Chandrvanshi - 7 - 7.2 in Hindi Detective stories by yuvrajsinh Jadav books and stories PDF | चंद्रवंशी - अध्याय 7 - अंक 7.2

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चंद्रवंशी - अध्याय 7 - अंक 7.2

विनय मंदिर में प्रवेश कर चुका है। उसके साथ पांडुआ का एक वृद्ध पंडित था। वही एकमात्र इस मंदिर के बारे में बताने को तैयार हुआ था। बाकी लोग पांडुआ के जंगल में कोई मंदिर है, इस बात को मानने को ही तैयार नहीं थे। वे हमेशा जंगल में आती-जाती कोयले की गाड़ियाँ देखते और चुप रहते। पंडितजी के पास ज़्यादा समय नहीं था। वह विनय को केवल मंदिर के कुछ ही रहस्य बताकर निकल जाना चाहता था।  
पंडित मंदिर के प्रांगण में खड़ा होकर बोला,  
"यह मंदिर वर्षों पहले बनवाया गया था। उस समय सूर्यवंशी राजा राज करते थे और उनके सूबों के रूप में चंद्रवंशी राजा रहते थे। माना जाता है कि राउभान नाम के महान चंद्रवंशी सूबे ने इस सुंदर मंदिर को बनवाया था। जिसके बनते ही उसने कहा था कि जब प्रजा को चारों ओर से आपदाएं घेर लें, तभी राजा को इस मंदिर में यज्ञ करवाना चाहिए। जो लोगों के जीवन को बचाने में सफल होगा।"  
विनय पंडित से थोड़े समय बाद की बात बताने को कहता है।  
"उसके बाद यहाँ एक समय ऐसा भी आया जब प्रजा के जीवन पर संकट आ पड़ा था। परंतु, उस समय क्या हुआ इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। महाराज और उनके वंशजों को सभी को एक साथ इसी मंदिर में मृत्यु के घाट उतार दिया गया था। ऐसा कहते हुए पांडुआ छोड़ने से पहले घटना को देखने वालों ने बताया था और तभी से इस मंदिर को लोग शापित मानने लगे। कहा जाने लगा कि जिस चंद्रवंशी राजाओं ने चंद्रमा का मंदिर बनवाया, वही चंद्रमा उन्हें नहीं बचा सका। तो आपदा से हमें क्या बचाएगा? अब तो इस राज्य में चंद्रवंश की एकमात्र पहचान यही मंदिर रह गया है। इस वंश का विनाश क्यों हुआ, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि इसके विनाश का कारण आदम ही था।"  
पंडित अभी भी कुछ छुपा रहा था। विनय पंडित के हाथ में दक्षिणा रखता है। फिर विनय बोलता है,  
"पंडितजी, सच में इस वंश का विनाश हो गया है?"  
विनय संदेह की नज़रों से पंडित को देखने लगा। पंडित का वह हाथ जिसमें दक्षिणा थी, कांपने लगा। पंडित के माथे पर पसीना छलकने लगा और वह अचानक वहाँ से भागने लगा। उस समय मंदिर के द्वार पर रोम खड़ा था। पंडित को पकड़कर रोम घसीटते हुए वापस ले आया। दोनों ने मिलकर पंडित को मंदिर की खंभे से बांध दिया। फिर विनय बोला,  
"जीद के आने की खबर किसे दी थी?"  
"अचानक आदम का आना, सबसे पहले जीद को ही किडनैप करना। जीद को श्रेया ने नहीं, बल्कि तूने ही किडनैप करवाया है।  
थोड़े पैसों के लालच में तू भूल गया कि तू कोलकाता में रहता है और कोलकाता का पंडित गुजराती बोलता है?"  
विनय की बात सुनकर पंडित आश्चर्यचकित रह गया। उसे अपनी गलती समझ आ गई।  
"उस समय मंदिर में यज्ञ तूने ही करवाया था। उस समय तू हमारे बीच ही था। जिससे रामबाग में मैं और जीद मिलने वाले थे, उस बात की जानकारी हमारे सिवाय तुझे एक को ही थी।" बोलकर विनय ने रोम की पिस्तौल पंडित के माथे पर टिका दी।  
पंडित बोला, "माफ कर दो साहब, मैं हूँ तो पांडुआ का ही, पर चंद्रवंशियों का अंतिम वंशज अर्थात राजकुमारी जीद को पकड़वाने के लिए मुझे इन लोगों ने भारी रकम दी थी।"  
विनय का पंडित पर शक सही साबित होते ही विनय क्रोध से भर गया और पंडित कुछ और बोल पाता उससे पहले ही उसने पूरी ताकत से एक तमाचा मारा जिससे पंडित वहीं बेहोश हो गया।  
"लो करो बात, थोड़ी देर और इंतज़ार करते तो हम जान ही लेते कि जीद कहाँ है?" रोम बोला।  
अचानक उठे हाथ को देखकर विनय ने उसी हाथ को खंभे पर दो-तीन बार फिर से पटका। फिर वह माथा खुजाता हुआ इधर-उधर चलने लगा। थोड़ा चलने के बाद वह उस जगह पर पहुँच गया जहाँ जीद ने उसके प्रेम को स्वीकार किया था। विनय घुटनों पर बैठ गया और रोने लगा। उसे वह समय याद आने लगा, जब उसके साथ जीद थी। विनय याद करते-करते उस दिन तक पहुँच गया, जब जीद ने उसे मना कर दिया था। उसे याद आ गया कि, "जीद ने उसके प्रेम को स्वीकार किया था, उसे चाहती भी थी। तो फिर उस दिन उसने उसे मना क्यों कर दिया था?"  
विनय खड़ा हुआ और गाड़ी में रखा चंद्रवंशी पुस्तक लेकर चंद्रताला मंदिर में बंधे पंडित के होश में आने तक फिर से पढ़ने बैठ गया। उसे देखकर रोम बोला,  
"मैं तब तक क्या करूँ?"  
विनय उसकी ओर देखने लगा फिर बोला, "मंदिर में कई रहस्य हैं। कोई एक खोज ले।"  

***  

"महाराज! हमारे सिपाही आंतरिक युद्ध पर चढ़ाई करने की योजना बना रहे हैं। वे सेनापति की आज्ञा लिए बिना द्युत खाड़ी की रक्षा में लग गए हैं। जिससे सेनापति क्रोधित हो गए और उन्होंने उन्हें अंतिम बार शरणागति का अवसर देने के लिए शांति दूत भेजा है।" प्रधान बोला।  
"सिपाहियों को द्युत खाड़ी की रक्षा में किसने लगाया?" महाराज बोले।  
"सूर्यांश महाराज, और कौन?" प्रधान बोला।  
"यह बात प्रधान ने महाराज को कही। जिससे, आते ही तुम्हारे मित्र सूर्यांश को कारागार में डाल दिया गया।" एक जासूस ने मदनपाल से कहा।  
मदनपाल को सूर्यांश ने द्युत खाड़ी की रक्षा की बात बताई थी। मदनपाल के मन में सेनापति के प्रति थोड़ा विष भर गया। उसे लगा कि, चंद्रहाट्टी में जो अंग्रेजों से मिला हो, वह यही होगा। अब मदनपाल ग्रहरीपु के पास जाता है। वह महाराज को सारी बात कान में बताकर सुनाता है। जिससे, महाराज सब बात समझ गए और तीसरे दिन सूर्यांश को रिहा करने का आदेश दिया और सेनापति को सभा में बुलाकर द्युत खाड़ी में लगाए गए सिपाहियों को हानि न पहुँचाने का भी आदेश दिया।  
तब सेनापति एक वीर सिपाही को बंदी बनाकर लाया था, उसे सभा में लाया गया। सिपाही पूरा लहूलुहान था। वह कोई और नहीं बल्कि वैभवराज का नवयुवक पुत्र परम था। उसे देखकर बंदी स्थिति में भी सूर्यांश उसके पास दौड़कर पहुँच गया। सूर्यांश को देखकर परम हँसने लगा और बोला,  
"आज मैंने अपने पिता के हत्यारे को स्वर्ग भेज दिया।"  
उसकी बात सुनकर सूर्यांश ने उसे शाबाशी दी। साथ ही उसे सभा में और कुछ न पूछकर वहाँ से छूटते ही मुखी के पास चले जाने को कहा। यह बात सुनकर महाराज ने उसे रोका और परम को द्युत खाड़ी के रक्षकों का प्रमुख सेनापति घोषित किया। यह बात सूर्यांश को पसंद नहीं आई। लेकिन अब वह कुछ भी करने में असमर्थ था। वह बात पूरी होते ही महाराज ने सभा में राजकुमारी संध्या के विवाह की बड़ी घोषणा की।  
विवाह की बात सुनकर झंगीमल और प्रधान भी खुश हो गए। वे अब उस क्षण की प्रतीक्षा में थे, जब महाराज संध्या के होने वाले पति का नाम लें। परंतु उस समय एक सिपाही महाराज की आज्ञा लेकर उनके पास आया और उनके कान में कुछ कहा। जिससे महाराज ने तुरंत ही सभा की पूर्णाहुति की घोषणा कर दी।  
रात्रि के समय मदनपाल को ग्रहरीपु ने बुलाया और भरी सभा में सूर्यांश का नाम लेने से क्यों रोका, यह बात कही।  
"अभी राज्य में संकट की घड़ी है और ऐसे समय में यदि आपने उसका नाम लिया होता तो सब लोग सूर्यांश को मारने के प्रयास में लग जाते।" मदनपाल ने भी अब अपनी राजनीति शुरू कर दी थी।  
ग्रहरीपु उसकी योजना से खुश हुआ। फिर दोनों पिता-पुत्र थोड़ी देर साथ बैठकर बातें करने लगे। तब उसके पिता ने कहा,  
"तेरी माँ कहती थी कि उसने युद्ध के समय विवाह किया था?"  
पिता की बात सुनकर मदनपाल थोड़ा शर्माया फिर उसने हाँ में सिर हिलाया।  
इसलिए ग्रहरीपु ने अगले दिन अपनी पुत्रवधू को बुलाने को कहा। अपने पिता की बात मानकर मदनपाल अब जाने की आज्ञा लेता है।  

***