अध्याय 8
संस्कृति और राष्ट्रनिर्माण
राष्ट्र केवल भूभाग का नाम नहीं होता। मिट्टी, पर्वत, नदियाँ और वन मिलकर मात्र एक भौगोलिक इकाई बना सकते हैं, किंतु वह राष्ट्र तभी कहलाता है जब उसमें एक जीवित आत्मा होती है, और वह आत्मा उसकी संस्कृति होती है। भूमि जड़ है, पर संस्कृति उसमें जीवन का संचार करती है। जब कोई मनुष्य अपनी मातृभूमि की मिट्टी को माथे से लगाता है, जब वह अपने गाँव के तालाब और अपने खेतों की लहलहाती फसल को देखकर गर्व करता है, तब वह केवल भूभाग को नहीं, बल्कि संस्कृति को प्रणाम करता है। यही संस्कृति भूमि को राष्ट्र में परिवर्तित करती है।
भारतीय संस्कृति ने इस राष्ट्र को केवल सीमाओं में नहीं बाँधा, बल्कि उसे भावनाओं और विश्वासों में गढ़ा। यहाँ गंगा केवल जलधारा नहीं रही, बल्कि “माँ गंगा” बनी। हिमालय केवल शिलाओं का समूह नहीं, बल्कि “पिता हिमालय” कहलाया। पीपल और वटवृक्ष केवल वृक्ष नहीं रहे, बल्कि जीवन और दीर्घायु के प्रतीक बने। यही सांस्कृतिक दृष्टि है जिसने भारत को राष्ट्रत्व प्रदान किया।
इतिहास गवाही देता है कि जब-जब भारत पर बाहरी आक्रमण हुए, जब-जब साम्राज्य ढहे और राजवंश मिट गए, तब-तब यह संस्कृति ही थी जिसने भारतीय आत्मा को जीवित रखा। नालंदा और तक्षशिला जलाए गए, मंदिर तोड़े गए, महल खंडहर बने, परन्तु संस्कृति का दीपक बुझा नहीं। यही कारण है कि भारत बार-बार टूटा और बिखरा, किंतु हर बार खड़ा हुआ और जीवित रहा। राजनीतिक सत्ता नष्ट हो सकती है, किंतु सांस्कृतिक शक्ति अमर रहती है। यही अमरता राष्ट्र की आत्मा है।
संस्कृति ने ही यह सिखाया कि मातृभूमि का सम्मान सर्वोपरि है। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”—यह उद्घोष भारतीय मन में गहराई तक अंकित है। स्वतंत्रता संग्राम के वीरों ने जब अपने प्राण न्यौछावर किए, तो उनकी प्रेरणा केवल राजनीति नहीं थी, वह संस्कृति थी जिसने उन्हें यह सिखाया था कि मातृभूमि की रक्षा ही सर्वोच्च धर्म है। भगतसिंह के बलिदान, चंद्रशेखर आज़ाद की निर्भीकता, रानी लक्ष्मीबाई का साहस और सुभाषचंद्र बोस की ज्वाला सब उसी संस्कृति की देन थे। गांधीजी का सत्य और अहिंसा भी किसी विदेशी विचारधारा से नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के गहन मूल्यों से उपजा था।
राष्ट्रनिर्माण केवल संसद, कानून या शासन से नहीं होता। राष्ट्र का निर्माण तब होता है जब समाज के प्रत्येक वर्ग में संस्कृति के संस्कार जीवित हों। किसान जब अपने खेत की मिट्टी को माँ मानकर हल चलाता है, तब वह राष्ट्र का निर्माता होता है। सैनिक जब सीमा पर अपने जीवन की बाज़ी लगाकर कहता है—“मेरा जीवन मातृभूमि के चरणों में अर्पित है”—तब वह राष्ट्र का निर्माता होता है। शिक्षक जब बच्चों के मन में केवल ज्ञान ही नहीं, बल्कि सत्य, सेवा और संयम के संस्कार बोता है, तब वह राष्ट्र का निर्माता होता है। माँ जब अपने बच्चों को लोरी में केवल नींद नहीं देती, बल्कि उनमें धर्म और करुणा की शिक्षा देती है, तब वह राष्ट्र का निर्माण करती है। इस प्रकार राष्ट्र का निर्माण किसी एक क्षेत्र या शक्ति से नहीं, बल्कि संपूर्ण सांस्कृतिक चेतना से होता है।
आज का समय इस सत्य को और अधिक स्पष्ट करता है। विज्ञान ने विश्व को छोटा कर दिया है, तकनीक ने दूरियों को मिटा दिया है, किंतु इसने मनुष्यों के हृदयों को नहीं जोड़ा। राष्ट्र तभी जीवित रहते हैं जब उनके पास सांस्कृतिक आत्मा होती है। जिन राष्ट्रों ने अपनी संस्कृति को त्याग दिया, उनका इतिहास बताता है कि वे अधिक समय तक टिक नहीं सके। रोम का वैभव, ग्रीस की कला और मिस्र के पिरामिड आज केवल इतिहास की कहानियाँ हैं, क्योंकि वहाँ की संस्कृति मर गई। पर भारत आज भी जीवित है क्योंकि उसकी संस्कृति आज भी धड़क रही है।
भारत की शक्ति धन, सेना या तकनीक में नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति में है। यही संस्कृति हमें यह सिखाती है कि राष्ट्र केवल बाहरी सामर्थ्य से महान नहीं बनता, बल्कि आंतरिक मूल्यों और आदर्शों से महान बनता है। यदि भारत को पुनः विश्वगुरु बनना है, तो उसे अपनी संस्कृति के आधार पर राष्ट्र का निर्माण करना होगा। विज्ञान और तकनीक आवश्यक हैं, वे साधन हैं; पर साध्य केवल संस्कृति है, क्योंकि संस्कृति ही राष्ट्र की आत्मा है।