Ek Jindagi - Do chahte - 5 in Hindi Motivational Stories by Dr Vinita Rahurikar books and stories PDF | एक जिंदगी - दो चाहतें - 5

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एक जिंदगी - दो चाहतें - 5

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

अध्याय-5

सैकड़ों मील दूर अहमदाबाद शहर में। रात के डेढ़ बजे एक लड़का और एक लड़की अपनी पीठ पर सामान से भरे बैग लादकर सड़क पर तेजी से चुपचाप चल रहे थे। ये नेहरू नगर था, अहमदाबाद का एक पॉश ईलाका। यहाँ बड़े-बड़े बंगले बने हुए थे। थोड़ी देर पहले ही लड़का एक बंगले के बाहर पहुँचा, उसने मोबाइल से किसी को मैसेज किया और दो मिनट बाद ही बंगले के पीछे बने एक दरवाजे से एक लड़की बाहर निकली। सामने वाले मुख्य दरवाजे पर दो दरबान खड़े पहरा दे रहे थे। उन्हें पता भी नहीं चला कि कब बंगले के पीछे के दरवाजे से बंगले के मालिक की बेटी फरार हो गयी। जिसने शायद शाम को ही उस दरवाजे का ताला चुपचाप खोलकर रख दिया था। वे बेचारे बड़ी मुस्तैदी से पहरा दे रहे थे उन्हें क्या पता था सुबह सबेरे ही उनकी शामत आने वाली है। जैसे ही वे दोनों बंगले से दूर आ गये लड़की ने एक गहरी साँस ली।

''उफ्फ!" लड़की एक निश्चिंत साँस छोड़कर बोली ''निकल आए आखीर।"

''तुम तो मरोगी ही साथ में मुझे भी मरवाओगी। कल अपने ही अखबार की हेडलाईन में और अपने ही न्यूज चैनल पर हम दोनों की न्यूज चलेगी कि हम दोनों भाग गये। कल सुबह शहर भर के हॉकर्स गलियों में चिल्लाते घूमेंंगे -

''भरत देसाई प्रसिद्ध अखबारों भरत टाईम्स और भारत एक्सप्रेस तथा टी.एन.टी.वी. न्यूज चैनल के मालिक भरत देसाई की बेटी चीफ रिपोर्टर अनूप के साथ फरार। अभी भी वक्त है तनु सोच लो।" अनूप ने मिन्नत करके कहा।

''अरे डरपोक कहीं के। जिंदगी में जोखिम लिए बिना कुछ नहीं मिलता। कुछ पाना है तो रिस्क तो लेनी ही पड़ती है थोड़ी बहुत। अब ये रोना-धोना बंद करो। हम प्रदेश भर में सबसे प्रख्यात अखबार चलाते हैं और हम ही दूसरी एजेसिंयों से क्लिपिंग और न्यूज खरीदें? नहीं।" तनु ने तेज कदमों से चलते हुए कहा।

''हमारे रिपोर्टर भी तो न्यूज लेने गये थे यार।" अनूप ने कहा।

''पर वो अच्छा कवरेज नहीं लेकर आए ना। अब मैं बहुत अच्छी स्टोरी बनाऊंगी देख लेना।" तनु बोली।

''क्या देख लेना। तुम्हे तो कुछ नहीं पर मेरी तो नौकरी जायेगी यार।" अनूप ने फिर मिन्नत की।

''अरे जब तक भरत देसाई की छोकरी तुम्हारे साथ है तब तक नौकरी की चिंता क्यों कर रहे हो।" तनु ने गली के मोड़ पर अंधेरा होने के कारण अनूप का हाथ पकड़ लिया।

''भरत देसाई की छोकरी के कारण ही तो नौकरी पर तलवार लटक रही है।" अनूप आजिजी से बोला।

''सो मीन ऑफ यू। तुम मेरे लिए एक मामूली नौकरी नहीं छोड़ सकते।" तनु ने उसे ताना मारा।

''अरे तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर जाऊंगा लेकिन भरत देसाई की नौकरी मामूली नहीं है ना।" अनूप झल्लाया।

''क्या है? तुम्हारे लिए नौकरी मुझसे ज्यादा हो गयी? अच्छा तुमने आशीष को बोल दिया था ना कि वो समय पर पहुँच जाये। नहीं तो हमारे जाने का कोई फायदा ही नहीं। अगर कैमरामैन ही नहीं होगा तो सारा कवरेज ही कौन लेगा।" तनु ने ऑटो स्टेण्ड पर खड़े एक ऑटो की ओर बढ़ते हुए कहा।

''हाँ बोल दिया है। वो बस स्टेण्ड पर पहुँच जायेगा सीधे। बात नौकरी की नहीं है तनु उस जगह पर जाना खतरे से खाली नहीं है। एक तो पहाड़ी ईलाका, दूसरे वहाँ उस हादसे के बाद जबरदस्त प्रदूषण फैला होगा। मैं और आशीष चले जाते हैं, तुम प्लीज घर वापस जाओ। वहाँ मत चलो।" अनूप ने चिंतित स्वर में कहा।

''जब तुम जा सकते हो तो मैं क्यों नहीं जा सकती? नहीं अनूप मैं तुम दोनों के साथ जरूर चलूँगी। मैंने ही प्लान बनाया और अब तुम दोनों को खतरे में डालकर मंै आराम से घर बैठूं, ऐसा नहीं हो सकता।" तनु ने ऑटो में बैठते हुए कहा ''और प्रदूषण का क्या है वहाँ दिल्ली में जाकर इंजेक्शन ले ही लेंगे।"

अनूप निरूत्तर हो गया। उनका ऑटो बस स्टेण्ड की ओर चल पड़ा। आशीष ने अजमेर की बस की टिकटें ले रखीं थी। बस से तीनों अजमेर पहुँचे वहाँ से दिल्ली और दिल्ली से उस पहाड़ी तीर्थ स्थान पर पहुँचे जहां बाढ़ ने सब ओर विनाश रच दिया था।

***

रात ही रात में गाडिय़ाँ चल पड़ी थी। रास्ता बिलकुल सूनसान था। एक तो पहाड़ी ईलाका दूसरा बाढ़ की वजह से जगह-जगह पहाड़ धँस रहे थे। भूस्खलन हो रहा था। ईलाकों में पानी भर गया था। ऐसे में कम ही गाडिय़ाँ रास्तों पर दिखाई देती थीं। जो गाडिय़ाँ नजर भी आती थीं तो वो सरकारी, पुलिस की या फिर फौज की होती थीं। प्राईवेट वाहन तो नहीं के बराबर ही थे।

पाँच घन्टे का रास्ता तय करके सुबह के साढ़े छ: बजे वो सब अपने कर्मस्थल पर पहुँच गये। रास्ता तो बमुश्किल दो-ढाई घण्टे का रहा होगा लेकिन एक तो पहाड़ी घुमावदार रास्ता ऊपर से लगातार होती बारीश की वजह से सड़क पर इतनी फिसलन थी कि गाडिय़ों को बहुत धीरे चलाना पड़ रहा था। फिर भी राणा और कृष्णन ने गाड़ी बहुत संभालकर चलाई और स्पीड भी मेन्टेन करके रखी।

आर्मी के केंप के पास जाकर राणा ने गाड़ी खड़ी कर दी। परम ने गाड़ी से उतर कर एक भरपूर अंगडाई लेकर हाथ पैर सीधे किये। तब तक बाकी जवान भी गाड़ी से उतरकर सामान बाहर निकालने लगे। कैंप से एक ऑफिसर बाहर आया और परम को पहले किये गये प्रयासों के बारे में और हालिया परेशानियों के बारे में बताने लगा। परम उसकी बातें सुनते हुए आस-पास नजरें दौड़ाकर स्थिति का जायजा लेने लगा। ऊँची-ऊँची पहाड़ी शृंखलाओं से भरा ईलाका था। लाल के साथ मिली हुई पीली चिकनी पहाड़ी मिट्टी जो लगातार होती बारीश की वजह से पहाड़ों पर लगे पेड़ों और झाडिय़ों की जड़ों से कटकर बहती आ रही थी। उसी वजह से वहाँ भयानक रूप से फिसलन हो रही थी। हर कदम संभाल कर रखना पड़ रहा था। पानी, कीचड़ सड़े हुए जीव जंतु। हवा में सड़ांध भरी हुई थी। परम ने रूमाल निकालकर नाक पर रख लिया।

''मैं भी चार दिन पहले जब यहाँ आया था तो मेरा भी यही हाल हुआ था। लेकिन अब मेरी नाक सुन्न हो गयी है। अब तो मुझे कोई भी बदबू महसूस ही नहीं होती।" वो ऑफिसर जो सेना की एक टुकड़ी का डॉक्टर था एक फिकी मुस्कुराहट के साथ परम से कहने लगा।

जवाब में परम ने उसके कंधे पर एक दोस्ताना हाथ रखा। डॉक्टर जिसका नाम राठौर था, उसकी आँखों के नीचे गहरे काले घेरे पड़े हुए थे। वह शायद पिछली चार-पाँच रातों से सोया नहीं था। उसका चेहरा बता रहा था।

''आपके साथ ड्यूटी पर और कौन है डॉक्टर?" परम ने पूछा।

''तीन डॉक्टर और दो कम्पाउण्डर और हैं, हम कुल छ: लोग हैं यहाँ।" डॉक्टर ने बताया।

''तो आप लोग शिफ्ट में ड्यूटी करके बीच-बीच में रेस्ट क्यूं नहीं कर लेते।" परम ने सवाल किया।

''यहाँ के जो हालात हैं सर उसमें छ: आदमी क्या बारह भी आ जायें तो भी कम हैं।" डॉक्टर एक अफसोस भरी नजर चारों ओर फेरकर बोला।

''हाँ सही है। पानी प्रकृति का सबसे महत्वपूर्ण और घातक हथियार है। खत्म हो जाये तो भी विनाश रचता है और अति हो जाये तो भी इसके जितना दुर्भाग्यपूर्ण और क्रूर विनाश कोई नहीं रचता। पानी की विनाशलीला का तांडव पकृति का सबसे भयानक कृत्य है।" एक गहरी सांस छोड़कर परम बोला।

''आईये सर आपकी टीम को मैं प्रिवेंटीव डोज दे दूँ।" राठौर पास के केंप में चला आया। परम और उसकी टीम भी कैंप में आ गये। कंपाउण्डर ने इंजेक्शन तैयार रखे थे। सबको फटाफट इंजेक्शन दिये गये। ताकि यहाँ के प्रदूषित वातावरण में रहते हुए इन लोगों को बीमारियाँ न जकड़ लें।

बगल में सेना के जवानों का केंप था। परम और उसके जवानों ने अपना सामान वहाँ रख दिया। कुछ दूरी पर पाँच-सात कैंप और लगे हुए थे जिनमें घायलों और बचाए हुए लोगों को रखा गया था। वहाँ पर स्थानीय लोगों की भारी भीड़ लगी हुई थी। जैसे ही परम अपनी टीम को लेकर गया ईलाके के स्थानीय लोग आसपास घिर आये। किसी की पत्नी लापता थी तो किसी का पति, किसी का बेटा गुम था तो किसी की माँ या बाप। सब लोग एक साथ हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे -

''साब मेरी पत्नी परसों से लापता है।"

''साब मेरे मासूम बच्चे, हम दोनों पास के गाँव में थे वापस आए तो...।"

''साब जी मेरा बेटा उधर तरफ खेतों पर गया था चार दिन हो गये उसका कोई पता नहीं है।"

बूढ़े, जवान, औरत, मर्द, बारीश और कीचड़ में लथपथ अपनों को ढूंढ़ते हुए। रात-दिन मारे-मारे फिर रहे थे। जैसे ही कैम्प में कोई जीवित या मृत लाया जाता सब वहीं दौड़ जाते। जिसका कोई खोया हुआ जीवित मिल जाता वह भगवान का धन्यवाद करता, किसी अपने का मृत शरीर होता तो रास्ता किसी गलत मंजिल पर जाकर खत्म हो जाने वाली हताशा छा जाती, उसका जिनका कोई नहीं होता वो फिर भाग दौड़कर सेना के जवान को घेर लेते।

परम ने दो लोगों से उन पहाड़ों की जानकारी ली जहाँ कुछ लोग फंसे हो सकते थे और अब तक सेना के जवान पहुँच नहीं पाये थे। पाँच मिनट में लोगों से जगहों की पूछताछ कर परम रेस्क्यू ऑपरेशन पर रवाना हो गया। पहाड़ के जिस ओर उस समय तक सेना पहुँच नहीं पायी थी परम उसी तरफ गया। उसकी टीम में उसे मिलाकर कुल आठ लोग थे। जैसे-जैसे घाटी के पास पहुँच रहे थे हवा में दुर्गन्ध बढ़ती जा रही थी। सबका जी मचलाने लगा। आस-पास पशुओं की क्षत-विक्षत लाशें भी पड़ी हुई थी। मनुष्यों के घरवाले होते हैं जो अपने लापता जनों को ढँुढ़वाते हैं, जीवित मिलने पर ईलाज करते हैं, और मृत मिलने पर देह का ससम्मान अंतिम संस्कार करते हैं। लेकिन इन मूक अनाथ प्राणियों का कौन है जो उन्हें बचाने या उनके शरीरों के ससम्मान संस्कार करेगा। ये बेचारे तो यूँं ही पड़े रह जायेंगे। सुना है पशुओं को आने वाली विपदा का आभास पहले ही हो जाता है और वो इलाका छोड़कर चले जाते हैं लेकिन यहाँ तो दूर-दूर तक के ईलाके में पानी ही पानी भरा है ऐसी हालात में ये बेजुबान जाते भी तो कहाँ। उनकी खुली-अधखुली आँखों में मृत्यु का भय अपने हालात पर बेबसी और अदृश्य से करुणामयी याचना के भाव भरे हुए थे। परम ने दूसरी ओर मुँह फेर लिया। वो लोग पहाड़ी की ढलान तक पहुँच गये। फिसलन बहुत ज्यादा थी लेकिन स्पेशल टास्क ट्रेनिंग में उन्हें इन सबका सामना करना बताया गया था। जमीन में अब तक गड़ी हुई कुछ मजबूत झाडिय़ों की मदद लेते हुए वे लोग संभलकर नीचे उतरने लगे।

''रोप बांध लें सर।" राणा ने चिल्लाकर पूछा।

''नहीं ढलान ज्यादा नहीं है। झाडिय़ाँ भी बहुत हैं। काम चल जायेगा। रोप बांधने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे भी नीचे जाना पड़ा तब देखेंगे।" परम ने जवाब दिया।

***