Ek Ladki ko Dekha to aisa laga - 25 in Hindi Love Stories by Aradhana books and stories PDF | एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा - 25

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एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा - 25

प्रकृति ने भी छुट्टी ले ली और कबीर भी ऑफिस नहीं आया…
ऋद्धान अपने केबिन में बैठा था, लेकिन उसका मन काम में बिल्कुल भी नहीं लग रहा था।
वो बेचैन था, उलझन में था।


“ये सब अचानक क्या हो गया? एक ही रात में सब इतना बदल कैसे गया…”

उसके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी।
वो बार-बार अपनी घड़ी देखता, मोबाइल उठाता और फिर रख देता।

आख़िरकार उसने फोन उठाया और कबीर का नंबर डायल कर दिया।

कबीर के फोन की स्क्रीन पर ऋद्धान का नाम चमका।
फोन की रिंग सुनकर प्रकृति एकदम पीछे हट गई, मानो उससे दूरी बनानी चाह रही हो।

दोनों—कबीर और प्रकृति—बस एक-दूसरे को और फोन को देख रहे थे।

प्रकृति का चेहरा कठोर हो चुका था, उसकी आवाज़ में तल्ख़ी थी—
“पिक कर लो! फिर प्लान करो कि मेरी ज़िंदगी कैसे बर्बाद करनी है।”

कबीर हकबका गया।
“प्रकृति… तुम हर बात का ग़लत मतलब निकाल रही हो…”

लेकिन इससे पहले कि वो और कुछ समझाता, फोन की घंटी बंद हो गई। कॉल कट हो चुकी थी।

उधर ऋद्धान का माथा तिलमिला उठा।
“कबीर तो कभी मेरी कॉल इग्नोर नहीं करता… ये सब क्या हो रहा है!”
उसका गुस्सा और बेचैनी अब बढ़ चुके थे।
उसने तुरंत फिर से कॉल कर दिया।

इधर फिर वही स्थिति—फोन बज रहा था।
कबीर की नज़रें फोन पर जमी थीं, लेकिन प्रकृति के सामने उसका हावभाव बदल गया।
वो एकदम कॉन्शस हो गया, मानो अब उसके पास कोई रास्ता ही न बचा हो।

प्रकृति ने ठंडी नज़रों से उसे देखा और धीमी लेकिन सख़्त आवाज़ में कहा—
“कबीर, कॉल पिक करो।”

कबीर की साँसें भारी हो रही थीं। वो दो रिश्तों, दो सच्चाइयों के बीच फँस गया था।
आख़िरकार दोनों से परेशान होकर उसने कॉल उठा ही लिया।

प्रकृति ने हाथ के इशारे से कहा कि फोन स्पीकर पर लगाओ।
कबीर ने उसे एक नज़र घूरा, जैसे कहना चाहता हो—“ये मत करो।”
लेकिन अंततः उसने फोन स्पीकर पर कर दिया।

“कबीर कहाँ है तू…” ऋद्धान की आवाज़ गूंज उठी।
उसके लहज़े में गुस्सा साफ था।
“ऑफ़िस भी नहीं आया… घर…”

कबीर ने बिना समय गँवाए तुरंत बोल दिया—
“मैं अपने किसी रिश्तेदार के घर आया हूँ, बाद में कॉल करता हूँ… थोड़ा बिज़ी हूँ।”

उसने ऋद्धान की बात सुने बिना ही अपनी बात खत्म की और कॉल काट दी।

ऋद्धान का दिल धक से रह गया।
उसका माथा सिकुड़ गया—“इसने मुझसे झूठ क्यों बोला? ये और प्रकृति तो इसके घर पर ही हैं…”
अब उसके शक की गुत्थी और उलझ चुकी थी।
गुस्से के साथ-साथ अब उसे अंदर से चोट भी लग रही थी।

इधर कबीर ने गहरी साँस ली और प्रकृति की ओर देखा।
“चलो प्रकृति, ये सब ऋद्धान को बता सकते हैं…”
वो उठकर आगे बढ़ा, लेकिन कुछ कदम चलने के बाद अचानक उसे एहसास हुआ कि प्रकृति उसके पीछे नहीं आ रही।

वो पलटा और बोला—
“क्या हुआ? चलो…”

प्रकृति वहीं खड़ी थी, आँखों में गुस्सा और दर्द का तूफ़ान था।
“मैं कहीं नहीं जाऊँगी! और तुम्हारे दोस्त के पास तो बिल्कुल नहीं।”

कबीर के चेहरे पर बेबसी थी।
“पर क्यों… क्या हुआ? तुम चाहती हो कि वो तुम्हें हमेशा क़ातिल समझता रहे?”

प्रकृति की आँखों में आँसू भर आए, लेकिन उसकी आवाज़ ठोस थी—
“Exactly! तुम्हारा दोस्त मुझे पहले से ही क़ातिल मान चुका है।
अपनी ऋद्धि को छोड़कर जाने के गिल्ट को वो किसी और पर डालकर अपने आपको प्रोटेक्ट कर रहा है।
और वो कोई ‘और’ मैं हूँ…”

उसने गहरी साँस ली, मानो भीतर का सारा दर्द बाहर निकाल रही हो।
“ना मुझे तुम्हारे दोस्त में कोई इंटरेस्ट है, और ना ही इस कंपनी में अब कुछ बचा है।
मैं यहाँ से जा रही हूँ—हमेशा के लिए।”

कबीर ने घबराकर कहा—
“प्र…”

लेकिन उसके शब्द वहीं अधूरे रह गए।
प्रकृति पलट चुकी थी।
उसके कदम तेज़ी से दरवाज़े की ओर बढ़ रहे थे।

कबीर उसे रोकना चाहता था, कुछ कहना चाहता था, लेकिन उसकी जुबान जैसे थम गई थी।
वो बस ठगा सा वहीं खड़ा रह गया।
कमरे की खामोशी उसे काटने लगी।

प्रकृति का जाना जैसे उसके दिल पर भारी चोट कर गया हो।
उसकी आँखें दरवाज़े पर अटक गईं, जहाँ से वो अभी-अभी बाहर निकली थी।
उसके कानों में ऋद्धान की आवाज़ गूँज रही थी…
उसका गुस्सा, उसका शक, उसकी निराशा।

कबीर अब कुर्सी पर गिर पड़ा।
उसने अपना सिर पकड़ लिया और आँखें बंद कर लीं।
उसके दिमाग़ में एक ही ख्याल गूंज रहा था—
“अगर प्रकृति चली गई तो ऋद्धान का गुस्सा और बढ़ जाएगा…
और फिर वो कभी भी सच जान ही नहीं पाएगा…”

वो वहीं बैठा रह गया—टूटा हुआ, उलझा हुआ, और बिल्कुल अकेला।