Chandrvanshi - 7 - 7.1 in Hindi Detective stories by yuvrajsinh Jadav books and stories PDF | चंद्रवंशी - अध्याय 7 - अंक 7.1

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चंद्रवंशी - अध्याय 7 - अंक 7.1

सुबह मदनपाल मंदिर के बाहर आया। उसी समय सूर्यांश घोड़े पर सवार उसकी नजरों के सामने सूर्य जैसी रोशनी फैलाती मशाल हाथ में लेकर आगे बढ़ा। मदनपाल सूर्यांश को देखकर खुश हुआ और दोनों अपनी सवारी से उतरकर गले मिले।  
“सूर्यांश, कहां चला गया था?” मदनपाल बोला।  
“राज्य संकट में है राजकुमार।” हाथ में एक नक्शा लेकर मदनपाल के हाथ में रख दिया।  
नक्शा देखकर आश्चर्यचकित मदनपाल बोला, “हमारे सामने ये सारे राज्य हैं?”  
“हाँ!” सूर्यांश बोला। थोड़ी देर मंदिर को निहारने के बाद फिर बोला, “मुझे महाराज से मिलना है।”  
“महाराज! क्यों, महाराज से क्यों मिलना है?” मदनपाल बोला।  
“उसकी चर्चा हम रास्ते में करेंगे।” बोलकर सूर्यांश घोड़े पर सवार हो गया।  
सूर्यांश ने मदनपाल को सारी बात बताई। वह दिन बीता और दोनों चंद्रहाटी पहुंचे। दूर से ही सूर्यांश ने राजकुमारी संध्या को ऊपर की खिड़की में देखा। संध्या भी आतुरता से उसी की राह देख रही हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। संध्या ने सफेद चमकती चुन्नी और चोली पहनी थी, जो सूरज के डूबने के बाद भी चमक रही थी। संध्या ने दूर से आते मदनपाल और सूर्यांश को देखकर खुश होकर जल्दी नीचे जाने के लिए निकल पड़ी। खिड़की के अंदर जाती उसकी चमक बहुत ही सुंदर दृश्य बन गई थी।  
मदनपाल हँसा और बोला, “सूर्यांश, ये सारे राज्य एक तो हमसे दूर हैं और दूसरा ये हमारे राज्य की धूल के समान हैं। हमारी निष्ठावान और चारों दिशाओं में प्रचलित सेना को हराना उनके लिए बहुत ही मुश्किल है।”  
“बात ये नहीं कि वो जीतेंगे या हम। बात ये है कि इन सभी राज्यों को उकसाने वाला कौन है?” सूर्यांश ने बात की जड़ सामने रखते हुए कहा।  
“मतलब ये षड्यंत्र है?” मदनपाल अब पूरी बात समझ गया।  
“हाँ, ये युद्ध हमारे राज्य के पतन के लिए है। जिसकी जड़ अंग्रेज़ और उनके साथ जुड़े भारतीय हैं। जो हमें भी अंग्रेज़ों का गुलाम बनाना चाहते हैं। इस बात की जानकारी मुझे एक वृद्ध गुप्तचर ने दी है।” सूर्यांश बोला।  
अब दोनों बात को समझ चुके थे। इसलिए वे मिलकर महाराज को बताना चाहते थे कि अंग्रेजों के गुप्तचर कोई और नहीं बल्कि झंगीमल और कोई दूसरा है जो हमारे ही राज्य में रहता है। महाराज महल के आंगन में उनके आगमन की राह देखते प्रतीत हो रहे थे, जब वे वहाँ पहुंचे। अभी सवारी से उतरे ही थे कि अचानक सिपाही सूर्यांश के चारों ओर भाले लेकर घेराव करने लगे। मदनपाल भी यह देखकर स्तब्ध रह गया। महाराज बोले, “सिपाहियों, पकड़कर ले जाओ कालकोठरी में, कल सुबह सभा में देखेंगे उसके साथ क्या करना है।”  
“परंतु पिता जी...!” मदनपाल की बात पूरी होती उससे पहले ही पीछे से झंगीमल आ गया और बोला, “वाह... महाराज वाह! आज चंद्रहाटी में राजा के आदेश की अवहेलना करने वालों को पता चलेगा कि महाराज अगर आदेश की उल्लंघना पर अपने भांजे को नहीं छोड़ते तो प्रजा की तो बहुत ही छोटी औकात है।”  
लाल डोरे से घिरी आँखों से ग्रहऋपु ने मदनपाल की ओर घूरते हुए कहा, “अब यज्ञ के बाद संध्या के विवाह का आयोजन किया जाएगा।”  
“विवाह?” मदनपाल बोल पड़ा।  
दूर सिपाहियों से घिरे सूर्यांश ने भी यह बात सुनी। महाराज अधिक कुछ न बोले और फिर महल में चले गए। इस ओर सिपाही सूर्यांश को लेकर कोठरी की ओर चलने लगे।  
महल के प्रवेशद्वार के बीच खड़े मदनपाल को अब किस ओर जाना है, ये महल की देहलीज़ ने ही बता दिया था। वह वहीं बैठ गया।

***

कुछ देर बाद संध्या और उसकी माता वहाँ पहुँच गए।  
निराश होकर बैठे मदनपाल को देखकर संध्या बोली, “क्या हुआ भैया?”  
मदनपाल की आँखों में आँसू थे। उसकी आँखों में संध्या के लिए आश्वासन था। भाई की आँखों में आई वह नमनी देखकर संध्या कुछ और न बोली और वहाँ से दौड़कर अपने कक्ष की ओर जाने लगी।  
मदनपाल की माता अब तक बात समझ नहीं पाई थीं। वह अचानक मदनपाल के कंधे पर हाथ रखकर बोलीं, “क्या हुआ, क्यों तू महल की देहलीज़ पर बैठा है?”  
“कुछ नहीं माँ, अब मेरी प्यारी बहन की विदाई का वक्त आ गया।” मदनपाल बोला।  
मदनपाल की बात सुनकर उसकी माता भी वहीं बैठ गईं। वे अपने बचपन को याद करने लगीं। एक ओर मदन, सामने सूर्यांश और बीच में संध्या जो आँखों पर पट्टी बाँधकर खेल रही थी। संध्या कभी अपने भाई को पकड़ ही नहीं पाती थी। हमेशा सूर्यांश को ही पकड़ती और सूर्यांश मदनपाल को पकड़ लेता।  
उनकी आँखों में आँसू पोंछती वह मदनपाल से कहने लगीं। वह भी हँसने लगा। फिर सहमे हुए मदनपाल को लेकर उसकी माता महल के भीतर ले गईं। अंदर आते ही उसकी माता बोलीं, “परंतु मदन, हमारी संध्या को योग्य वर कौन हो सकता है?”  
मदनपाल सोच में पड़ गया। “पिता जी ने ऐसा कुछ बताया नहीं।”  
“अगर तुम्हारे पिता संध्या को किसी बाहर के राज्य में देंगे तो?” उसकी माँ बोली।  
“माँ, क्या तू भी...!” कहते हुए मदनपाल रुक गया। थोड़ी देर सोचा तो उसे झंगीमल याद आया जो उसके पिता के साथ नीचे आया था।  
मतलब उसे अंग्रेजों के सामने झुकाने के लिए घर पर ही वार किया है। अगर उसकी संध्या का विवाह झंगीमल के पुत्र से हुआ तो चंद्रहाटी को हराना बहुत ही आसान हो जाएगा।  
अब, मदनपाल को झंगीमल की योजना समझ में आ गई। खजाना, वैभवराज और सूर्यांश तीनों ओर से घेरने का मतलब यही था। (जब मदनपाल ने झंगीमल को हराया था, तब उसने कहा था, “अगर तू मुझे ज़िंदा छोड़ेगा तो मैं तुझे तीनों दिशाओं से घेर लूँगा और फिर उस दिशा में तुझे कठपुतली की तरह नचाऊँगा।”)

मदनपाल तुरंत महाराज के कक्ष की ओर बढ़ा। ग्रहऋपु के हाथ में आज मदिरा से भरा प्याला था। उसकी गंध पूरे कक्ष में फैली हुई थी। द्वार के बाहर खड़े रहकर मदनपाल अंदर आने की आज्ञा लेने के लिए बोला। पुत्र की आवाज़ सुनते ही झंगीमल के भरे ज़हर के प्याले का विष तोड़ते ग्रहऋपु को देर नहीं लगी और उन्होंने मदनपाल को अंदर बुला लिया।  
हलके हुए ग्रहऋपु को सब कुछ जानने में देर नहीं लगी कि किस तरह झंगीमल ने अपनी बातों में उलझाया और संध्या के विवाह के लिए राज़ी करवा लिया।

मदनपाल कई उलझनों में फँस गया। वह सोचता सोचता महाराज के कक्ष से बाहर निकला। उलझन बहुत ही बढ़ चुकी थी। इतने में संध्या का कक्ष भी आ गया।  
मदनपाल को उसकी माँ की बात याद आई। (दूसरे राज्य में संध्या को दुखी करेगा।)  
एक ओर झंगीमल, दूसरी ओर युद्ध और उस युद्ध के कारण फँसने जा रही निर्दोष संध्या।  
मदनपाल संध्या के कमरे में प्रविष्ट हुआ। दोनों दीवारें बहुत ही सजी हुई थीं। एक दीवार पर फूलों, भगवान के चित्र, महाराज के चित्र और मदनपाल के चित्रों से भरी हुई सजावट थी। जबकि दूसरी दीवार पर अस्त्र-शस्त्र, कवच और उसके बचपन की सारी यादें छुपी हुई थीं।  
संध्या अपने भाई को आता देख अपनी आँखों के आँसू छुपाने की असफल कोशिश करने लगी।  
मदनपाल ने अपनी बहन के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “मेरी प्यारी बहन कब बड़ी हो गई, पता ही नहीं चला।”  
अचानक पारो भी वहाँ आ पहुँची। उसके हाथ में एक कवच का टुकड़ा था। जो मदनपाल को देखा देखा लग रहा था। लेकिन उसे उस समय उसमें ज़्यादा विचार नहीं आया और वह संध्या के पास बैठ गया।  
थोड़ी देर इधर-उधर निहारने के बाद उसकी नजर बचपन में खेले गए दुपट्टे पर गई। वह दुपट्टा सूर्यांश ने संध्या को दिया था। जिसमें एक छोटा सूर्य भी उकेरा गया था। फिर दीवार पर नजर डालते देखा कि संध्या के बचपन में सूर्यांश ने उसे जो-जो भेंट दी थी, वे सभी दीवार के साथ सजी दिख रही थीं।  
थोड़ी देर सोच में पड़े मदनपाल ने पारो के हाथ में रखे कवच के टुकड़े को देखा और उसे एकदम से झटका लगा। उसने संध्या से कहा, “तेरा विवाह हमारे राज्य में ही करते हैं।”  
संध्या को उसकी बात समझ में नहीं आई। “हमारे राज्य से तुम्हारा क्या मतलब?”  
“तुझे सूर्यांश पसंद है?” मदनपाल अचानक बोला।  
उसकी बात सुनकर संध्या अचरज में पड़ गई।  
संध्या कुछ बोले उससे पहले ही पारो बोल पड़ी, “आपने तो राजकुमारी के मन की बात जान ली।”  
गलती से बोल गई पारो अब चुप हो गई।  
संध्या पारो की ओर बड़ी आँखों से देखने लगी।  
बगल में बैठा मदनपाल यह दृश्य देखकर हँसने लगा।  
उसे लगा अब सारी समस्याएँ दूर हो गई हैं।  
वह वहाँ से निकला और पहले अपनी माता के पास गया।  
जाकर उसने सूर्यांश और संध्या के विवाह की बात की। उसकी माता भी खुश हो गईं।  
अब रही बात महाराज और सूर्यांश की, तो राजकुमार कालकोठरी की ओर बढ़ा। जहाँ सूर्यांश को बंद किया गया था।  
द्वार के बाहर रात्रि के समय चार सिपाही थे। जिनमें दो भालों से सुसज्ज द्वार के पास खड़े थे और दो मशालें लेकर इधर-उधर निगरानी कर रहे थे।  
राजकुमार के आने पर उन्होंने और अधिक सजगता दिखाई। फिर अंदर का द्वार खोला।  
अंदर एकदम अंधेरा था।  
सीढ़ियाँ उतरकर मशाल वाला सिपाही अंदर की मशालें जलाने लगा।  
एकदम हुई रोशनी को देखकर सूर्यांश चौंका।  
अंदर आई परछाई से मदनपाल को वह पहचान नहीं सका।  
अंदर आते मदनपाल के हाथ में खाने का थाल भी था।  
“राजकुमार, मेरे लिए भोजन लेकर आए हैं?” सूर्यांश बोला।  
“नहीं, राजकुमार नहीं, तेरा परम मित्र मदनपाल तेरा मुँह मीठा कराने आया है।”  
“मतलब मुझे कोठरी में बंद करके मुँह मीठा कराने का क्या मतलब।”  
“मतलब तो है। तू पहले खा तो सही।” बोलकर एक गोली का टुकड़ा हाथ में लेकर एकदम से सूर्यांश के मुँह में डाल दिया।  
“आखिरी बार मुँह मीठा कराया था, उसके अगले दिन हम झंगीमल के राज्य पर आक्रमण कर रहे थे। तो इस बार कहाँ मरने भेज रहे हो?” सूर्यांश बोला।  
मदनपाल हँसने लगा। “बात तो मरने की ही है। परंतु खून नहीं निकलेगा।”  
“मतलब?” सूर्यांश आश्चर्य में पड़ गया।  
“संध्या का विवाह तय करना है। तेरे साथ।” मदनपाल बोला।  
सूर्यांश पहले तो कुछ न बोला। फिर उसने कहा, “युद्ध के समय शहनाई?” 

***