Naari Bhakti Sutra - 5 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 5. आध्यात्मिक प्रेम और सांसारिक आसक्ति में अंतर

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नारद भक्ति सूत्र - 5. आध्यात्मिक प्रेम और सांसारिक आसक्ति में अंतर


5.

आध्यात्मिक प्रेम और सांसारिक आसक्ति में अंतर

अस्त्येवमेवम् ||२०||
यथा व्रजगोपिकानाम ||२१|| 
तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ||२२|| 
तद्विहीनं जावाणामिव। ||२३|| 
नास्त्येव तस्मिन तत्सुखसुखित्वम्। ||२४||

अर्थ : यही भक्ति है ।।२०।। जैसे व्रज की गोपिकाएँ (करती हैं) ।।२१।। उसमें (गोपी प्रेम में) भी माहात्म्य ज्ञान (सत्य का ज्ञान) का अभाव नहीं था ||२२|| उससे (सत्य का ज्ञान) विहीन भक्ति, जार भक्ति (सांसारिक प्रेम) हो जाती है ||२३|| उसमें (जार प्रेम में) वह (ईश्वरीय आनंद का) सुख नहीं है ||२४||

नारदजी ने १९ वें भक्तिसूत्र में भक्ति के ऊपर अपना मत प्रकट किया था कि वे भाव, विचार, वाणी, क्रिया से उसी एक प्यारे ईश्वर को समर्पित हो जाना ही भक्ति है। साथ ही हर वक्त उसकी याद में डूबे रहना और उसका पलभर भी विस्मरण होने पर अत्यंत व्याकुल हो जाना, यही असली भक्ति है। अपने २० वें सूत्र में उन्होंने पुनः अपने मत पर जोर देते हुए कहा है, 'हाँ यही भक्ति है।' २१ वें सूत्र में वे अपने इस मत का उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं, जो निश्चय ही संसार में भक्ति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और वह है ब्रज की गोपियों का, जिनमें राधारानी भी शामिल हैं।

ईश्वर के प्रति सच्ची समर्पित भक्ति कैसी होनी चाहिए, यदि उन सभी कसौटियों को इकट्ठा कर एक मूर्त रूप में ढाला जाए तो निश्चय ही वृंदावन के गोप-गोपियों की मूरत बनेगी। बेशर्त, बेपनाह, पूर्ण समर्पित भक्ति क्या होती है, यह गोपियों की कथाएँ पढ़कर जाना जा सकता है। उनके आचरण से सीखा जा सकता है कि जो हृदय से ईश्वर के अथाह प्रेम में डूबकर भक्ति करते हैं, उन्हें भगवान को पाने के लिए न तो बड़ी-बड़ी ज्ञान पोथियों को पढ़ने की ज़रूरत है, न ही बड़े-बड़े विधि-विधान अपनाने की। न ही कोई कर्मकाण्ड करने की और न ही जप-तप इत्यादि करने की। उन्हें घर छोड़कर संन्यास लेने की अथवा संसार से वैरागी हो जाने की भी ज़रूरत नहीं है। उनका ईश्वर के प्रति सच्चा, शुद्ध, समर्पित, निष्काम प्रेम ही उन्हें ईश्वर से मिला देता है।

वृंदावन के गोप-गोपियों की भक्ति उस स्तर की थी, जहाँ वे कृष्ण के साथ नहीं बल्कि कृष्ण बनकर ही जी रही थीं और इस बात की पुष्टि उद्धव ने भी की। उद्भव ऐसे तत्त्वज्ञानी थे जो भक्ति के बजाय ज्ञानमार्ग को ज़्यादा श्रेष्ठ समझते थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें वृंदावन जाकर अपनी विरह में डूबे गोप-गोपियों को ज्ञान देने को कहा था ताकि उनका क्लांत हृदय शांत हो सके। उद्धव बड़े आत्मविश्वास से वृंदावन गए और सबको ज्ञान देने लगे। लेकिन गोप-गोपियों की भक्ति और विरह की ऐसी दशा देखी और उससे ऐसे प्रभावित हुए कि अपना सारा ज्ञान भूलकर, उन्हीं की भाँति 'सुध-बुध खोकर भक्ति रस में डूब गए। उन्हें जो परम आनंद भक्ति रस में डूबकर मिला, वह ज्ञान मार्ग पर चलकर कभी नहीं मिला था।

अपने अगले सूत्र में नारदजी गोपियों के प्रेम के बारे में बताते हुए कहते हैं, 'उनके प्रेम में सत्य के ज्ञान का अभाव नहीं था।' अर्थात वे जानती थी कि 'श्रीकृष्ण कौन हैं?' वे श्रीकृष्ण को एक शरीर मानकर नहीं देखती बल्कि उनमें ईश्वरीय तत्त्व के ही दर्शन करती थी। उनका प्रेम सांसारिक स्त्री-पुरुष का प्रेम नहीं था। उनका प्रेम आध्यात्मिक स्तर का था, जो भक्त को भगवान से होता है।

अगले सूत्र में नारदजी कहते हैं, 'जिस प्रेम में सत्य का बोध नहीं है, वह सांसारिक प्रेम हो जाता है या कहें सांसारिक प्रेम में आध्यात्मिक तत्त्व का अभाव रहता है। इसीलिए वहाँ पर अपेक्षाएँ, लालच, आसक्ति हावी रहती है।' ऐसे प्रेम में ईश्वरीय आनंद नहीं होता बल्कि दुःख होता है। उदाहरण के लिए श्रीराम में उनके पिता दशरथ की अत्यधिक आसक्ति थी। वे उन्हें अपना पुत्र समझकर ही प्रेम करते थे इसीलिए उनके वनवास जाने पर उन्हें इतनी पीड़ा हुई कि उन्होंने प्राण त्याग दिए।

वहीं दूसरी ओर केवट, शबरी, हनुमान, विभीषण जैसे भक्तों को श्रीराम के ईश्वरीय तत्त्व की पहचान थी। वे उनमें साक्षात् ईश्वर को ही देखते थे इसलिए उनका जितना भी साथ इन भक्तों को मिला, उसे उन्होंने कृपा समझकर स्वीकार किया और श्रीराम के दूर जाने पर पीड़ा का अनुभव नहीं किया क्योंकि भक्तों के लिए भगवान कभी दूर जाते ही नहीं।

नारदजी ने २४ वें सूत्र में कहा है, 'जिस प्रेम में आध्यात्मिकता का अभाव है, वह सुख और आनंद का नहीं बल्कि दुःख का जनक होता है। इसलिए ईश्वर की पहचान से रहित भक्ति, भक्ति नहीं है।'

सा तु कर्मज्ञान योगेभ्यो-प्यधिकता।।२५।। 
फलरूपत्वात्।।२६।।
अर्थ : वह तो कर्म, ज्ञान तथा योग से अधिक श्रेष्ठ है।।२५।। क्योंकि भक्ति फलरूपा है ।।२६।।

नारदमुनि जी अपने २५वें सूत्र में भक्ति की महिमा का बखान करते हुए कह रहे हैं- 'भक्ति कर्म, ज्ञान तथा योग से अधिक श्रेष्ठ है।' यहाँ पर समझने वाली बात यह है कि भक्ति को इन तीनों मार्ग से श्रेष्ठ किसलिए बताया गया है। सामान्यतः अध्यात्म में कर्म, ज्ञान, योग, भक्ति ये सभी ईश्वर को पाने के मार्ग बताए गए हैं। आध्यात्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि यदि आप इनमें से किसी भी मार्ग से चलेंगे तो ईश्वर तक पहुँच जाएँगे। ऐसे में यदि एक मार्ग को दूसरे से श्रेष्ठ बताया जाए उस मार्ग पर चलने वाले निश्चय ही इसका विरोध करेंगे।

"वास्तव में देखा जाए तो भक्ति कोई मार्ग नहीं है इसीलिए इसे बाकी मार्ग जैसे कर्म, ज्ञान और योग के समानांतर या श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। बल्कि भक्ति तो किसी भी आध्यात्मिक मार्ग का अंतिम सोपान है। आप किसी भी मार्ग से सत्य प्राप्ति की राह पर चल रहे हैं, उसके अंत में यदि भक्ति नहीं मिली तो ईश्वर प्राप्ति असंभव है क्योंकि भक्ति ही ईश्वर को पाने की अनिवार्यता है। कुछ लोग अपना सफर ही भक्ति के सहारे शुरू करते हैं- जैसे मीरा, शबरी, चैतन्य महाप्रभु आदि। ऐसे भक्तों को वर्गीकृत करने के लिए इसे भी एक मार्ग का नाम दे दिया गया।

एक कर्मयोगी को जब भक्ति मिलती है तो उसका कर्तापन का अहंकार टूट है। जब एक योगी को भक्ति मिलती है तो उसके अंदर सिद्धियों के लिए और आकर्षण शेष नहीं रहते। जब एक ज्ञानी को भक्ति मिलती है तो उसे अपने ज्ञानी होने का अहंकार नहीं रहता, न ही वह किसी को स्वयं से कम समझता है। बल्कि उसे बड़े-बड़े ज्ञान ग्रंथों में कोई रुचि ही नहीं रहती क्योंकि वह भक्ति में ही परमआनंद पा लेता है।

दरअसल ईश्वर कोई सब्जेक्ट या रहस्य नहीं है, जिसे ज्ञान से समझकर पा लिया जाता है। न ही यह कोई ऑब्जेक्ट है, जिसे कर्म कर-करके प्राप्त कर लिया जाए। इसे पाने के लिए तो खुद को खोना पड़ता है और खुद को खोने के लिए चाहिए निःस्वार्थ प्रेम, पूर्ण समर्पण, पूर्ण विश्वास और अनन्य श्रद्धा । इन गुणों के उत्पन्न होने पर ही इंसान का अहंकार पिघलता है और अहंकार पिघलने पर ही ईश्वर मिलता है। ये सभी गुण भक्ति की अवस्था के ही गुण हैं। आप जिस भी मार्ग से चलें यदि चलते-चलते आपमें ईश्वर के लिए अनन्य प्रेम, श्रद्धा, विश्वास और समर्पण पैदा हो गया, आप सब कुछ भूलकर उसी के हो गए तो इसका अर्थ है आपने भक्ति को पा लिया। अब आपका ईश्वर से योग निश्चित है।

कुछ साधकों को भक्ति बड़ी मेहनत से प्राप्त होती है और कुछ सहज ही इस भाव में स्थापित हो जाते हैं, जैसे मीरा हुई। इसीलिए नारदमुनि जी अपने अगले सूत्र में कहते हैं, 'भक्ति 'फल रूपा' है' अर्थात भक्ति कोई मार्ग नहीं बल्कि आउटकम यानी फल है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि भक्ति ही वह मंज़िल है, जिसे पाने के लिए अध्यात्म में अलग-अलग मार्ग बने हैं। सारी साधना इसी की प्राप्ति के लिए बनी है। भक्ति मिल गई तो समझिए ईश्वर मिल गया।

जैसे बिल्ली का बच्चा सिर्फ इतना ही जानता है कि म्याऊँ म्याऊँ करके अपनी माँ को कैसे पास बुलाना है, आगे क्या करना है, कैसे करना है, ये सब बिल्ली को पता होता है। ठीक इसी तरह भक्त भी अगर यह जान ले कि ईश्वर को कैसे पुकारना है तो फिर ईश्वर स्वयं आगे आकर भक्तों की बागडोर अपने हाथ में ले लेता है। फिर उनका जीवन ईश्वरीय इच्छा से ही चलता है और ईश्वरीय इच्छा ही भक्त की इच्छा बन जाती है।

इसलिए अगर आप वास्तव में ईश्वर के खोजी हैं, उसे पाना चाहते हैं तो सबसे पहले यही प्रार्थना करनी आरंभ करें कि 'हे ईश्वर मुझे अपनी भक्ति दो, मुझे अपना प्रेम दो।' दिन-रात सच्चे मन से यही पुकार करें तो ईश्वर स्वयं आपकी ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ले लेगा और आपके आस-पास ऐसी व्यवस्थाएँ कर देगा जिससे आपकी भक्ति बढ़ेगी।

ईश्ववक्याप्य भिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ||२७||
अर्थ : ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष भाव है तथा दीन भाव प्रिय है।। २७।।

२७ वें सूत्र में नारदमुनि जी भक्ति के दो गुणों की महिमा का बखान करते हुए कह रहे हैं— दो गुण ईश्वर को बहुत प्रिय हैं। पहला– अभिमान से द्वेष और दूसरा दीन भाव। आइए, इन दोनों गुणों को संक्षिप्त में समझते हैं।

अभिमान से द्वेष करने का अभिप्राय वास्तव में अहंकार शून्यता को पाना है। एक भक्त ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे उसका अहंकार पोषित हो। न ही वह ऐसा कोई भाव मन में लाता है क्योंकि वह जानता है, यदि उसके भीतर अहंकार ने जड़ें जमा ली तो उसे ईश्वर के चरणों में जगह नहीं मिलेगी, उसकी भक्ति सार्थक नहीं होगी। इसीलिए वह अपने हर कर्म, हर सफलता का श्रेय सिर्फ ईश्वर को देता है और हर असफलता को भी ईश्वर का प्रसाद मानकर ग्रहण करता है।

उदाहरण के लिए रावण भी शिव भक्त था लेकिन वह अहंकार के मान में चूर था। इसीलिए इतना शक्तिशाली होते हुए भी उसका पतन हुआ। वहीं दूसरी ओर हनुमान भी परम शक्तिशाली और ज्ञानी रामभक्त थे किंतु उनमें नाममात्र का भी अहंकार नहीं था। वे अपने हर काम का श्रेय श्रीराम को देते थे इसलिए वे परमभक्त कहलाए।

दूसरा भाव है दीन भाव। अर्थात ईश्वर के सामने स्वयं को नगण्य मानना । एक दीन भाव उत्पन्न होता है मजबूरी में, अभाव में... और एक दीन भाव उत्पन्न होता है भक्ति में... ईश्वर प्रेम में। समस्त साधनों से संपन्न होते हुए भी एक भक्त, ईश्वर के सामने सदैव स्वयं को तुच्छ ही समझता है और उसकी कृपा पाने को लालायित रहता है। इतिहास गवाह है कि भक्ति में बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ने अपने सिंहासन त्यागकर वनों की शरण ली, संन्यासियों सा जीवन जीया यानी समर्थ होने के बावजूद दीन भाव को अपनाया।

दीनता का भाव आपको झुकाता है, समर्पित करता है, आपसे प्रार्थनाएँ करवाता है और भक्ति के लिए यह ज़रूरी है। इसीलिए नारद जी कहते हैं, जो भक्त इन दोनों गुणों से युक्त है वह ईश्वर को सदा ही प्रिय है।