दूसरे दिन सुबह साढ़े छह बजे घड़ी का अलार्म बजा – "टीटी-टीट… टीटी-टीट… टीटी-टीट..." लगभग एक मिनट तक बजता रहा। जिससे जीद जाग गई। उसने माहि को भी उठा दिया। माहि अपनी आंखें मसलती हुई अपना चश्मा ढूंढ रही थी। उसका चश्मा सोफे के पीछे गिर गया था। माहि चश्मा लेकर पहनती ही है कि सामने की दीवार पर अपने अंकल की तस्वीरों को देखती है। उसने देखा कि अंकल जॉर्ज के बचपन की तस्वीर और अभी के स्वरूप में जमीन-आसमान का फर्क था। माहि के पापा हमेशा अपने भाई यानी अंकल की तारीफ किया करते थे। ये वही अंकल जॉर्ज थे। एकदम स्वीट लड़की जैसे और गोरे इतने कि अंग्रेजों को भी मात दे दें। माहि का जन्म हुआ था तब उसके अंकल कोलकाता में कोयले के व्यवसाय के लिए गए हुए थे। इसलिए माहि ने अपने अंकल को इस रूप में कभी नहीं देखा था। रात को उन्होंने नींद की वजह से कुछ भी नहीं देखा था, दोनों किसी तरह से सोफे तक पहुंची थीं।
जीद माहि के अंकल की फोटो देखकर आश्चर्य से बोल पड़ी –
“माहि, तुम्हारे अंकल बिजनेसमैन हैं?”
“हां! हमें उन्हीं के पार्टनर की कंपनी में नौकरी करनी है।” माहि जीद को फोटो की तरफ देखते हुए कह रही थी।
“तुम्हारे अंकल तो एकदम लड़की जैसे लगते हैं।”
“हां! उनके बाल तो देखो कितने लंबे हैं।” कहते-कहते माहि भी हैरान होकर देख रही थी।
“तुम तो ऐसी बात कर रही हो, जैसे पहली बार देख रही हो अंकल को।” जीद माहि को चिढ़ाते हुए बोली।
“सच में मेरे अंकल अब वैसे बिल्कुल नहीं लगते। जैसे कोई ब्रिटिश अंग्रेज अफ्रीका जाकर काले पड़ गए हों, ऐसा लग रहा है अभी!”
“मैं गई थी, उसके पहले अंकल और आंटी का एक कार एक्सिडेंट हो गया था। उसमें आंटी सेल्विन बच नहीं पाईं और अंकल के चेहरे पर निशान पड़ गए।”
“ओह! ये सुनकर बहुत दुख हुआ। अब कैसे हैं तुम्हारे अंकल?”
“उन्हें अब तो ठीक है, लेकिन पापा कहते थे कि वो घर कम ही आते हैं। शायद आंटी की याद आती होगी। इसलिए वे गुजरात तो आते ही नहीं।” कहकर माहि ने एक लंबी सांस ली और चुप हो गई।
माही और जीद दोनों फ्रेश होकर नीचे आती हैं। माही वॉचमैन को गाड़ी की चाबी देती है और कहती है, “अंकल, कल गाड़ी के नीचे एक बिल्ली आ गई थी, इसलिए पूरी कार खून से खराब हो गई है। तो इसे साफ करवा कर फिर से मेरे अंकल की पार्किंग में रख देना।” माही उसे गाड़ी साफ करवाने के पैसे और मदद के लिए टिप देकर वहाँ से निकल जाती है। बाहर निकलकर दोनों टैक्सी पकड़कर चांदरौड़ी से अहमदाबाद एयरपोर्ट जाने के लिए निकल जाती हैं। थोड़ी ही देर में वे दोनों एयरपोर्ट पहुँच जाती हैं।
“सभी यात्री गण कृपया अपनी-अपनी टिकट ले...ले...” वह आवाज़ माही के कानों तक पहुँची। माही जीद को वहाँ पास रखी कुर्सी पर बैठाकर वहीं बैठने को कहकर टिकट लेने जाती है। माही कोलकाता की टिकट लेकर वापस आती है (उसे आने पर ही दो रिटर्न टिकट बुकिंग करनी दी गई थी) और दोनों अपने प्लेन की ओर निकलती हैं। उस समय आठ बज चुके थे और कोलकाता वाली फ्लाइट साढ़े आठ बजे निकलने वाली थी। जीद पहली बार विमान में बैठने जा रही थी इसलिए वह थोड़ी घबराई हुई लग रही थी।
लगभग साढ़े आठ बजे थे और प्लेन एयरपोर्ट से निकल रहा था। “सभी यात्री गण कृपया अपनी-अपनी सीट पर बैठ जाएँ।” जैसे ही विमान ने आकाश की ओर मुँह किया, उसे काला डिबांग बादल दिखता है।
(आज भी सूरज नहीं निकला था। आकाश भरे हुए गर्मी में भी काला डिबांग था। ऐसा लग रहा था मानो उसने अपना चेहरा छिपाने के लिए बादलों की चादर ओढ़ ली हो।)
अब वे दोनों शांति से बैठ गई थीं। उस समय माही की नजर जीद के हाथ पर पड़ी। उसके हाथ में वही लाल रंग की पुस्तक थी और उस पर सफेद रंग के अक्षरों में *चंद्रवंशी* लिखा हुआ था, जिसे वह साथ लेकर निकली थी।
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