एक जिंदगी - दो चाहतें
विनीता राहुरीकर
अध्याय-11
विवाह का मतलब सिर्फ दो जिस्मों का एक होना ही तो नहीं होता। दो मानसिक धरातलों का एक होना भी तो जरूरी है। दो बौद्धिक स्तरों का एक होना भी जरूरी है। जहाँ यह जरूरत पूरी नहीं होती वहाँ मन की नदी में तलाश की लहरें उठने लगती हैं। और कभी पार किनारे तरफ अगर नदी को अपनी तलाश पूरी होते हुए दिखे तो यह पूरे वेग से अपने किनारों को तोड़ देती है।
केवल जिस्मों को निभाते जाना तो विवाह नहीं होता लोग बस, जाती, समाज, धर्म और परिवार को देखते हैं और रिश्ते जोड़ देते हैं। लेकिन शादी एक इंसान की एक इंसान से होती है दो घरों, परिवारों या समाजों की नहीं होती। जब दो बेमेल, अलग-अलग व्यक्तित्वों को एक साथ बांध दिया जाता है तो टकराव तो होते ही हैं।
हमारे समाज में परिवार वाले शादी तय कर देते हैं। लड़का-लड़की एक दूसरे को समझ नहीं पाते। जीवन साथ गुजार देते हैं। समझौता कर लेते हैं। इंसान के मन की एक स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अपने जैसे मानसिक स्तर वाले साथी से बात करे। अपनी फीलिंग्स शेयर करें, समझे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।
तब अपनी मानसिकता के चलते व्यक्ति घर से बाहर किसी में वह अंडरस्टैडिंग ढूंढता है ताकि कोई उसे समझ सके। वह किसी के साथ अपने आप को पूरा बांट सके।
शारीरिक सुख के अलावा विवाह में बौद्धिक सुख के भी बहुत मायने होते हैं। शरीर का सुख भी इंसान को तभी मिलता है जब दोनों समान बौद्धिक स्तर वाले साथी मिलते हैं। जानवर और मनुष्य में यही तो फर्क होता है। इंसान आनंद चाहता है, दिमागी स्तर पर, दिल के स्तर पर आनंद चाहता है। एवं ऐसा साथी जो व्यक्ति को हर पहलू से समझे, शरीर, मन, आत्मा, बौद्धिकता, हर किसी की चाहत होता है।
इसीलिए व्यक्ति को उसका जीवनसाथी चुनने का अधिकार मिलना चाहिये। क्योंकि आपस में तालमेल और प्रेम न होने के बाद भी व्यक्ति अपने ऊपर लादे गये रिश्ते को छोड़ नहीं पाता। क्योंकि आज भी भारतीय संस्कृति में तलाक को शर्मनाक समझा जाता है इसलिए घर, समाज द्वारा स्वीकृत रिश्ते को तोड़ नहीं पाते और ढोते रहते हैं। जिंदगी बोझ बन जाती है। रिश्ता घरवालों ने जोड़ा है तो वे तलाक के विरुद्ध दबाव बनाते है और तलाक होने नहीं देते। ऊपरी तौर पर व्यक्ति उस बोझ को निभाता रहता है लेकिन अंदर से डोंरे टूट जाती है। मेचिंग न होने से मन में हमेशा एक भटकाव बना रहता है। एक लहर सी आवारा होकर किनारा ढूंढती रहती है।
परम का मन भी ऐसे ही भटकता रहता था। हर पल एक तलाश में रेत पर सिर पटकता रहता। परम जितने भी दिन वाणी के साथ रहता उसे बस एक ही खयाल आता कि वाणी वो चि_ी थी जो गलती से उसके घर आ गयी थी। उसे संभाल कर तो रखा जा सकता है लेकिन पढ़ा नहीं जा सकता। अपनी चिठ्ठी पढऩे की आत्मीयता भरी खुशी जो होती है वह वाणी के साथ नहीं है। यह तो किस्मत से गलती हो गयी जो उसने वाणी के भाग मे परम का पता लिख दिया तो नियति के डाकिये ने उसके घर डाल दी।
'काश' वाणी उसके साथ ही शादी करने की जिद न ठान बैठती। उसी की जिद की वजह से परम की माँ के निर्णय को भी बल मिल गया और उन्होंने परम की शादी वाणी से आखीरकार करवा कर ही दम लिया। शादी की पहली रात से ही परम का मन सब छोड़कर भाग जाने को करता। वह देर रात तक बाहर सड़कों पर घूमता रहता। कभी बस में कभी रिक्शा में बैठकर कलकत्ता शहर की सड़कें नापता। कभी गंगा किनारे बैठकर लहरों से अपना दु:ख कहता।
दो-चार दिन बाद ही वाणी ने झगड़ा करना शुरू कर दिया। रोज रात को वह कमरे में हंगामा करना शुरू कर देती। अपनी पत्नी होने का अधिकार मांगती। लेकिन जहाँ मन ही नहीं था वहाँ परम क्या करता। रोज की रात झगड़ों में कटती और परम सिर धुनकर सोचता कि कब उसकी छुट्टी खत्म हो और वह वापस ड्यूटी पर चला जाए। फिर जब भी वह छुट्टी पर आता रोज रात वही नाटक होता। वाणी उसे रिझाने के लिए जायज नाजायज सब हरकते करती और परम मन में उतना ही टूटता जाता। कुछ ही महीनों बाद वाणी ने अपने घर में और परम के घर में यह बात बता ही दी कि परम उससे पति का रिश्ता नहीं निभाता। वाणी ने परम की माँ के आगे रो-रोकर कहा कि यदि आपके बेटे को मैं पसंद हीं नही हूँ तो मुझे मेरे घर वापस भेज दो। मुझे नहीं रहना यहाँ। परम सबके सामने शरम से पानी-पानी हो गया।
परम की माँ ने अपने भाईयों को बुलाया उसे समझाने के लिए। दोनों मामा उसे दुनिया भर की ऊँच नीच समझाते रहे। आखीर शादी हो ही गयी है। तुम्हें पूरी जिंदगी रहना उसी के साथ है तो पति-पत्नी का रिश्ता निभाने में ऐतराज क्यों। कब तक सच्चाई से मुँह मोड़ते रहोगे। दूर भागते रहोगे। आज तो बात घर में ही है। कल को बाहर निकलेगी। समाज में फैलेगी। घर परिवार की हँसी होगी। बहू के मायके में भी बात जायेगी। कितना बुरा लगेगा। और परम पर इतना दबाव पड़ा घरवालों का कि रोजरोज के झगड़ों, कलह और नौटंकी से तंग आकर आखीर एक दिन ढेर सारी व्हिस्की पीकर शराब के नशे में अपने आपको डूबोकर उसने वाणी की आग को बुझा दिया। हालाँकी परम खुद अपने अंतर में बुरी तरह से झुलस गया। हर दिन अपने आप को जलाकर सामने वाले की प्यास को बुझाते रहो। उस प्यास को जो दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही थी। वो आग जो बुझाने के उपाय में दिन पर दिन भड़कती ही जा रही थी। और परम निरूपाय सा सीली हुई लड़की की तरह सुलगता जा रहा था। हर बार जिस्म पर एक चिनचिनाहट लिए हुए।
और दो साल बाद उसके तपते झुलसते मन को एक ठण्डी हवा के नर्म झोंके ने राहत दी। उसके घावों पर मरहम लगाया। उसे जीवन के नये अर्थ समझाये। उसके मन में जीने की ललक पैदा की। वरना अभी तक तो वह सिर्फ जीवन का बोझा ढोता आ रहा था। जीवन क्या है, उसकी खुशी क्या है यह तो उससे मिलने के बाद जाना।
तनु!
हाँ तनु!
उस अजनबी लड़की के लिए पहली बार एक अपनापन महसूस किया था परम ने। पहली बार अकेले में बैठे-बैठे उसका खयाल आते ही परम के दिल को खुशी महसूस होती और वो मुस्कुरा देता।
ऐसा आज तक नहीं हुआ था कि किसी के बस खयाल आने भर से ही वो इतना रोमांचित हो जाता था। अपने आप में मुस्कुराने लगता था। दिन खुशहाल थे और रातें, रातें किसी के खुबसूरत खयालों से सजी सँवरी, भरी-भरी सी लगती थीं।
पहाड़ों पर से उसकी पोस्टिंग तब अजमेर में हो गयी थीं। वहाँ अधिकतर ऑफिस वर्क ही था। फील्ड जॉब नहीं था तो परम का दिल दिमाग पूरी तरह से निश्चिंत था। वह जी भर कर तनु के बारे में सोचता रहता। और बैठे-बैठे मुस्कुराता रहता। अजमेर में परम को क्वार्टर मिला था। ऑफिस से आकर वह अकेले घर में बैठा-बैठा सोचता रहता। अभी तनु यहाँ होती तो वह गैलरी में उसके साथ बैठा होता। अभी वह तनु के साथ बैठा टी.वी. देखता। हर समय उसके दिल दिमाग पर तनु छायी रहती। फोन पर बातें करते-करते, दोनों एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझने लगे थे। परम जब भी ऑफिस में फ्री होता तनु को फोन लगा लेता।
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