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एकांत भक्त की महिमा
कंठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं तपमानाः पावयंति कुलानि पृथिवीं च ||६८||
अर्थ : एकांत भक्त कण्ठावरोध, रोमांच तथा अश्रुपूर्ण नेत्रों से परस्पर संभाषण करते हुए अपने कुलों तथा पृथ्वी को पवित्र करते हैं ।। ६८ ।।
प्रस्तुत सूत्र से लेकर अगले कुछ सूत्रों में नारद जी अनन्य एकांत भक्तों की महीमा गा रहे हैं। एकांत भक्ति में भक्ति अपने शिखर पर पहुँचती है। एकांत भक्ति में ही मीरा गाती है, 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई' यानी वे खुलेआम उद्घोषणा कर रही है कि उनका प्रेम, उनकी भक्ति सिर्फ उनके आराध्य कृष्ण के लिए ही है, अन्य किसी सांसारिक सुख या रिश्ते में कृष्ण के अलावा कोई नहीं है।
ऐसे ही संत नामदेव कहते हैं– 'ईभै बीठलु, उभै बीठलु, बीठल बिनु संसारू नहीं' यानी यहाँ भी विट्ठल है, वहाँ भी विठ्ठल है। इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं, जो विट्ठल से रहित है। ये पंक्तियाँ संत नामदेव की एकांत भक्ति की उस उच्च अवस्था का वर्णन करती हैं, जहाँ से उन्हें सब जगह अपना ईश्वर विठ्ठल ही विट्ठल नज़र आ रहा है। अर्थात माया के प्रभाव से जो कुछ भी अस्तित्त्व में नज़र आता है, उसमें उसी एक चेतना विट्ठल का वास है, यह वे अनुभव से जान चुके हैं।
जब एक ही से प्रेम हो, एक ही से लगन हो तो फिर भक्ति बहुत तेज़ी से वह सोपान चढ़ती है, जिसके शिखर पर ईश्वर होता है। नारद जी इस सूत्र में मीरा, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु जैसी अवस्था पा चुके एकांत भक्तों की दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं, जब ऐसे भक्त किसी से बात करते हैं तो उनका स्वर रोमांचित रहता है, कंठ भाव से भरा रहता है, आँखों से भक्ति के आँसू बहते रहते हैं। ये आँसू पीड़ा के नहीं बल्कि आनंद के होते हैं। क्योंकि वे सामने किसी व्यक्ति को नहीं देखते, उनसे तो सामने खड़े शरीर में भी अपने आराध्य के ही दर्शन होते हैं। वे उसी को देखते हैं, उसी को सुनते हैं, उसी की लीला से अभिभूत रहते हैं और उसी के प्रेम में भीगे रहते हैं। उन्हें बाकी दीन-दुनिया का होश नहीं रहता।
नारद जी आगे कहते हैं, ऐसे भक्तों की उपस्थिति उनके परिवार, कुल, नगर और समस्त पृथ्वी को पवित्र करती है। इसका कारण यह है कि ऐसे भक्त अपने प्रभाव से अपने आस-पास के लोगों में भी भक्ति का संचालन करते हैं। आप किसी भी महान भक्त की जीवनी पढ़कर देख लीजिए, उसकी भक्ति ने न सिर्फ उसका उद्धार किया बल्कि उस समस्त कालखंड के अनेकों लोगों का उद्धार किया। उनके दिखाए मार्ग पर चलने से पापी भी पवित्र हुए। लोगों ने हिंसा, पाप कर्म, बुरी वृत्तियों का त्याग किया और भक्ति की राह को स्वीकार किया।
तीर्थीकुर्वति तीर्थानि, सुकर्मी कुर्वीत कर्माणि, सच्छास्त्रीकुर्वति शास्त्राणि ॥ ६९ ॥
अर्थ : ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म तथा शास्त्रों को सत् शास्त्र करते हैं ।।६९।।
नारद जी एकांत अनन्य भक्तों की महिमा बताते हुए आगे कह रहे हैं, 'ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ करते हैं' आइए उनका आशय समझते हैं।
'तीर्थ' संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है पाप से तारने वाला, पार उतारने वाला। तीर्थ उस स्थान को कहा जाता है, जिसका कोई विशेष आध्यात्मिक या धार्मिक महत्त्व होता है। वहाँ जाने पर इंसान में भक्ति बढ़ती है, उसमें सत्य की प्यास जगती है, उसके मन और बुद्धि शुद्ध होते हैं, जहाँ वह अपने पाप कर्मों को स्वीकार कर, ईश्वर से क्षमा माँगता है और प्रायश्चित कर अपराध बोध से मुक्त होता है।
इसके अतिरिक्त तीर्थ पर जाकर इंसान भीतर से खाली होता है, उसकी नकारात्मकता हटती है। जिस कारण उसकी प्रार्थनाओं में, दुवाओं में बल आता है और वह ईश्वर की कृपाओं के लिए ग्रहणशील होता है। इसलिए हर धर्म में तीर्थों की असीम महत्ता है।
मगर ये लाभ हर किसी को नहीं होते। ज़्यादातर लोग वहाँ सिर्फ पर्यटन, मौज-मस्ती के लिए जाते हैं और कुछ बस कर्मकाण्ड निभाकर आ जाते हैं। तीर्थयात्रा भी उसी की फलती है, जिसमें पहले से कुछ भक्ति भाव हो, सत्य के लिए ग्रहणशीलता मौजूद हो। नारद जी कहते हैं जो भक्त एकनिष्ठ है, अनन्य है, उसके आने से तीर्थ वास्तव में तीर्थ होने का पूरा लाभ देते हैं, सुतीर्थ बनते हैं। ऐसे भक्तों द्वारा तीर्थों पर किए जाने वाले भजन, प्रवचन, प्रार्थनाएँ उस स्थान की तरंग बदलते हैं, उन्हें जाग्रत करते हैं, जिनका असर वहाँ उपस्थित अन्य तीर्थ यात्रियों पर भी पड़ता है।
कितने ही तीर्थ तो इन महापुरुष भक्तों के कारण ही बन गए हैं, जहाँ इनका जन्म हुआ, जहाँ इन्होंने साधनाएँ कीं और जहाँ इन्होंने शरीर छोड़ा। उस जगह पर जाने मात्र से लोगों में भक्ति का संचार होता है। यह उन महान भक्तों के भक्ति पूर्ण जीवन का ही परिणाम है, जो प्रत्यक्ष रूप से प्रकट न होकर भी भक्तों की सहायता कर रहे हैं।
आगे नारद जी ऐसे महान भक्तों के बारे में कहते हैं—वे कर्मों को सुकर्म करते हैं। आइए, इसका मर्म समझते हैं।
कर्म– सुकर्म है या कुकर्म, यह उस कर्म की बाहरी प्रकृति तय नहीं करती बल्कि उस कर्म के पीछे की भावना तय करती है। उदाहरण के लिए एक डॉक्टर इंसान के शरीर पर चाकू चलाता है तो वह ऑपरेशन कहलाता है। डॉक्टर का उद्देश्य उस इंसान को मारना नहीं बल्कि बचाना होता है। वहीं दूसरी ओर एक अपराधी किसी के शरीर पर चाकू चलाता है तो उसका उद्देश्य उसे मारना होता है।
एक इंसान जब किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए किसी दूसरे इंसान की जान ले लेता है तो वह अपराध बन जाता है किंतु जब सीमा पर कोई सैनिक दुश्मन सैनिक की जान लेता है तो वह उसका पराक्रम बन जाता है। एक जल्लाद जब किसी पापी को फाँसी के फंदे पर झूलाता है तो वह उसका कर्तव्य होता है, अपराध नहीं। तीनों उदाहरणों में बाहरी तौर पर देखा जाए तो कर्म एक ही हुआ, एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान की जान ली गई। किंतु कर्म के पीछे के भाव अलग-अलग थे इसलिए वे अलग-अलग हुए। सैनिक और जल्लाद ने अपने-अपने कर्तव्य निभाए। अगर उस समय उनकी उस इंसान के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है तो वह उनका सुकर्म है, जबकि दुर्भावना से की गई हत्या कुकर्म है।
नारद जी जब कहते हैं, 'भक्त कर्म को सुकर्म बना लेते हैं' तो इसका आशय है कि एक भक्त अपने कर्म के पीछे की भावना हमेशा शुद्ध रखता है। उसमें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता। या तो वे कर्म अकर्ता भाव से किए जाते हैं या ईश्वर के निमित्त किए जाते हैं। इसलिए बाहर से कर्म की प्रवृत्ति कैसी भी हो, भीतर से वह हमेशा सुकर्म ही होता है और भक्तों को बंधन में नहीं डालता।
इसका सटीक उदाहरण अर्जुन है। गीता सुनकर आत्मबोध होने से पूर्व उसने जो भी युद्ध किए, उनमें जो भी हत्याएँ कीं, वे सुकर्म नहीं थे क्योंकि वह उन कर्मों में आसक्त था, उन कर्मों के पीछे उसका कोई न कोई व्यक्तिगत स्वार्थ था। किंतु आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद महाभारत के युद्ध में उसने जो भी कर्म किए, जो भी हत्याएँ कीं, वे स्वयं को अकर्ता जान, ईश्वर के निमित्त पूरी समझ से की। वह एक योद्धा था और ऐसा करना उसका कर्तव्य कर्म था इसलिए वे सुकर्म हुए और वह उन कर्मों के बंधन में नहीं बँधा।
आगे नारद जी एकनिष्ठ सच्चे भक्तों की विशेषता बताते हुए कहते हैं, वे शास्त्रों को सत् शास्त्र करते हैं। आइए, इसे समझते हैं।
शास्त्र का अर्थ है ज्ञान का संकलन। ऐसा ज्ञान जो इंसान को उसकी आध्यात्मिक चेतना “मैं कौन हूँ” का बोध कराता है, जन्म और मृत्यु का रहस्य समझाता है। उसे जीवन का उद्देश्य बताकर, इस संसार में कैसे अभिव्यक्ति की जाए, यह भी सिखाता है। हज़ारों वर्ष पहले शास्त्रों को इंसानी पीढ़ियों के लिए अनुभवी आत्मज्ञानी महापुरुषों द्वारा तैयार किया गया और वे आज भी प्रासंगिक हैं। क्योंकि न तो इंसान का अज्ञान बदला है, न उसकी वृत्तियाँ और न ही कुदरत का नियम। इसलिए लोग आज भी इस ज्ञान का उतना ही लाभ ले सकते हैं, जितना प्राचीन समय में लिया गया था।
शास्त्र, सत् शास्त्र तभी होता है, जब उसका बताया ज्ञान सार्थक हो और ज्ञान तभी सार्थक होता है, जब वह ज्ञाता के केवल बुद्धि के स्तर पर न रहे बल्कि उसके जीवन में भी उतरे। किंतु ज़्यादातर लोग ज्ञान का उपयोग स्वयं को ज्ञानी सिद्ध करने में और अपने अहंकार को बढ़ाने में ही करते हैं। ऐसा हमेशा से हो रहा है। रावण महाज्ञानी था किंतु उसने वह ज्ञान व्यवहार में नहीं उतारा तभी उसके द्वारा इतने पाप कर्म हुए।
आज भी आपको अपने आस-पास ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जो बढ़चढ़कर ज्ञान वाक्य सुनाते हैं और स्वयं को बड़ा ज्ञानी समझते हैं। किंतु उनके कर्मों में उस ज्ञान की छाया भी नहीं दिखती। नारद जी कहते हैं, एक सच्चा भक्त ज्ञान को अपने जीवन में उतारता है, वह ज्ञानपूर्ण कर्म करता है। इसीलिए उसका जीवन एक आदर्श जीवन होता है, जो दूसरों के लिए भी प्रेरणा का कार्य करता है।
तन्मयाः ||७०|| ||
अर्थ : वह तन्मय (मग्न) है ।।७०।।
प्रस्तुत सूत्र में नारद जी एकांत अनन्य भक्त को तन्मय बता रहे हैं। तन्मय का अर्थ है मग्न, तल्लीन। एक सच्चा भक्त हर समय ईश्वर में ही तल्लीन रहकर भक्ति करता है।
हर समय भक्ति करने का अर्थ यह नहीं है कि वह आराध्य देव की मूर्ति के आगे बैठ, भजन-कीर्तन करता रहे या हर समय किसी आसन पर बैठ ध्यान में मग्न रहे। हर समय भक्ति करने का अर्थ है— अपने दैनिक कार्य में भी वह भक्ति की अभिव्यक्ति ही कर रहा होता है। ऐसा ज्ञान और भक्ति, वह सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ कर्म भी भक्ति हो जाते हैं।
भक्त की तल्लीनता की यह अवस्था, जो उसके कर्मरत रहने के बाद भी बनी रहती है, वास्तव में समाधि की उच्च अवस्था है। इसे हम सहज समाधि भी कह सकते हैं, जिसके लिए परिपक्व साधक को कोई विशेष प्रयास नहीं करने पड़ते। इस पर आगे बात करने से पहले जानते हैं, समाधि क्या है ?
समाधि, चेतना की वह उच्चतम अवस्था है जहाँ भक्त, भगवान और भक्ति एक हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जहाँ अनुभव, अनुभवकर्ता और जिस परम सत्य का अनुभव किया जा रहा है, तीनों का भेद समाप्त हो जाता है। जैसे समुंदर में उठी लहरें वापस समुंदर में ही विलीन हो जाएँ और फिर जब वापस उठें तो इस बोध के साथ कि 'मैं लहर नहीं, समुंदर हूँ' तो वह समाधि अवस्था है। इस अवस्था को ही मोक्ष, आत्मबोध, आत्मसाक्षात्कार, मुक्ति आदि नामों से जाना गया है।
समाधि शब्द सुनकर या उसकी कल्पना करके जो छवि जहन में उभरती है, वह पेड़ या किसी गुफा आदि में बैठे साधक की होती है, जो आँख बंद कर ध्यान कर रहा होता है। इस तरह की समाधि सविकल्प समाधि कहलाती है, जिसमें समाधि के लिए कोई न कोई आलंबन लेकर जैसे साँस, मंत्र जाप आदि का सहारा लेकर समाधि में उतरा जाता है। समाधिस्थ होने पर साधक बाहरी दुनिया से कटकर आंतरिक स्त्रोत से जुड़ जाता है। लेकिन यह समाधि की अस्थायी अवस्था होती है क्योंकि एक बार साधक समाधि से उठकर जब बाहर की दुनिया में आता है तो वह उस भाव को स्थिर नहीं रख पाता।
इससे भी आगे समाधि की ऐसी अवस्था होती है, जिसमें साधक को आँख बंद कर एक ही मुद्रा में बैठने की आवश्यकता नहीं होती। वह चलते-फिरते, उठते बैठते, अपना काम करते हुए भी भीतर से समाधिस्थ ही रहता है। मानो समाधि में ही उसका घर बन गया हो। वह सदैव उसी भाव में जीता है और उसी अवस्था से, उसी दृष्टि से जीवन निर्वाह कर, ईश्वरीय अभिव्यक्तियाँ करता है।
नारद जी जब भक्त के तन्मय होने की बात कर रहे हैं तो वे इसी सहज समाधि अवस्था को बयान कर रहे हैं, जो बाहर से नज़र नहीं आती लेकिन आंतरिक तौर पर होती है। उदाहरण के लिए संत कबीर कपड़ा बुनते हुए, दोहे गाते हुए, लोगों को ज्ञान देते हुए, ऐसे ही तन्मय रहते थे। संत रविदास जूते बनाते हुए भी समाधिस्थ रहते थे। भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, गुरु नानक, संत ज्ञानेश्वर आदि भक्तों ने इसी समाधि की अवस्था से लोगों में ज्ञान और भक्ति का प्रचार, प्रसार किया।
मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ||७१||
अर्थ : ऐसे महापुरुष के होने पर पितर प्रमुदित होते हैं,
देवता नृत्य करने लगते हैं तथा पृथ्वी सनाथा हो जाती है ।।७१।।
प्रस्तुत सूत्र में नारद जी पुनः एक सच्चे अनन्य महान भक्त की महिमा का गुणगान कर रहे हैं। इसके लिए वे रूपकों का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं- जब-जब धरती पर महापुरुष अवतरित होते हैं, देवता नृत्य करने लगते हैं, पृथ्वी हर्षित होती है। उस महापुरुष के पूर्वज भी अत्यंत प्रसन्न होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अच्छी संतानें अपनी पिछली सात पुश्तों और अगली सात पीढ़ियों को तारती हैं। उनकी प्रार्थनाएँ, उनकी भावनाएँ और उनके कर्म पूर्वजों का भी उद्धार करते हैं क्योंकि वे उनके लिए क्षमा प्रार्थना करते हैं, उनके निमित्त सत्कर्म करते हैं, जिसका फल पूर्वजों को भी प्राप्त होता है। वे अपने सत् जीवन से जो आदर्श और संस्कार स्थापित करते हैं, उसका प्रभाव उनकी अगली पीढ़ियों पर भी रहता है। इस तरह से वे अपने पूरे कुल के तारक यानी उन्हें भवसागर से तारने वाले कहलाते हैं।
देवता प्रतीक हैं, दिव्य गुणों का। एक महान भक्त के शरीर से अलग-अलग दिव्य गुणों की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। सद्भावना, क्षमा, शीलता, अहिंसा, करुणा, प्रेम, शांति, आनंद, सत्य जैसे गुण उनके व्यक्तित्व की पहचान होते हैं, जिनका सकारात्मक प्रभाव उनके संपर्क में आनेवालों पर भी पड़ता है।
यह पृथ्वी जो न जाने कितने पापियों, दुराचारियों का बोझ उठाए उनके कुकर्मों का कष्ट झेलती है, वह ऐसे सत् पुरुष की लीला से अपार हर्षित होती है। क्योंकि ऐसा सत् पुरुष अपने विचारों और कर्मों से अपना जीवन ही सार्थक नहीं करता बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों को सत्य और मानवता की राह दिखाकर, उनका जीवन भी सार्थक करता है, जिससे संपूर्ण पृथ्वी की चेतना बढ़ती है।
भक्ति काल (१४वीं-१५वीं शताब्दी) के समय जब संपूर्ण भारत विदेशी आक्रमणकारियों, युद्धों और निर्दयी शासकों के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रहा था, जगह-जगह पूजा स्थलों को तोड़ा जा रहा था; ऐसे निराशापूर्ण समय में कबीरदास, संत रविदास, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, स्वामी हरिदास, रसखान, चैतन्य महाप्रभु जैसे भक्तों ने समाज की चेतना को उठाए रखा। उनमें ईश्वर के प्रति विश्वास बनाए रखा।
जैसे सूर्य स्वयं ही प्रकाशित नहीं होता अपितु अपनी ऊर्जा से पूरे संसार को प्रकाशित करता है, ऐसे ही महान भक्त अपनी अभिव्यक्तियों से पूरे संसार को प्रकाशित करते हैं। वे लोग निश्चय ही अति सौभाग्यशाली होते हैं, जिन्हें ऐसे किसी महान संत का जीते जी सानिध्य प्राप्त होता है। यदि आप पर यह कृपा हुई है तो उसका पूरा-पूरा लाभ लें।
नास्ति तेषु जातिविद्यारूप कुलधनक्रियादिभेदः ॥७२॥ यतस्तदीयाः ||७३||
अर्थ : उनमें जाति, विद्या, रूप, कुल, धन तथा क्रियादि का भेद नहीं होता।। ७२ ।। क्योंकि सभी भक्त भगवान के ही हैं ।।७३।।
आपसे यदि पूछा जाए कि आप इस संसार को, संसार की चीज़ों को, लोगों को किससे देखते हैं? तो आपका जवाब होगा, आँखों से। ऊपरी तौर पर यह जवाब भले ही सही लगे किंतु सत्य तो यह है कि आँखें सिर्फ साधन है, हम बाहर के जगत को अपने मन से देखते हैं। हमारी मान्यताएँ, हमारी विचारधारा ही हमें बाहरी जगत का दर्शन कराती हैं।
जिस चीज़ के प्रति और जिस इंसान के प्रति हमारी जैसी धारणा होती है, वह हमें वैसा ही दिखता है। उदाहरण के लिए अगर हम सिनेमा प्रेमी हैं तो हमारे हृदय में अभिनेताओं के लिए बहुत सम्मान होगा, उन्हें हम उच्च दृष्टि से देखेंगे। अगर हमारे मन में उनके प्रति अच्छे भाव नहीं हैं तो उन्हें हम हेय दृष्टि से देखेंगे। बहुत से लोग सामने वाले का धन, पद, स्टेट्स आदि देखकर उनके प्रति अपनी धारणा तय करते हैं और जैसी धारणा, वैसी ही हमारी दृष्टि हो जाती है।
तुलसीदास जी भी कहकर गए हैं 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।' हर एक जीव में ईश्वर ही है। हर कोई उसी की मूर्ति है लेकिन जिनके मन में जैसा भाव होता है, उसे सामने वाला वैसा ही दिखाई देता है।
सामान्यजन सामने दिख रहे लोगों को ईश्वर से और स्वयं से अलग मानते हैं। फिर उन्हें अपनी मान्यताओं के अनुसार देखते हैं। किंतु एक भक्त हमेशा समभाव में ही रहता है। वह हर किसी में उसी एक ईश्वर के दर्शन करता है। चाहे उसके सामने कोई राजा खड़ा हो या रंक, रूपवान हो या बदसूरत, किसी भी जाति, कुल का हो, विद्वान हो या अनपढ़... उसे वे सब एक समान ही नज़र आते हैं। क्योंकि वह जानता है, वे सभी ईश्वर के अलग-अलग रूप हैं। उसका व्यवहार, उसकी दृष्टि लोगों की अवस्था देखकर नहीं बदलती। वह सबसे समान व्यवहार करता है। नारदजी ७२वें और ७३वें सूत्र में भक्त की इसी समभाव अवस्था का वर्णन कर रहे हैं।