Naari Bhakti Sutra - 18 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 18. भक्ति की रक्षा

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नारद भक्ति सूत्र - 18. भक्ति की रक्षा

18.
भक्ति की रक्षा

स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ||६३||
अर्थ : वासना, धन, नास्तिक तथा वैरी का श्रवण नहीं करना चाहिए ।।६३।।

भक्ति कोई ऐसा स्थूल खज़ाना नहीं है, जिसे आपने एक बार पा लिया और तिजोरी में बंद करके रख दिया तो वह आपके पास सुरक्षित रहेगी। फिर आप उस खज़ाने को कितने भी समय बाद खोलकर देखें, वह उतने का उतना ही मिलेगा। भक्ति, एक भाव है जिसे बनाए रखने के लिए और समृद्ध करने के लिए आपको निरंतर प्रयासरत रहना होगा। उन सभी बातों से, संगो से दूर रहना होगा, जो उस भाव को समाप्त कर सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो आपको भक्ति की रक्षा में हरदम तैनात रहना होगा। नारद जी ६३वें सूत्र सहित अगले तीन सूत्रों में भक्ति की रक्षा के उपाय बता रहे हैं।

वे कहते हैं – भक्त को कुछ संगों से दूर रहना चाहिए और उनकी नहीं सुननी चाहिए। इनमें पहला संग है स्त्री का। यहाँ पर स्त्री का तात्पर्य महिलाओं से नहीं है। पुरातन धार्मिक ग्रंथों में वासना और मन की चंचलता को स्त्री शब्द से संबोधित किया जाता था। बाकी महिला और पुरुष सभी भक्त हो सकते हैं और दोनों को ही नारदजी अपना यह उपदेश दे रहे हैं। पुरुष हो या महिला, दोनों को ऐसी चीज़ों का श्रवण, दर्शन, पठन आदि नहीं करना चाहिए, जो उनमें वासना और कामनाओं की वृद्धि करे, जो उनके मन को चंचल गति दे।

यह मन की विशेषता होती है कि वह मायावी प्रलोभनों की ओर जल्दी आकर्षित होता है। भक्ति में उसे शांत और समर्पित होकर बैठना पड़ता है। जबकि माया में उसे घूमने की, उछल-कूद मचाने की आज़ादी मिलती है। मन जिस चीज़ का श्रवण करेगा, दर्शन करेगा, उसी में विचरण करेगा। इसलिए मन को सदैव सत्य के ही श्रवण, पठन, मनन, चिंतन आदि में लगाना चाहिए।

दूसरा कुसंग नारद जी धन का बताते हैं। आजीविका के लिए धन कमाने में कोई बुराई नहीं है। किंतु धन का मोह और लालच नहीं होना चाहिए। यदि आपके पास गुज़ारे लायक पर्याप्त धन है, फिर भी आप दिन-रात यही सोचते रहते हैं कि इस धन को कैसे बढाऊँ... दो का चार कैसे करूँ? तो ये सोच आपको भक्ति से हटा देगी। फिर आप ईश्वर की नहीं बल्कि धन की भक्ति में ही लग जाएँगे।

अपने सूत्र में नारदजी जब कहते हैं कि धन का श्रवण नहीं करना चाहिए तो इसका अर्थ यह है कि ऐसे लोगों के साथ नहीं रहना चाहिए और उनकी बातें नहीं सुननी चाहिए, जो सिर्फ धन की भक्ति करते हैं। जिनका एकमात्र उद्देश्य ही ज़्यादा से ज़्यादा धन और सुविधाएँ इकट्ठा करना है क्योंकि उनकी बातें वैसी ही होंगी। अगर आप उनकी संगती में रहेंगे तो आपका दिमाग भी वैसा ही चलने लगेगा। सब कुछ होते हुए भी आपको अपने पास अभाव नज़र आने लगेंगे। यहाँ तक कि आप अभाव के भाव में ही सोचने लगेंगे, 'मैं व्यर्थ ही भक्ति के चक्कर में अपना समय और ऊर्जा नष्ट कर रहा हूँ, इससे अच्छा तो किसी दूसरे काम में लग जाऊँ ताकि ज़्यादा धन कमा सकूँ।' धनार्थी लोग अपनी जगह सही हैं क्योंकि उनका उद्देश्य ही वही है। किंतु जिनका उद्देश्य भक्ति और ईश्वर प्राप्ति है, उन्हें धन लोलुप व्यक्तियों के संग से खतरा है।

आजकल ऐसे बहुत से फ्री मोटिवेशनल सेमिनार्स के एडवर्टाइजमेंट आते रहते हैं, जो आपको सिखाते हैं, 'सफल बिजनेसमैन कैसे बनें', 'कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा धनवान कैसे बने' आदि। ऐसी जगह जा-जाकर, उन्हें सुनने से आपके भाव भी वैसे ही हो जाएँगे, आपको वही सही लगने लगेगा। इसलिए अपने लक्ष्य को निरंतर याद रखते हुए, ज़रूरत लायक धन की व्यवस्था करते हुए, बाकी समय भक्ति पर ही फोकस रखना चाहिए।

नारद जी किसी नास्तिक व्यक्ति की बातों को सुनने को भी मना कर रहे हैं। कारण स्पष्ट है नास्तिक अपने तर्कों से, अपनी बातों से आपकी भक्ति और ईश्वर पर सवाल खड़े कर सकता है, जिससे आपके मन में भी संशय और भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। एक कहानी है जिसके अनुसार एक बार एक आस्तिक और एक नास्तिक में जमकर वाद-विवाद हुआ। उसका परिणाम यह निकला कि अंत में आस्तिक, नास्तिक हो गया और नास्तिक, आस्तिक।

अतः कोई भी ऐसा कर्म, दर्शन, श्रवण, पठन आदि आपको आपकी भक्ति से हिला सकता है, उससे दूर ही रहना चाहिए।

आगे नारदजी वैरी की बातों को सुनने से मना करते हैं क्योंकि जो आपका हितेषी नहीं है, वह आपका हर हाल में बुरा ही चाहेगा। जिस चीज़ में आपको सुख मिलता है, वह उस चीज़ को आपसे छीनना चाहेगा। यदि आपको भक्ति में सुख मिलता है तो उसकी कोशिश रहेगी कि वह किसी तरह से आपकी भक्ति छीन ले।

भक्तों को कभी भी निरर्थक वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। न ही किसी के साथ ज़बरदस्ती की कोशिश करनी चाहिए कि उसे भी अपने मार्ग पर चलाए। वरना नकारात्मक लोग भक्तों को उलटा प्रभावित कर जाते हैं। इसलिए सारे प्रपंच से दूर रहकर भक्तों को सिर्फ अपने भक्ति पर ही ध्यान देना चाहिए।

अभिमान, दंभ की पहचान 
अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ||६४||
अर्थ : अभिमान, दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए ||६४||

अभिमान और दंभ (दिखावा, आडंबर, पाखंड) ऐसे विकार हैं, जो भक्त के लिए सबसे ज़्यादा हानिकारक हैं। एक भक्त भक्ति का दामन थामकर बाकी सभी विकारों जैसे हिंसा, द्वेष, आसक्ति, कामना, क्रोध आदि से तो बच जाता है किंतु उसे भक्ति का ही अभिमान हो जाए, वह भक्ति का ही दंभ आचरण करने लगे तो फिर ईश्वर भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते।

भक्त का यह अभिमान 'मैं बड़ा भक्त हूँ' ही उसके पतन के लिए पर्याप्त है।

सभी महान संतों ने ऐसी अनेक पौराणिक कहानियाँ बनाई हुई हैं, जिसमें दिखाया गया है कि जब-जब भक्त ने अभिमान किया या भक्ति में दंभ आचरण किया तो ईश्वर ने स्वयं अपनी लीला से उसका मस्तक झुकाया। स्वयं नारदमुनि के विषय में ऐसी अनेक कथाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें भगवान ने उनका भक्ति का अहंकार तोड़ा। किंतु ये कथाएँ अभिमानी भक्तों को शिक्षा देने के लिए ही रची गई हैं।

एक कथा के अनुसार नारदमुनि को अपनी भक्ति पर बड़ा अभिमान हो गया था। एक बार वे अपनी प्रशंसा सुनने हेतु विष्णु जी के पास गए और उनसे पूछने लगे— 'भगवान आपकी नज़र में आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है ?' उनका सोचना था कि विष्णु भगवान उनका नाम लेंगे लेकिन उन्होंने पृथ्वी पर रहने वाले एक किसान का नाम लिया। यह सुनकर नारद जी चिढ़ गए और सोचने लगे, उस किसान को देखकर आता हूँ, आखिर वह ऐसी कौन सी तपस्या कर रहा है, जिस कारण प्रभु ने उसे मुझसे बड़ा भक्त मान लिया।

उस किसान को चोरी-छिपे देखने पर नारदजी ने पाया कि यह तो सारा दिन अपना काम ही करता रहता है, कभी बैठकर कोई जप-तप नहीं करता, न ही कोई स्तुति गाता है।

उन्हें भगवान विष्णु पर मन ही मन गुस्सा आता है कि मैं तो उनकी भक्ति में कितना कुछ करता हूँ और वह मेरे बजाय इस किसान को बड़ा भक्त मानते हैं जो न मंदिर जाता है, न पूजा-पाठ करता है...।

नारदजी जब अपनी शिकायत लेकर भगवान विष्णु के पास गए तो सारी बात सुनकर भगवान विष्णु नारदजी को एक तेल से भरा हुआ पात्र देते हैं और कहते हैं, 'इसे सावधानी पूर्वक हाथ में लो और पूरे विश्व की परिक्रमा करके आओ। ध्यान रहे, तेल की एक बूँद भी इस पात्र से बाहर नहीं गिरनी चाहिए। अगर तुम ऐसा कर पाते हो तो मैं मान लूँगा तुम मेरे सबसे बड़े भक्त हो।'

यह सुनकर नारदजी खुशी-खुशी वह कार्य करने के लिए चल दिए। उन्होंने परिक्रमा करते हुए पूरे मनोयोग से तेल के पात्र का ध्यान रखा। पूरी सावधानी बरती, जिससे पात्र से एक बूँद भी तेल नीचे नहीं गिरा और वे अपनी परिक्रमा सकुशल पूरी कर, भगवान विष्णु के सामने प्रसन्नता से हाज़िर हो गए।

नारदमुनि कहने लगे, 'देखिए प्रभु आपके कहे अनुसार मैंने एक बूँद भी तेल गिरने नहीं दिया, अब तो आप मानते हैं न कि मैं आपका सबसे बड़ा भक्त हूँ।'

यह सुनकर भगवान विष्णु हँसने लगे और बोले, 'अच्छा यह तो बताओ इस बीच तुमने मुझे कितनी बार याद किया?' इस पर नारदजी चुप हो गए और सोचने लगे, इस दौरान तो मैं एक बार भी प्रभु को याद नहीं कर पाया। सारा ध्यान तेल के पात्र पर ही लगा रहा। जब उन्होंने यह बात भगवान विष्णु से कही तो वे हँसकर कहने लगे, 'देखा! वह किसान सुबह से लेकर रात तक अपना काम करता रहता है, फिर भी वह हर क्षण मन से मेरा ध्यान करता रहता है। जबकि तुम्हें मैंने सिर्फ एक काम कहा था और तुम मेरा ध्यान भूल गए तो फिर कौन बड़ा भक्त हुआ तुम कि वह किसान ?' नारदजी को अपनी भूल समझ आई और उनका भक्ति का अहंकार टूट गया।

ऐसी ही एक कहानी राजा बली से जुड़ी है, जो राक्षस कुल के राजा थे। वे महान भक्त प्रह्लाद के वंशज थे। स्वभाव से वे बड़े विष्णु भक्त, पराक्रमी और दानी थे लेकिन उनमें अपनी भक्ति और दानवीरता का घमंड भी था। वे उसका प्रदर्शन भी करते थे। एक बार भगवान विष्णु के मन में राजा बली का घमंड तोड़ने का विचार आया और वे वामन अवतार लेकर यानी एक छोटा ब्राह्मण बालक बनकर उनके यज्ञ में पहुँच गए, जहाँ वे खूब दान आदि कर रहे थे।

जब वामन को दान देने की बारी आई तो राजा बली ने उनसे बड़े गर्व से दान माँगने के लिए कहा। वामन बोले, 'राजन सोच-समझकर दान देने का संकल्प लें। हो सकता है, मैं जो माँगू वह आप देने में सक्षम ही न हों।' इस बात ने राजा बली के अहंकार को चोट पहुँचाई क्योंकि उनकी नज़र में ऐसा कोई दान नहीं था, जो वे देने में सक्षम न हों। उन्होंने बड़े गर्व से भरकर उस नन्हें वामन बालक को मनचाहा दान देने का संकल्प लिया। तब वामन अवतार लिए हुए विष्णु भगवान ने राजा बली से राज्य में तीन पग ज़मीन माँग ली। राजा बली मुस्कराए और बोले, 'तीन पग ज़मीन तो बहुत छोटा-सा दान है, कोई बड़ा दान माँग लीजिए।' पर भगवान के वामन अवतार ने उनसे तीन पग ज़मीन ही माँगी।

तब राजा बली ने उन्हें तीन पग जमीन दान में देने की घोषणा की। इसके बाद विष्णु भगवान ने अपना विराट रूप धारण किया और दो पग में राजा बली के पूरे राज्य को नाप दिया। अब तीसरे पग के लिए राजा बली के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था।

तब भगवान ने राजा बली से पूछा, 'अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ?' राजा बली समझ गए कि ये वामन वेष में कोई और नहीं स्वयं भगवान उनकी परीक्षा लेने आए हैं तब राजा बली का अहंकार टूटा और उन्होंने तीसरे पग के लिए अपने मस्तक को उनके चरणों में रख दिया।

मस्तक हमारे अभिमान का, अहंकार का प्रतीक होता है, उसे ईश्वर के चरणों में रखकर ही भक्त मुक्ति को पा सकता है। एक कहावत है ना, 'हाथी निकल गया, पूँछ अटक गई' अर्थात बड़ी-बड़ी मुसीबतों से पार पा लिया लेकिन छोटी सी बात में उलझकर रह गए। बस अभिमान और दंभाचरण भी भक्त के लिए हाथी की पूँछ समान है, जो अटक जाती है। बहुत से भक्तों को अपने अच्छे कर्म दान, सेवा आदि का प्रदर्शन करने में सुख मिलता है ताकि लोग उनकी प्रशंसा करें, जबकि ऐसी प्रशंसा भक्त के मन को मोटा कर देती है। सच्चे भक्त को बुराई-भलाई, मान-अपमान आदि में समभाव रहकर अकर्ता भाव से भक्ति, सेवा, दान आदि कर्म करने चाहिए।

तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ।।६५।।
अर्थ : सब आचार भगवान को अर्पण कर देने पर भी यदि काम, क्रोध अभिमानादि हों तो उन्हें भी भगवान के प्रति ही करना चाहिए ।।६५।।

नारदजी ने पिछले सूत्रों में कहा था कि भक्तों को अपना कर्म और कर्म का फल दोनों ही ईश्वर को अर्पित कर देने चाहिए। बावजूद सभी प्रयासों के यदि भक्तों में अभी भी कुछ विकार बचे हैं, जैसे काम, क्रोध, अभिमान आदि तो भी उसके लिए कोई अपराध बोध नहीं पालना चाहिए कि 'मैं इतना प्रयास कर रहा हूँ मगर मेरे ये विकार और दुर्गुण तो दूर ही नहीं हो रहे।'

भक्तों को अपनी जीवन नैया पूरी तरह ईश्वर के हाथों सौंप देनी चाहिए और उसी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे ईश्वर मुझे सभी विकारों से मुक्त करो और अपने भक्ति का प्रसाद दो।' ऐसी प्रार्थना करने पर आप पाएँगे कि विकार धीरे-धीरे स्वयं ही समाप्त हो जाएँगे।

अगर कभी कोई विकार हावी हो तो उसकी ग्लानि लेकर न बैठ जाएँ बल्कि उसे भी ईश्वर को समर्पित कर दें और बस साक्षी भाव से जीवन जीएँ। अपने मन और शरीर को दृष्टा बनकर देखें कि अब कौन सा विकार उठ रहा है। जो उठ रहा है, उसे ईश्वर को समर्पित कर दें। साक्षी भाव से देखने पर विकार की ताकत कम होगी। निरंतर भक्ति में रहने से गहरी से गहरी वृत्ति, बड़े से बड़ा विकार भी हलका होता जाएगा और एक दिन संपूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगा।