रास्ते में हल्की बातचीत
कार धीरे-धीरे सुनसान सड़कों पर दौड़ने लगी। अंदर हल्का मद्धम सा म्यूजिक बज रहा था, जो माहौल को और भी रहस्यमय और सुकूनभरा बना रहा था।
कुछ देर तक दोनों खामोश रहे। फिर दानिश ने कहा, "आजकल तुम मुझसे दूर-दूर क्यों रहती हो?"
समीरा ने खिड़की की ओर देखा। "तुम ही बताओ, ऐसा तुम्हें क्यों लग रहा है?"
दानिश ने हल्की हंसी के साथ कहा, " जैसे तुम मुझसे बचने की कोशिश कर रही हो।"
समीरा ने एक पल सोचा और फिर कहा, ऐसा कुछ नहीं है तुम्हें गलतफहमी हुई है |"
दानिश ने चौंककर उसकी ओर देखा। "क्या मतलब?"
गहरी सांस लेकर दानिश ने कहा,
जैसे तुम्हारे और मेरे बीच कोई दीवार आ गई है,"दानिश ने सीधे कहा।
समीरा ने गहरी सांस ली। "ऐसा नहीं है, बस कुछ चीजें चल रही थीं... जो मैं खुद भी ठीक से समझ नहीं पा रही हूं।"
रात की सुकून भरी हवा
कार समीरा के घर के पास रुकी।
"लो, आ गया तुम्हारा घर," दानिश ने कहा।
समीरा ने हल्की मुस्कान के साथ कार का दरवाजा खोला, लेकिन बाहर निकलने से पहले एक पल को ठहरी।
"थैंक्स, दानिश," उसने धीरे से कहा।
दानिश ने हल्की हंसी के साथ कहा, "बस इतनी फॉर्मेलिटी? मेरा तो दिल टूट जाएगा!"
समीरा भी हंस पड़ी। "अच्छा ठीक है, थैंक यू सो मच, मिस्टर दानिश!"
दानिश मुस्कुराया। "अब सही है।"
समीरा कार से उतरी और धीरे-धीरे अपने घर की ओर बढ़ गई। दानिश तब तक वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा, जब तक वह दरवाजे के अंदर नहीं चली गई।
जैसे ही समीरा ने घर के दरवाजे को बंद किया, उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। शायद यह रात उसके लिए एक नई शुरुआत थी।
दूसरी ओर, दानिश भी कार में बैठा, गहरी सांस ली और हल्की मुस्कान के साथ कार स्टार्ट कर दी। शायद उसके दिल में भी कोई दबी हुई बात थी, जिसे कहने के लिए वह सही वक्त का इंतजार कर रहा था।
जैसे ही उसने लिविंग रूम में प्रवेश किया, उसके पापा वहीं बैठे थे। घड़ी रात के आठ बजा रहे थे। समीरा ने उनके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश की, लेकिन उनकी गंभीर नजरें पहले ही बहुत कुछ कह रही थीं।
"कहाँ थी इतनी देर?" उनकी आवाज में गुस्से की हल्की झलक थी।
"पापा, मैं बस कैफे में थी। रिया के साथ... फिर थोड़ी देर हो गई।"
"कैफे में? इतनी रात तक?" उन्होंने भौंहें चढ़ाई।
समीरा ने सिर झुका लिया। "बस... बातों में समय का पता नहीं चला।"
अजय ने गहरी सांस ली। "बातों में इतना भी खो जाना सही नहीं है कि घर वालों की चिंता ही न हो। तुम्हें अंदाजा भी है कि हम लोग कितने परेशान हो जाते हैं?"
राधा, जो रसोई से आ रही थीं, समीरा के पास आकर बोलीं, "बेटा, हमें बस इतनी सी बात समझनी है कि दुनिया बहुत बड़ी है, और हर जगह सुरक्षित नहीं होती।"
"पर माँ, मैं अकेली नहीं थी।"
"और अभी घर कैसे आई?" पापा की आवाज और सख्त हो गई।
"दोस्त छोड़ने आया था।"
यह सुनते ही अजय ने अपनी हथेलियाँ भींच लीं। "मतलब, तुम अकेली नहीं, पर किसी लड़के के साथ थी? यही संस्कार दिए हैं हमने तुम्हें?"
"पापा, ऐसा कुछ नहीं है! हम सिर्फ दोस्त हैं। और वो सिर्फ मेरी मदद कर रहा था!"
अजय ने गहरी सांस ली और अपना गुस्सा काबू किया। "देखो, बात भरोसे की नहीं है। बात इस बात की है कि रात के इस वक्त बाहर घूमना सही नहीं है। अगर कुछ हो जाता तो?"
समीरा जानती थी कि उसके पापा पुराने ख्यालों के नहीं थे, लेकिन उनकी चिंता जायज थी। उसने खुद को शांत रखा और धीरे से बोली, "सॉरी पापा, आगे से ध्यान रखूँगी।"
माँ ने समीरा के सिर पर हाथ फेरा। "अच्छा, अब जाओ, कपड़े बदल लो और खाना खा लो।"
समीरा ने मुस्कुराने की कोशिश की और अपने कमरे में चली गई। वह अपने बिस्तर पर बैठ गई और एक लंबी सांस ली।
उसकी नज़र फोन पर पड़ी। दानिश का मैसेज था— "सब ठीक?"
समीरा ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया— "हाँ, बस थोड़ी क्लास लगी, लेकिन मैनेज कर लूंगी।"
दानिश का रिप्लाई तुरंत आया— "गुड। नेक्स्ट टाइम थोड़ा पहले निकल जाना।"
उसने फोन साइड में रखा, एक लंबी सांस ली और खुद से वादा किया—आज की सीख को याद रखेगी, लेकिन दोस्तों के साथ बिताए उन खास पलों को भी नहीं भूलेगी।
सोच में डूबी समीरा
समीरा कमरे में अकेली बैठी थी। खिड़की से हल्की चांदनी भीतर आ रही थी, और बाहर की हल्की ठंडी हवा पर्दों को हौले-हौले हिला रही थी। बिस्तर पर बैठी समीरा फोन को देख रही थी। दानिश का मैसेज अभी भी स्क्रीन पर चमक रहा था— "गुड। नेक्स्ट टाइम थोड़ा पहले निकल जाना।"
उसने फोन को धीरे से साइड में रखा और छत की ओर देखने लगी। मन में हलचल थी, एक उलझन जिसे वह खुद भी ठीक से समझ नहीं पा रही थी।
"मुझे दानिश से थोड़ा दूर रहना चाहिए," उसने खुद से कहा, लेकिन जैसे ही यह शब्द उसके होंठों से निकले, दिल ने एक अजीब सी कसक महसूस की।
"पर क्यों?"
क्या इसलिए कि पापा को यह सब पसंद नहीं? या इसलिए कि उसे खुद लग रहा था कि वह दानिश के बहुत करीब जा रही है?
"हम सिर्फ दोस्त हैं, और दोस्त तो मिलते हैं, बातें करते हैं, एक-दूसरे की परवाह करते हैं। तो फिर ऐसा क्यों लगता है कि मैं कुछ और महसूस करने लगी हूँ?"
उस दिन कैफे में भी तो, जब वह हंसी थी, तो दानिश की आँखों में एक अलग सी चमक थी। और आज, जब वह कार में थी, तो उसने कितनी सहजता से कहा था— "जैसे तुम्हारे और मेरे बीच कोई दीवार आ गई है।"
क्या सच में कोई दीवार थी? या यह सिर्फ उसका भ्रम था?
समीरा खुद से सवाल करने लगी। वह जानती थी कि उसकी दोस्ती दानिश से सिर्फ कुछ महीनों पुरानी थी, लेकिन इस थोड़े से वक्त में ही उसने महसूस किया था कि वह जब भी परेशान होती, तो दानिश ही था जो उसकी परेशानियों को हल्का कर देता।
"लेकिन क्या सिर्फ इतनी सी बात काफी है?"
उसने खुद को समझाने की कोशिश की कि शायद यह एक आम दोस्ती है। लेकिन फिर, जब भी वह उससे दूर जाने की सोचती, दिल जैसे पीछे खींचने लगता।
"मुझे दानिश से दूर रहना चाहिए," उसने एक बार फिर दोहराया।
पर क्या वह सच में ऐसा कर सकती थी?
दिल की उलझन
समीरा ने तकिए को अपने सीने से लगाया और खुद से कहा,
"अगर मैं ज्यादा सोचूँगी, तो और उलझ जाऊँगी। लेकिन मैं यह भी नहीं समझ पा रही कि मुझे क्या करना चाहिए।"
उसने याद किया, जब आज कार में वह दानिश के साथ थी, तो उस सफर में एक अजीब सा सुकून था। मद्धम सा संगीत, हल्की बातें और वह रहस्यमय खामोशी जो दोनों के बीच थी।
वह पल…
क्या वह सच में सिर्फ एक दोस्ती वाला पल था?
"मुझे समझ नहीं आ रहा..."
उसने अपने बालों को हल्का सा पीछे किया और गहरी सांस ली।
"अगर मुझे खुद ही नहीं पता कि मैं क्या महसूस कर रही हूँ, तो मैं दानिश से क्या कहूँगी?"
वह खुद को समझा भी नहीं पा रही थी, तो उसे कैसे समझाएगी?
फोन एक बार फिर चमका।
दानिश का मैसेज था— "सो गई क्या?"
समीरा कुछ देर तक मैसेज को देखती रही।
क्या जवाब दे?
क्या उसे 'हाँ' कहकर इस उलझन से बचना चाहिए?
या फिर...
उसने धीरे से टाइप किया— "नहीं, बस कुछ सोच रही थी।"
कुछ ही सेकंड में दानिश का जवाब आया— "क्या सोच रही थी?"
समीरा उंगलियाँ कीबोर्ड पर रखकर रुक गई।
क्या वह सच में दानिश को बता सकती थी कि वह उसके बारे में ही सोच रही थी?
नहीं, अभी नहीं।
उसने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया— "कुछ नहीं, बस ऐसे ही।"
फोन रखकर वह छत की ओर देखने लगी।
शायद कुछ सवालों के जवाब वक्त के साथ खुद-ब-खुद मिल जाते हैं।
शायद यह भी उनमें से एक था।