Bhartiyata ka Punjagran - 11 in Hindi Spiritual Stories by NR Omprakash Saini books and stories PDF | भारतीयता का पुनर्जागरण (संस्कारों से आधुनिकता तक की यात्रा) - 11

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भारतीयता का पुनर्जागरण (संस्कारों से आधुनिकता तक की यात्रा) - 11

अध्याय 11
संस्कृति और धर्म

भारतीय संस्कृति और धर्म का संबंध ऐसा है, जैसे आत्मा और शरीर का। संस्कृति को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता, और धर्म को संस्कृति से। वास्तव में संस्कृति का हृदय ही धर्म है। परंतु यहाँ धर्म का अर्थ संकीर्ण पंथ या सम्प्रदाय नहीं, बल्कि जीवन का शाश्वत सत्य है। भारत में धर्म को सदैव “धारण करने योग्य” माना गया है—अर्थात् वह जो जीवन को संभाले, उसे ऊँचा उठाए और समाज को समरस बनाए।

भारतीय संस्कृति का आधार यही रहा है कि धर्म किसी विशेष समुदाय या समूह का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता का है। यही कारण है कि भारत ने सभी धर्मों को सम्मान दिया। यहाँ वेदों का सत्य भी पूज्य है, उपनिषदों की गहराई भी पूज्य है, बुद्ध का करुणा मार्ग भी पूज्य है, महावीर का अहिंसा मार्ग भी पूज्य है, सिख गुरुओं का बलिदान भी पूज्य है और ईसा-मसीह के प्रेम का संदेश भी पूज्य है। यही समरसता भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान है।

भारतीय धर्म केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रहा। वह जीवन के हर कार्य में प्रकट होता है। जब किसान खेत जोतते समय धरती को प्रणाम करता है, जब व्यापारी नया लेखा-जोखा शुरू करते समय भगवान गणेश का स्मरण करता है, जब विद्यार्थी शिक्षा आरंभ करने से पहले गुरु के चरण छूता है, जब घर की गृहिणी प्रतिदिन दीपक जलाकर पूरे परिवार के मंगल की प्रार्थना करती है—यही धर्म है। धर्म केवल मंदिरों और पूजा-अर्चना में नहीं, बल्कि जीवन की प्रत्येक सांस में विद्यमान है।

धर्म का अर्थ यहाँ केवल आस्था नहीं, बल्कि कर्तव्य भी है। गीता ने स्पष्ट कहा—“स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।” अर्थात् मनुष्य के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना ही धर्म है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में धर्म और कर्म का अद्भुत संगम हुआ। सत्य, अहिंसा, दया, संयम, करुणा और सेवा—ये सब धर्म के ही रूप हैं।

भारत की संस्कृति ने यह भी सिखाया कि धर्म कभी विभाजन का कारण नहीं होना चाहिए। धर्म का वास्तविक उद्देश्य है—मानवता का उत्थान। यदि धर्म के नाम पर हिंसा, घृणा और भेदभाव बढ़े, तो वह धर्म नहीं, अधर्म है। महाभारत का युद्ध भी इसी सिद्धांत पर आधारित था—जब धर्म संकट में था, तब अर्जुन को कृष्ण ने यह समझाया कि अन्याय और अधर्म का विरोध करना ही सच्चा धर्म है।

आज के युग में जब धर्म को संकीर्ण दृष्टि से देखा जाता है, जब उसे केवल कर्मकांड और अनुष्ठानों में बाँध दिया जाता है, तब भारतीय संस्कृति का यह दृष्टिकोण और भी प्रासंगिक हो उठता है। यहाँ धर्म का अर्थ है—जीवन का शुद्धिकरण, आत्मा का उत्थान और समाज की समरसता।

स्वामी विवेकानंद ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा था—“धर्म का अर्थ है मनुष्य के भीतर निहित दिव्यता को जाग्रत करना।” यही भारतीय संस्कृति का शाश्वत संदेश है।

इसलिए यह स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति और धर्म एक-दूसरे के पर्याय हैं। संस्कृति धर्म से ही पोषित होती है और धर्म संस्कृति में ही फलता-फूलता है। यही कारण है कि भारत आज भी अपने धर्म और संस्कृति के कारण जीवित है।


उपसंहार

यह पुस्तक केवल संस्कृति का वर्णन नहीं, बल्कि एक आह्वान है।
यह प्रत्येक भारतीय से कहता है –
"तुम केवल शरीर नहीं हो, तुम केवल नागरिक नहीं हो, तुम संस्कृति के वाहक हो।
तुम्हारे कंधों पर केवल अपने जीवन का बोझ नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की आत्मा टिकी है।"

यदि हम संस्कृति को बचा पाए, तो भारत केवल जीवित नहीं रहेगा, वह पुनः विश्वगुरु बनेगा।
और यदि हमने इसे खो दिया, तो भारत केवल भूमि का एक टुकड़ा रह जाएगा।

इसलिए आओ, हम सब यह संकल्प लें –

“हम अपनी संस्कृति की रक्षा करेंगे,
हम अपने संस्कारों को जीवित रखेंगे,
और हम आने वाली पीढ़ियों को यह अमूल्य धरोहर सौंपेंगे।”

तभी साकार होगा वह स्वप्न, जब हर घर से रामायण की गूंज उठेगी, हर आँगन में दीपक जलेगा, हर हृदय में गीता का प्रकाश होगा।
यही होगा भारत का वास्तविक पुनर्जागरण।