7.
भक्ति का स्वादिष्ट फल
राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात्॥ ३१ ॥
न तेन राजपरितोषः क्षुधाशांतिर्वा ||३२||
अर्थ : राजगृहों में भोजन के समय ऐसा ही देखा जाता है ।।३१।। (भूख दूर करने की इच्छा कोई नहीं करता, भोजन करने की इच्छा करता है) उससे (केवल ज्ञान से) न तो राजा को प्रसन्नता होगी, न (आत्मा की) भूख शान्त होगी।। ३२।।
प्रस्तुत दो सूत्रों में नारद जी ने भक्ति को समझाने के लिए स्वादिष्ट भोजन का उदाहरण लिया है। अपने उदाहरण में उन्होंने राजमहल की बात की है किंतु आज की तारीख में हम ऐसे घरों के उदाहरण देख सकते हैं जो संपन्न हैं, धन-धान्य से भरपूर हैं। जहाँ भोजन भूख मिटाने के लिए नहीं बल्कि स्वाद पूर्ति और आनंद के लिए खाया जाता है। जहाँ पर नित नए स्वादिष्ट व्यंजन बनते हैं या उन्हें बाहर रेस्तरां में खाया जाता है। ऐसे व्यंजनों को भूख न होते हुए भी जमकर खा लिया है। इस तरह से देखा जाए तो ज़्यादातर समर्थ लोग भूख दूर करने की इच्छा से नहीं बल्कि स्वाद लेने की इच्छा से खाना खाते हैं। ऐसा खाना उनके मन को, आत्मा को तृप्त करता है।
यहाँ नारदजी भूख दूर करने के लिए नहीं, स्वाद की इच्छा से खाने का उदाहरण देकर बताते हैं कि भक्ति सिर्फ बुद्धि से या ज्ञान के लिए न हो बल्कि उसके वास्तविक भूख होनी चाहिए, प्यास होनी चाहिए, तड़प होनी चाहिए...
सूत्र ३२ में नारद जी कहते हैं भक्ति विहीन ज्ञान से, धार्मिक क्रियाकलापों से न तो राजा यानी ईश्वर प्रसन्न होता है और ना ही स्वयं हमारी अंतरात्मा प्रसन्न होती है। भक्ति विहीन धार्मिक एवं आध्यात्मिक साधनों का, कर्मकाण्डों का कोई लाभ नहीं है। वे प्रपंच मात्र हैं, समय और पैसे की बर्बादी है। उससे कुछ प्राप्त नहीं होता।
तक्मात्मैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ||३३||
अर्थ : अतः (मुक्ति चाहनेवालों को) भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए ||३३||
अपने अगले सूत्र में नारद जी पिछले सूत्रों के आधार पर भक्ति की महिमा बताते हुए कह रहे हैं कि जिन्हें भी मुक्ति की प्यास है, जिन्हें भी माया के बंधनों से वास्तव में छुटकारा पाना है, उन्हें भक्ति की ही शरण लेनी चाहिए। नारद जी ऐसा क्यों कह रहे हैं, आइए, इसे समझते हैं।
इंसान सदियों से ही ईश्वरमुखी रहा है। वह विश्वास करता है कि कोई ऐसी परम सत्ता है, जो इस संपूर्ण सृष्टि को चला रही है और सँभाल रही है। वही उसका जीवन भी संचालित कर रही है। उसका जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख... सभी उसी परम सत्ता के हाथ में है। वही उसके जीवन की दशा सुधारने की ताकत रखता है और वही एकमात्र शक्ति है, जो उसकी इच्छाओं को भी पूरा कर सकती है। अपने दुःखों को दूर करने के लिए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए, उसे उस परम शक्ति (ईश्वर, गॉड, अल्लाह...) को प्रसन्न रखना पड़ेगा।
संसार में ज़्यादातर लोग इसी सोच के हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो उस परम शक्ति ईश्वर को जानना और समझना चाहते हैं, उससे अपना संबंध तलाशना चाहते हैं।
हमारे पूर्वजों ने हर तरह के मनुष्यों की खोज को ध्यान में रखकर उस ईश्वर तक पहुँचने के अलग-अलग साधन जैसे– जप, तप, योग, ध्यान, तंत्र विद्या आदि बनाए। जब वे साधन बने थे तो यह स्पष्टता थी कि किस तरह के लोगों को अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए कौन से मार्ग पर जाना है। मगर समय के साथ धीरे-धीरे यह समझ खो गई। अलग-अलग ज़रूरत को ध्यान में रखकर बने मार्ग 'अध्यात्म' नामक एक ही छतरी के नीचे आकर इकट्ठे हो गए और सब एक से लगने लगे। ईश्वर के निमित्त किया गया कोई भी कर्म 'भक्ति' कहलाने लगा भले वह ईश्वर प्रेम में नहीं बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए किया गया हो।
आजकल लोग रावण को भी बड़ा शिव भक्त बताते हैं, जबकि उसने हमेशा सकाम तपस्या ही की। हमेशा शक्ति पाने हेतु ही शिव का ध्यान किया। अतः जिस जप-तप का प्रायोजन अहंकार की सेवा है, ईश्वर प्रेम नहीं, वह भक्ति कैसे हो गया? इसीलिए रावण भले ही कितना भी प्रकाण्ड पंडित, ज्ञानी-ध्यानी रहा हो मगर मुक्त नहीं हुआ। वहीं दूसरी ओर हनुमान, शबरी जैसे निष्काम भक्त सदैव मुक्त ही थे। उनका जीवन भक्ति की अभिव्यक्ति थी।
नारद जी कहते हैं, अगर वास्तव में माया के बंधनों को तोड़, मुक्त होना है तो बाहरी क्रिया पर नहीं, अपने भाव पर ध्यान दें। देखें, भाव में भक्ति उतर रही है या नहीं, ईश्वर से बेशर्त प्रेम पनप रहा है या नहीं? अगर वह आपकी इच्छा अनुसार काम नहीं बना रहा तो भी क्या ऐसे में आपका प्रेम बरकरार है या कम हो जाता है ?
तात्पर्यः भाव के स्तर पर भक्ति बढ़ाते जाएँ, अगर उसके लिए कोई साधन सहयोगी बनता है तो उसे अपनाएँ वरना छोड़ दें।