जा, डिप्टी बनेगा
-देवेन्द्र कुमार
उर्दू के किसी शायर ने क्या खूब लिखा है, “भड़कती है लौ जब दिया बुझने को होता है|”
जैसे जैसे बुजुर्गी आती है, जिंदगी का तेल कम होता जाता है और जिंदगी की शाम गहराती जाती है, पता नहीं कहाँ कहाँ की पुरानी से पुरानी ुरानीँ कि बातें याद आती हैं,ैं बातें याद आती रहती हैं| अब जब बहुत नई बात तो याद नहीं रहती, जैसे पांच मिनट पहले ही चश्मा कहाँ रखा था? जो ढूंढ़ने पर मुश्किल से ही मिल पाता है, या सुबह को क्या खाना खाया था? या आज की तारीख क्या है? और आज के समय साथ रहने वाला अपना मोबाइल नहीं मिल पाता तब दूसरे किसी फ़ोन से घंटी बजा कर दूंढना अब रोज़मर्रा की आदत क्या मजबूरी होती जा रही है| हाँ, पुरानी याददाश्त अभी भी खूब ठीक ठाक है| बहुत पुरानी बचपन की बातें ज्यों की त्यों अप्रयास और सहज ही याद आ जाती है। जैसे किसी ने बचपन में क्या क्या कहा था, एक एक शब्द भी पुरानी स्मृतियों के पता नहीं मस्तिष्क के तहखाने में दबे हुये किस कोने से निकल कर हाज़िर हो जाते हैं, घटनाएँ निकल कर सामने साकार खड़ी हो जातीं है। जैसे कि छोटी कक्षाओं में याद की हुई कवितायेँ, दोहे, मुहावरे, स्कूल की प्रार्थनाएं और बचपन में सुने फ़िल्मी गाने पूरे के पूरे याद पड़े हैं| रटे हुए पहाड़े भी 30 तक के पूरे याद हैं भले ही उनकी जरुरत सालों से पड़ी ही ना हो| बस वर्तमान व नयी बातों को ही ज्यादा जंग लगा है| पुरानी तो ज्यादातर खूब याद पड़ी हुई हैं|
दूसरी बात बचपन से सुनते आ रहे हैं कि आशीर्वादों में और दुआओं में भी बहुत असर होता है, पर सही कहूं इस पर कभी न तो ज्यादा कुछ ध्यान दिया था और न ही कुछ ऐसी बहुत सी बात यादें कुछ काम की हैं| नानी, दादी बड़ी बूढी महिलायें तो बच्चो के सर पर हाथ फेर कर आशीर्वादों की झड़ी लगा देती थी| जैसे ही कोई नई बहू उनके पैर दबाती थी, आशीर्वाद देती थी “बूढ सुहागन हो, सतपुती हो तेरा सुहाग बना रहे|”
तब इस तरह की बातें सुन कर मेरा बाल-मन सोचता इन बूढी ठेरी महिलाओं के पास कौन सी ऐसी शक्ति है जो ऐसा कह्ती हैं? बस हंसी आती थी क्या सबके सात सात पुत्र ही होंगे या होना चाहिए कि ऐसा कुछ आशीर्वाद, सब महिलाओं पर कैसे ठीक निकलेगा? सभी महिलाएं मरते समय सुहागन कैसे रह सकती है? पति क्या अमृत चख कर आये हैं कि उनकी बीबियाँ ही पहले मरनी आवश्यक हैं, मन में यह भी आता कि ये सब स्वयं महिला होते हुये भी बेटों केवल बेटों के लिये आशीष देती हैं बेटियों, के लिये बेकार में क्यों खिलाफ हैं?
पर ऐसे ही खाली समय सेवा निवृत काल में बैठे बिठाये बहुत पुरानी बातें ज्यादा याद आती रहती हैं, बचपन सबसे सुनहरा समय होता है ही, अब वह एक फेंटेसी दुनिया या कल्पना लोक से कम नहीं लगता| मुंशी प्रेमचंद में अपनी यह बात अपनी कहानियों में दोहराई है कि बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन है | अब यह बात बिलकुल सच लग रही है| ऐसे ही याद आया था एक बहुत पुराने बड़े बूढ़े पडोसी का चेहरा जो बार बार उभर कर सामने आ गया था| मेरे बचपन के अपने छोटे नगर के अपने मुहल्ले के इन बड़े बूढ़े का ध्यान सोने से थोड़े पहले ही दिमाग में आया था| वयोवृद्ध थे बहुत धाकड़ पर्सनालिटी थी उनकी, पुराने ज़मींदार थे वहीँ उन्ही के पास पडौस में किराये के मकान में ही मेरा जन्म हुआ था वहीँ बचपन का सुनहरा समय गुजरा था, उनको हम ज्यादातर बच्चे बाबाजी कहते थे| बड़े लोग भी उनका सम्मान करते थे| मेरी कोई 15 वर्ष की उम्र तक उनके पडौस में हमारा परिवार रहा था और यही सब उस समय की बातें सोचते सोचते कब नींद आ गयी थी पता ही नहीं चला|
अब मैं बचपन में पहुंच गया था उम्र थी आठ वर्ष है कक्षा तीन में हूँ, हमारे चुंगी स्कूल जैसा कोई दूसरा अच्छा स्कूल कोई नहीं हो सकता था| घर के बेहद नजदीक और टीचर बहुत अच्छे थे और आजकल वाला स्कूल वाला टेंशन होता नहीं था| थोडी पिटाई और मुर्गा बनने में हमें कोई शर्मिंदगी नहीं थी| सचमुच बडे आनंद का टाइम था, स्कूल आते ही सबसे पहले अपनी क्लास में तप्पड बाहर झाड़ कर बिछाते फिर जाकर उन पर बैठते, तख्ती स्लेट पर ही अभी पढाई थी, रोजाना पहाड़े सुनना-सुनाना, कविता रटना, सुलेख और गणित,बस इस पर पूरा जोर था| कोई होम वर्क नहीं| पहाड़े जोर जोर से सामूहिक रूप में दोहरे जाते थे| हमारे क्लास टीचर मुल्ला जी बड़े अच्छे अध्यापक माने जाते थे| जो हम को बहुत कम पीटते थे बस डरा देते थे| बुला कर जोर से थप्पड़ उठा कर चलाते पर उसे बचा कर अपने पीछे ले जाते| बहुत नेक और आदर्श टीचर थे| अपने आप बना कर कहानी कहानी में बहुत सी कोर्स की बातें सुना कर सामान्य ज्ञान बढाते रहते थे| छुट्टी की घंटी बजते ही हम अपना तख्ती बस्ता उठा कर भागते जाते साथ ही जोर जोर से गाते हुए घर जाते थे-
तख्ती पे तख्ती, तख्ती पे दाना, कल की छुट्टी, परसों को आना ...
सिरफिरे रामू श्यामू बदमाशी में हमें चिड़ाते हुए नया गाना बना कर कहते-
तख्ती पे तख्ती, तख्ती पे लड्डू, मास्टरजी मर गए कहाँ गाढूं|
इस बात पर तख्तियों को हथियार बनाकर आपस में लडाई हो जाती थी| वे दोनों हमारे स्कूल के ड्राप आउट हो चुके थे या असली बात है कि उन दोनों को हरकतों के कारण स्कूल से निकाल दिया गया था, क्योँकि वे दूसरों को भी बिगाड़ रहे हैं| अभी दूसरे स्कूल में उनका दाखिला नहीं हो पाया था और वे वैसे ही घूमते रहते थे| उनके पतंगबाज़ पिता गज्जू को इन चीज़ों कि परवाह ही कहाँ थी?
एक शनिवार के दिन था मैं बाबा से ही साक्षात बात-चीत कर रहा था, उन्होंने अपना कुछ निजी सामान पास की सीता राम की दूकान से लाने के लिये कहा था| जिसे मैं लेकर आया हुआ हूँ उन्हें सौंप रहा था तथा बचे हुए सिक्के उन्हें लौटा रहा था और वे हिसाब लगा रहे थे कि ठीक लाया हूँ या नहीं| शायद पैसे दो पैसा का अंतर है वे मुझे दोबारा दुकान पर भेज रहे हैं, उन्होंने एक कागज़ के ऊपर जोड़ घटा कर हिसाब लिख कर दिया है, मैं दौड़ता हुआ वापिस जा रहा हूँ साँस चढ़ी हुई थी| आकर ठीक खुले पैसे उन्हें सौप दिए थे तभी मेरी नींद एक झटके के साथ खुल गयी, असल में मैं तो यह सब कुछ सपने में देख रहा था, बाहर कहीं पास के स्थान पर गडगडाहट के साथ पास में आसमान से जोर के धमाके के साथ बिजली गिरी थी जोर की बारिश हो रही थी, साथ ही पॉवर भी गुल हो गयी थी उसी कारण से मेरी गहरी नींद खुल गयी थी| पर सपना दिमाग पर छाया हुआ था तथा याद था कि, बाबा सामान व बचे पैसे ठीक लाने पर इनाम दे रहे हैं- हाजमें के चूरन की चटपटी गोलिया जो वे ही इमाम दस्ते में कूट-काट कर खुद बनाते थे|
केवल चूरण चटनी ही नहीं, इसके अलावा वे तो आधे हकीम थे कई तरह ही थे, चटनी, मुरब्बे, नुस्खे, जुशांदे भी घर में रखते थे, बनाते भी रहते थे तथा ज़रूरतमंदों को तकलीफ या ज़रूरत पड़ने में देते रहते थे| पर क्यों उनकी बात व यादें आई उस दिन अकारण ही पता नहीं, पर जब उसे पुरातन समय को वर्तमान से जोड़ कर देखा तो भोचक्का रह गया, लगा ये कैसा चमत्कार होता रहा था जिस पर अभी तक पहले कभी ध्यान क्यों नहीं गया था? इतने बरसों में क्यों एक बार भी इस के बारे में क्यों उन्हें और उनकी बातों को नहीं सोचा? नौकरी के दौरान तो बस काम ही काम ,ड्यूटी, घर-गृहस्थी, बच्चों की पढाई, फिर उन्हें सेटल करना, फिर उनके शादी विवाह, साथ साथ नौकरी के ट्रान्सफर, प्रमोशन, उनके झमेले, कहीं अच्छी पोस्टिंग कहीं मुश्किल कभी अच्छे बॉस कभी सताने वाले इन्ही सब में मेरी सारी उम्र निकल चुकी थी| अब फुर्सत हुई रिटायर्ड हो कर वह भी इतनी अधिक फुर्सत की टाइम गुजारना ही सब से बड़ा काम हो गया है| चलिए थोडी तसल्ली के साथ इस मुद्दे पर आऊँगा| अभी तो पुराने समय में कभी आगे कभी पीछे बहका जा रहा था| कभी असली कभी सपने की बात हो रही थी| दिमाग भी कभी सिलसिले वार कहाँ सोचता है सो इसमें गलती कहाँ है?
जब मैं कोई छह साल का था, तब से ही की बातें मुझे याद है उससे पहले की तो सुनी सुनाई हैं| मेरे छोटे शहर मुज़फ्फरनगर की नई मंडी के एक मुहल्ले में हमारे पडौस के सज्जन की ही तो कहानी है| वहीँ उसी मुहल्ले का किराये का घर ही मेरी जन्मस्थली थी| वहीँ पास के नगरपालिका के स्कूल की प्राइमरी कक्षाओं में मैंने कक्षा एक से पांचवी तक की पढाई की थी| उस समय उसे आम तौर से चुंगी स्कूल ही कहते थे| वही मुहल्ला पड़ौस अपनी छोटी सी पर बड़ी मनोरम दुनिया थी| शायद जिंदगी का सबसे अच्छा जीवन का समय| भाई बहिन, मित्र, रिश्तेदार, अच्छे पास पडोसी| हमारे खेल कूद के लिये गिल्ली डंडा, तडिमार, फुटबॉल, कबड्डी| खेलने के लिये खाली जगह और सडक पर कुछ कमी नहीं थी|
उन दिनों मुफ्त के कई कोच भी थे| पड़ोस के पहलवान पंडत जी हम बच्चों को कुश्ती के दांव सिखाते अपनी पुरानी कुश्तियों के किस्से सुनाते थे| हमारे मुहल्ले में कभी बंदरवाला, कभी मदारी, कभी भालू वाला आकर मजमा लगाते, कभी जादूगर डुगडुगी बजा कर हमे किसी एक को अपना ज़मूरा बनाकर कमाल दिखाते थे| शायद वे हमें हिप्नोटाइज करने विद्या जानते थे और कुछ हाथ की सफाई पेट के वास्ते करते| इसी तरह से सपेरा ‘तन डोले मेरा मन डोले की बीन बजा कर एक से एक विषेले सापों का खेल दिखाने आते रहते थे| वे उन सापों के बारे में बताते कि किस का काटा पानी भी नहीं मांगता| काले नाग को भी आराम से गले में डाले रहते जैसे शंकर भगवन को कैलेन्डर में दिखाया जाता है| साथ में जहर को मारने की गोलियां भी बेचते थे| कोई कोई तो मोटे अजगर को भी साथ लाते थे जिनके लम्बे बड़े शरीर देख कर दहशत होती थी, बताते कि यह बड़े से बड़े जानवर को लपेट और भींच कर दम घोट कर मार देते है| नाग का मुंह भींच कर उनके विषदंत दिखाते, नागिन द्वारा बदला लेने के रोमांचक किस्से सुनाते| सांप की केंचुली दिखाते| सब काफी रोमांचक व रोचक होता था|
एक ‘चना जोर गरम वाला’ आता था जो मसाले वाले चने गाने गा कर बेचता था| वह जिस व्यक्ति को भी आता जाता देखता उसी पर गाना अपना बना कर सुना देता था| जैसे मोटे ताज़े सेठ को देखते ही चालू हो जाता,-
“चना जोर गरम... बाबू मैं लाया मजेदार....चना जोर गरम,.. मेरा चना तो खाते मोटे लाला,.. जिनके पेट में लगता ताला,.. चना जोर गरम बाबू में लाया मजेदार चना जोर गरम.....|”
या मेरा चना है सबसे आला... जिसमें डाला गरम मसाला... उसको खाता है दिल वाला... चना जोर गरम बाबू में लाया मजेदाए चना जोर गरम....|
ऐसे ही एक तमाशा वॉक्स लाता और बच्चों को एक एक पैसे में बॉक्स में तस्वीरें दिखा कर दुनिया की सैर कराता और दिखाता “नौ मन की धोबन देखो, दिल्ली का लालकिला देखो, आगरे का ताजमहल देखो, गामा पहलवान देखो, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, गाँधी बापू, जर्मनी के हिटलर, मधुबाला और दिलीप कुमार और जाने क्या क्या दिखाता और किनके फोटो से मिल्वाता| इनके अलावा और जाने कहाँ कहाँ की तस्वीर दिखा कर दुनिया की सैर करा हम सब का मनोरंजन और अपना गुजारा करता था|
घोड़े-तांगे पर नई फिल्म लगने की पब्लिसिटी होती रहती थी, जैसे पहले फ़िल्मी गाना बजता जाता, “उड़े जब जब जुल्फ़ें तेरी कुवारियों का दिल मचलें” गाने का रिकॉर्ड जोर जोर से बजता हुआ चलता फिर गाना बीच में रोक कर बड़े ही शायराना अंदाज़ से उसमें बैठा मुनादी वाला ऐलान करता चलता, “प्रकाश टाकीज...के गोल्डन स्टेज पे.... रोजाना तीन शो... में देखिएगा ...लड़ाई.. मार काट . नाच गानों से भरपूर.. बिलकुल नया ...शाकार ..फिल्म ...‘नया दौर’...नया दौर ... जिसके चमकते सितारे हैं.... दिलीपकुमार,.. वेजएंती माला” और जानी वॉकर |.. पहला शो दिन के नौ बजे दूसरा बारह बजे .... आदि आदि और फिर से फिल्म के गाने का रिकॉर्ड| हम बच्चे तांगे के पीछे पीछे दौड़ते और त्तांगें से कुछ परचे फिकते थे जिन्हें हम लूटने के लिये दौड़ लगा कर लूटते थे, स्पर्धा रहती कौन ज्यादा लूट कर लाता है| इस तरह की मस्त और बेफिक्री जिंदगी थी उन दिनों की|
उन दिनों सभी अडोसी- पडौसी सबके जाने पहिचाने होते थे, सभी में रिश्तेदारों जैसी पहिचान दी जाती थी, मुहल्ले के लोगों में कोई चाचा-चाची कोई ताऊ-ताई ,कोई मामा-मामी, कोई मौसा-मौसी कोई, मामा-मामी,बाबा-दादी आदि हुआ करते थे। वह अंकल औंटी से काम चल जाने वाला आधुनिक जमाना नहीं था| डॉक्टर की बीबी डाक्टरनी, टीचर की बीवी बिना पढ़े मास्टरनी और तो और हमारे एक अध्यापक थे उन्होंने एल टी की डिग्री ली थी उन्हें एल टी साहेब और उनकी बीवी को एल्टन कहते थे|
हमारे घर के सामने लाला हीरा लाल की बड़ी तिमंजला हवेली थी उस मुहल्ले की सबसे बड़ी रिहायसी बिल्डिंग थी| और दूसरी तरफ हमारे मकान के बराबर के दो खाली प्लॉटों में लकड़ी की एक टाल थी, उन दिनों लकड़ी सबसे साफ़ और सस्ता ईंधन माना जाता था| टाल के बाद एक पतली ईंट की सड़क बस उसके बाद दो प्लाट के खुले एक मंजिले मकान में रहते थे बघरे के पुराने ज़मीदार नत्थू राम जी, इस इलाके के गणमान्य बुजुर्ग और इस कहानी के मुख्य पात्र। काफी लम्बे तड़ंगे, गौरे चिट्टे रोबदार व्यक्ति, आयु कोई पिचहतर से पार रही होगी। पर अच्छी सेहत और हमेशा अलग तरह की पौशाकों के कपड़ों में रहने वाले| बड़ी उम्र के बावजूद आकर्षक व्यक्तित्व, उनको देख कर लगता था कि ईमारत कभी खूब बुलंद रही होगी। कोई भी आदमी उनको देखता तो देखते ही समझ सकता था कि कोई विशेष व्यक्ति हैं आम साधारण नहीं| हाँ यही है कथा के मुख्य नायक जमींदार नत्थू लाल जी बघरे वालों की|
उनके दो बड़े मकान थे जो एक दूसरे से कोई आधा किलोमीटर के फासले पर थे। दोनों में एक एक बेटे का परिवार रहता था। वह स्वयं अपने छोटे लड़के आशा राम के साथ हमारे पास वाले मकान में ही रहते थे| और उन का खुद का रहने का कमरा घर में सब से अलग था, जो सड़क पर खुलता था,जो हमरे घर से साफ़ दिखता था| वो अपने ही घर में बिलकुल अलग अकेले रहते थे। जब चाहते अन्दर खोल कर जा सकते थे वरना अकेला कमरा ही उनका ऑफिस कम रेजिडेंस था| उनकी पत्नी अपने बहु बेटे व दो पोतों के साथ अन्दर रहती थी| घर के पिछवाड़े में एक दाई को एक छोटा कमरा दिया हुआ था| उनके घर के तीन तरफ सडक थी और उनसे अगला मकान था इंटर कॉलेज के साइंस मास्टर जी का|
उनको सबसे संपर्क रखने की खफत थी| आते जाते सब से राम-राम या नमस्ते की उम्मीद रखते थे| अगर कोई ऐसा करने में देर करता तो स्वयं ही ज़ोर से राम राम ले लेते। आने जाने वाले से एक दो वाक्य ज़रूर कहते सुनते थे। हर किसी से हाल चाल पूछना तथा मांगे या बिना मांगें नेक सलाह देना उनकी आदत थी। उनकी ज़मीदारी चली गयी थी मगर ज़मींदारी की आदतें नहीं गयीं थी। जब वह अपने घर से बाहर निकलते तो औरों से अलग पर कुछ कुछ कुछ वर्दी जैसे कपडे पहनते थे| अपने साथ पीतल की मूठ वाली बेंत रखते थे और सिर पर मौसम के हिसाब से टोपियां पहनते, मफलर लपेटते थे। सर्दियों में अपने आप को पूरी तरह से ढक कर रखते थे। पैरों में गरम पाजामा व जुर्राब के ऊपर भी गरम कपडे की पट्टी कुछ इस प्रकार से बांधते जैसे घुड़सवार बांधते हैं। चलते चलते खांस खंखार कर अपने बाहर होने की सूचना आस पास दे देते ताकि बहू बेटियां सर ढकना चाहें तो ढक ले या अंदर चली जाएँ। कई बार लगता कि जैसे बूढ़ा शेर अपनी गुफा से निकल कर जंगल में जा रहा हो तथा आस पास के जानवर सावधान हो कर इधर उधर होते जा रहे हैं। मानो या ना मानो वो सबको महसूस करा देते थे कि वे साधारण तो बिलकुल नहीं है अभी भी उनका दबदबा है, वे आम इन्सान से कुछ ख़ास हैं, विशेष हैं| हाँ यह बात थी वे ये कुछ जान बूझ दिखावा नहीं करते थे, यह उनकी पुरानी आदत और मजबूरी थी|
उनके बाप दादाओं ने बरसों से बड़ी जमींदारी की थी, उनके परिवार ने रियाया पर शासन और अंग्रेजों के हुकुम बजाये थे, उनको लगान वसूल कर दिया था, और अपनी रियाया पर एक तरह का शासन करते रहे थे, पर उनकी गिनती नेक ज़मीदारी की थी इसलिये उनकी तथा उनके परिवार के लोगों को काफी इज्जत देते रहे थे| सब जमीदार उनकी तरह के तो नहीं थे इसलिए जमीदार लोग काफी बदनाम और अलोकप्रिय भी थे, जैसा हिंदी फिल्मों में उन्हें नेगेटिव रोल में दिखाया जत रहा है|
देश की स्वतंत्रता के साथ माहौल तेजी से बदल रहा था| किसान लोग जमीदारों के जुर्म और अत्याचारों से परेशान तो थे ही, ज्यादातर जमींदार लोग ज्यादती और मनमानी करने वाले माने जाते थे| आशा की जा रही थी यह बुराई जल्दी खत्म हो जाएगी और जो जमींन किसान बोते हैं उन्हें दे दी जायेगी| कुछ बड़े ज़मीदार तो माहौल के साथ बदली हो गए थे तथा कांग्रेस में शामिल हो गए थे| जो ज्यादातर हवा का रुख पहिचानते थे उन्होंने जोतेदारों से जमीन वापिस लेकर बाग़ लगवा दिए थे| देश की आज़ादी के थोड़े दिन बाद ही उनके प्रान्त उत्तर प्रदेश मे सन 1950 में ही ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम के तहत ज़मींदारी प्रथा को ख़त्म कर दिया था, ज़मीन का मालिकाना हक़ खेती करने वाले किसानों को जो जोतेदार कहलाते थे, दे दिया गया था| रातों रात नत्थू राम जी पुश्तनी ज़मीदार से एक खास व्यक्ति से एक साधारण जन बन गए थे| यह उनके लिये बड़ा सेटबैक था, जैसे आसमान सिर पर गिर पड़ा हो| उन्होंने हवा का रुख पहचाना पर थोडा देर से| कुछ वर्ष पहले उन्होंने अपने दोनों बेटों को मेरठ कॉलेज, मेरठ में भेजा हुआ था और उनके लिये अपने शहर में दो प्लाट लेकर डाल दिए थे| जमीदार के बेटे थे कॉलेज में पढाई के अलावा खेल में रूचि थी, वहां हॉस्टल में आराम के साथ पढ़ते थे पर केवल उतना ही कि अगली कक्षा में पहुँच जाएँ पढ़ कर नौकरी करने की बात उनके दिमाग में नहीं थी पर वहां पढ़ते पढ़ते ही उन्हें पता लगा की सब ज़मींदारों की जमीदारी गयी तो उन्हें भी बड़ा धक्का लगा था|
दो तीन वर्ष तो जीवन ठीक रहा पर जब देखा अब गांव में वह इज्जत, दबदबा व शान नहीं रही जिस के वो सदा से हक़दार रहे थे तो उन्होंने अपने गाँव बघरे की बड़ी हवेली छोड़ कर शहर में डेरा लगाना ज्यादा मुनासिब समझा था| अपने दोनों बेटों के प्लाट पर घर बनवा कर वे शहर में आ गए हैं|| उनकी खुद की जमीन का उन्हें मामूली रेट पर मुआवजों मिला था वह भी नगद के तौर पर नहीं बल्कि दस साल के जमीदारी बांड पर| उन्हें इसलिये आज़ादी और देश के कांग्रेसी नेताओं से नफरत हो गयी थी| पर सब दिन जात न एक समाना वाली बात थी| अब उनको दोनों बेटों को नौकरी कराना ठीक समझा और उनके रसूक के कारण नौकरी लग भी गयी थी जो उनको अखरता तो था पर वे खेती क्यारी तो नहीं कर सकते थे| यह सब पृष्ठभूमि में तो मुझे बाद में ही पता लगी थी| पहले तो वे हमारे लिये वे केवल एक निकट पडोसी थे| मुहल्ले के बड़े आदमियों से एक थे, और अपने आप में अनूठे थे बस केवल यह मालूम था|
जमींदारी को तो वे पीछे अपने गाँव बघरे में छोड़ आये थे, पर जमींदारी ने उनका पीछा कहाँ छोड़ा था वह उनकी रगरग में समाई थी उनका चलना,फिरना, बात करने का लहजा सब वही था जो पहले था। बहुत से लोगों को यह बात पचती नहीं थी ,पीछे से कुछ भी कहें पर सामने उनके ऐसे लोग ठहर नहीं पाते थे, चाहे मोहल्ले के बड़े लाला जी जिनका तिमंजिला भव्य मकान था, चाहे पुलिस चौकी के बड़े दीवान जी, सब उन के सामने बात करने से घबराते थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी पूरे सफ़ेद बाल, मुंह में दांत नहीं , अपने घर के सामने कुछ न कुछ काम करतीं दिखती थीं, जैसे पापड़ कचरी बनाना हो या स्वेटर बुनना हो। घर के अंदर के रसोई आदि का काम उन के बेटे की बहू के जिम्मे था। सारे मुहल्ले की महिलाएं उनका आदर करती थीं और उन से अपनी दिक्कतें, समस्याओं का समाधान पूछती थीं। विशेष रूप से जब किसी के घर बच्चा पैदा होता तो वह स्वयं सुखिया दाई के साथ किसी अनुभवी जच्चा - बच्चा डॉक्टर की जिम्मेदारी निभाती थीं। संक्षेप में चलता फिरता प्रसूति विशेषज्ञ थीं। पिछले कुछ वर्षों में ही मुहल्ले के पचासों बच्चे उन्ही की निगरानी में पैदा हुए थे। सुखिया दाई को अपने घर एक कौने में एक कमरा दिया हुआ था। मुझे बताया गया था कि मुझे भी सुखिया दाई ने उनकी देखभाल में ही जन्म कराया था|
हमारे निकटतम पडोसी होने के कारण मैं उन्हें बाबा कहता था और अन्य बच्चों के मुकाबले मुझ पर कुछ अधिक ही मेहरबान भी रहते थे। मैं उन के छोटे मोटे काम भाग भाग कर दिया करता था, जैसे उनका छोटा मोटा सौदा सूत पास की सीताराम की दुकान से दौड़ कर ले आना। या उनके घर की निगरानी कर देना, क्योंकि पता नहीं क्यों वे ताला लगाने के बाद भी खीच खिंच कर तसल्ली करते थे? तथा उसके बाद भी किसी न किसी को ध्यान रखने की जिम्मेदारी दे कर के ही जाते थे| शायद यह उनका पूर्ण स्वभाव हो या कोई बहम या मन में कुछ असुरक्षा| पड़ोस में किसी के पास से कुछ लाना या देना हो तो उनके मैसेंजर का काम भी कर देता था। बदले में वे चूरन की गोलियां जैसी छोटी गिफ्ट, या पैसे का सिक्का, या संतरे की गोलिया एक केला आदि जरूर देते थे, यह पक्की आदत थी कि बिल्कुल मुफ्त में कुछ नहीं कराते थे। उनकी एक आदत बड़ी ही अजीब थी वे अपने कमरे को एक बड़ा ताला लगाते फिर उसे कई कई बार खीचने कर सुनिश्चित करते थे कि ठीक बंद हो गया है या नहीं, यहाँ तक कि कई बार 100 -200 गज जाकर वापिस आते दोबारा खीच कर देखते कि सब ठीक से बंद तो है| कई बार किसी भी आस पास वाले बच्चे को दरवाजे के पास वाली पौड़ी पर बैठा जाते कि यहीं रहना| वह आसपास नज़र गहमा लार मुआयना करते थे कि कहीं कोई असंदिग्ध आदमी तो नहीं | अगर कोई नया या अनजान व्यक्ति होता उस से पूछते कौन है क्या कर रहा है?
मैं भी यह ड्यूटी कई बार करता था| पडौस के कारण या जायदा बार अलग ड्यूटी करने के कारण वो मेरे पर थोडा ज्यादा मेहरबान रहते थे| कई बार ज्यादा खुश होकर सिर पर हाथ फेरकर खूब आशीष देते थे, उन मैं से मेरे लिये ज्यादा खुश होने पर एक आशीष अक्सर यह होता था, "जा डिप्टी बनेगा”। पड़ोस के मेरे साथी बच्चे रामू और श्यामू मुझे इस के लिये कई बार चिड़ाते थे,
" बघरे वाले बुड्ढे के आशीष से ये ये डिप्टी बनेगा उस का चमचा कहीं का"|
उस वक़्त मैं भी नहीं समझता था कि डिप्टी क्या बला है हाँ कुछ बड़ी चीज़ होगा,और् कौन इस बाबा के कहने या न कहने से कुछ होगा| मैं तो पुलिस चौकी के दरोगा को ही सबसे बड़ा और धाक वाला समझता था, जो कभी कभी घोड़ी पर बैठ कर मोहल्ले का दौरा सा करते थे और सब उनका रोबदोब मानते थे और वो भी मुहल्ले के बाबा जी को आकर घोड़े से उतर कर उनका हाल चाल पूछ कर जाते थे| रामू श्यामू किसी से भय खाते थे तो बस पुलिस और दरोगा से|
रामू श्यामू दो भाई विशेष रूप से मोहल्ले के सबसे बड़े बिगडैल, ये बड़े ही शैतान बच्चो में थे जो मुझे व मुझ जैसे साधारण मुहल्ले बच्चों को तंग करने में आगे रहते थे, लड़ने झगड़ने में माहिर, दोनों साथ होने के कारण किसी भी एक पर भारी पड़ते, गिल्ली डंडे, कंचे में माहिर, पिता उभे अपनी उम्र के हिसाब से गंभीर नहीं थे पतंगबाज़ी करते थे सुना जाता था कि जुए के शोकीन है उसमे जीतते कर भी कमी करते थे वैसे एक गुड के व्यापारी की दुकान में काम करते थे| मैं ज्यादा कमज़ोर नहीं था एक लड़ कर मैं भी निपट लेता था पर दो मुझ पर भारी पड़ते थे और इस लिये उनसे बचना चाहता रहता था। इस लिये वे उसी वक्त मुझे मारने पीटने का मौका निकालते जब दोनों साथ हों|
वे बघरे वाले बाबा को भी “बूढा-बूढा” कह कर चिढाते हुए भाग जाते थे। यह उनके मनोरंजन का एक साधन था| बाबा उनकी तरफ बेंत घुमाते आगे बढ़ते पर उनके हाथ कहाँ आ सकते थे, फिर वे उनके पिता जिन का नाम गजानंद था पर शोर्ट नाम से सब गज्जू कहते थे, को बीच सड़क पर से ही रामू शामू की जोर जोर बोल कर सबको सुनाते हुए खूब शिकायत करते, पत्ता नहीं गज्जू को अन्दर सुनता था या नहीं पर आधे मुहल्ले को जरूर पता लग जाता था| आवाजही उनकी इतनी बुलंद थी| यही सब आम बात होती थी पर जब जब गज्जू उनके हत्थे चढ़ता, उनसे माफ़ी मांग लेता था तथा अपने बेटों को सजा देने का वायदा करता| पर यह कार्यक्रम तो चलता रहता न कभी रामू शामू माने न उनका बघरे वाला बुढ्ढा अपनी शिकायत की कवायद से|
सब कुछ होते रहने से आम जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था, खूब मजे से खरामा खरामा जिन्दगी चल रही थी, लोगबाग मजे से दिन गुजर रहे थे, सब के पास पैसा कम था पर सकून खूब था| स्कूल चल रहे थे काम धंधे चल रहे थे, शाम को बच्चे मोहल्ले में खेलते कूदते थे ,गिल्ली डंडा , पतंगबाज़ी, कंचे सडक पर होते थे, लड़कियां इक्कल दुक्कल खेलती| महिलायें साथ बैठ कर स्वेटर बुनती, मिल कर पापड़ बनाती और बतयाती|
देश के विभाजन के फल स्वरुप मुहल्ले में बहुत से पंजाबी परिवार आने से काफी भीड़ और बहुत सा नयापन भी आता जा रहा था| एक एक कमरे में गुजारे कर रहे थे| उनके घर संपत्ति नए बने पाकिस्तान में रह गए थे|पर उनकी मेहनत और धैर्य से ऐसे परिवारों ने बहुत सी नयी शुरुआत की थी, जैसे मुहल्ले में अब सामूहिक तंदूर चलने लगा था, जिसमे मुहल्ले कि पंजाबी महिलाएं घर से अपने आटे को गुंद नए घर कर उनकी पेड़ियाँ बना कर लाती नंबर आने पर फटाफट उनको थेप कर तंदूर में चिपका कर सेकती जाती और दो तीन मिनट में काम ख़तम दूसरे का नंबर आ जाता, एक डेढ़ घंटे में यह सब काम ख़त्म वहीँ खाटों पर बैठ कर मर्द और बच्चे गरमा गरम खाते और बतियाते रहते कर एक के बाद तंदूरी रोटियां बनती अपनी पंजाबी भाषा में जोर से बात, मजाक हंसी ठठ्ठा करते, टप्पे गाते| तंदूर पर हाथ सेकते और अपने पुराने दिनों पुराने गांवों, घर, मुहल्ले और नुक्सान की बात करते, और आगे बढ़ने व मिलकर चलने की बात करते| गिरने के बाद उठ कर आगे बढ़ने की योजना और हौसले की बात करते| वहीँ एक ‘मुल्तानी दे छोले’ वाला भी पांच सदस्यों के परिवार के साथ आकर एक कमरे में रहने लगा था, वे लोग मुल्तान से आये थे उनकी भाषा बाकी उधर के पश्चिम वाले पंजाब से आये पंजाबियों से अलग सी थी| वे बोलते थे ‘हिक्कू ना डे मेन्नून डे मैन्नू ना डे हिक्कू डे’| मुझे बस यही वाक्य अब याद हे| बाकी पंजाबी बच्चे उनकी भाषा का मजाक भी उड़ाते थे| वहां उसने छोल्ले का ठेला लेकर अपना जीवन व्यापन फिर से शुरू किया|
इस तरह कुछ ही दिनों बाद मुहल्ले मे ही एक कुल्फी बनाने व ठेल्ला लगाने वाला आकर-रहने लगा था| अपने बैल-खाने, जिसमें में पहले एक लाला की बैलगाड़ी व बैल खड़े होते थे, उसमें किराये पर, उस जगह में न केवल पूरा परिवार रहता बल्कि कुल्फी का ठेला भी लगने लगा था| देख कर लगता था कि पहले खाते पीते होंगे अब मजबूरी में यह काम शुरू किया| उनका शायद पोता विजय हमारी कक्षा चार में दाखिल हुआ था जो पढाई लिखाई में बहुत तेज था| शायद विजय के पिता नहीं रहे थे इसलिए बुजुर्ग बाबा को यह काम करना पड़ा था|
एक परिवार घर पर साबुन बना कर साईकिल पर बाँध कर बेचने लगे थे| थोड़े दिनों में ही काम बढ़ा लिया था तथा स्थानीय दुकानदार भी उनके पास आकर अपनी अपनी दुकानों में रखने के लिये साबुन उनसे लेने लगे थे| उन दिनों उनके बच्चों के नाम और पुकारे जाने वाले नाम अलग अलग थे, जैसे गुलशन को गुल्ला, राजकुमार को रज्जी, मोहन को मोहना, संतोष को तोशी, ओम प्रकाश को ओमी, राम लुभाया सिर्फ लुभाया कहा जाता था| यह सब हमारे दोस्त बन गए थे मुहल्ले की रौनक को बढ़ाते थे, तथा सब यह मानते थे और कहते थे कि वहां से आने वाला कोई भीख नहीं मांगता था और अपनी मेहनत व पुरुषार्थ पर भरोसा कर अपना जीवन को दोबारा से व्यवस्थित कर आगे बढ़ रहे थे| वे अपने को शरणार्थी कहने पर आपत्ति करते थे अपने को पुरषार्थी कहलाना पसंद करते थे|| मजे कि बात है बूढ़े बाबा ने उनकी काफी सहायता की कईयों को काम शुरू करने के लिये ‘सीड मनी’ भी दिया पर कागज पर लिखा पढ़ी कर के ही पैसे दिया करते थे तथा थोडा ब्याज भी लेते थे, जरुरतमंदों का माफ़ भी कर देते थे| यहां हमें नई भाषा बच्चो के नए खेल भी सिखने को मिले| उनमें भी आपस में कई बार जब झगडा होता ख़ास कर पंजाबी महिलाओं में तो नई नई गाली गलोच सुनने को मिलती थी| कुत्ती, मरजानी, खसमाखानी और पता नहीं क्या क्या| शायद पंजाबी भाषा में गली बहुत नेचुरल और सामान्य बात हैं,पंजाबने लड़ते लड़ते चोटियाँ खेंचती, नौचती चिल्लाती फिर आपस में दो दिन ही साथ साथ बैठती एक दूसरे की जुएँ चुनती और एक दूसरे के सर में तेल लगाते पाती| उनमें छोटी छोटी बातों में खूब चिल्लपों होती रहती थी|
अब मैं धीरे धीरे चुंगी स्कूल की पांच कक्षा पास कर छटी कक्षा मैं आ गया था, देश की आज़ादी को ग्यारह साल हो गए थे ,पंद्रह अगस्त के दिन सुबह सुबह प्रभात फेरी में खूब चिल्ला चिल्ला कर ‘भारत माता की जय’’ महात्मा गाँधी की जय’,नेताजी की जय, पंडित नेहरु की जय’ के नारे जोश से लगा लगा कर सड़कों का चक्कर लगा रहे थे| हाँ उसमे एक नया नारा था,‘ पीली चवन्नी तेल में सुहरावर्दी जेल में|’ यह बात दूसरी थी कि हमें पता ही नहीं था कि सुहरावर्दी कौन है और उसे क्यों जेल मे डाला जाना चाहिए आदि आदि| हमें तो मज़ा आ रहा था स्कूल में कोई पढाई नहीं थी और सबके साथ चिल्ला कर नारे लगाने बड़ा मज़ा आया था| बाद में प्रिंसिपल साहेब ने भाषण दिया कुछ बड़े बच्चों ने देश भक्ति के गाने सुनाये| सबको गुल्दाने के लिफाफे मिले|
हम सब गुलदाने के लिफाफे ले ले कर मुहल्ले के बच्चों के झुण्ड में घर को वापिस लौट रहे थे, तब बाबा साहेब रास्ते में हम सब को मिले। उन्होंने खूब ज़ोर से सब को सुनाते हुए पूछा, "भई आज क्या दिन है कहाँ से आ रहे हो?”
हम सब बच्चों ने एक साथ जोश से बताया, “पंद्रह अगस्त, हमारी आज़ादी का दिन स्कूल से आ रहे हैं"|
उन्होंने और ज़ोर से सबको सुनाते जवाब दिया, ओह!! हमारी बर्बादी का दिन, बनियों की बर्बादी का दिन”| इसे कई कई बार जोर जोर से दोहराया ताकि बहुत से लोग सुन सकें।
हम सब को बहुत बहुत बहुत ख़राब लगा जो स्वाभाविक था, गुस्सा तो आया पर हम सब सुन कर चुप तो हो गए पर हमारे उत्साह और ख़ुशी पर पानी पड़ गया था। हमसे पीछे आने वाले स्कूल के बच्चों की टोलियों से भी यह ही सवाल करते और वही बार बार दोहराते। शायद बच्चों से ज्यादा, मुहल्ले पडौस को सुना रहे थे। मेरे बाल मन ने गुस्से में सोचा, कि अब मैं ना तो इन बुड्ढे बाबा से कभी बात करूंगा और ना ही इनका कोई काम करूंगा। हमारे स्वतन्त्रता दिवस के बारे में कैसी ख़राब बात कैसे कह सकते है| हमारे देश के इतने विशेष राष्ट्रीय दिवस के बारे में क्या क्या उल्टा सीधा बोला, कितने ख़राब विचार हैं, ये जमींदार लोग तो अंग्रेजों के पिठ्ठू थे| और बच्चो की प्रतिक्रिया भी मिलती जुलती थी|
हमारे रामू शामू के बदमाशी में शागिर्द राम भरोसे भी था उस ने तडिमार की गेंद बाबा के पेट पर कर मार अपना गुस्सा साफ़ साफ़ दर्ज कर बदला लिया था तथा रामू शामू से शाबाशी पाई थी| बाबा की ऐसी हालत देख कर उस दिन थोडी सी ख़ुशी व तसल्ली मुझे भी हुई थी| बूढ़े बाबा राम भरोसे के पिता चंद्रभान शर्मा जी स्कूल में अध्यापक भी थे, उनके घर गए | वहां जाकर जोर की आवाज देकर बरामदे में मास्टरजी बुलाया और उनसे शिकायत की| मास्टर शर्मा जी ठहरे अनुशासन प्रिय पिता व् अध्यापक ,उन्होंने तुरंत राम भरोसे (स्कूल का नाम रामाश्रय शर्मा) को बाहर बरामदे में बुला कर सबके सामने उसकी बेंत से पिटाई शुरू कर दी| रामभरोसे स्कूल की दीवार में लिखे उपदेशों में से एक को जोर जोर चिल्ला कर कह रहा था, “पिताजी, अहिंसा परमो धर्म !!! पिताजी अहिंसा परमो धर्म: !!!!!!, क्योंकि वह इधर से उधर दौड़ता जा रहा था, उसकी पिटाई कम हो पा रही थी और शोर और देखने वालों का मनोरंजन ज्यादा हो रहा था, बूढ़े बाबा का काम हो गया था वह वहां से चल दिए और राम भरोसे मास्टरजी के चंगुल से निकल बाहर भग गया था|
अगले कुछ दिन मैं जान बूझ कर उनसे दूरी बनाये रहता था। वे आवाज़ भी देते थे तो मैं अनसुना कर देता या वहां से भग जाता था| कई बार ऐसा होने पर शायद उन्होंने अपने बहिष्कार को भांप लिया था| तीसरे या चौथे दिन उन्हों बाबा ने हमारे घर के दरवाज़े पर खड़े हो कर मुझे आवाज़ दी, पर मैं घर के और भीतर चला गया। जब उन्होंने कई बार आवाज़ दी तो मेरी अम्मा ने मुझे डांट कर कहा, " जब बाबा बुला रहे हैं तो क्यों नहीं जाता?"
कुछ सहमा सा मैं बाहर निकला, उन्हें उडती सी नमस्ते की और चुपचाप सर नीचे कर खड़ा हो गया। जमीदार साहब ने मेरे सिर पर हाथ फेरा और पूछा “बेटे! क्यों छुप कर भाग जाते हो क्या बात है?"
मैं चुप रहा पर जब उन्होंने दुबारे से आग्रह से पूछा तो मैंने जवाब दिया," आप आज़ादी के दिन को बर्बादी का दिन कहते हो इसलिए| "
बूढ़े बाबा खूब ज़ोर ज़ोर से हँसते रहे और फिर कहा, " बस यही बात है, अच्छा मैं यह फिर कभी नहीं कहूंगा मैं तो मजाक कर रहा था और यह बात भी है कि उसके कारण हमारी पुश्तनी जमींदारी भी गयी थी। फिर चुप रह कर , कुछ सोच कर कहा, " मैं पक्का कहता हूँ, तुझे दिल से दुआ देता हूँ, ‘ जा तू डिप्ट बनेगा”| फिर थोड़े चुप रह कर बोले, “लिखवा ले डिप्टी बनेगा|”| फिर धीरे धीरे अपने घर की तरफ चल पड़े| कुछ कदम चल कर फिर लौटे और बोले “एक बात और कान खोल कर सुनले तू इन रामू शामू लफंगों के साथ खेलना छोड़ दे, अच्छी सोहबत बहुत ज़रूरी होती है। कुछ कहा तक ‘तुखम तासीर सौहबत का असर’। फिर देर अच्छी संगति तथा संस्कारों को, बादशाह अकबर और बीरबल के किस्से के द्वारा समझाया था| जिसमें बीरबल ने एक बन्दर को हारमोनियम सिखा कर दरबार में लाकर पहले हारमोनियम बजवाया और वाहवाही लुटी फिर उसकी असलियत सबके सामने लाने के लिये जैसे ही चने के थोड़े से दाने फेंके बन्दर सब छोड़ छाड़ कर वह हारमोनियम पर चढ़ दाने खाने लगा था | उसका मतलब समझाते हुए कहा, अच्छे बच्चों की संगत या सोहबत में रहने की नसीहत दी। फिर अपनी अंदर की जेब से कपडे की नाड़े वाली थैली निकाली, एक पीली दुअन्नी निकाली और मेरे हाथ पर रख कर कहा,यह ईनाम ले|
फिर जोर देकर कहा ‘ईनाम पाया बच्चा कभी ना भूलेगा।‘
मैं असमंजस में था कि मैं दुअन्नी लूँ या ना लूं? अम्मा अंदर से कलमे वाली ऊँगली हिला कर मना कर रहीं थीं। मैं चारों ओर देख रहा था कि कहीं रामू श्यामू या उन के कोई खबरची देख तो नहीं रहे हैं, जो बाद में मेरी खिल्ली उड़ायेंगे। बाबा ने शायद अम्मा को मना करते देख लिया था, वह बोले," ना बेटी ना मत कर। अंदर से आशीष दे रहा हूँ, यह ज़रूर डिप्टी बनेगा। मेरी तरफ देख कर दुबारे से यह भी कहा, " चल बस आगे से मैं भी 15 अगस्त को बर्बादी का दिन नहीं कहा कहूंगा, सबकी भलाई में मेरी भी भलाई है, हम से ज्यादा तो ये पंजाब से आये लोग हैं, जिनके घर-बार, ज़मीन ज्यादाद भी गयी और कई घर के मेम्बर भी"।
ऐसा सुन कर मुझे बड़ी ही तसल्ली सी हुई थी| वह जाते जाते कहते जा रहे थे कि उनकी बूढी आँखे बहुत दूर तक देख सकती हैं, ज्योतिषी नहीं हैं पर सारी उम्र में आदमियों की पहिचान करने का तजुर्बा ही तो उन्हें हासिल हुआ था| हमारे में समझौता हो गया था वे धीरे धीरे उम्र के ढलान की और जा रहे थे, अब वे कुछ कम बातें करने लग गए थे, चीज़े ज्यादा बर्दास्त करने लग गए थे| पर किसी पर ज़रा भी निर्भर नहीं थे| उन्ही दिनों उन पर एक पहाड़ टूट पड़ा था| उनका बड़ा बेटा जो स्टेट बैंक की खतौली ब्रांच में खजांची था एक बैंक की वैन में नगद खज़ाना ले जा रहा थे उनकी वैन को कुछ डकैतों ने रोक कर खज़ाना देने पर जान बक्शने को कहा पर उनके बहादुर बेटे को यह मंज़ूर नहीं था, वह उनसे भीड़ गया और उन्होंने खज़ाना नहीं दिया, एक डकैत उन पर गोली चलाई और वे खाली हाथ जाने की सोच रहे थे कि उनके साथ चलने वाले गनमैन ने भी अपनी गोली से एक डाकू को ज़ख़्मी कर दिया| सीधी ऊँगली से घी न निकालते देख कर डाकू अपने साथी को लेकर ईख के अन्दर से गुम हो गए| लोगबाग इकट्ठे हो गए थे| जमींदार साहेब के खजांची बेटे के पेट और शरीर में कई जगह डाकू की 12-बोरगन के कई छर्रे लगे हुए थे जिनसे खून बह रहा था, उनपर कस कर कपडा बांध दिया था और वह शॉक में था पर ठीक हालात में था| गाड़ी को लौटा कर जमीदार साहेब के बेटे को लेकर ड्राईवर और गनमैन वापिस लौट कर मुज़फ्फरनगर के सरकारी हॉस्पिटल ले आये थे| पर ज्यादा खून बह जाने के कारण अगले दिन शाम तक उसकी हालत बिगडती गयी और तीसरे दिन उसका देहांत हो गया| सारा परिवार दुःख के सागर में डूब गया| बेहद दुखी होते हुए भी ज़मींदार साहेब विचलित नहीं हुए और परिवार के सभी सदस्यों को दिलासा देते रहे संभालते रहे| अब वे अपना दिन का व् शाम का काफी समय अपने बड़े बेटे के घर में गुजारते| बैंक ने बड़े बेटे के पुत्र को केवल 17 वर्ष का होने के बावजूद सर्विस दे दी थी| धीरे धीरे परिवार पटरी पर आ रहा था| बाबा उस परिवार का विशेष ध्यान रखते थे|
दिन महीने और साल ऐसे ही गुजरते रहे, तीन चार साल बाद ही मेरे पिताजी ने पास के दूसरे मुहल्ले में प्लाट खरीद कर अपना निजी मकान बना लिया था। हम अपने नए मकान में रहने लगे थे। ये सब बातें पीछे छूटती गई, धीरे धीरे आयी गयी हुई, पुराने मुहल्ले में आना जाना काफी कम हो गया था। नए मुहल्ले में पुराने मुहल्ले की तरह भीड़ व रौनक नहीं थी| थोड़े से मकान थे खाली प्लाट ज्यादा थे कुछ बन रहे थे, रामू, शामू, गुल्ला ओमी आदि जब दिख जाते थे बस बातचीत हो जाती थी| कई वर्ष बाद मैं जब बारहवीं कक्षा में आ गया था, एक दिन अपने पुराने मुहल्ले में अपने बचपन के साथियों से मिलने गया तो, ज़मींदार साहब के कमरे का दरवाज़ा खुला था| मैंने अन्दर झांक देखा तो बाबा तो देखा बहुत बीमार और कमज़ोर हो गए थे और अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे| मेरी नमस्ते का जवाब भी हाथ हिला कर दिया, मेरी थोड़ी चेष्टा और बताने के बाद ही वे मुझे पहचान पाए। मिल कर बहुत ही खुश हुए मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया अपनी आँखें बंद की जैसे कोई प्रार्थना या दुआ कर रहे हों| कम से कम मुझे ऐसा ही लग रहा था, फिर सबका हालचाल जाना। देख कर बड़ा ही दुःख हो रहा था कि कैसे ऐसे रौबदार मज़बूत इंसान को बीमारी व बड़ी आयु ने इतना असहाय और कमज़ोर बना दिया। अपने बड़े पुत्र के निधन ने उन्हें अन्दर से तोड़ दिया था, बाहर से वे मज़बूत बने रहे थे तथा परिवार को कुशलता से संभाले रखा था| पुत्र शोक दुनिया में सबसे बड़ा दुःख है इसमें तो कोई संशय किसी को भी नहीं हो सकता| उनके छोटे पुत्र आशाराम जी का बेटा अर्थात बाबा का दूसरा पोता अशोक लगभग मेरा समवयस्क था और काफी मेधावी व संस्कारी था मैं उससे बाबा के बारे में पूछताछ करता रहता था| वैसे वह मेरे स्कूल में नहीं था रास्ते में या खेल के मैदान में, या पतंगबाज़ी के मुकाबले को देखने के लिये एक जगह होने पर मिल जाता था|
उन्ही दिनों एक बड़ी घटना मुहल्ले में हुई थी| भारत के तत्कालीन गृह मंत्री व भारत के यशस्वी पूर्व प्रधान मंत्री जब बाबा से मिलने और उनका हाल पूछने उनके घर आये थे| हुआ यह था कि लाल बहादुर शास्त्री जी किसी समय स्थानीय डीएवी कॉलेज में कुछ समय तक संस्कृत के अध्यापक रहे थे, और बाबा के बराबर के मकान में एक पीछे के कमरे में रहते थे जो उनके सहयोगी और कॉलेज के साइंस टीचर का घर था| शास्त्री जी के कई प्रोग्राम नगर में थे, थोडी दूर स्थित ग्रेन चैम्बर इंटर कॉलेज के नए भवन का उद्घाटन भी उनके प्रोग्राम में था| वहां के आयोजन के बाद उन्होंने अपने पुराने मकान को देखने की इच्छा व्यक्त की और उसको देखने के बाद उन्होंने बाबा के बारे में भी पूछा और जब पता चला कि वे रुग्ण हैं तो बाबा के पास आये उनके पास बैठ कर हाल चाल पूछ कर गए| इस बात की खूब चर्चा हुई थी|यह जितना बाबाजी के सम्मान के बात थी उस से भी अधिक शास्त्री जी की सरलता व सद्गुणों को प्रदर्शित करता है कि वे न अपने कॉलेज, न छोटे कमरे और वहां रहने अपने पुराने लोगों को भूले थे और सब जगह आये यहाँ तक की लोगों से मिलने उनके घर भी आये थे और बिना बनावट बाबा के छोटे कमरे में एक स्टूल पर बैठ कर मिल कर बातचीत कर के गए थे|
इस घटना के कोई एक डेढ़ महीने बाद मेंने सुना कि उनका पिछली रात में शांति के साथ देहांत हो गया है और अंतिम संस्कार के लिए उनके बेटे व परिवार उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार अपने पुश्तैनी जमींदारी के गाँव बघरे में ले गए थे। यह उनके परिवार का ठीक ही निर्णय था| भले ही वह मुज़फ्फरनगर में कुछ वर्षों से रह रहे थे, उनकी आत्मा वहीँ अपने गाँव में बसती थी, उनका जन्म, बचपन सारा स्वर्णिम समय वहीं तो बीता था। वहीँ उनकी जन्म भूमि व कर्म-भूमि थी| उसकी मिटटी में मिलने वहां उनको ले जाया गया था| वहीँ उनके पिता, दादा, परदादा, लक्कड़ दादा चाचा ताऊ रहते आये थे|
उनके पौत्र अशोक ने मुझे बताया था कि बहुत शान के साथ उनका अंतिम संस्कार हुआ था पूरा गाँव ही नहीं आस पास के गांवों के लोग भी भारी संख्या में आये थे, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सब अन्य जातियों के लोग थे और वहां के बड़े बुजुर्ग उनकी जमीदारी के समय की बड़ाई करते नहीं थक रहे थे| कह रहे थे कि बहुत नेक व खानदानी जमीदार रहे थे, फिल्मों में दिखाए जाने वाले जालिम ज़मीदारों से बिल्कुल अलग| अपने अपने उनके साथ हुए अनुभवों के किस्से भी सुना रहे थे| यह सच है कि लोगबाग जाने के बाद ही आदमी के गुणगान करते है, अगर यही लोग समय समय पर आकर या उनके अंतिम दिनों में आकर उनका आभार प्रगट करते तो उनको कितना सुख मिलता| अशोक ने बताया कि वे सतास्सी(87) वर्ष पूरे कर अठास्सीवें में चल रहे थे और अपने समय तक भी किसी पर निर्भर नहीं थे तथा मानसिक रूप से चेतन रहे थे| शरीर क्षीण पड़ गया था पर वे मानसिक रूप से कमज़ोर नहीं पड़े थे| इतनी अच्छी मौत और अंतिम समय सम्मान भी किस्मत वालों को ही मिलते है| मशहूर शायर फैज़ ने क्या खूब लिखा है,
‘जिस धज से कोई मकतल पे गया वो शाम सलामत रहती है,
ये जान तो आनी जानी है इस जान की तो कोई बात नहीं’|
कुछ ही वर्षों के बाद मुज़फ़्फ़र नगर से अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी करके मैं दिल्ली चला गया था| कुछ समय के बाद ही में यू.पी.एस.सी द्वारा चयनित होकर रसायनशास्त्र के रिसर्च असिस्टेंट की एक अच्छी खासी क्लास टू गज़ेटेड आरामदेह नौकरी भारत सरकार में मिल गयी थी| आराम से अपने मामा जी के साथ साउथ एवेन्यू में रहने लगा था| अपने आप को काफी भाग्यशाली मान रहा था| मेरा ऑफिस आर.के.पुरम में था| वहां मेरा एक साल बड़े आराम से निकला| सहयोगी और ऊपर वाले अफसर सभी काफी पढ़े लिखे विद्वान थे पूरा ऐकेडमिक माहोल| सब ठीक चल रहा था, पर विधाता ने भाग्य में कुछ और ही लिखा था। दिल्ली में अपने मामा जी के साथ रहते रहते, एक दिन अख़बार में एक नौकरी का विज्ञापन देखा जो सी.आर.पी. में डी.एस.पी पद के लिए था। अपने लंच टाइम में पास के ब्लॉक में स्थित सीआरपी के ऑफिस से फार्म लेने गया पता अपने ऑफिस के पास का था| वहां मुझे एक अन्य मेरे जैसा फार्म लेने आया हुआ था| वह दिल्ली विश्व विद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज में स्पोर्ट्स का डायरेक्टर था जिसका पद कॉलेज के लेक्चरर के बराबर था एह उसने बताया था| उसने मुझे अपना नाम विश्व देव टोकस बताया| वह भी उसी पद के लिए फार्म भर कर जमा कराने के लिए लाइन में लगा हुआ थ। मुझे न इस पुलिस के बारे में कुछ पता था, न ही क्या कुछ पढ़ना चाहिए, कैसे तैयारी करनी होगी, इन सबका दूर दूर तक अता-पता न था। मैं तो सिर्फ़ जिज्ञासा वश और बराबर के ब्लाक में होने के कारण चला गया था| वह ऑफिस दूर होता तो मैं बिलकुल भी वहां नहीं जाता| पर विश्वदेव पूरा ज्ञानी था, वह पिछले कई महीने से तैयारी कर रहा था तथा दयाल सिंह कॉलेज में फिजिनकल ट्रेनिंग तथा स्पोर्ट्स का इंचार्ज तो था ही। उसकी बातें सुन सुन कर मैंने विचार किया था कि इस नौकरी को रहने ही देता हूँ क्यों बेकार का पंगा लिया, मेरा स्वभाव से मेल भी नहीं खाती थी | एक दूसरा बंदा भी वहीँ खड़ा बता रहा था कि बड़ी टफ ट्रेनिंग होती है, नौकरी भी टफ है दूर दराज़ के इलाको में जाना पड़ता है| सुनकर मैं सोच रहा था कि मुझे क्या करना बिना मतलब कहाँ मारा मारा फिरूंगा? फार्म नहीं लेने की सोची, लाइन छोड़ कर जाने लगा ही था, पर टोकस मेरे पीछे पड़ गया समझाने लगा अभी फॉर्म तो ले ले, बाद में सोचते रहना। उस का मन रखने के लिये फार्म ले लिया यह सोच कर कि बिलकुल नहीं भरना|
हमारे ब्लाक से मुनिरका गाँव पास ही था वहीं वह रहता था| वहीँ आरके पुरम सेक्टर एक में हमारे ऑफिस के बस स्टॉप पर उतरता था| उस दिशा में उन दिनों वही अंतिम बस स्टैंड था| वहीँ सब बसें खत्म हो कर वापिस जाती थी| वहां से आगे मुनिरका गाँव पैदल ही जाना होता था| टोकस हर दूसरे तीसरे दिन मेरे पास ऑफिस में आ धमकता और मेरा ब्रेन वाश करता रहता था| उसके बार बार कहने से फिर थोड़े बेमन से यह तय हुआ कि फॉर्म तो भर ही देता हूँ, जो होगा देखा जाएगा कोई तैयारी वगैरा नहीं की। एक हाई पॉवर सलेक्शन बोर्ड से कॉल आने पर बड़े बेफिक्रे ढ़ंग से बिना तैयारी के दिल्ली पुलिस के किंग्सवे कैंप में बुलाया गया था| भाग दौड़ में दो मील की दौड़ थी लम्बी और ऊँची कूद थी, रस्सा चढ़ना, बीम पर पुलअप्स सभी जैसा आते थे कर दिए, छोटा सा लिखित, ग्रुप डिस्कशन और इंटरव्यू सभी दो दिन चले| सभी चयन प्रक्रिया पूरी कर दी और सोचा कि सलेक्शन तो क्या होगा बताया गया कि कम से कम 20000 प्रत्याशी की प्रक्रिया थी, अकेले दिल्ली में 10 दिन तक रोजाना 100 प्रत्यशी स्क्रीन होंगे| बोर्ड भारत में दस जगह जाएगा और लगभग 6-7 महीने यह प्रक्रिया चलेगी| मैं इसे भूल चुका था क्योंकि जरा भी मुझे आशा नहीं थी| पर अचम्भा हुआ जब एक दिन रजिस्ट्री द्वारा एक अपॉइंटमेंट लैटर मिला जिसमें ‘सब्जेक्ट टू मेडिकल फिटनेस’ मेरे सलेक्शन होने की बात थी| पर मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि में कैसे चुन लिया गया था? टोकस अपना लैटर लेकर मुझे दिखाने के लिये लाया| पर उसे भी भारी अचम्भा हुआ कि लापरवाही के बावजूद कैसे चुन लिया गया था?
मैंने टोकस को बताया था कि अभी मैंने इस के लिये मन भी नहीं बनाया था, कुछ समझ में नहीं आ रहा था| न ही अपने मामा व अन्य परिवार के सदस्यों को इस के बारे में कुछ बताया था, न ही नियमानुसार ऑफिस को बताया था न ही उनसे कोई अनुमति ली थी जो लेना आवश्यक होता था।
टोकस फिर से मेरे पीछे लग गया कि दोनों भाई ट्रेनिंग के लिये चलेंगे। परिवार में सूचित करने के बाद आम राय दिल्ली में ही नौकरी चालू रखने के पक्ष में थी, पर बघरे वाले जमींदार साहब की दुआ और पीली दुअन्नी के इनाम का कमाल था की ‘डिप्टी’ तो बनना ही था| कई बार जिंदगी में ऐसा लगता है कि बहुत सारी चीज़ों पर कुछ बस नहीं चलता और वे पूर्व निर्धारित होती हैं घूम फिर कर वैसा ही हो जाता चाहे चाहो या न चाहो| सो कुछ ड्रेस पहनने का शौंक, कुछ थोडी सी अधिक सैलरी का लालच, कुछ क्लास टू से क्लास वन का अंतर, कुछ टोकस की ब्रेन वाशिंग सबने मिल कर मुझे दिल्ली की आराम की दफ्तर वाली नौकरी को छुडवा कर ही दम लिया| फिर क्या मध्यप्रदेश नीमच में शरीर तौड़ ट्रेनिंग और बस डिप्टी बन कर बुड्ढे बाबा का आशीर्वाद फलित कर ही दिखाया| 37 वर्ष की अलग तरह की यायावरी नौकरी, हमेशा बिस्तर ही तो बंधा रहा था| सी.आर.पी. कभी क्राउन रिप्रेजेन्टेटिव पुलिस कहलाती थी, फिर इस में हमारे सामने फ़ोर्स शब्द जुड़ना शुरू हो गया था, यह सीआरपीऍफ़ कहलाने लगी| मूवमेंट इधर से उधर इतना होता था की फ़ोर्स के मेम्बर अंदरूनी तौर पर इसे ‘चलते रहो प्यारे’ कहते थे| 37 वर्ष तक यायावरी की जिसमे 15 वर्ष फ़ोर्स से बाहर कई डेपुटेशन पर भी रहना पड़ा था|
यहाँ तक तो कुछ समझ में आता भी था पर अब बहुत वर्षों बाद जब भारत में सोलह सत्रह जगह ट्रान्सफर झेल कर, विदेश में भी तीन तीन वर्ष की दो राजनयिक सेवा करते करते यह सब किस्से-कोते बिलकुल भूल सा गया था। अब सेवा निवृत हुए भी 17 साल बाद जब अपनी नौकरी के पदों पर निगाह डाली तो बड़ा ही आश्चर्य हो रहा था| जिस भी पद पर काम किया उस में ‘डिप्टी’ शब्द ज़रूर रहा। उदाहरण के तौर पर डिप्टी एस पी, डिप्टी कमांडेंट, डिप्टी सेक्रेटरी, डिप्टी कमिश्नर, डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल और विदेश प्रतिनियुक्ति पर भी दोनों भारत के हाई कमीशनों में हाई कमिश्नर के बाद दूसरे नंबर सीनियरटी मेंरा नंबर ही था अतः फर्स्ट सेक्रेटरी होते हुए भी हाई कमिश्नर का डिप्टी अर्थात डिप्टी हाई कमिश्नर भी कहलाता रहा। हाई कमिश्नर अगर छुट्टी पर तो चार्ज डी आफैर के तौर पर कार पर भारत का तिरंगा झंडा चढाने का सौभाग्य भी दो चार मिला था| सारी नौकरी में डिप्टी शब्द चिपका ही तो रहा क्या यह महज़ इत्तिफ़ाक है या संयोग था या बघरे वाले जमींदार नत्थूलाल की दुआ, या बस इससे ऊपर जाने की प्रतिभा या योग्यता नहीं थी या उन्होंने लक्ष्मण रेखा खींच दी थी जिसे कभी भी पार नहीं कर पाया या विधाता द्वारा यह सब पूर्व निर्धारित था| आप जो भी मानें पर यही हुआ है, कश मुझे रामू श्यामू या राम भरोसे मिल जाते और उनको भी यह बता पाता|
जिंदगी एक पहेली ही तो है जब हम छोटे होते है क्या क्या क्या सोचते हैं?, पर क्या से क्या हो जाता है? अक्सर योग्यता से कुछ अधिक ही मिल जाता है, कई बार सरकारी पदों पर काफी अधिकार, काफी मातहत, गाड़ी बंगले, गाड़ी पर स्टार, झंडे, टीम टाम पाकर आदमी अपने आप को क्या फन्ने खां समझने लगता है? फूंफां करने लगता है| भूल जाता हैं यह सब थोड़े समय के लिये है| पर यह जैसे आता है वैसे ही चला जाता है। जैसे थे वैसे हो जाते हैं हम पुनः मूशिको भव की तरह चूहे से बिल्ली, कुत्ते शेर बन कर फिर चूहे के चूहे|
जनाब अकबर इलाहाबादी ने सरकारी नौकरी वालो की जिंदगी के लिखा और कितना ठीक फरमा गए हैं-
हम क्या कहें अहबाब हम क्या कारे नुमाया कर गए,
बी.ए. किया नौकर हुए पेंशन मिली और मर गए|
अब डिप्टी सिप्टी भूल कर ‘पुनःमूषको भव’ वाली अवस्था है, जो भी मिला भगवत कृपा व बड़े बूढों के आशीर्वाद से होता है, यह सदैव याद रहे तो अच्छा है। रिटायरमेंट के बाद तो सब फ्यूज़ बल्ब की तरह हो जाते कुछ अंतर नहीं रहता चाहे पांच सौ वाट का था, या साठ वाट का या जीरो वाट का, कोई अंतर नहीं रहता। बघरे वाले नत्थूराम जी के कारण जो डिप्टीगिरी मिली थी उसका समय भी समाप्त हुआ। यही जीवन का असली सच है, बहुत सी सफलताएँ भी मिली पर उनसे भी ज्यादा असफलताएं भी थी, जो सिर्फ परेशान करने नहीं आयी थी, बहुत से सबक सिखा कर गयीं| साथ वाले जो कभी कहीं ज्यादा मज़बूत और फिट थे छोड़ कर चले गए, कुछ लटके हुए है, हर दिन महत्वपूर्ण नज़र आने लगा है| सबसे दुःख की बात है मुझे इस लाइन में हाथ पकड़ कर लाने वाला बेहद फिट और स्वस्थ विश्व देव टोकस भी पिछले साल साथ छोड़ कर अनंत में विलीन हो गया है| मुझे कहावत याद आती रहती है, कौन गया निश्चय से सोने से देखेगा वह जाग सवेरा| दुनिया बदल गयी है, कहानी के नायक को दूसरे लोक गए तो कोई साठ साल हो गए है, डिप्टीगिरी आई और जैसे आयी थी चली गयी, पर नहीं गयी बघरेवाले जमींदार नत्थू लाल की सोंधी याद और उनकी डिप्टी गिरी की भविष्यवाणी के आशीर्वाद या दुआ या जो कुछ भी नाम आप इसे दें| मस्ती में आकर बाबा अपने बुढ़ापे के बारे में अक्सर किसी मीर अनीस का शेर सुनाये करते थे –
दुनिया अजब ऐ फानी देखी, हर चीज़ यहाँ की आनी जानी देखी,
जो आकर न जाए बुढ़ापा देखा, जो जाकर न आये ज़वानी देखी|
अब जिंदगी के उसी मुकाम पर है जो ‘आकर न जाये उसी तरह शेष जिन्दगी जितनी भी है गुजरेगी|