Renaissance of Indianness (Journey from Culture to Modernity) - 3 in Hindi Spiritual Stories by NR Omprakash Saini books and stories PDF | भारतीयता का पुनर्जागरण (संस्कारों से आधुनिकता तक की यात्रा) - 3

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भारतीयता का पुनर्जागरण (संस्कारों से आधुनिकता तक की यात्रा) - 3

अध्याय 3

पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव और भारतीयता का क्षरण

इतिहास के पन्नों को पलटने पर यह तथ्य स्पष्ट होता है कि भारत की संस्कृति इतनी गहरी और सुदृढ़ रही कि आक्रांताओं की तलवारें भी उसे पूरी तरह काट नहीं सकीं। असंख्य आक्रमण और अनगिनत संघर्षों के बावजूद इसकी जड़ें जीवित बनी रहीं। किंतु जब भारत पर पाश्चात्य सभ्यता और औपनिवेशिक मानसिकता का प्रभाव पड़ा, तब धीरे-धीरे हमारी आत्मा पर आघात होने लगे। भारतीय जीवन-दर्शन, जिसकी धुरी संतुलन, संयम और मर्यादा थी, पाश्चात्य संस्कृति की भोगवादी दृष्टि से विचलित हो गया। हमारे संस्कारों के दीपक मंद पड़ने लगे और आज भी यह संघर्ष जारी है—भारतीयता बनाम पाश्चात्यता।

अंग्रेज जब भारत आए तो उनका उद्देश्य केवल व्यापार भर नहीं था। उन्होंने धीरे-धीरे हमारी संस्कृति और शिक्षा-पद्धति पर प्रहार करना आरंभ किया। 1835 में लॉर्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा को बदलने की योजना बनाई। उन्होंने भारतीय भाषाओं, वेद-शास्त्रों और गुरुकुल परंपरा को दरकिनार कर अंग्रेजी शिक्षा थोप दी। परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज का एक वर्ग अपनी ही परंपरा से दूर होकर पाश्चात्य चकाचौंध में बंध गया। यह वही काल था जब “मैकाले की संतानें” तैयार हुईं, जो भारतीयता को हीन और पाश्चात्य सभ्यता को महान मानने लगीं। यही वह दौर था जहाँ से संस्कृति के क्षरण की प्रक्रिया तीव्र हुई।

भारतीय संस्कृति ने सदैव संयम, संतोष और त्याग को महत्व दिया था। परंतु पाश्चात्य दृष्टि का आधार था—भोग और उपभोग। पश्चिम कहता है, “Eat, drink and be merry” अर्थात खाओ, पियो और मौज करो। भारत कहता है, “त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः”—त्याग से ही अमरत्व मिलता है। इस विचार के टकराव का परिणाम यह हुआ कि आज भारतीय युवा पाश्चात्य फैशन, फास्ट-फूड और विलासिता को आधुनिकता का प्रतीक मानने लगे।

भारतीय संस्कृति की रीढ़ संयुक्त परिवार प्रणाली थी। यहाँ तीन-चार पीढ़ियाँ एक साथ रहतीं और परिवार केवल रक्त-संबंध नहीं, बल्कि संस्कारों का बंधन होता। किंतु पाश्चात्य प्रभाव ने इस व्यवस्था को कमजोर कर दिया। “लिव-इन” संबंध, तलाक की प्रवृत्ति और एकल परिवार की अवधारणा पश्चिम से आई। जहाँ कभी परिवार मंदिर था, वहीं अब वह केवल मकान बनकर रह गया। बुज़ुर्गों के प्रति सम्मान और बच्चों के प्रति जिम्मेदारी कम होने लगी। परिणामस्वरूप अकेलापन, अवसाद और आत्महत्या जैसी समस्याएँ बढ़ीं।

पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय ग्रंथों को अंधविश्वास कहकर उपहास उड़ाना शुरू किया। वेदों और उपनिषदों की वैज्ञानिकता को अनदेखा किया गया। रामायण और महाभारत को केवल कथाएँ कहा गया, जबकि वास्तव में वे जीवन-दर्शन और नैतिकता के महासागर हैं। गीता को केवल धार्मिक पुस्तक तक सीमित कर दिया गया, जबकि वह जीवन का अद्वितीय ग्रंथ है।

समय के साथ-साथ आधुनिक मीडिया ने इस प्रभाव को और गहरा किया। टेलीविजन, फिल्मों, वेब-सीरीज़ और सोशल मीडिया ने पाश्चात्य जीवनशैली को आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया। खुले विचारों के नाम पर अश्लीलता को बढ़ावा दिया गया। आधुनिकता के नाम पर नशे और हिंसा को सामान्य दिखाया गया। विवाह और परिवार को मज़ाक का विषय बना दिया गया। परिणामस्वरूप युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से और दूर होती गई।

गाँवों में जो संस्कृति बची थी, शहरों ने उसे निगल लिया। विवाह, संस्कार और पर्व सब अब फैशन और दिखावे की होड़ में बदल गए। नकल की संस्कृति ने हमें मौलिकता से वंचित कर दिया। इस स्थिति का एक मार्मिक उदाहरण है—एक विदेशी दंपत्ति भारत घूमने आया। उन्होंने कहा, “हम यहाँ योग सीखने और गीता पढ़ने आए हैं, क्योंकि ये हमें अपने देश में नहीं मिलते। पर अजीब बात है कि भारतीय युवा इन्हें छोड़कर हमारी जीवनशैली की नकल कर रहे हैं।” यह कथन हमारे वर्तमान का दर्पण है।

भारतीय संस्कृति का क्षरण अचानक नहीं हुआ। यह धीरे-धीरे मानसिक गुलामी, भोगवाद और नकल की आदत से हुआ। आज आवश्यकता है कि हम इस क्षरण को पहचानें और इसे रोकने के उपाय खोजें। यदि हमने इसे नहीं रोका, तो हमारी आत्मा का दीप बुझ सकता है और भारत केवल भूमि का टुकड़ा बनकर रह जाएगा, राष्ट्र नहीं।


उपभोक्तावाद और युवा पीढ़ी पर प्रभाव

पाश्चात्य संस्कृति का सबसे बड़ा प्रभाव भारत पर उपभोक्तावाद के रूप में प्रकट हुआ। भारतीय संस्कृति जहाँ सदा से सिखाती रही कि “संतोषे सुखं नास्ति”—संतोष ही वास्तविक सुख है—वहीं पाश्चात्य दृष्टिकोण ने कहा, “Buy more, enjoy more”—यथासंभव अधिक खरीदो और अधिक भोगो। इस सोच ने हमारे जीवन और समाज को गहराई तक प्रभावित किया।

अब व्यक्ति का मूल्य उसके चरित्र से नहीं आँका जाने लगा, बल्कि उसके वस्त्रों के ब्रांड, घर की सजावट और बैंक खाते से आंका जाने लगा। त्योहार, जो कभी मिलन और भक्ति के अवसर थे, अब “शॉपिंग सीज़न” में बदल गए। बच्चे अब संस्कारों की कहानियों से नहीं, बल्कि गैजेट और खिलौनों की चमक से प्रभावित होने लगे। विवाह, जो कभी संस्कार और जीवन-भर के व्रत का प्रतीक था, आज दिखावे की होड़ और फैशन का उत्सव बनकर रह गया। उपभोक्तावाद ने भारतीय संस्कृति के मूल भाव त्याग और सादगी को नष्ट कर केवल दिखावे और उपभोग की आदत छोड़ दी।

इस परिवर्तन का सबसे गहरा प्रभाव युवा पीढ़ी पर पड़ा। जो युवा कभी धर्म, नीति और मर्यादा को अपने आदर्श मानते थे, वे अब फैशन की अंधी दौड़ में भागने लगे। भारतीय परिधान—धोती, साड़ी, कुर्ता—उपहास का विषय बना दिए गए और पाश्चात्य वस्त्रों को आधुनिकता का प्रतीक मान लिया गया। युवा अब अपनी पहचान अपने चरित्र या विद्या से नहीं, बल्कि “ब्रांड” से बनाने लगे।

नशे की प्रवृत्ति भी इसी प्रभाव से बढ़ी। शराब, सिगरेट और मादक पदार्थ पश्चिमी संस्कृति की चमक के साथ भारत में आए और युवाओं को अपनी चपेट में लेने लगे। फिल्मों और विज्ञापनों ने इन्हें “कूल” और “स्टाइलिश” बनाकर प्रस्तुत किया। परिणाम यह हुआ कि युवाओं का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होने लगा।

हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति भी इस प्रभाव का परिणाम है। कभी भारतीय युवाओं के आदर्श अर्जुन, विवेकानंद और भगतसिंह हुआ करते थे। आज के मीडिया ने उनके स्थान पर “गैंगस्टर” और “माफ़िया” जैसे पात्रों को हीरो बनाकर प्रस्तुत किया। इससे युवाओं में हिंसक प्रवृत्तियाँ बढ़ीं और आदर्श बदल गए।

सबसे दुखद यह हुआ कि युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से कट गई। उन्हें अब अपने वेद, उपनिषद, रामायण और गीता का ज्ञान नहीं रहा। किंतु पाश्चात्य संगीत, डांस, गेम और फिल्मों की जानकारी उन्हें कंठस्थ हो गई। इस दिशा-भ्रम ने उन्हें मूल्यों से वंचित कर दिया और जीवन दिशा-विहीन होता चला गया।

आज गाँव के बच्चे भी मोबाइल गेम और सोशल मीडिया की दुनिया में खो गए हैं। पहले वे लोकगीत गाते और लोककला से जुड़े रहते थे, अब उनके लिए त्योहारों का आनंद पूजा और मिलन में नहीं, बल्कि “सेल्फी” और “शॉपिंग” में है। यही सबसे बड़ा खतरा है, जब युवा यह मानने लगे कि भारतीयता पिछड़ापन है और पाश्चात्यता आधुनिकता है।

इस स्थिति की पुष्टि एक विश्वविद्यालय के प्रसंग से होती है। वहाँ एक प्रोफेसर ने अपने विद्यार्थियों से पूछा—“तुम्हारे आदर्श कौन हैं?” किसी ने फिल्म अभिनेता का नाम लिया, किसी ने पॉप-सिंगर का, किसी ने क्रिकेटर का। किंतु किसी ने भी राम, कृष्ण, विवेकानंद या गांधी का नाम नहीं लिया। तब प्रोफेसर ने गंभीर स्वर में कहा—“यही भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी हार है, जब हमारे युवाओं के आदर्श बदल जाएँ।”


सोशल मीडिया और मानसिक गुलामी

आधुनिक युग में सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का साधन नहीं रह गया है, बल्कि जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, व्हाट्सऐप और अब रील्स ने युवा पीढ़ी की सोच, व्यवहार और आदतों को गहराई तक बदल डाला है। भारतीय युवा घंटों तक मोबाइल की स्क्रीन में डूबे रहते हैं। उनके लिए रिश्तों से अधिक महत्व अब “फॉलोअर्स” और “लाइक्स” का हो गया है। ज्ञान और विद्या की जगह मीम्स और ट्रेंड्स ने ले ली है। इसने भारतीयता को एक वर्चुअल संस्कृति में कैद कर दिया है।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी ताकत रही है उसका स्वतंत्र चिंतन और आत्मसम्मान। किंतु आज वही युवा मानसिक गुलामी की जंजीरों में जकड़े जा रहे हैं। नकल करने की मानसिकता गहरी होती जा रही है। वे अब अपने देशी नृत्यों, गीतों और कला पर गर्व नहीं करते, बल्कि पाश्चात्य डांस, रैप और ट्रेंड्स की नकल करते हैं। वास्तविक जीवन के रिश्ते कमजोर हो गए हैं, जबकि आभासी मित्रता और वर्चुअल संबंध अधिक मज़बूत हो गए हैं।

यह भी विडंबना है कि आज का युवा अपने माता-पिता की शाबाशी से अधिक महत्व अनजान लोगों के “लाइक्स” को देता है। यह स्वीकृति की भूख ही उसकी मानसिक गुलामी का सबसे बड़ा प्रमाण है।

इस प्रवृत्ति का असर परिवार और समाज पर गहराई से पड़ा है। पहले बच्चे सुबह उठते ही बड़ों के चरण छूकर आशीर्वाद लेते थे। अब वही बच्चे जागते ही मोबाइल नोटिफिकेशन देखने लगते हैं। पहले लोग चौपालों और सभाओं में मिलते थे, अब वे ऑनलाइन चैट में मिलते हैं। पहले बच्चों को कहानियों और लोकगीतों से संस्कार मिलते थे, अब वे “ट्रेंडिंग वीडियोज़” से सीख रहे हैं।

यह बदलाव केवल व्यवहार का नहीं, बल्कि संस्कृति का मज़ाक बन गया है। सोशल मीडिया पर आए दिन भारतीय परंपराओं, संस्कारों और धार्मिक विश्वासों का उपहास किया जाता है। कोई साड़ी को “आउटडेटेड फैशन” कहता है। कोई संस्कारों को “बैकवर्ड सोच” बताता है। कोई पूजा-पाठ को “समय की बर्बादी” कहकर उपहास करता है। जब हमारी ही पीढ़ी अपने प्रतीकों पर हँसने लगे, तब संस्कृति का संरक्षण कैसे होगा?

इस विडंबना को एक संत और शिष्य के संवाद ने बहुत सरलता से स्पष्ट कर दिया। संत ने शिष्य से कहा—“तुम्हारे पास दो विकल्प हैं—या तो रामायण पढ़ो और जीवन को सार्थक बनाओ, या फिर मोबाइल पर समय गँवाकर जीवन को शून्य बना लो।” शिष्य ने पूछा—“गुरुदेव, क्या मोबाइल इतना बुरा है?” संत ने मुस्कराकर उत्तर दिया—“नहीं, साधन बुरा नहीं होता। किंतु यदि साधन ही साध्य बन जाए, तो पतन निश्चित है।” यही आज की सच्चाई है।

इस प्रकार सोशल मीडिया ने न केवल समय और मनुष्य की एकाग्रता को नष्ट किया, बल्कि उसे मानसिक गुलामी में बाँध दिया है। और यह गुलामी किसी विदेशी सत्ता की नहीं, बल्कि अपनी ही चित्तवृत्तियों की है। यही कारण है कि यह स्थिति भारतीय संस्कृति के लिए सबसे बड़ा खतरा है।


भारतीय संस्कृति पर प्रश्नचिह्न और नैतिक पतन

भारतीय संस्कृति का आधार सदा से वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और गीता जैसे अमर ग्रंथ रहे हैं। यही वे शास्त्र हैं जिन्होंने न केवल भारत, बल्कि समस्त मानवता को जीवन का मार्ग दिखाया। किंतु पाश्चात्य विचारधारा और आधुनिकता के अंधे मोह ने धीरे-धीरे इन ग्रंथों पर प्रश्नचिह्न लगाने शुरू कर दिए। रामायण को केवल एक “कहानी” कहकर खारिज किया गया, जबकि वास्तव में वह मर्यादा और धर्म का महासागर है। महाभारत को केवल युद्ध की कथा समझा गया, जबकि उसमें धर्म-अधर्म के जटिल प्रश्नों का अद्वितीय विवेचन है। गीता को महज धार्मिक पुस्तक माना गया, जबकि वह तो जीवन-दर्शन का अद्वितीय ग्रंथ है। वेद और उपनिषद, जिनमें विज्ञान और आध्यात्मिकता का गहन ज्ञान भरा है, उन्हें अंधविश्वास कहकर नकार दिया गया। यह केवल जिज्ञासा का परिणाम नहीं, बल्कि मानसिक गुलामी का सबसे बड़ा रूप है।

इस प्रश्नचिह्न ने केवल शास्त्रों को ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन-मूल्यों को भी प्रभावित किया। भारतीय संस्कृति का मूल था—सत्य, अहिंसा, दया, करुणा और संयम। किंतु पाश्चात्य प्रभाव से इन मूल्यों का ह्रास होने लगा। पारिवारिक नैतिकता ढह गई। जहाँ कभी माता-पिता को देवतुल्य माना जाता था, अब उन्हें बोझ समझा जाने लगा। जहाँ स्त्री को शक्ति और गृहलक्ष्मी कहा गया, वहीं अब उसे केवल भोग की वस्तु बनाकर प्रस्तुत किया जाने लगा। युवा पीढ़ी, जो कभी संयम और ब्रह्मचर्य को आदर्श मानती थी, अब उच्छृंखलता और वासनात्मकता की ओर बढ़ने लगी।

शास्त्रों ने स्पष्ट चेतावनी दी थी—“धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः”—जो धर्म और नैतिकता से रहित है, वह मनुष्य नहीं, पशु के समान है। किंतु दुर्भाग्य यह है कि आज समाज का बड़ा वर्ग इस चेतावनी को भूल गया है।

भारतीय संस्कृति का वास्तविक अर्थ आधुनिकता को अस्वीकार करना नहीं, बल्कि उसे संयम और मर्यादा के साथ अपनाना है। किंतु हमारी परिभाषा बदल गई। अब आधुनिकता का अर्थ नकल, भोग और दिखावा बन गया है, जबकि वास्तविक आधुनिकता विज्ञान, संस्कार और विवेक का संगम है।

इस दिशा-विहीनता का परिणाम आज स्पष्ट दिखाई देने लगा है। समाज में अकेलापन, अवसाद और अपराध बढ़ रहे हैं। बच्चे और युवा बिना मूल्यों के पल-बढ़ रहे हैं। धर्म और नैतिकता के बिना राष्ट्र की आत्मा धीरे-धीरे खो रही है। यही स्थिति आज भारत में उभर रही है, जहाँ प्राचीन शक्ति और गौरव के बावजूद हम मानसिक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं।

एक विदेशी विद्वान ने भारत आकर कहा था—“भारत की ताकत उसके मंदिरों या महलों में नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति में है। यदि यह संस्कृति खो गई, तो भारत केवल भूमि का टुकड़ा रह जाएगा, राष्ट्र नहीं।” यह वचन चेतावनी है, जो हमें बार-बार स्मरण दिलाता है कि संस्कृति का संरक्षण ही राष्ट्र की आत्मा की रक्षा है।