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विभिन्न मतों से भक्ति के लक्षण
तलक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ||१५||
पूजादिष्वनुराग इति पराशर्यः। ।।१६।।
कथादिष्विति गर्गः। ।।१७।।
अर्थ : (नारद जी) अब नाना मतों से भक्ति के लक्षण कहते हैं ।।१५।।
पूजा आदि में अनुराग भक्ति है, ऐसा पाराशर वेद व्यास जी कहते हैं ॥१६।।
गर्ग जी के अनुसार भक्ति, कथा आदि में अनुराग है ।।१७।।
नारदजी ने इन भक्ति सूत्रों में अपने दृष्टिकोण से भक्ति की महिमा का गुणगान किया है। प्रस्तुत सूत्रों में उन्होंने भक्ति पर अन्य महान भक्तों का भी मत प्रकट किया है। सूत्र १६ में नारद जी कहते हैं– ऋषि पाराशर, वेद व्यास जी के अनुसार पूजा-पाठ, ईश्वर स्तुति, अर्चना आदि में अनुराग भक्ति है। ऋषि गर्ग जी के अनुसार ईश्वर की कथाएँ सुनने में रस आना भक्त के लक्षण हैं।
देखा जाए तो दोनों ही साकार भक्ति के तरीके हैं। इनमें भक्त ईश्वर के किसी साकार रूप में अपनी श्रद्धा स्थापित करता है और उस रूप विशेष में ईश्वर को अनुभव कर, भक्ति में लीन रहता है। ईश्वर के उस रूप विशेष के प्रति पूजा के जो-जो भी नियम हैं, वह उनका पालन करता है। जो लोग भगवान कृष्ण की बाल स्वरूप स्तुति करते हैं, वे उनकी एक बालक की तरह ही सेवा करते हैं। जैसे सुबह उठाना, भोजन, दूध आदि अर्पित करना, स्नान आदि कराना, वस्त्रों से सजाना, धूप-दीप आदि जलाकर आरती-भजन करना, रात को शयन कराना (सुलाना) आदि। जो लोग ईश्वर को शिवलिंग रूप में मानते हैं, वे शिवलिंग पर जल, दूध, बेलपत्र आदि चढ़ाकर, उनकी स्तुति करते हैं। यही उनकी मुख्य पूजा होती है।
ईश्वर के प्रत्येक साकार स्वरूप के लिए कुछ न कुछ पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। जिन्हें सुनकर भक्त, भक्ति में गहराई से डूबता है और धीरे-धीरे अपने स्त्रोत पर स्थापित होता है। रामचरित मानस ऐसा ही एक ग्रंथ है, जिसे सुनकर न जाने कितने रामभक्तों ने स्वअनुभव प्राप्त किया। श्रीराम के चरित्र को सुनते-सुनते वे अपने भीतर के राम से जुड़ गए।
कारण– भक्त जब ईश्वरीय चरित्र को बार-बार सुनता है तो उसका ईश्वरीय गुणों पर मनन होता है, जिससे वे गुण धीरे-धीरे उसमें भी उतरने लगते हैं। इस मत को हम कथा भक्ति भी कह सकते हैं। संसार में ऐसे बहुत से भक्त हुए हैं, जिन्होंने इन दोनों मतों पर चलते हुए अंत में परमज्ञान पाया। कृष्णभक्त मीरा, चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, संत नामदेव आदि ऐसे ही भक्त हैं।
इस तरह की साकार भक्ति ज्ञान मार्ग की तुलना में सहज और उतनी ही फलदायी है। लेकिन संसार में ईश्वर के अनेक साकार रूपों और उनसे जुड़े कर्मकाण्डों के चलते भक्त भ्रमित हो जाता है। किस रूप की पूजा करें, किसकी नहीं, कौन सा ईश्वरीय स्वरूप ज़्यादा असरदार है, कौन सा उसके लिए हितकारी है, किस विधि से पूजा करनी चाहिए? आदि बातों में उलझकर वह भटक जाता है। फलस्वरूप भक्ति के असली मर्म तक नहीं पहुँच पाता।
इसीलिए गीता में भी साकार भक्त के 'एकनिष्ठ' होने की बात की गई है कि अनेक साकार रूपों के बीच भ्रमित मत होओ क्योंकि सभी एक ही हैं। किसी एक रूप को ईश्वरीय स्वरूप मानकर, उसमें अनन्य भक्ति और श्रद्धा स्थापित करो। तभी सत्य की यात्रा शुरू कर पाओगे।
आत्मवत्यविरोधेनेति शांडिल्यः ||१८||
अर्थ : शांडिल्य के मतानुसार, आत्मरति का अवरोध भक्ति है ।।१८।।
शांडिल्य वैदिक काल के एक बहुत बड़े ऋषि हुए हैं, जिनकी भक्ति की परिभाषा को नारदमुनिजी ने १८ वे भक्ति सूत्र में व्यक्त किया है। इस सूत्र में दो शब्द समझने योग्य हैं- पहला है, 'आत्मरति' और दूसरा है, 'अवरोध’। 'आत्मरति’ शब्द पुनः दो शब्दों से मिलकर बना है– पहला है, 'आत्म' और दूसरा है, 'रति'। 'आत्म' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं- पहला 'मैं' अथवा 'स्वयं' यानी वह शरीर, जिसे हम 'मैं' मानते हैं और एक नाम से संबोधित करते हैं, जैसे रमेश, सुरेश, गीता, फरीदा आदि।
'आत्म' शब्द का आध्यात्मिक अर्थ 'आत्मा' भी होता है। अर्थात हमारे भीतर रहनेवाले स्त्रोत, चैतन्य, सेल्फ, ईश्वर। हमारी मूल पहचान वही है इसीलिए अध्यात्म में आत्म शब्द सिर्फ उसे ही इंगित कर सकता है। किंतु प्रस्तुत सूत्र में आत्म शब्द 'मैं' यानी व्यक्ति के लिए ही प्रयोग किया गया है। वह व्यक्ति, जो अपनी पहचान स्त्रोत से नहीं बल्कि शरीर से जोड़कर देखता है।
रति का अर्थ है– आसक्ति, चिपकाव, मोह। इस प्रकार 'आत्मरति' का अर्थ हुआ, खुद के प्रति अनन्य आसक्ति। अब ज़रा सोचकर देखें, हमें अपने शरीर या स्वयं से किस-किस तरह की आसक्ति होती है। आत्मकेंद्रित इंसान सबसे पहले अपना लाभ, अपनी पूर्ति देखता है, बाकियों का बाद में। दूसरों को कुछ मिले या न मिले, इससे उसे फर्क नहीं पड़ता। वह चाहता है उसे सब कुछ मनचाहा मिले, वह तमाम सुख-सुविधाओं में रहे। इस तरह वह पूर्ण रूप से व्यक्तिगत जीवन जीता है।
शांडिल्यजी के अनुसार आत्मरति का अवरोध ही भक्ति है। अर्थात आत्म केंद्रित रवैये का त्याग करना, व्यक्तिगत की जगह निःस्वार्थ जीवन जीना, अपने से पहले दूसरों का भला सोचना, सभी की मंगल कामना करना, हर किसी में उसी एक ईश्वर को उपस्थित जान, सभी के प्रति समभाव रखना, सभी से प्रेम रखना, सबके प्रति करुणा दृष्टि रखना, यही असली भक्ति है।
वरना आजकल लोग भक्ति के नाम पर मंदिर, मस्ज़िदों के चक्कर लगाते हैं। पूजा के नाम पर ईश्वर का श्रृंगार, स्नान, भोग आदि सब करते हैं। किंतु वे ही लोग किसी दूसरे गरीब, असहाय, ज़रूरतमंद इंसान को थोड़ी भी मदद नहीं कर सकते। बल्कि उन्हें हीन-दीन की नज़र से देखते हैं। ऐसी सोच रखकर भले ही वे कितना भी पूजा, ध्यान कर लें, कुछ हासिल नहीं होगा। ऐसी भक्ति, सच्ची भक्ति नहीं बल्कि भक्ति के नाम पर पाखंड ही है। क्योंकि उनकी भक्ति के पीछे भी आत्मरति ही छिपी रहती है कि ईश्वर उनसे प्रसन्न रहे। उनके काम निर्विघ्न करवाता रहे, उन पर धन-धान्य बरसाता रहे। यह भक्ति नहीं बल्कि स्वार्थ है, लालच है और शांडिल्यजी ऐसी भक्ति के विरोधी हैं।
नावदस्तु तदर्पिताखिलायावता तद्विकमवणे परमव्याकुलतेति।।१९।।
अर्थ : नारद जी के मतानुसार अपने सकल आचरण से उसी के समर्पित रहना तथा उसके विस्मरण हो जाने पर व्याकुल हो जाना भक्ति है।। १९।।
नारद जी ने पिछले कुछ सूत्रों में भक्ति पर बहुत से महान भक्तों का मत प्रकट किया है। इस सूत्र में वे अपना मत बताते हुए कह रहे हैं तन, मन, धन और व्यवहार से पूरी तरह उसी एक ईश्वर को पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना और उसे भूलने पर व्याकुल हो जाना, यही भक्ति है।
ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण यानी क्या? आइए इसे समझते हैं। पूर्ण समर्पण का अर्थ अपने सब काम-धाम छोड़कर, ईश्वर के सामने बैठकर उसका नाम सिमरन अथवा जप-तप करने से नहीं है बल्कि इसका अर्थ बहुत विस्तृत है। पूर्ण समर्पण का पहला अर्थ है पूर्ण स्वीकार भाव। आपको जैसा भी जीवन मिला है, जो भी नाते-रिश्तेदार परिस्थितियाँ आदि मिली हैं, उन्हें बिना किसी शिकायत के पूरी तरह स्वीकार करना। साथ ही उसे ईश्वर का आशीर्वाद मानकर ईश्वर को उसके लिए धन्यवाद देना। पूर्ण स्वीकार भाव की ऐसी अवस्था बताती है कि आप ईश्वर से कह रहे हैं, 'तुझे मुझे जैसे रखना हो रख, मुझे स्वीकार है क्योंकि मैं तुझे ही समर्पित हूँ।
पूर्ण समर्पण का दूसरा अर्थ है, अपने हर काम को ईश्वर का काम मानकर पूरे भक्ति भाव से करना। उसे करते हुए कर्तापन का अहंकार न रखना यानी पूरी तरह ईश्वर का दास हो जाना। इसके अतिरिक्त आपको कर्म के जो भी फल मिले अच्छा या बुरा, उसे ईश्वर का प्रसाद मानकर ग्रहण करना।
पूर्ण समर्पण का तीसरा अर्थ है हर किसी में उसी एक ईश्वर को देखना और किसी से कोई भी व्यवहार करते हुए इसी भाव में रहना कि आपका जो भी व्यवहार चल रहा है उसी ईश्वर से चल रहा है। इस भाव में रहने से आप क्षणभर के लिए भी ईश्वर को नहीं भूलते क्योंकि सामने शरीर कोई भी हो लेकिन आप उसमें उसी ईश्वर को देख रहे हो।
पूर्ण समर्पण का चौथा अर्थ है, सदा खुश रहना। आपकी सदा रहनेवाली खुशी ही इस बात का प्रमाण है कि आप ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। ईश्वर के पूर्ण समर्पित भक्त जटिल से जटिल परिस्थितियों में भी दुःखी नहीं होते क्योंकि वे हर हाल में ईश्वरीय कृपा महसूस करते हैं। जो भी उनके साथ घटित हो रहा है, उसे वे ईश्वरीय लीला का हिस्सा मानकर स्वीकार करते हैं और पूरे भक्ति भाव से उसमें अपना बेस्ट देने का प्रयास करते हैं। भक्त प्रह्लाद, मीरा ऐसे ही पूर्ण समर्पित भक्त थे, जो बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को भी हँसते हुए पार कर गए। ऐसे पूर्ण समर्पित भक्त ईश्वर का कभी विस्मरण कर ही नहीं सकते क्योंकि ईश्वर उनसे अलग नहीं होता।