफ़ हो तो पानी का स्तर इतना कम कि कोई बच्चा भी पैदल पार कर जाए| कब उसे पार कर सकते है कब हाथी चाहिए पता नहीं रहता था| उसे पार करने के बाद हेड क्वार्टर तेजू तक आराम से सडक द्वारा गाडी से जा सकते थे| यह रेल हेड से बटालियन हेड क्वार्टर कि यात्रा पूरा दिन ले लेती थी| वहां पहुँच कर केवल दुनिया थी, बेहद साफ़ आसमान दूर दिखती बर्फ से सफ़ेद पहाड़ियां| बाकी दुनिया से संपर्क न के बराबर रह जाता था, जब खबर ही नहीं तो फालतू चिंता भी नहीं, ‘नो न्यूज़ इज गुड न्यूज़’ का मुहावरा यहाँ बिलकुल ठीक व उपयुक्त था| उन दिनों वहां से टेलीफोन की सुविधा न के बराबर थी वायरलेस पर ही ज्यादा काम होता था| प्लाटून पोस्टें बहुत दूर दूर होती थी कुछ में तो रोड हेड से बस पैदल ही चलना पड़ता था, कई तो बेहद दूर थी जो ‘एयर मैन्टैनएड थी’ जहां राशन ,सब्जी और ज़रूरी स्टोर हेलीकाप्टर द्वारा ड्राप किया जाता था| वहां जाने में हफ़्तों लगते थे,अनिनी नामक पोस्ट पर 21 दिन जाने में लगते थे| सो वहां सबसे बड़ा काम किसी तरह ठीक प्रबंध कर काम चलाना ही था| ऐसी जगह भी चार वर्ष रहना पड़ा था, जो उस समय तो कठिन लगता था अब वर्षो बाद बड़ा रोमांटिक और अविस्मर्णीय|

 कहना न होगा प्रकृति के इतने नज़दीक रहने का सुख अलग है, दिन में वर्षा पर टिन की छतों पर संगीत लगता, रात को तारे इतने पास और साफ़, बारिश के बाद इतने सुन्दर इन्द्रधनुष बनते|

 विलियम वर्ड्सवर्थ ने अपनी प्रसिद्ध कालजयी इंग्लिश कविता, ‘द रैन बो’ ऐसे ही इंद्रधनुष  को  देख कर, मुग्ध हो कर लिखी होगी जब वह लिखता है-

My heat leaps up when I behold, A rainbow in the sky:

So was it when my life began; So is it now I am a man;..…..   

आपने प्रकृति के भक्त इस कवि की कविताएं पढ़ी होंगी कि उसे प्रकृति से कितना प्रेम  था|

  तेजू में खूब चाय पकोड़ी खाओ, दिन साफ़ हो तो बैडमिंटन खेलो, दूसरे खेल खेलो, बारीश हो तो अन्दर टेबल टेनिस| वहां का स्थानीय प्रशासन भी बहुत मिल जुल कर रहता सभी विभाग भी बहुत मेल से रहते, क्राइम न के बराबर डिप्टी कमिश्नर ही न्यायाधीश भी थे| रोज का मिलना जुलना एक दूसरे की मदद से ही काम चलता था| बटालियन हेड क्वार्टर का अफसर मेस पार्टी गाने बजाने और पार्टियों की जगह, बैडमिंटन, टेनिस, कार्ड खेलने के लिये सबसे ज्यादा साधन हमारे पास थे| यह बात ज़रूर थी केंद्रीय सरकार विकास और सुविधायें, नया निर्माण, स्कूल हॉस्पिटल के लिये भरपूर काम कर रही थी| चार साल कैसे इस दूरस्थ स्थान पर गुजरे पता नहीं लगा, बहुत से घनिष्ट मित्र बन गए थे| यहाँ आना जाना और अपनी बटालियन के लोगों का प्रबंध करना ही सबसे बड़ी चुनौती थी दूसरे बहुत से सुख थे| चार  वर्ष में एक बार भी कोई सीनियर अफसर इंस्पेक्शन या विजिट के लिये आकर नहीं झाँका था| हां, हमें दूर ऊँचाई वाली  वाली पोस्ट में कई बार पड़ा था जिसमें कई दिनों तक रास्ते में पैदल चल कर पहुँचते थे| अर्थात अपनी फ़ोर्स मेम्बरों सब प्रबंधनही दूसरी तरह की चुनौतियाँ थी|                                           

   यहाँ के बाद ही दिल्ली पोस्टिंग हो गयी थी| वहां गया ही था कि मुझ से बताया गया कि भारत सरकार एक नया अति विशेष दल नेशनल सिक्यूरिटी गार्ड नामक बना रही है| यह   एंटी-हाईजेकिंग, एंटी-टेररिस्ट में विशेषज्ञता वाला होगा आर्मी व केंद्रीय पुलिस का मिला जुला दल होगा|पता किया इसमें डेपुटेशन अलाउंस के अलावा ट्रेनिंग अलाउंस और आर्मी राशन भी मिलेंगे| आमदनी में अच्छी बढ़ोतरी देख कर मैंने भी इसमें सम्मति दे दी और उसमें चुना भी गया क्योंकि मेरे पास इस तरह का अनुभव था और उम्र के हिसाब से भी उपयुक्त था|

 यहां दैनिक रूटीन बिलकुल अलग था, ज्यादातर आर्मी के अफसर सीनियर व उनके  सहयोगी थी| उनसे ताल मिलाने में थोडी दिक्कत थी| कैंप बहुत लंबा चौड़ा था, इन्फ्रा इंस्ट्रकचर अभी तैयार नहीं थे, नया प्रयोग हो रहा था, ज्यादातर टेंटों में ऑफिस और कार्य स्थल थे| घर मिले थे सी.जी.ओ. काम्प्लेक्स लोधी रोड पर कार्य स्थल था 47 किलोमीटर दूर मानेसर| सुबह साढ़े चार बजे से दोपहर 4 बजे वापिस पहुँचते| सुबह 6 बजे से अढाई बजे तक बेहद व्यस्त ट्रेनिंग,फायरिंग प्रैक्टिस,फिटनेस स्टैमिना,अनआर्मड कॉम्बैट के अलावा दूसरे नए विषय जैसे बम डिस्पोजल आदि नयी चीज़े देखने और सुनाने को मिली| हालाकि ट्रेनिंग सेंटर में हमारा काम ट्रेनिंग देना था पर साथ खुद को भी ऊँचे स्तर रखना होता था| आर्मी वालों के साथ तालमेल बैठाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई और नहीं मैं और मेरे व अन्य केन्द्रीय पुलिस संगठनों जैसे सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी और एसएसबी, से आये अन्य सहयोगियों को| बहुत सारी नई स्किल्स सीखने को मिली जैसे हेलीकाप्टर से रस्सी के सहारे कूद कर रेप्लिंग द्वारा नीचे कूद कर उतरना| हाँ फायरिंग की भी लगभग रोजाना अभ्यास करते जिससे निशाने बहुत अच्छे हो गए थे| हालाकि काम सिखाने का था पर बहुत से नई और एडवांस चीज़ें सीखने को मिली| आर्मी के अफसरों से बहुत चीज़े सिखने को मिली| उन दिनों के कई फौजी साथी बाद में लेफ्टिनेंट जनरल,मेजर जनरल आदि बने, अखबार में  उनके बारे में पढ़ते अच्छा लगता था| तीन वर्ष ब्लैक कैट कमांडो बने रहने का समय भी बहुत दूर चला गया है, सताए खूब गए पर सीखा भी बहुत कुछ भले ही असली जिंदगी में कुछ काम नहीं आया| वह तो कॉलेज की केमिस्ट्री भी कुछ ज्यादा काम नहीं आई सिर्फ कभी कभाक अपने बच्चों को थोडा बहुत पढ़ाने के अलावा|

डेपुटेशन समाप्त होने पर वही जिंदगी दोबारा पर अलग रंग में अलग परिस्थिति में| इस बार मणिपुर में पोस्टिंग थी, वहां की स्थिति काफी ख़राब चल रही थी, वहां नागा विद्रोहियों और नागालैंड के अपने विद्रोही ग्रुप बहुत सक्रिय थे| मणिपुर में काफी भू भाग पहाड़ी है और वह पूरी तरह से ट्राइबल या जनजाति को और उनकी नस्ल तो नागा ही है| घाटी का इलाका तो क्षेत्रफल में बहुत छोटा मैती हैं पर जनसंख्या नागाओं से बहुत अधिक है नागा सभी क्रिस्चियन है मैती हिन्दू, खेती और सुविधायें और नौकरी तथा सरकार में भी मैती लोगों का लगभग कब्ज़ा सा  है पूरा दबदबा| इसलिये दोनों ग्रुपों में संघर्ष रहता आया था, मणिपुर को असम से जोड़ने वाला NH 37 राजमार्ग नागा विद्रोहियों के कब्ज़े मैं था| वे आने जाने वालों से टैक्स वसूलते थे यहाँ तक की सरकारी कर्मचारी भी चुपचाप उनको टैक्स देते थे| बीच बीच में हत्या या लूट पाट की घटनाएं होती रहती थी| दो वर्ष पूर्व जनवरी महीने में आर्मी की सिख रेजिमेंट की तीन गाड़ियों एक बड़ी टुकड़ी पर इम्फाल उखरुल रोड पर अम्बुश किया  और 21 जवान मरे तथा बहुत से जख्मी हुए थे, विद्रोही पार्टी के बहुत से हथियार भी छीन कर ले गए थे| इस तरह वहां खून खराबे कि घटनाएं होती रहती थी| पर हमें तो उनसे डर कर नहीं उन्हें कण्ट्रोल करना था अतः मज़बूत रह कर उन पर काबू हे नहीं दबाब बड़ा कर रखना होता था ताकि सरकार का राज होना चाहिए न कि किसी विद्रोही दल का| अपने लगभग दो वर्ष के कार्यकाल में एक भी हिंसा नहीं होने दी थी और उनके कई कैंप नष्ट किये थे| उस समय मणिपुर में छह बटालियन तैनात थी सबने मिल कर विद्रोहियों की नाक में नकेल डाल दी थी और पब्लिक का विश्वास सरकार और शासन पर काफी हद तक बढ़ गया था| तथा आम जन जीवन काफी हद तक सामान्य होता जा रहा था| चुनी हुई सरकार और प्रशासन अच्छी तरह से काम करने लगे थे| पर नागा असंतुष्ट थे, उनके विकास काम तो हो ही नही पा रहा था| उन्हें लगता उनके साथ भेदभाव हो रहा है| असल में वे तो अपने आप को भारत का हिस्सा न बन कर स्वतंत्र रहना चाहते थे उनके बड़े नेता ए जेड फिजो ने नागा नेशनल कौंसिल (एनएनसी) तो स्वतंत्र नागा देश बनाना चाहते थे उसी के लिये उन्होंने नागा विद्रोह शुरू किया था|

वहां दो वर्ष पूरा होते ही पंजाब में पोस्ट किया जहाँ ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद से शुरू हुआ खालिस्तान आन्दोलन काफी फैल गया था बहुत से सिख आतंकी ग्रुप वहां बेहद सक्रिय थे| मेरी बटालियन फ़िरोज़पुर और अमृतसर के ज्यादा प्रभावित इलाके तैनात थी| वहां काफी हिंसक घटनाएं होती रहती थी| अमृतसर का मंड  इलाका और फिरोजपुर का जीरा और मक्कू इलाका हमारे पास था| वहां में एक छोटा ऐसा ग्रुप बनाने में सफल हो गया था जो वहां हमें उस इलाके के हिंसा में लिप्त ग्रुप के बारे में सूचित करने लगे थे| इसमें हमारी यूनिट के कुछ उस इलाके के कर्मचारी बड़े ही उपयोगी साबित हुए| उन्हें उनके गांवों में रहने की इज़ाज़त दे दी थी| वे आराम से मिक्स अप होते थे तथा उनकी मदद से कई सफल ऑपरेशन में उनके कई खाडकुओं को एलिमिनेट कर दिया या गिरफ्तार कर दिया था| हमने उन लड़कों को बिलकुल गुप्त रखा, यहां तक की यूनिट के अन्दर भी किसी को ज़रा भी हवा नहीं थी| अगर बात खुल जाती या ज़रा सा भी शक हो जाता तो हमारें इनफॉर्मर नहीं बचते उनके घरवालों पर भी मुसीबत आती| इस तरह के सेल के बारे में एनएसजी में आर्मी के एम आई(मिलिट्री इंटेलिजेंस) वालों से जाना था|

उन्ही दिनों चंडीगढ़ में एक मीटिंग में जाना पड़ा| वहां सर्किट हाउस में एक बड़े सीनियर से मिलने का अवसर मिला वे भारत सरकार में सेक्रेटरी (सिक्यूरिटी) उनकी कुछ मीटिंग्स थी जिनके लिये वे आये थे| ब्रेकफास्ट टेबल पर उन्होंने मेरे बारे में पूछा मैं बता दिया, निश्चित रूप से वे तो बहुत बड़े अधिकारी थे पर मैंने देखा वे मुझ से पंजाब में चल रहे खून खराबे और हिंसा, हत्या लूटपाट के बारे में काफी पूछ रहे थे और बहुत सहज थे| जो पूछते में अपनी समझ से पूरी ईमानदारी से बताता जा रहा था| मुझे थोडा अजीब लग लग रहा था कि इतने ऊंचे पद पर होते हुए वे मुझ से जानना चाह रहे हैं जब की उनकी मीटिंग तो गवर्नर, चीफ सेक्रेटरी,डी.जी. आदि से होगी| मैं उनसे इजाजत ले कर उठना चाह रहा था पर उन्होंने बैठे रहने के लिये इशारा किया| एक बात उन्होंने पूछी कि मान लीजिये अगर यहाँ प्रधान मंत्री आयें और उनके साथ एस पी जी कि सिक्यूरिटी हो तो क्या वे पूरे सेफ हैं| मैं चुप रहा मैंने कहा कि मुझे पता नहीं है कि आप मैं जो कहूं उसे सुन कर नाराज़ तो नहीं होंगे| वे हँसे  बोले “नहीं”|       

 मैं ने कहा अगर किसी पूरे कट्टर खाड़कू ने स्वयं मरना तय कर लिया है वह किसी को भी मार सकता है|

वे बोले कैसे, “खुद पर ही कपड़ों के नीचे बम या एक्सप्लोसिव लगा कर किसी भी तरह से नजदीक आकर अपने को उडा दे साथ में वीआईपी को भी या कुछ भी ऐसा कर दे की मरना तो है ही मार कर मरूंगा तो उसे कैसे रोक सकते हैं|”

वे चुप हो गए थे और पूछा कि क्या यहां पंजाब में ऐसे विद्रोही तत्व हैं| मैंने कहा कि बिलकुल होंगे| हंस कर बोले “तुम अपने  काम से खुश हो|”

मैंने कहा “अल्टरनेटिव नहीं इसलिये खुश हूँ, बच्चे दिल्ली में मैं यहां हूं, वे वहां मेरे लिये चिंतित और मैं यहां|”

उन्होंने मेरा नाम बटाo का नंबर ले लिया| और कहा जब भी दिल्ली आऊँ उनके ऑफिस में उनसे आकर ज़रूर मिलूं| उन्होंने अपना कार्ड दिया| उस पर लिखा था|
“जी.एस. वाजपेयी, (सेक्रेटरी सिक्यूरिटी)

 रूम नंबर 101 नार्थ ब्लॉक

 नई दिल्ली -110001”

मैंने उन्हें सलूट किया और विदा ली और अपनी सीआरपीएफ की मीटिंग के लिये चला गया| यह मुलाकात की घटना नवम्बर या दिसम्बर 1990 की है| उसके बाद कुछ दिन बाद ही  तत्कालीन प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर ने पंजाब विजिट किया जो सिर्फ चंडीगढ़ तक सीमित रहा और बिना किसी अप्रिय घटना के पूरा हो गया था|

  जनवरी 1991में मैं 30 दिन के अर्जित अवकाश पर दिल्ली अपने परिवार गया| वहां रहते हुए एक दिन मैं जी एस वाजपेयी जी से उनके पास गया, बिलकुल खाली बैठे हुए थे सो उन्होंने तुरंत ही बुला लिया| उन्होंने काफी देर बात की जैसे बिलकुल फुर्सत में हों| चाय भी मंगवाई और बातचीत में बताया कि इसी महीने के अंतिम दिन वे कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के आरएडब्लू अर्थात रॉ में सेक्रेटरी पद ग्रहण करने जा रहे है, फिर उन्होंने वहां के काम के बारे में बताया जो बड़ा ही रोमांचक लगा और पूछा कि क्या में वहां आना चाहूँगा? यह तो अच्छा अवसर था| सो मैंने उत्साहित हो कर ‘हाँ’ में जबाब दिया| उन्होंने अपने पी.एस. से टाइप करवाया और मैंने हस्ताक्षर कर उन्हें सौंप दिया| उस के डेढ़ महीने के बाद मैंने डेपुटेशन पर उनके दिल्ली ऑफिस में आकर ज्वाइन कर दिया था|

 बस गया वहां था केवल तीन वर्ष के लिये पर रहा बारह वर्ष तक| वह बिलकुल अलग दुनिया थी बिलकुल अलग तरह का काम| नाम जासूसी ही बड़ा रोमांचकारी होता है| पर वह न तो गुलशन नंदा के जासूसी उपन्यास की जादुई चमत्कारिक दुनिया थी, न ही एम.आई. के बेहद काल्पनिक एजेंट 007 जेम्स बांड की करामती, तड़क भड़क, अकेले ही सुपरमैन, ही-मैन वाली दुनिया| हाँ रोल कई करने पड़े थे हेड क्वार्टर में रिपोर्टों के पुलिंदों बीच से असली काम की बात निकालना| अपने देश में फील्ड ड्यूटी में बहुत रिस्क लेकर दिए हुए टास्क पूरे करना और करवाना| देश में जिन दो स्टेशन को हेड करने का मौका मिला वे दोनों उस समय बड़े चुनौतीपूर्ण थे, कश्मीर का स्टेशन इंचार्ज होना जब वहां हालत बड़े खराब थे और प्रशासन बिलकुल ठप्प पड़ा था| हर जगह विभिन्न फ़ोर्स तैनात थी,सीआरपीएफ की पृष्ठभूमि होने के कारण और लगभग सभी जिम्मेदार सी.ओ. आदि को जानने के कारण में वहां आसानी से कार्य कर पाया था|

उसी तरह पंजाब में खालिस्तानी आन्दोलन की हिंसा और लूटपाट जब चरम सीमा पर थी मुझे पंजाब में महकमे ने इंटेलिजेंस कार्य के लिये अमृतसर में तैनाती दी गयी थी वहां भी उस समय सीआरपीएफ का हर जगह डिप्लॉयमेंट था सो वहां खुल कर काम कर पाया था| वहां क्रॉस बॉर्डर ऑपरेशन भी काफी किये तथा पाकिस्तान की आईएसआई को डट कर मात दी| उनके गूर्गे पकडे और एक्सपोज किये उन्होंने एक वारदात उनके अन्दर उन्ही के आदमियों से हमने तीन कराई| मुझे हमारे सोर्स से पता लगा कि आईएसआई ने मेरा नाम ‘मामा’ रखा हुआ है तथा वाच रखते है कि ‘मामा’ किस बॉर्डर पोस्ट के लिये चला है उधर के  बॉर्डर के पोस्टों को अलर्ट कर देते हैं| यह भी बताया कि मुझे वे अपने काम में बाधा समझते हैं और मैं उन की ‘हिट लिस्ट’ में हूँ| सुन कर मैंने इसे एक कॉम्प्लीमेंट ही समझा और उन्हें अँधेरे में रखने के लिये अपनी गाड़ी और एस्कॉर्ट जिधर जाना नहीं होता था उधर भेजता था और खुद ऑपरेशन दूसरी तरफ ऑपरेशन के लिये जाता, इसमें मुझे बीएसफ और आई बी से भी भरपूर सहयोग मिल रहा था और हमारा पुराना स्टाफ भी बहुत मदद करता था| इस प्रकार कम अनुभव के बावजूद अपना 3 वर्ष की अवधि अच्छी रही,और सुरक्षित भी भी| उसी दौरान एक श्रीनगर जाने वाले एक इंडियन एयर लाइन के विमान का अपहरण हुआ था, जिसमें भी जानेमाने सुपरकोप केपीएस गिल, डीजी पंजाब के कुशल नेतृत्व में रात भर के प्रयास में अपहरणकर्ता को मार गिराया गया था तथा सभी यात्री बिना खरोंच के बचा लिये गए थे| इस कार्य में हमारे ऑफिस की संभावित अपहरण कर्ता की पहचान बहुत उपयोगी साबित हुई थी|                

इस के बाद मुश्किल ड्यूटी का भरपूर लाभ मिला जब विदेश के भारतीय दूतावासों में दो पोस्टिंग मिली जहाँ ज़िदगी बिलकुल अलग थी ड्यूटी बिलकुल अलग| फिल्मों के एक्टर्स की तरह अपना रंग ढ़ंग आदत, बातचीत का तरीका बदली करना पड़ा था| विदेशी एम्बेसियों के राजनयिकों और गणमान्य व्यक्तियों से मिलना जुलना और पार्टियों में आना जाना और बहुत कुछ नकली व्यवहार और प्रोटोकॉल निभाना पड़ता था और अपनी असली पहिचान और बैकग्राउंड को छुपाना पड़ता था| दोनों देशों मे छोटे दूतावास थे, भारत के दोनों देश मित्र थे|  दोनों ही देशों में पाकिस्तानी दूतावास नहीं थे, सो आपस की स्पर्धा या संघर्ष नहीं था, अतः जिन्दगी का अलग तरह का अनुभव रहा था| बरसों की धूप की तपन के बाद घनी ठंडी छांव| बारह वर्ष का डेपुटेशन के बाद वहीँ एब्सोर्ब होने के बदले अपने पैतृक संगठन में आकर अन्तिम कुछ वर्ष व्यतीत कर सेवा निवृत्ति की घनी छावं बहुत सुखद लग रही है| बहुत से ख़राब समय की ताप भी सही, गलत निर्णय भी लिये गए, चोट भी खाई और सफलता का आनंद भी| कितने ‘सिर के हेट’ बदले काम की दृष्टी से भी और सिर पर वास्तव में पहनने वाली सरकारी टोपियों में भी जो यूनिफार्म के विभागों के हिसाब से खाकी, नीली, और काली तीन रंग में तो वे भी रही और डिप्लोमेट के तौर पर सूट टाई, या काला बन्द-गला| और अब फिर जहाँ से चले थे वहीँ आ गए, ‘पुनर्मूषको भव’ की कहानी कि तरह चूहे से बिल्ली बन कर चूं चूं से  म्याऊं म्याऊं करने लगी बिल्ली से कुत्ता बन कर भों भों और फिर भी तसल्ली नहीं थी कुत्ते से व्याघ्र बन दहाड़ना और मुनि पर ही हमला करने पर पुनः मूषक से घूम फिर कर मूषक|

इसी प्रकार नौकरी की थी रोज़गार के लिये पहले अध्यापन, फिर अनुसंधान फिर यूनिफार्म सर्विस, वहां से दूसरी नयी यूनिफार्म में नौकरी, जासूसी, राजनयिक फिर खाकी और फिर ‘मूषक से मूषक’ यही तो है जीवन की धूप छांव|

 

-    देवेन्द्र कुमार,

दिल्ली,11 जून 2025