त्रयोदशम अध्याय
मेवाड़ विजय
बादामी में चालुक्यों की राजसभा का रिक्त सिंहासन अपने धारक की प्रतीक्षा में था। उस सिंहासन के ठीक सामने एक युवक बेड़ियों में जकड़ा हुआ खड़ा था। उसके निकट खड़े कालभोज और शिवादित्य के साथ अन्य सभासद कदाचित किसी की प्रतीक्षा में थे।
शीघ्र ही राजसी वस्त्रों में एक भद्र पुरुष ने छाती चौड़ी कर सभा में प्रवेश किया। सीधा शरीर, ऊँचे कंधे, सुदृढ़ भुजाएँ और कंधे से होते हुए हाथों को अलंकृत किया हुआ राजसी अंगवस्त्र उनके क्षत्रित्व का प्रमाण देने को पर्याप्त थे। मुखमंडल पर सूर्य की आभा लिये वो पुरुष अपने सिंहासन पर विराजमान हुए।
शिवादित्य ने आगे आकर सर झुकाते हुए कहा, “महाराज विजयादित्य को सामंत शिवादित्य का प्रणाम। पल्लवों के राजा परमेश्ववर्मन दण्ड को प्रस्तुत हैं।”
चालुक्यराज विजयादित्य ने भौहें सिकोड़े क्षणभर शिवादित्य की ओर देखा, फिर मुस्कुराते हुए कालभोज की ओर मुड़े, “पंद्रह वर्ष से हमारे सीने में धधकती प्रतिशोध की अग्नि को शांत कर आपने हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है वीर कालभोज। अपने दो माह के संघर्ष में पल्लवराज परमेश्ववर्मन को पराजित करके हमारा स्वप्न पूर्ण किया है। अब हमारा भी कर्तव्य बनता है कि आपकी हर सम्भव सहायता करें। आप बस कहिये।”
कालभोज ने हाथ जोड़ विनम्र स्वर में निवेदन किया, “मेरी तो बस एक ही विनती है, महाराज। अब जबकि पल्लवों के पराजित होने के उपरान्त आपका राज्य सुरक्षित हो चुका है, आप अपनी सेना के एक शक्तिशाली भाग को सिंध की सहायता करने के लिये भेज दें। अन्यथा उन पर अरबियों का संकट मंडराता रहेगा।”
“हम आपकी सहायता अवश्य करते, वीरवर कालभोज। किन्तु..।” उन शब्दों के उच्चारण में चालुक्यराज की जिह्वा भी लड़खड़ाने लगी।
“किन्तु क्या, महाराज? कोई समस्या है?”
चालुक्यराज सिंहासन से उतरकर पल्लवराज परमेश्ववर्मन के निकट आये और उनके नेत्रों में घूरते हुए अपने सैनिकों को आदेश दिया, “इस दुष्ट को कारागार में डाल दो। इसका निर्णय हम बाद में करेंगे।”
फिर वो कालभोज की ओर मुड़े, “आपके एक मित्र आये हैं, सिंधुदेश से। मेरे विचार से आपके इस प्रश्न का उत्तर उन्हीं के पास है। हमारे साथ राजकीय उद्यान की ओर चलिये, वो वहीं आपकी प्रतीक्षा में हैं।”
सामंत शिवादित्य भी उनके साथ आने को हुए, किन्तु विजयादित्य ने भौहें सिकोड़ते हुए हाथ उठाकर संकेत किया, “आपको मैंने साथ आने का निमंत्रण नहीं दिया, सामंत शिवादित्य। हमें इनसे एकांत में वार्ता करनी है।
“शिवादित्य ने बिना कोई प्रश्न किये अपना सर झुकाया और पीछे हट गये, “जो आज्ञा, महाराज।”
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महल के प्रांगण में चलते हुए कालभोज ने विजयादित्य से प्रश्न किया, “आप अभी तक सामंत शिवादित्य को क्षमा नहीं कर पाये?”
“कारण तो आप समझ सकते हैं, कालभोज?” चालुक्यराज ने मुस्कुराने का प्रयास किया, “परिस्थितियाँ जो भी रहीं हों, किन्तु सामंत शिवादित्य के हाथों हमारे निर्दोष भ्राता की हत्या तो हुई थी। उसे विस्मरण करना सरल नहीं है। बस मुझे यही आशा है कि समय के साथ ये घाव भर जायें।”
इससे पूर्व कालभोज कुछ और कहता, दो तीर उनके चरणों के ठीक सामने भूमि में आ धँसे। उन तीरों को देख कालभोज ने दृष्टि ऊपर की। हाथ में धनुष लिये एक दस वर्ष का बालक उनकी ओर चला आ रहा था। मुखमंडल पर सूर्य का तेज और नेत्रों में अदम्य साहस का भाव लिये वो दौड़ता हुआ उन दोनों की ओर आया और बारी-बारी से चालुक्यराज और कालभोज के चरण स्पर्श किये, फिर कालभोज को संबोधित करते हुए कहा, “चालुक्यनगरी में आपका स्वागत है, वीरवर कालभोज।”
मुस्कुराते हुए कालभोज घुटनों के बल नीचे झुका और भूमि में धँसे एक तीर को निकालकर उस बालक की ओर देख कौतूहलवश प्रश्न किया, “इस आयु में बाणों में इतनी गति कोई साधारण विद्या नहीं है, बालक। अपना परिचय तो दो।”
“मैं चालुक्यराज विजयादित्य का ज्येष्ठ पुत्र हूँ, वीर कालभोज। विक्रमादित्य नाम है मेरा।”
मुस्कुराते हुए कालभोज ने उसके मस्तक पर हाथ फेरा, “तो तुम्हारा नाम चालुक्यवंश के गौरव महाराज विक्रमादित्य के नाम पर पड़ा है?”
“हाँ, पितामह के वनवास के ठीक एक वर्ष उपरान्त मेरा जन्म हुआ, इसलिये उनके स्मरण में ही मुझे ये नाम दिया गया।” बालक विक्रमादित्य चहकते हुए बोला, “मैं तो बस पल्लवनगरी में आपके पराक्रम का बखान सुन आपसे भेंट करने चला आया। क्या आप रणभूमि के अपने अनुभव मुझसे साझा करेंगे?”
“अभी नहीं, पुत्र।” महाराज विजयादित्य ने हस्तक्षेप करते हुए अपने पुत्र को समझाया, “अभी हमें कुछ आवश्यक कार्य है। तुम जाकर अपने अभ्यास पर ध्यान दो। यदि समय मिला, तो वीर कालभोज तुमसे भेंट करने आयेंगे।”
“जो आज्ञा, पिताश्री।” विक्रमादित्य उनके मार्ग से हट गया।
“अद्भुत बालक है ये।” उसे जाते देख कालभोज के मुख पर भी मुस्कान छा गयी।
शीघ्र ही चालुक्यराज और कालभोज राजकीय उद्यान में पहुँचे। सहसा ही वहाँ एक छोटे से आसन पर बैठे व्यक्ति को देख कालभोज को आश्चर्य हुआ, “राजकुमार वेदान्त?”
कालभोज का स्वर सुन वेदान्त उसकी ओर मुड़ा। सर पर लगे घाव अब भी हरे थे, किन्तु कालभोज को देख उसके मुख पर मानों एक अदम्य संतोष सा छा गया। वो कालभोज के निकट आया और उसके हृदय से लग गया।
उसे हृदय लगाने में ही कालभोज को उसके पीड़ित मन की झलक मिल गयी, “ये सब क्या है, राजकुमार?”
स्वयं को संभालते हुए नेत्रों में नमी लिए वेदान्त ने कालभोज के दोनों कंधे पकड़े और साहस जुटाते हुए कहा, “सबकुछ नष्ट हो गया, मित्र। सबकुछ।”
वेदान्त के नेत्रों से झलक रही पीड़ा के अनुमान से कालभोज का हृदय भी काँपने लगा, “आप.. आप कहना क्या चाहते हैं, मित्र?”
“सिंध पर अरबी हाकिम मुहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था, मित्र। वो लोग हमसे विद्रोह करने वाले ज्ञानबुद्ध की सहायता से देबल में महाविष्णु का मन्दिर ध्वस्त करने में सफल हो गये। भविष्यवाणी के भय से हमारे अधिकतर सामंतों ने हमारा साथ छोड़ दिया था।” कहते हुए वेदान्त का गला भर आया, “सहस्त्रों वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, किन्तु अपनी मातृभूमि को बचा नहीं पाये।”
कालभोज स्थिर खड़ा वेदान्त की ओर देखता रहा, उस क्षण में मिले झटके ने उसे जड़ सा कर दिया। उसका कंधा पकड़ वेदान्त ने उसके नेत्रों में देखा “अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिये जलसमाधि लेने से पूर्व राजकुमारी कमलदेवी ने मुझे आप तक ये उनका अंतिम संदेश पहुँचाने के लिये कहा था। कमल ने कहा कि उनके अस्तित्व पर केवल आपका अधिकार था, है और रहेगा।”
वेदान्त के उस कथन को सुन कालभोज घुटनों के बल आ गया। वेदान्त और चालुक्यराज ने उसे संभालने का प्रयास किया, किन्तु उसके मुख से एक भी शब्द नहीं फूटा। पूरे एक प्रहर, अर्थात संध्या होने तक कालभोज उसी राजकीय उद्यान की भूमि पर घुटनों के बल बैठा रहा। उसका साहस बनाये रखने के लिये चालुक्यराज और वेदान्त उसके साथ वहीं बैठे रहे।
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रात्रि के प्रथम प्रहर में कालभोज के गाल पर पड़ी धीमी वर्षा की एक बूंद ने अकस्मात ही उसकी चेतना लौटा दी। अपने हृदय में उग रहे पीड़ा के शूलों को नियंत्रित करने के प्रयास में कालभोज ने अपने नेत्र मूँदकर समाधि लगायी और गायत्री मंत्र का जाप किया।
मंत्र जाप के उपरान्त स्वयं के हृदय को सुदृढ़ करते हुए कालभोज ने वेदान्त से प्रश्न किया, “महाराज नागभट्ट भी आपकी सहायता को नहीं आये?”
“हमने सहायता के लिये कई संदेशवाहक भेजे, उनका कोई उत्तर नहीं आया। अंत में हमें ज्ञात हुआ कि हमारे भेजे गये हर संदेशवाहक और गुप्तचर की मेवाड़ नरेश मानमोरी के लोगों ने मार्ग में ही हत्या कर दी, ताकि महाराज नागभट्ट हमारी सहायता को ना पहुँच सकें।”
मानमोरी के दुष्कृत्य के विषय में सुन कालभोज की भी भौहें तन गईं, “अपनी वासना की लोलपुता से जन्में वैमनस्य के आगे उस नीच ने समग्र भारतवर्ष की सुरक्षा को दांव पर लगा दिया?”
कालभोज के नेत्रों में छाया क्रोध देख चालुक्यराज ने उसका कंधा पकड़ उसे आश्वस्त किया “आप जो भी निर्णय लेंगे, उसमें मेरे साथ मेरी सेना भी आपका समर्थन करेगी।”
“धन्यवाद, महाराज।” आभार जताते हुए कालभोज वेदान्त की ओर मुड़ा और नेत्रों में अग्नि का संताप लिए ऊँचे स्वर में कहा, “महाराज नागभट्ट को संदेश भिजवाईये, राजकुमार वेदान्त। उनसे कहियेगा, अब हमारी भेंट नागदा में होगी। कुछ पाप के घड़े अपनी सीमा से कहीं अधिक भर गये हैं, उन्हें फोड़ने का समय आ गया है।”
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कालभोज के हृदय में धधक रही प्रतिशोध की अग्नि के संताप की सूचना मानमोरी की राजसभा तक भी पहुँची।
“तो कालभोज स्वयं को नागदा का स्वतंत्र शासक घोषित करने वाला है?” अपने सामने खड़े दूत की ओर देख प्रश्न किया।
“हाँ, महाराज। संभावना है कि बहुत शीघ्र चालुक्यों, नागदा और कन्नौज नरेश नागभट्ट की संयुक्त सेना चित्तौड़ पर चढ़ाई करने आयेगी।”
भौहें सिकोड़ते हुए मानमोरी ने राजसभा में बैठे अपने पुत्र सुबर्मन की ओर देखा, “देख ली उसकी वास्तविकता ? अब राज्य की लालसा आ गयी है उसके मन में।”
इस पर सुबर्मन ने अपने आसन से उठकर कहा, “भूल तो हमसे भी हुई है, पिताश्री। यदि मेवाड़ ने अपनी सेना सिंध से नहीं बुलाई होती, तो कदाचित आज वहाँ अरबियों का शासन नहीं होता।”
इस पर मानमोरी को ताव आ गया, “हमारा संधि प्रस्ताव स्वयं महाराज दाहिरसेन ने अस्वीकार किया था। इतने वर्षों से हमारी सेना उनकी सुरक्षा में लीन थी, और उन्होंने हमारी एक मांग स्वीकार नहीं की। और तुम्हीं बताओ, महाराज नागभट्ट उनकी सहायता को क्यों नहीं गये?”
सुबर्मन ने भरी सभा में अपने पिता से विवाद करना उचित नहीं समझा, वो बस स्थिर दृष्टि से मानमोरी को देखता रहा। अपने पुत्र को उदविघ्न देख मानमोरी ने कहा, “जरा विचार करो, सुबर्मन। चालुक्यों, नागदा और महाराज नागभट्ट की संयुक्त सेना इतनी शक्तिशाली है कि अब भी अरबियों को सिंध से खदेड़ सकती है। किन्तु वो उन पर आक्रमण करने के स्थान पर हम पर आक्रमण करने आ रहे हैं। ये कालभोज की लालसा नहीं तो और क्या है?”
“आपको मुझे कुछ भी विश्वास दिलाने की आवश्यकता नहीं है, पिताश्री।” सुबर्मन ने भारी मन से कहा, “मैं अपने पुत्र होने के कर्तव्य होने से विमुख नहीं हो सकता। चाहें जो भी हो, मैं अंत तक आपके साथ खड़ा रहूँगा।”
यह सुन मानमोरी की छाती गर्व से चौड़ी हो गयी, “तो यदि हमारा पुत्र हमारे साथ है तो हमें किसी का भय नहीं। चाहें जो सेना आ जाये, चित्तौड़ की इस भूमि पर हमारी विशाल सेना को कोई पराजित नहीं कर सकता।”
“किन्तु हमें भूलना नहीं चाहिए कि कालभोज हमारा सेनापति रह चुका है। उसे हमारी शक्ति और दुर्बलता, दोनों का ज्ञान है।”
“चित्तौड़ का किला अभेद्य है, पुत्र। यहाँ इस भूमि पर वो हमें पराजित नहीं कर सकते। और जहाँ तक महाराज नागभट्ट की बात है, हमारी उनसे कोई शत्रुता नहीं है। आशा है वो हमारी बात समझेंगे, और इस व्यर्थ के युद्ध में नहीं कूदेंगे।”
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अनेकों ब्राह्मणों द्वारा पुष्पों की वर्षा में महाऋषि हरित ने नागदा की राजसभा में कालभोज के मस्तक को अपने आशीर्वाद के टीके से अलंकृत किया। कन्नौज नरेश नागभट्ट, चालुक्यराज विजयादित्य, सामंत शिवादित्य, भीलराज बलेऊ और अन्य शूरवीरों की उपस्थिति में हरित ऋषि ने स्वर्णजड़ित मुकुट से अपने उस शिष्य के मस्तक की शोभा बढ़ाई।
मुकुट पहनकर कालभोज के सिंहासन पर आरूढ़ होते ही भीलराज बलेऊ ने दायाँ हाथ ऊँचा कर हुँकार भरी, “नागदा नरेश सूर्यवंशी कालभोजादित्य रावल की जय हो।”
सभा में उपस्थित अन्य शूरवीरों ने भी नागदा नरेश का जयघोष किया। कालभोज ने हाथ उठाया और सिंहासन से उठकर कहा, “नागदा का सिंहासन ग्रहण करने के साथ ही हम मेवाड़ नरेश मानमोरी से द्रोह की घोषणा कर चुके हैं। और अब हमारा उद्देश्य भारतवर्ष की भूमि के सबसे बड़े कलंक को उसके दुष्कर्मों का दण्ड देना है।”
“निसन्देह महाराज।” बलेऊ भी उत्साह में भरकर बोला, “आपको सम्पूर्ण मेवाड़ का एकछत्र शासक बनते देखने को हम सब आतुर हैं।”
“वो संघर्ष सरल नहीं होगा, भीलराज।” स्वर में दृढ़ता लिये कालभोज महाराज नागभट्ट की ओर मुड़ा, “सुना है महाराज मानमोरी आपसे संधि करने की योजना बना रहे हैं।
मुस्कुराते हुए नागभट्ट ने दृढ़ होकर कहा, “राष्ट्रद्रोही को जिस भाषा में उत्तर देना चाहिए, उसी भाषा में उन्हें उत्तर भेज दिया जायेगा। हम सूर्यवंशी प्रतिहारियों की निष्ठा पहले भी राष्ट्रहित की ओर थी, और आज भी है।”
“और हम भी आपको सम्पूर्ण मेवाड़ के राजसिंहासन पर विराजमान होते देखने को उत्सुक हैं।” चालुक्यराज के मन में भी कोई संदेह ना था, “मेवाड़ के पास डेढ़ लाख की सेना है तो हमारी सम्मिलित सेना भी उनसे अधिक है। भले ही ये संघर्ष महीनों तक चले, किन्तु मानमोरी जैसे नीच को सत्ता से हटाये बिना हम पीछे नहीं हटेंगे।”
“समझ सकता हूँ, चालुक्यराज। आप भी अपने भ्राता जयसिम्हा की हत्या का षड्यन्त्र रचने वाले नराधम को दण्ड देने को व्याकुल हो रहे हैं। किन्तु यदि हम सीधे-सीधे मानमोरी को युद्ध में ललकारेंगे, तो बहुत अधिक विध्वंस होगा। ऐसे में यदि हम विजयी हो भी जायें, तो भी कदाचित , हमें इतनी क्षति पहुँचेगी कि हममें सिंध पर अधिकार किये अरबियों पर आक्रमण करने की जितनी शक्ति शेष नहीं होगी। अरबियों को अतिरिक्त समय मिलेगा और वो सिंध में अपनी शक्ति भी बढ़ाते जायेंगे।”
“तो आपकी योजना क्या है?” महाराज नागभट्ट ने प्रश्न किया।
श्वास भरते हुए कालभोज ने दृढ़तापूर्वक कहा, “मैं स्वयं चित्तौड़ के रणबांकुरों के मध्य जाऊँगा। अपना प्रारब्ध वो स्वयं निश्चित करेंगे।”
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मध्यरात्रि का समय था। सर पर पगड़ी धारण किये, घनी दाढ़ी और लम्बी घनी मूँछ वाला एक भद्र पुरुष झाड़ियों में हाथों के बल रेंगता हुआ आगे बढ़ रहा था। वन में विचरण करते चित्तौड़ी सैनिकों की दृष्टि से बचते हुए वो व्यक्ति कब चित्तौड़ की सीमा के भीतर प्रवेश कर गया, किसी को ज्ञात ही नहीं हुआ। सीमा में प्रवेश कर वो झाड़ियों के मध्य किसी बाघ की भाँति फूँक फूँककर कदम बढ़ाये चलता रहा और शीघ्र ही एक तालाब के किनारे पहुँचा। वो तालाब की ओर बढ़ा, किन्तु अकस्मात ही उसकी दृष्टि जल ग्रहण करने आए दो सैनिकों पर पड़ी। वो पुनः पीछे हटकर झाड़ियों में छिप गया।
उन्हें जल पीते देखते हुए उस पगड़ी वाले व्यक्ति ने इधर-उधर दृष्टि घुमायी। अवसर पाकर वो निकट के वृक्ष पर चढ़ गया। उस वृक्ष के आसपास और भी कई वृक्ष थे। उस पगड़ी धारक ने अपनी कमर में बँधी रस्सी निकाली और एक वृक्ष से दूसरे पर यूँ छलांग लगाई कि कुछ पत्तों के झड़ने और हल्के फुल्के स्वर उत्पन्न होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हुआ। किसी भी सैनिक को भनक तक ना लगी कि कोई मनुष्य उन पर छलांग मारता हुआ जा रहा है। वृक्षों से होता वो पगड़ीधारक शीघ्र ही अपने गंतव्य तक पहुँच आया।
वृक्ष की डाल पर खड़े, गठीले शरीर वाले उस युवक ने नीचे लगे शिविर की ओर देखा, “सूचना अनुसार उसे यहीं होना चाहिए।”
निकट टहलते हुए तीन सैनिकों को देख वो धीरे-धीरे वृक्ष से नीचे आया, और शीघ्र ही एक-एक करके उन तीनों सैनिकों को मूर्छित करता हुआ वनों में घसीट ले गया। तत्पश्चात उस पगड़ीधारक ने सीधा उस शिविर में प्रवेश किया जहाँ एक अँधेड़ उम्र का व्यक्ति भोजन में लीन था। वो उस पगड़ीधारक को देखते ही अचम्भित रह गया और तत्काल ही उसने भोजन छोड़ तलवार निकाल ली, “कौन हो तुम?”
“आपका और हमारा सम्बन्ध सदा से ही मित्रवत रहा है, सामंत अश्वसेन।” कहते हुए उस व्यक्ति ने अपनी पगड़ी के साथ नकली दाढ़ी और मूँछें निकाली, “इसीलिए मैं आपके पास आया हूँ।”
“सेनानायक कालभोज ?” अपने समक्ष खड़े व्यक्ति को देख सामंत अश्वसेन की आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गयीं, “आप यहाँ क्या कर रहे हैं?”
कालभोज निकट के आसन पर बैठा, “आपको अब तक तो ये सूचना मिल ही गयी होगी, कि चालुक्यों, प्रतिहारियों के साथ मेरी सेना चित्तौड़ पर कभी भी चढ़ाई कर सकती है।”
“ज्ञात हुआ हमें, चालुक्यों की एक लाख, नागदा की बीस सहस्त्र और कन्नौज की चालीस सहस्त्र की विशाल सेना मिलकर यदि आपके नेतृत्व में आक्रमण करेगी, तो उसे विजयी होने से कोई नहीं रोक सकता।”
कालभोज ने उन्हें बैठने का संकेत करते हुए कहा, “प्रश्न विजय या पराजय का नहीं है, सामंत अश्वसेन। इस युद्ध में विजय किसी की भी हो, पराजय भारतवर्ष की ही होगी। क्योंकि जब तक मानमोरी की सेना बुरी तरह परास्त नहीं होगी, वो कदाचित सामने भी नहीं आयेगा। ऐसे में जो महाविध्वंस होगा, उससे समूचा भारतवर्ष दुर्बल पड़ जायेगा, और सिंध पर अपना शासन जमा चुके अरब आक्रांता अपनी शक्ति जुटाकर हम पर हावी हो सकते हैं।”
“आपका तर्क तो उचित है। किन्तु मैं तो समझता हूं कि मानमोरी की दुष्टता का दण्ड उसे मिलना ही चाहिए। वो मेवाड़ पर शासन करने के योग्य नहीं है।”
कालभोज ने उनकी तनी हुई भौहें देख अनुमान लगाया, “तो आपको भी ये ज्ञात है कि कन्नौज नरेश नागभट्ट और सिंध का संपर्क तोड़ने का षड्यन्त्र भी उस मानमोरी ने ही रचा था।”
“मैं चित्तौड़ का सामंत हूँ, महामहिम। सेना में कब क्या हो रहा है, इसकी सूचना तो हमें मिल ही जाती है।”
मुस्कुराते हुए कालभोज ने कहा, “आपके नेत्रों में जो रोष है, वो यहाँ के अनेकों योद्धाओं में होगा। मैं बस यही चाहता हूँ कि आप अपने जैसों को ढूँढे, जिनके शस्त्र मानमोरी के पक्ष में हैं किन्तु मन हमारे पक्ष में।”
“तो आप मुझसे राजद्रोह करने को कह रहे हैं, वीर कालभोज?” अश्वसेन ने थोड़े शंकित स्वर में प्रश्न किया।
“चुनाव आपका है, अश्वसेन। या तो आप राजद्रोह करेंगे, अन्यथा राष्ट्रद्रोही का समर्थन।”
मुस्कुराते हुए अश्वसेन ने विनम्र भाव से कहा, “हमारे साथ पंद्रह सहस्त्र की सेना विद्रोह करेगी महाराज मानमोरी से।”
“धन्यवाद, अश्वसेन।” कालभोज को थोड़ी राहत मिली, “क्या लगता है? और कितने सामंत हमारे पक्ष में आ सकते हैं?”
“चार और सामंत हैं, महामहिम। और ये चारों वहीं है जो पूर्व नागदा नरेश नागादित्य के विश्वास पर मेवाड़ी सेना का भाग बने थे। संभावना तो है कि महाराज नागादित्य का पुत्र होने के नाते वो आपका साथ दें।”
“पुत्र होने के नाते ना सही, किन्तु जब उन्हें ये ज्ञात होगा कि महाराज नागादित्य की हत्या का षड्यन्त्र रचने वाला भी मानमोरी ही था। तो कदाचित वो हमारे समर्थन में खड़े हो जायें।”
यह सुन अश्वसेन के नेत्र आश्चर्य से फैल गये, “महाराज नागादित्य की हत्या का षड्यन्त्र मानमोरी ने..?”
“हाँ, अश्वसेन। नागदा के पूर्व सेनापति विष्यन्त का उपयोग कर महाराज मानमोरी ने ही वो घृणित षड्यन्त्र रचा था।” कहते हुए कालभोज ने उस षड्यन्त्र का सम्पूर्ण वृतांत सुनाया।
“विष्यन्त अब भी जीवित है?” अश्वसेन के लिए एक और बड़ा आश्चर्य था।
“और अब वही उन सामंतों के समक्ष हमारे सत्य का साक्षी बनेगा।”
अपनी जंघा पीट अश्वसेन उत्साह में भरकर उठा, “फिर तो अब मानमोरी की पराजय निश्चित है।”
“ये इतना भी सरल नहीं होगा, अश्वसेन। हमें चित्तौड़ के किले में जाने वाली तीन नहरों का मार्ग रोकना होगा, ताकि किले में जल की कमी हो जाये और महाराज मानमोरी बाहर आकर युद्ध करने पर विवश हो जायें।”
“चित्तौड़ के किले में तीन दिशाओं से जल की आपूर्ति होती है। उन पर बांध बनाना सरल कार्य नहीं है।”
“हमारी सेना तो चित्तौड़ की सीमा से पचास कोस दूर प्रतीक्षा में है। पहले हम ये तो देख लें कि चित्तौड़ की कितनी सेना हमारे पक्ष में आती है। उसके उपरान्त ही हम बांध बनाने का अभियान आरम्भ करेंगे।”
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कुछ दिनों का समय बीता। चित्तौड़ की सीमा के दस कोस दूर छावनी लगाये चालुक्यों, प्रतिहारियों और नागदा की संयुक्त सेना अगले आदेश की प्रतीक्षा में थे। अश्व पर आरूढ़ हुए कालभोज पाँच चित्तौड़ी सामंतों के साथ सीमा पार से होता हुआ अपनी छावनी की ओर आया।
उसके मुख पर विजय की मुस्कान देख छावनी के निकट खड़े शिवादित्य को भी उसकी सफलता का संकेत मिल गया, “तो कितने लोग हमारे साथ आये?”
उत्साह में भरकर कालभोज अपने अश्व से कूद शिवादित्य के निकट आया, “मानमोरी की आधी से अधिक सेना हमारा समर्थन करेगी, तातश्री। चित्तौड़ की पश्चिमी सीमा के सारे योद्धा हमारे पक्ष में है। हमारी सेना बिना किसी रुकावट उस सीमा से आगे बढ़ सकती है।”
“उत्तम।” शिवादित्य का भी उत्साह बढ़ा, “तो बांध बनाने की योजना तैयार है?”
“योजना कुछ विशेष नहीं है, तातश्री। अब सीधा आक्रमण करके हमे तीनों जलमार्ग पर अधिकार करेंगे, फिर इतने सुदृढ़ बांध बनायेंगे है कि जल की एक बूंद वहाँ से गुजर ना सके। तीनों जलमार्ग में से एक मार्ग पर सेना की एक टुकड़ी लेकर चालुक्यराज जायेंगे, एक मार्ग पर महाराज नागभट्ट जायेंगे, और मैं और आप तीसरे मोर्चे पर बांध बनवाने का कार्य आरम्भ करेंगे।”
“इसमें तो कोई संदेह नहीं कि मेवाड़ी सेनायें हमें रोकने का पूरा प्रयास करेंगी।”
“तो हम भी रक्त बहाने में पीछे कहाँ हटने वाले हैं।” कालभोज के नेत्रों में भी संकल्प की कोई कमी ना थी।
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योजना अनुसार कुछ ही दिनों की यात्रा में कालभोज की विशाल सेना मेवाड़ नरेश मानमोरी को सत्ता से हटाने का संकल्प लेकर चित्तौड़ के किले के निकट पहुँच आयी। जलमार्ग के तीनों मोर्चों पर घनघोर युद्ध आरम्भ हुआ, चित्तौड़ की सैन्य संख्या एक तिहाई भी नहीं थी। कई मोर्चों पर उन्हें पराजित होकर रणछोड़ कर भागना पड़ा।
दो दिन के युद्ध में ही कालभोज की सेना ने जलमार्ग के तीनों मोर्चों पर विजयप्राप्त कर ली। फिर बिना कोई विलंब किये कालभोज ने बांध बनवाना आरम्भ करवा दिया। दो दिनों में भयंकर क्षति सहने के उपरान्त, चित्तौड़ की सेना में अब वो साहस ही नहीं बचा था कि वो किले से बाहर निकलकर कालभोज की सैन्य शक्ति का सामना कर सकें। किन्तु फिर भी किले की दीवारों से उन्होंने तीर और भाले चलाकर बांध निर्माण करने में बाधा डालने का पूरा प्रयास किया। किन्तु कालभोज के योद्धाओं की दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे उनकी एक ना चली, और अगले चार दिनों में ही तीनों मोर्चों का बांध बनकर तैयार हो गया। चित्तौड़ के किले में जाने वाले जल के बहाव को रोक दिया गया। दस हाथ चौड़ी उस छोटी सी नहर का मार्ग रोकने वाली कई गज ऊँची दीवार पर हाथ फेर कालभोज के हृदय को असीम शांति मिली।
“बधाई हो, नागदा नरेश। शीघ्र ही विजय श्री आपका आलिंगन करेगी।” शिवादित्य ने अपने भतीजे की पीठ थपथपाते हुए कहा।
मुस्कुराते हुए कालभोज ने अपने हाथ में थमा एक पत्र शिवादित्य के हाथों में देते हुए कहा, “हमने अभी पहले चरण को पार किया है, तातश्री। किसी दूत के हाथ ये संदेश भिजवा दीजिए उस मेवाड़ नरेश को।”
उस पत्र को हाथ में लेकर शिवादित्य ने उसे खोलकर पढ़ा तो उसके नेत्र आश्चर्य से फैल गया, “विजय के इतने निकट आने के उपरान्त भला ये दांव क्यों?”
“मानमोरी मेरा अपराधी है, तातश्री। मैं उसे स्वयं दण्डित करना चाहता हूँ। वैसे भी तीन दिन में चित्तौड़ के पंद्रह सहस्त्र योद्धा काम आ चुके हैं। अब मैं और विनाश नहीं चाहता।”
कालभोज के नेत्रों में झलकते संकल्पयज्ञ का भाव देख शिवादित्य के शब्दों में भी आत्मविश्वास झलक गया, “ये भी उचित है। मेवाड़ की प्रजा को भी उनके होने वाले नरेश की शक्ति का आभास तो होना ही चाहिए। और ये संदेश तो मैं स्वयं लेकर जाऊँगा।”
“आप दूत बनकर जायेंगे?” कालभोज ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया।
“हाँ पुत्र, नाना प्रकार के कटाक्ष से भरे इस पत्र को मैं स्वयं मानमोरी की सभा में पढ़ना चाहता हूँ। ताकि उसके मुख पर छाया भाव देख सकूँ।”
“वो मानमोरी बहुत कपटी है, तातश्री। आपको बंदी बनाने का प्रयास कर सकता है।”
मुस्कुराते हुए शिवादित्य ने किले की ओर देखा, “चिंता मत करो, पुत्र। विषम परिस्थिति होने पर क्या करके वहाँ से कैसे निकलना है, ये मैं भलीभाँति जानता हूँ।”
“ठीक है फिर, मैं आपको इस सुख की अनुभूति लेने से रोकूँगा नहीं। पूर्ण कर लीजिए अपनी इच्छा।”
मुस्कुराते हुए शिवादित्य ने अपने कंधे उचकाये और अपने अश्व पर आरूढ़ होकर चित्तौड़ के किले की ओर चल दिये। श्वेत ध्वज लहराते हुए शिवादित्य को अकेले द्वार की ओर आते देख सैनिकों ने प्रहार करना उचित नहीं समझा। द्वार के निकट आकर शिवादित्य ने द्वारपाल से कठोर स्वर में कहा, “दूत के रूप में आया हूँ। महाराज कालभोज का संदेश तुम्हारे नरेश को देना चाहता हूँ। अपने राजा से मेरे प्रवेश की आज्ञा माँग कर आओ।”
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शीघ्र ही शिवादित्य को चित्तौड़ की राजसभा में प्रस्तुत किया गया। उसे देख सिंहासन पर बैठे मानों मानमोरी का नाखून से लेकर सर तक जल गया। किन्तु राजसभा की मर्यादा का उल्लंघन करना उन्होंने उचित ना समझा, “तो अपने भतीजे के सेवक बन गये तुम, शिवादित्य?”
मानमोरी पर दृष्टि पड़ते ही शिवादित्य को पहले तो बहुत क्रोध आया, किन्तु उसका अनर्गल कटाक्ष सुन शिवादित्य की हँसी छूट गयी, “बड़ी दयनीय स्थिति हो गयी है तुम्हारी, मेवाड़ नरेश। पराजय को अपने समक्ष खड़ा देख कदाचित तुम्हारी बिलबिलाहट कुछ अधिक ही बढ़ गयी है।
“दूत की मर्यादा भंग मत करो, शिवादित्य। अपने महाराज का संदेश सुनाओ।”
मानमोरी की झल्लाहट देख शिवादित्य के हृदय को मानों असीम शांति प्राप्त हुई। मुस्कुराते हुए उसने पत्र खोला और पढ़ना आरम्भ किया।
चित्तौड़ के महाराज मानमोरी को नागदा नरेश कालभोजादित्य रावल का प्रणाम। आपने हमारे परिवार के विरुद्ध नाना प्रकार के षड्यन्त्र रचे, नागदा के पूर्व सेनापति विष्यन्त का प्रयोग कर आपने पूर्व नागदा नरेश नागादित्य और भीलों के मध्य वैमनस्य उत्पन्न किया, जो महाराज नागादित्य की हत्या का कारण बना। इतना ही नहीं आपने विष्यन्त की माता को बंधक बनाकर भी रखा ताकि वो आपसे द्रोह ना करे, और किसी को आपके रचे षड्यन्त्र का भान ना हो। फिर आपने महाशिवरात्रि के शुभ अवसर पर नागदा में सिंधुदेश की राजकुमारी कमलदेवी का अपमान भी किया। इन सारे अपराधों के लिए मैं आपको क्षमा कर भी देता। किन्तु आपके कुकर्म यहीं समाप्त नहीं हुए। अपनी वासना की लोलुपता में आप इतने अंधे हो गये कि ना केवल आपने सिंध की सुरक्षा हटाई, अपितु सिंध से सहायता का संदेश लेकर कन्नौज जाते हर संदेशवाहक की भी हत्या करवा दी, ताकि महाराज दाहिरसेन अरबियों के विरुद्ध हुए युद्ध में अकेले पड़ जायें। आपके निजी स्वार्थ के कारण आज सिंध की प्रजा अरबियों के कुशासन के आधीन हो चुकी है। सत्य कहूँ तो आप जैसा घृणित चरित्र का व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा। और अब आपको दण्ड देने का समय आ गया है। जैसा कि आप जानते हैं कि हम आपकी सेना को तीन मोर्चे पर पराजित करके आपके जलमार्ग में बांध बनाने में सफल हो चुके हैं। अब मेवाड़ का पूर्व सेनानायक होने के नाते मुझे इतना तो ज्ञात ही है कि आपके किले में चार दिवस से अधिक का जल नहीं बचा है, और हमारे पास तो रसद की भी कोई कमी नहीं है और चित्तौड़ की प्रजाशक्ति भी हमारे साथ है। हम यहीं बैठे आप और आपकी सेना के निकलने की प्रतीक्षा कर सकते हैं। किन्तु मैं तो यही सुझाव दूँगा कि अपने पंद्रह सहस्त्र योद्धाओं को तो आप पहले ही खो चुके हैं, तो व्यर्थ में अपना रक्षण करने हेतु और योद्धाओं के प्राण दांव पर ना लगाईये। हमारी सेना आपसे कई गुना अधिक है। फिर भी मैं आपको अवसर दे रहा हूँ। आपके पास दो विकल्प हैं, पहला कि आप अपने सिंहासन को खाली कर मेरे समक्ष आकर आत्मसमर्पण कर दीजिये और अपने अपराधों का दण्ड स्वीकार कीजिये। ऐसे में आपके पुत्र युवराज सुबर्मन हमारी छत्रक्षाया में चित्तौड़ की सत्ता संभालेंगे और सम्पूर्ण मेवाड़ पर हमारा अधिकार होगा। और दूसरा विकल्प है द्वन्द युद्ध। मैं आपको बिना सेना के सीधा द्वन्द का आवाहान देता हूँ, यदि मैं विजयी हुया तो भी युवराज सुबर्मन ही मेरी छत्रछाया में चित्तौड़ की सत्ता संभालेंगे। और यदि आप मुझे पराजित करने में सफल हुए तो मेरी समस्त सेना पराजय स्वीकार कर चित्तौड़ से लौट जायेगी।—नागदा नरेश कालभोजादित्य रावल
कालभोज के कड़वे कटाक्षों से भरे उस संदेश को सुन मानमोरी ने अपने सभासदों की ओर देखा, जिनमें से कई उन्हें हेय दृष्टि से देख रहे थे। यहाँ तक कि उनके पुत्र सुबर्मन के नेत्रों में उन्होंने अपने लिये कोई सम्मान नहीं पाया, “कालभोज ने मुझ पर झूठे आरोप लगाये हैं, पुत्र। मैंने सिंध के किसी संदेशवाहक की हत्या नहीं..।”
“मैं इस राज्य का युवराज हूँ, पिताश्री।” सुबर्मन ने हस्तक्षेप करते हुए भारी मन से कहा, “आपके इन षड्यंत्रों के विषय में केवल मैं ही नहीं, बहुत से सामंतों को ज्ञात है। और उनके विद्रोह का ये एक मुख्य कारण रहा है। इस प्रकार राजसभा में अपने सभासदों के समक्ष असत्य वादन महाराज को शोभा नहीं देता।”
अपने पुत्र के उन कड़वे वचनों को सुन मानमोरी का मानों साहस ही टूट गया। हताश हुए मेवाड़ नरेश की दृष्टि लज्जा से झुक गयी। उन्हें उस दशा में देख शिवादित्य को अपने नेत्रों में एक अद्भुत शीतलता का अनुभव हुआ, “मैं महाराज विजयादित्य का बहुत-बहुत आभारी हूँ, जो उस युद्ध में अवसर मिलने के उपरान्त भी उन्होंने तुम्हारा वध नहीं किया। तुम्हारी ये विवशता देख मेरे हृदय को जो शांति मिली है, कदाचित तुम्हारे मस्तक को सौ बार काटकर भी नहीं मिलती।”
मुट्ठियाँ भींचकर नेत्रों में अंगार लिए मानमोरी ने क्रोध में भरकर शिवादित्य की ओर संकेत कर आदेश दिया, “बंदी बना लो इस दुष्ट को। नागदा नरेश का ताऊ है ये, इसे बचाने के लिये वो अवश्य समर्पण कर देगा।”
“ये आप क्या कर रहे हैं, महाराज?” सुबर्मन को हस्तक्षेप करना ही पड़ा, “एक दूत के साथ इस प्रकार का व्यवहार उचित नहीं है।”
मानमोरी गरजे, “जब दूत अपनी मर्यादा भूल जाये, तो उसे दण्डित करना अधर्म नहीं।”
सुबर्मन हाथ जोड़ता हुआ मानमोरी के निकट आया, “मेरी आपसे विनती है, महाराज। कम से कम जीवन में..।” कहते हुए उसका गला भर आया, “जीवन में एक ऐसा कार्य कर लीजिए, जिसे स्मरण कर मैं गर्व से कह सकूँ कि मैं परमारराज मानमोरी का पुत्र हूँ।”
अपने पुत्र का वो कटाक्ष मानमोरी के हृदय को चीरता हुआ उनके क्रोध को लील गया। भरी सभा में अपने युवराज के मुख से ऐसा कटाक्ष सुन उनका शरीर ढीला सा पड़ने लगा। उस तर्क से पराजित हुए मानमोरी ने उन सैनिकों को शिवादित्य से दूर हटने का संकेत दिया जो उसे बंदी बनाने आ रहे थे। श्वास भरते हुए मानमोरी के नेत्रों में भी नमी सी आ गयी, किन्तु सर यूँ झुकाया कि वो नमी किसी को दिखाई नहीं दे। सुबर्मन उनके निकट गया और अपने पिता के कंधे पर हाथ रख ढाढ़स बँधाते हुए शिवादित्य की ओर मुड़ा, “महाराज कालभोजादित्य रावल को संदेश दीजिए, सामंत शिवादित्य। हम उनके द्वन्द का आवाहन स्वीकार करते हैं। आप कृपा करके प्रस्थान करें।”
सहमति में सिर हिलाते हुए शिवादित्य पीछे हटकर राजसभा से प्रस्थान कर गये। मानमोरी का झुका हुआ मस्तक देख सुबर्मन ने राजसभा में आदेश सुनाया, “सभा यहीं समाप्त की जाती है। उचित होगा आप सब हमें एकांत में छोड़ दें।”
अपने युवराज के आदेश पर धीरे-धीरे सारे सभासद राजसभा से जाने लगे। उन सभी के जाने के उपरान्त सुबर्मन ने अपने पिता के कंधे पर हाथ रख छाती चौड़ी कर कहा, “मैं आपके इस अंतिम निर्णय पर गर्वित हूँ, पिताश्री। उचित होगा, आप अपना साहस बनाये रखें।”
सहमति में सिर हिलाते हुए मानमोरी ने कहा, “उचित है, यदि द्वन्द होना है तो हो जाये।” परमारराज कंधे उचकाये सिंहासन से उठे और अपने पुत्र की पीठ थपथपाते हुए कहा, “चलो इस बात की प्रसन्नता है कि यदि मैं पराजित होकर मारा भी गया, तो भी मेरा पुत्र ही चित्तौड़ के सिंहासन पर विराजेगा।”
“नहीं, पिताश्री। आपकी मनोदशा युद्ध करने की नहीं है। और आपके इस विचार से ये सिद्ध भी हो गया।”
“तो फिर द्वन्द का आवाहन स्वीकार क्यों किया?” मानमोरी ने आश्चर्य में भरकर उसे देखा, “यदि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो कौन..।” अकस्मात ही मानमोरी के स्वर में जड़ता आ गयी, “नहीं, तुम नहीं।”
“मैं भी महाऋषि हरित का ही शिष्य हूँ, पिताश्री। और गुरुदेव ने अपने शिष्यों को दीक्षा देने में कभी कोई भेदभाव नहीं किया।”
“नहीं, ये सम्भव नहीं है।” परमारराज विचलित हो उठे, “यदि मैंने द्वन्द किया तो अधिक से अधिक मेरे प्राण जायेंगे, किन्तु तुम्हारे रूप में मेरा वंश जीवित रहेगा।”
सुबर्मन ने मुस्कुराते हुए अपने पिता की ओर देखा, “आपने सभा में मेरी बातों का सम्मान रखा, इतना पर्याप्त है। यदि एक युवराज के रहते उसके पिता महाराज को द्वन्द में कूदना पड़े, तो इससे बड़ा कलंक और कुछ नहीं हो सकता और अपने पिता का परित्याग कर उसके शत्रु के आधीन शासन करना मुझे मान्य नहीं। ये मेरे लिए मृत्यु से भी अधिक पीड़ादायक होगा।”
“कालभोज मेरा शत्रु है, पुत्र। पर तुम्हारा तो वो अभिन्न मित्र है।”
“उस मित्रता का आधार भी तो महज एक राजनीतिक दांव ही था। इसलिये मेरे लिए बालपन की उन स्मृतियों का उतना महत्व नहीं है, जितना अपने वंश के प्रति मेरी निष्ठा का है।” अपने पिता का कंधा पकड़ सुबर्मन ने उन्हें पुनः सिंहासन पर बिठाया, “ये समय आपके विश्राम करने का है, पिताश्री। युद्ध करने का नहीं।”
“नहीं, मेरे किये गये पापों का भार तुम पर नहीं आना चाहिए। ये अन्याय है।”
मानमोरी के उस क्रंदन पर सुबर्मन मुस्कुराया, “ये तो बड़ा उचित हुआ। पुत्र मोह ने आपको ये आभास करा दिया कि आपके कर्म उचित नहीं थे। किन्तु माता-पिता के सत्कर्मों का फल भोगने के साथ-साथ दुष्कर्मों का प्रायश्चित भी संतानों का प्रारब्ध होता है। चाहें वो न्यायोचित हो या नहीं।”
मानमोरी के नेत्र ग्लानि से भर गये, “अपने पिता के कर्मों का दण्ड भोगना यदि तुम्हें अन्याय लगता है, तो उस अन्याय के फल का आलिंगन क्यों करते हो?”
मुस्कुराते हुए सुबर्मन ने कहा, “पिता यदि योग्य हो, सर्वगुण सम्पन्न हो, तो संसार का हर पुत्र उसका समर्थन ही करेगा, ऐसा पिता एक वरदान की भाँति होता है। किन्तु यदि किसी को ये सारे वरदान प्राप्त ना हो तो क्या अपने पितृवंश के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं होता?”
सुबर्मन के इस तर्क के आगे मानमोरी मौन रह गये। उनके मुख पर छाये संशय के भाव को देख सुबर्मन ने मुस्कुराते हुए अपने पिता की ओर देखा, “संकट समय में पिता का त्याग ना प्रभु श्रीराम कर सकते थे, ना ही दशानन पुत्र इंद्रजीत ने ऐसा किया।”
अपने मौन पिता का कंधा पकड़ सुबर्मन गर्व में भरकर मुस्कुराया, “आप चिंता ना कीजिए। संसार ने और आपने आज तक केवल कालभोज की रणयात्रा देखी है, किन्तु कल प्रातः काल वो हरित ऋषि के इस दूसरे शिष्य के शस्त्रों की झंकार देखेगा। इस युद्ध का निर्णय अब अपनी भावी पीढ़ी पर छोड़ दीजिये।”
मानमोरी विचलित तो थे, किन्तु पुत्र के तर्कों के आगे निरुत्तर से हो गये।
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सूर्योदय के साथ ही चित्तौड़ के किले का द्वार खुला और अपने रथ पर आरूढ़ हुए मेवाड़ नरेश मानमोरी के साथ सेना की एक टुकड़ी ने रण में पदापर्ण किया। अपनी सेना के ठीक आगे, नारंगी धोती, सुदृढ़ कवच धारण किये कालभोज कदाचित उन्हीं की प्रतीक्षा में था। महादेव के आशीर्वाद स्वरूप माथे पर भभूत धारण किये उस वीर का माथा सूर्य के प्रकाश में किसी कमल की भाँति प्रकाशित हुआ प्रतीत हो रहा है। सुडौल वक्ष और भुजाओं का वो धारक भौहें सिकोड़े मानमोरी को निकट आता देख रहा था।
मेवाड़ नरेश को रथ से उतरता देख कालभोज ने माथे पर शिरस्त्राण धारण किया और हाथों में ढाल और भाला संभाल मानमोरी की प्रतीक्षा करने लगा। किन्तु मानमोरी आगे नहीं आया, अपितु तीव्र गति से अपने अश्व को दौड़ाता हुआ एक वीर चित्तौड़ के किले से निकलकर मानमोरी के निकट आकर रुक गया।
श्वेत धोती और अभेद्य प्रतीत होने वाला कवच धारण किये वो परमारवंशी युवक मुख मण्डल पर युद्ध का उन्माद लिये कालभोज को घूर रहा था। मन में अनन्य अनिष्ट की आशंकायें लिये कालभोज का हृदय काँपने लगा। अपने अश्व से उतरकर निशस्त्र हुआ सुबर्मन मस्तक पर चंद्र चिन्ह का तिलक धारण किये, कालभोज के निकट आने लगा। कालभोज ने भी अपना शिरस्त्राण उतारा और अपने शस्त्रों को एक सैनिक के हाथ में देकर उसकी ओर बढ़ा।
बीच रणभूमि में दोनों योद्धा एक-दूसरे के निकट आये। मुख पर मंद मुस्कान लिये सुबर्मन ने कहा, “आपने द्वन्द की माँग की थी। मैं आपका आवाहान स्वीकार करने के लिये प्रस्तुत हूँ, नागदा नरेश।”
यह सुन कालभोज विचलित सा हो गया। किन्तु अपनी उदविघ्नता मुख पर नहीं झलकने दी, “मैंने आवाहान मेवाड़ के राजा को दिया, उसके युवराज को नहीं।”
“आपने ये कैसे सोच लिया कि आप मेवाड़ नरेश को आवाहान देंगे और उनका पुत्र अपने वृद्ध पिता को आपसे द्वन्द करने के लिए प्रस्तुत कर देगा?”
“वृद्ध?” कालभोज ने कटाक्ष करते हुए कहा, “आपके इसी वृद्ध महाराज ने अपनी वासना के लिये पूरे भारतवर्ष के भविष्य को संकट में डाल दिया। और आप इनके रक्षण का प्रयास कर रहे हैं?” क्रोध में मुट्ठियाँ भींचे उसने घृणा भरी दृष्टि से मानमोरी की ओर देखा, फिर सुबर्मन की ओर मुड़ा, “कब तक? कब तक अपने पापी पिता के दुष्कृत्यों पर पर्दा डालते रहेंगे, भ्राताश्री?”
“अपने जन्मदाता के प्रति अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुआ जा सकता, कालभोज। तुम बस अपने कर्तव्य पालन का विचार करो। शस्त्र धारण करके सजग हो जाओ, क्योंकि ये द्वन्द हम दोनों में से किसी एक के अंत के साथ ही समाप्त होगा।”
सुबर्मन के शब्द सुन कालभोज खीज गया, “आप समझ पा रहे हैं कि आप किस पक्ष का चुनाव कर रहे हैं? चलिये, एक क्षण आप भूल जाईये कि उन्होंने मेरे परिवार के साथ क्या किया। किन्तु क्या आपको ये ज्ञात नहीं कि जिस पिता की आप भक्ति कर रहे हैं, उनके रचे हुए षड्यंत्रों ने सिंध के सहस्रों मनुष्यों के प्राण ले लिए और उस पूरे राज्य के भविष्य को अंधकार में डूबोकर समग्र भारतवर्ष की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया। राजकुमारी कमलदेवी ने जल समाधि ले ली, प्रीमलदेवी और सूर्यदेवी का भी कोई अता पता नहीं है। क्या उनके प्रति आपका कोई कर्तव्य नहीं है? प्रेम करते थे ना आप उनसे? और क्या बाल्यावस्था से हमारा साथ, हमारी मैत्री, और साथ बिताये तेरह वर्षों का कोई महत्व नहीं? क्या अपने इस पापी पिता के लिये आप इन सारे कर्तव्यों और सम्बन्धों को दांव पर लगाने को तैयार हैं?”
प्रीमल के विषय में सुन सुबर्मन के हृदय की मानों कोई नस सी दब गयी। नेत्रों में नमी आने को हुई, किन्तु अपने प्रतिद्वंदी के समक्ष दुर्बल दिखना उसे स्वीकार नहीं था, “प्रीमल नागदा में अपना निर्णय सुनाकर गयी थी, कालभोज। उसका और मेरा जब कोई सम्बन्ध ही नहीं था, तो कर्तव्य कैसा?”
कालभोज ने आश्चर्यभरी दृष्टि से उसे देखा, “आपका इतना निष्ठुर रूप मैं पहली बार देख रहा हूँ, भ्राताश्री?”
“रक्त और वंश का प्रभाव तो व्यक्ति पर पड़ता ही है, भोज।” सुबर्मन ने अपना स्वर और कठोर करते हुए कहा, “और रही बात हमारी मित्रता की, तो वो बस मेरे पिता की एक कूटनीतिक योजना थी। चूंकि हमारी सेना के बहुत वीर महाराज नागादित्य के विश्वास पर सेना में भर्ती हुए थे, इसीलिये मेवाड़ नरेश ने अपनी योजना के तहत मुझे तुम्हारे साथ शिक्षा ग्रहण करने को भेजा था। ताकि हम मित्र बन सकें, और तुम्हारे मेवाड़ के सेनानायक होने से हमारी सेना और शक्तिशाली बन सके। तो भूल जाओ उन सम्बन्धों को जिनका आधार ही एक षड्यन्त्र था।”
सुबर्मन के मुख से वो कटु सत्य सुन कालभोज स्तब्ध रह गया। वो स्थिर खड़ा कुछ क्षण अपने मित्र को देखता रहा। बाल्यावस्था की अनेकों स्मृतियाँ प्रत्यक्ष दिखाई देने लगीं, जो उसके नेत्रों में भी थोड़ी नमी की झलक दिखा गयी, “मैं नहीं मानता कि एक बालक को ऐसा विकृत षड्यन्त्र समझाकर उसे किसी से मित्रता करने भेजा जा सकता है।”
“मुझे ज्ञात रहा हो या ना रहा हो, इससे भला क्या अंतर पड़ता है?”
यह सुन कालभोज के मुख पर एक संतोष भरी मुस्कान आ गयी, “मुझे विश्वास था कि मेरा विश्लेषण गलत नहीं था। यदि हमारी मित्रता में छल होता तो उसका संकेत मुझे बहुत पहले मिल चुका होता।”
“तुम चाहें जो तर्क दो, ये द्वन्द टल नहीं सकता। प्राचीन काल से क्षत्रिय धर्म के नियम अनुसार यदि कोई राजा दूसरे राजा को ललकारता है, तो उस राजा के स्थान पर युवराज या राजकुमार भी उस आवाहन को स्वीकार कर सकता है। मैं अपने युवराज होने के साथ पुत्र धर्म निभाते हुए अपने पिता और अपनी बची हुई चालीस सहस्त्र की सेना के रक्षण के लिए आगे आया हूँ। तो उचित यही होगा कि शस्त्र उठाओ और अपने कर्तव्य का वहन करो।”
कालभोज ने क्षणभर सुबर्मन की ओर देखा फिर खीजते हुए कहा, “मुझे समय चाहिए। शीघ्र ही आपको उत्तर भिजवा दूँगा।” इतना कहकर कालभोज पलटकर जाने लगा।
सुबर्मन ने उसे टोका, “कोई भी निर्णय लेने से पहले ये स्मरण रखना कि चाहें जो हो जाये, जब तक मैं जीवित हूँ चित्तौड़ की सत्ता परमारों की ही रहेगी। क्योंकि अपने पिता की हत्या की चाह रखने वाले के आधीन होकर शासन करना मुझे मान्य नहीं।”
कालभोज उसे अनसुना कर पीछे की ओर चलता रहा। यह देख आगे बढ़ते हुए सुबर्मन ने कालभोज का कंधा पकड़ा और उसके नेत्रों में देखते हुए कहा, “अपना निर्णय लेते समय ये भी स्मरण रखना, कि यदि तुम इस द्वन्द से पीछे हट गये तो पूरा मेवाड़ तुम्हें कायर ही बोलेगा। यह भ्रांतियाँ फैलते देर नहीं लगेगी कि द्वन्द के लिए पहली ललकार तुम्हारी थी, और अपने सामने एक समर्थ योद्धा को खड़ा देख तुमने अपनी विशाल सेना को आगे कर दिया। परमारसेना पराजित हो भी गयी, तो भी मेवाड़ नरेश के रूप में कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा।”
सुबर्मन के उन कठोर वचनों को सुन कालभोज कुछ क्षण उसे देखता रहा। फिर उस कटाक्ष का बिना कोई उत्तर दिये लौट गया।
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रात्रि के अंधकार में नागदा के सैन्य शिविर के निकट जल रही अग्नि के चहुं ओर कालभोज के साथ चालुक्यराज विजयादित्य, महाराज नागभट्ट और शिवादित्य भी शांति से बैठे उसके निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे।
“वैसे तर्क तो युवराज सुबर्मन का उचित ही है।” चालुक्यराज ने मौन भंग करते हुए कहा, “अब यदि नागदा नरेश द्वन्द से पीछे हटे, तो वो हिन्द सेना का विश्वास खोने लगेंगे।”
नागभट्ट ने भी विजयादित्य का समर्थन किया, “यदि हमें विदेशी आक्रान्ताओं को अपने राष्ट्र से खदेड़ना है, तो ये विश्वास बहुत आवश्यक है। हमारे योद्धाओं में जन्मा लेश मात्र का भी संशय हिन्द सेना की एकता को खण्डित करने में अहम भूमिका निभा सकता है। यदि उन्हें ये ज्ञात हुआ कि आप अपने निजी धर्मसंकट अर्थात मित्र प्रेम के कारण पीछे हट गये, और लाखों सिंधियों के भविष्य को अंधकार में धकेलने वाले मानमोरी को उसके अधर्म का दण्ड दिये बना यहाँ से पराजय स्वीकार करके लौट गये, तो उसे आपकी दुर्बलता ही माना जायेगा, नागदा नरेश। और चालुक्यराज की भी यही आशा है कि आप उनके भाई की हत्या का षड्यन्त्र रचने वाले नराधम को दण्ड देकर उन्हें संतोष प्रदान कर सकें।”
कालभोज को उदविघ्न देख शिवादित्य ने भी नागभट्ट का समर्थन करते हुए कहा, “माना एक इक्कीस वर्ष के युवक के लिए ये कोई साधारण परिस्थिति नहीं है। किन्तु अब आप नागदा के महाराज होने के साथ हिन्द की इस सेना के प्रमुख सेनाध्यक्ष भी हैं। आपको अभी अरबियों से युद्ध में भी अपनी सेना का प्रतिनिधित्व करना है, इसके लिए पूरी सेना को आप पर विश्वास होना चाहिए। मानमोरी के घृणित षड्यंत्रों की सूचना अनेकों राज्यों में फैल चुकी है। उस असुर को क्षमा कर दिया, तो सिंध की प्रजा के रक्षण के लिये जाने पर भी वहाँ की प्रजा खुले मन से आपका स्वागत नहीं करेगी, अपितु आपको भी एक आक्रांता ही समझेगी जो उनकी भूमि पर युद्ध करने आये हैं।”
कालभोज ने सहमति में सिर तो हिलाया, किन्तु उन राजाओं के तर्कों का कोई उत्तर नहीं दिया।
“सूचना मिली कि हमारी आवश्यकता आन पड़ी है।” वो स्वर सुन अग्नि के निकट बैठे चारों वीर अपनी दाईं ओर मुड़े। चंद्र के प्रकाश में हरित ऋषि के भव्य तेजोमय मुखमंडल को देख वो चारों उठकर उनके निकट गये और बारी-बारी से उनके चरण स्पर्श किये।
उन्हें अपने आशीर्वादों से अनुग्रहित करते हुए हरित ऋषि ने अन्य राजाओं से विनती की, “यदि आप लोगों को कोई समस्या ना हो, तो इस समय हम कालभोज से एकांत में वार्ता करना चाहेंगे।”
हरित ऋषि की अवज्ञा करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। तीनों योद्धा गुरु शिष्य को एकांत देकर वहाँ से प्रस्थान कर गये।
“मुझे आप ही की प्रतीक्षा थी गुरुदेव ?”
हरित ऋषि ने भौहें सिकोड़ते हुए कहा, “ताकि तुम अपने कर्तव्य से विमुख होने का कोई और उपाय ढूँढ सको ?”
विचलित हुआ कालभोज अपने गुरु के निकट आया, “मेरी इच्छा बस ये है कि आप युवराज सुबर्मन को समझायें, कि उनका निर्णय अनुचित है।”
“क्या ये नागदा नरेश का आदेश है?” महर्षि हरित ने भौहें सिकोड़ते हुए प्रश्न किया।
उदविघ्न हुए कालभोज ने अपने हाथ जोड़ लिये, “ये आप क्या कह रहे हैं, गुरुदेव ? आपने तो हमारे जीवन की आधारशिला की रचना की है, हम कौन होते हैं आपको आज्ञा देने वाले?”
“तो फिर गुरु शिष्य की मर्यादा का उल्लंघन करने को क्यों कह रहे हो?”
“मैं..मैं समझा नहीं, गुरुदेव। ” भोज सकपका सा गया।
“बात तो सीधी सी है, वत्स कालभोज।” हरित ऋषि ने अपना स्वर स्थिर किया, “एक गुरु का कर्तव्य होता है कि शिक्षा के दौरान अपने ज्ञान से अपने शिष्यों का चरित्र निर्मित करें। किन्तु शिक्षा समाप्त होने के उपरान्त वो उसके जीवन के व्यक्तिगत निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यदि उसे ऐसा करना पड़े तो उसकी दी हुई शिक्षा का महत्व ही क्या है ?”
कालभोज को शंकित देख हरित ऋषि उसके निकट आये, “प्रश्न दृष्टिकोण का है, वत्स। तुम्हारा उद्देश्य राष्ट्रहित है, तो सुबर्मन अपने पिता की ढाल बनकर बैठा है। दोनों ने अपने बौद्धिक क्षमता और अनुभव का प्रयोग करके ही निर्णय लिया है, और तुम दोनों अपने स्थानों पर सही हो। तुम्हीं बताओ एक पुत्र से मैं कैसे कह दूँ कि वो अपने पिता का परित्याग कर दे?”
महर्षि हरित के शब्दों को सुनकर भी कालभोज को संतोष नहीं हुआ, “तो क्या मुझे युवराज सुबर्मन से द्वन्द करना ही होगा?” वो अपने नेत्रों में छायी नमी रोक नहीं पाया, “पूरा बचपन जिस मित्र समान भ्राता के साथ बिताया, अब मुझे उसी के प्राण लेने के लिये युद्ध करना होगा?”
“यदि तुम्हारी भाँति अर्जुन ने भी गंगापुत्र भीष्म की ओर चलने वाले अपने बाणों को रोक लिया होता, तो पापी कौरवों की विजय होती, और समग्र मानव समाज पाप के अंधकार में डूब जाता।” अपने शंकित शिष्य का कंधा पकड़ हरित ऋषि ने उसके नेत्रों में देखा, “बाल्यावस्था से असुरराज जलंधर ने अपने जीवन में छाये असंतोष और अन्याय को अपना प्रबल अस्त्र बनाने के स्थान पर उसे अपने पापों का स्त्रोत बनाया, और उसी अन्याय और पाप के मार्ग पर चल पड़ा। ये उसका व्यक्तिगत चुनाव था जिसका दण्ड समाज को भोगना पड़ा और अंततः महादेव को स्वयं ही अपने अंश से जन्में उस योद्धा का अंत करना पड़ा।”
“वासुदेव श्रीकृष्ण के वचनों का स्मरण करो, वत्स। आत्मा अमर है, अनश्वर है। मृत्यु की देवी आज नहीं तो कल हम सभी का आलिंगन करेगी ही। किन्तु आज यदि तुमने उचित निर्णय नहीं लिया, तो ना तुम्हें भारतवर्ष का इतिहास क्षमा करेगा, ना ही आने वाली पीढ़ी तुम्हें सम्मान की दृष्टि से देखेगी।” श्वास भरते हुए हरित ऋषि ने कालभोज को अंतिम तर्क दिया, “तुम्हारा एक निर्णय इस युद्ध को टालकर सहस्त्रों मेवाड़ी योद्धाओं के जीवन का रक्षण करके उन्हें तुम्हारे ही पक्ष में लाकर खड़ा कर देगा। किन्तु यदि अपने धर्मसंकट से पराजित होकर तुम पीछे हट गये, तो लाखों के जीवन संकट में पड़ जायेंगे। क्योंकि राजकुमार वेदान्त के गुप्तचरों की सूचना के अनुसार सिंध की शासन व्यवस्था को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में करने के उद्देश्य से इराक का खलीफा अल वालिद बिन अब्दुल मलिक अपनी एक और विशाल सेना की टुकड़ी सिंध में भेजने वाला है।”
अरबी सेना के संकट के विषय में जान कालभोज सतर्क सा हो गया। मुठ्ठियाँ भींच उसने क्षणभर को नेत्र मूँदे फिर दृढ़तापूर्वक अपने गुरु के नेत्रों में देखा, “आपने उचित ही कहा, गुरुदेव। भ्राता सुबर्मन ने अपना मार्ग चुन लिया है, तो अब मुझे भी चुनाव करना ही होगा। यदि अब मैं पीछे हट गया तो राजकुमार वेदान्त से कभी दृष्टि नहीं मिला पाऊँगा,
ना ही हिंदसेना का विश्वास जीत पाऊँगा। और यदि ऐसा हुआ तो कदाचित कमल भी मुझे कभी क्षमा नहीं करेगी। महाराज नागभट्ट ने सही कहा था कि मानमोरी जैसे पापी को दण्ड मिलना बहुत आवश्यक है ताकि समाज को एक उचित संदेश मिले, और कर्म के सिद्धांतों का संतुलन बना रहे।” दाँत पीसते हुए उसने अपने नम हुए नेत्रों के निकट फैले जल को पोछा और अपने गुरु के चरण स्पर्श किये, “मुझे आशीर्वाद दें गुरुदेव, कि महादेव की कृपा मुझ पर बनी रहे।”
“उनकी कृपा तो सत्य के मार्ग पर चलने वालों पर बनी ही रहती है, वत्स।” अपने शिष्य का कंधा थपथपाते हुए हरित ऋषि ने उसे सावधान करते हुए कहा, “बस राष्ट्ररक्षा के मार्ग में अपनी भावनाओं को स्वयं पर मत हावी होने देना। अन्यथा सुबर्मन भी एक पराक्रमी योद्धा है।”
“वो भी आपके ही शिष्य हैं। तो ये द्वन्द सरल तो नहीं होने वाला।” मुट्ठियाँ भींच अपनी भौहें ताने कालभोज का स्वर यकायक ही कठोर हो गया, “वचन देता हूँ, गुरुदेव। कल रणप्रांगण में युवराज सुबर्मन में मैं केवल अपना शत्रु देखूँगा, जो एक अधर्मी असुर का सबसे बड़ा कवच बनके बैठा हुआ है। यदि युवराज सुबर्मन की मृत्यु की आकांक्षा इतनी प्रबल है तो मैं उन्हें निराश नहीं करूँगा।”
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भगवान सूर्य नारायण ने अपनी लालिमा से रात्रि के अंधकार को मिटाना आरम्भ ही किया था कि दोनों पक्षों के अनेकों राजाओं और सामंतों ने अपने-अपने शंख फूँके। मानों होने वाले द्वन्द के निर्णय को अपना पूर्ण समर्थन दे रहे हों। चालुक्यराज विजयादित्य ने स्वयं अपना विशिष्ट आठ हाथ लम्बा राजसी भाला उठाया और दूर खड़े मानमोरी को घूरते शस्त्र धारण किये हुए कालभोज के अश्व के निकट ले गये, और उसके हाथ में थमाया, “ये केवल एक शस्त्र नहीं चालुक्यों के बल का भी प्रतीक है, नागदा नरेश। ये आपकी शक्ति में वृद्धि अवश्य करेगा।”
उस भाले को ध्यान से देख कालभोज ने चालुक्यराज का आभार प्रकट किया, “पूरा प्रयास रहेगा कि मैं आपके साथ हिन्दसेना की प्रबल शक्ति का माध्यम बन सकूँ।”
वो भाला संभाले कालभोज ने अपने सामने खड़े अश्व पर आरूढ़ हुए सुबर्मन की ओर देखा। दोनों योद्धा अपने शस्त्रों से सुसज्जित अश्वों को लेकर आगे बढ़े और शीघ्र ही एक-दूसरे के निकट आ पहुँचे।
“उत्तम निर्णय लिया, नागदा नरेश।” सुबर्मन के स्वर में इस बार तनिक भी आत्मीयता की झलक नहीं थी, “अब निर्णय हो जायेगा कि मेवाड़ का भविष्य किसके हाथ में होगा।”
कालभोज का स्वर भी कठोर हो गया, “तो क्या मेवाड़ नरेश समेत आपके पक्ष के सभी योद्धाओं को इस द्वन्द का निर्णय स्वीकार होगा?”
“निसन्देह, यदि आप विजयी हुए नागदा नरेश, तो यहाँ उपस्थित मेवाड़ नरेश मानमोरी समेत सभी सामंत आपकी सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर देंगे। और यदि मेरी विजय हुई, तो आपकी सेना और समस्त राजाओं को चित्तौड़ की धरती छोड़नी होगी।”
“स्वीकार है।” अपने अश्व की धुरा पकड़ कालभोज ने उसे पीछे मोड़ा और पुनः अपनी सेना के निकट गया। सुबर्मन ने भी अपने मस्तक पर धारण किया शिरस्त्राण ठीक किया और मुड़कर अपनी सेना के निकट आया।
भगवान सूर्य नारायण को नेत्रों से प्रणाम करते हुए कालभोज युद्ध आरम्भ होने के संकेत की प्रतीक्षा करने लगा। वहीं द्वन्द के आरम्भ होने की प्रतीक्षा में सुबर्मन के रोयें भी खड़े हो रहे थे। एक-दूसरे पर दृष्टि गड़ाये अपने बाल्यकाल की स्मृतियों की झलक उन दोनों योद्धाओं के समक्ष बार-बार आ रही थी, जिससे उनके हृदय की धड़कने बढ़ी चली जा रही थी। शीघ्र ही एक ओर से शिवादित्य और दूसरी ओर से मानमोरी ने लाल ध्वज लहराया।
द्वन्द आरम्भ का संकेत मिलते ही दोनों वीरों ने अपने अश्व एक-दूसरे की ओर दौड़ाये। अपने-अपने भाले ऊँचे किये निसंकोच प्रतीत हुए दोनों महारथियों के नेत्र विजय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त थे। दोनों अश्वों के निकट आते ही क्षणभर के लिये मानों दोनों पक्षों के अनेक योद्धाओं की हृदयगति रुक सी गयी, चहुं ओर शांति सी छा गयी। विद्युत गति से आते भालों के टकराव ने उस शांति को यूँ भंग किया मानों अकस्मात ही शांत आकाश में मेघ गरज पड़े हों।
प्रहार इतने भीषण थे कि दोनों को अपने अश्वों समेत कुछ पग पीछे हटना पड़ा। अपने अश्वों को साधे दोनों योद्धा एक दूसरे के शरीर की हर चाल पर किसी गरुड़ की भाँति पैनी दृष्टि जमाये हुए थे। दोनों अश्व पुनः दौड़े, कालभोज का भाला किसी चक्र की भाँति घूमता हुआ सुबर्मन की छाती की ओर बढ़ा जिसे उसने सफलतापूर्वक अपनी ढाल पर रोका और अपना बचाव करते हुए आगे बढ़ गया।
अपनी ढाल गिराकर कालभोज ने दूसरे हाथ में तलवार थाम ली। किन्तु सुबर्मन ने अपनी ढाल पर पकड़ बनाये रखी और भाले को कंधे की सीध में लेकर कालभोज की ओर मुड़ा। इस बार जब दोनों अश्व निकट आये तो कालभोज के प्रहारों से बचने के लिये वो स्वयं ही अपने अश्व से नीचे कूद गया और भाला कालभोज के अश्व के कण्ठ में घुसाकर छोड़ दिया।
कालभोज का अश्व पीड़ा से हिनहिनाता हुए दौड़ता हुआ भूमि पर गिरने को हुआ। उसके गिरने से पूर्व ही कालभोज छलांग लगाकर भूमि पर कूद गया। पलटकर देखा तो सुबर्मन एक और भाला संभाले अपने अश्व पर पुनः आरूढ़ हुआ उसी की ओर चला आ रहा था, और इस बार वो सुबर्मन के भाले के प्रहार से अछूता ना रह पाया। बचने के अथक प्रयास के उपरान्त भी गतिमान अश्व के साथ आता हुआ वो भाला भोज के कंधे पर घाव करता हुआ गया।
भूमि पर गिरे कालभोज को देख मानमोरी उत्साह में चीख पड़ा, “अद्भुत पुत्र।” किन्तु हिंदसेना के किसी भी रणबाकुरें के मुख पर चिंता का लेश मात्र भी भाव नहीं था। उस घाव में वो सामर्थ्य नहीं था जो कालभोज के प्रति उनके विश्वास को डिगा सके।
अपने शरीर की धूल झाड़ते हुए कालभोज ने अपने हाथ में पकड़े तलवार और भाला दोनों गिराया, और अश्व से आते सुबर्मन के भाले के अगले प्रहार से गुलाटी खाते हुए बड़ी सफाई से बचा। अगले ही क्षण कालभोज अपने लगभग मृत हुए अश्व की ओर दौड़ा और शस्त्रों की पेटी में बँधी एक गदा उठाये सीधे सुबर्मन के दौड़ते हुए अश्व की ओर चलाई। वो भारी गदा पूर्ण गति से उस अश्व के मस्तक पर बंधे कवच से टकराई और उसके माथे को रक्तरंजित कर गयी। अपने अश्व को असंतुलित होता देख सुबर्मन भूमि पर कूद पड़ा, और भाला छोड़ कालभोज की ही भूमि पर गिरी गदा उठा ली। यह देख शिवादित्य ने भी एक मजबूत गदा उठाकर कालभोज की ओर फेंकी।
वो गदा संभाले कालभोज ने कंधे उचकाते हुए सुबर्मन की ओर देखा।
पूर्ण गति से दौड़ते हुए उन वीरों की गदा के टकराव से उत्पन्न हुए गगनभेदी स्वर ने दूर किले की छतों पर बैठे पक्षियों को अपना विश्रामस्थल छोड़ उड़ने पर विवश कर दिया। उन महाअस्त्रों के टकराव से लगातार फूटती चिंगारियाँ भले ही उन वीरों के हाथों में तनिक भी झनझनाहट उत्पन्न करने में समर्थ ना हो, किन्तु अग्नि की संभावना उत्पन्न करती उन चिंगारियों को देख वृक्ष पर बैठे अनेकों वानर के हृदय भी थर्रा उठे थे। भय के मारे वो एक से दूसरे वृक्ष पर कूद कभी उस ओर आँखें बड़ी करके देखते, कभी दाँत दिखाकर अनायास ही हुड़की देते हुए अपने भय को दूर करने का प्रयास करते।
एक प्रहर तक गदाओं के टकराव ने समग्र वातावरण को आतंकित कर रखा था। सूर्य आकाश में चढ़ आया था, अकस्मात ही चमकती धूप से कालभोज की आँखें चुँधियाँ गईं, और सुबर्मन की चलाई हुई गदा सीधे उसकी छाती से आ टकराई। वो प्रहार इतना भीषण था कि कालभोज के कवच में दरार उत्पन्न कर उसे भूमि पर ले आया। मुख से उगला हुआ रक्त उसकी ठोड़ी पर फैल गया। दौड़ता हुआ सुबर्मन एक और प्रहार करने की मंशा से उसकी ओर बढ़ा। कालभोज भूमि पर लुढ़कते हुए उसके प्रहार से बचा और उठने के दौरान ही अपनी गदा जोर से घुमाई।
उस गदा का प्रहार सीधा सुबर्मन के मस्तक पर हुआ, उस प्रहार ने उसका शिरस्त्राण तोड़ा और उसके मस्तक पर गहरी चोट करते हुए उसे भूमिसत कर गया।
भूमि पर गिरे सुबर्मन के मस्तक से बहती रक्त की धारा देख अकस्मात ही कालभोज के हाथों को मानों लकवा सा मार गया। अपने मित्र और भ्राता की वो दुर्दशा देख उसके हृदय ने एक और प्रहार करना स्वीकार नहीं किया।
“महाराज कालभोज की जय हो।” हिन्दसेना के अनेकों वीरों ने नागदा नरेश के जयकारे लगाने आरम्भ किये।
उन जयकारों के साथ ही हर हर महादेव के उद्घोष ने अगले ही क्षण कालभोज के मन मस्तिष्क को पुनः वर्तमान परिदृश्य से परिचित करा दिया। भूमि से उठते हुए सुबर्मन के फूटे मस्तक से बहता हुआ रक्त, उसके मुख पर सनी मिट्टी से मिलकर गालों पर जमना आरम्भ हो गया था। वो हृदयविदारक दृश्य देख कालभोज ने क्षणभर के लिये अपने नेत्र मूँद लिये, किन्तु लगातार होते हर हर महादेव के उद्घोष ने उसे अपने उद्देश्य पर डटे रहने को प्रेरित किया।
हाथ में गदा लिये अपना फूटा हुआ शिरस्त्राण भूमि पर फेंककर सुबर्मन ने अपनी गदा संभाली और आँखों ही आँखों में कालभोज को ललकारा।
“अब भी समय है, भ्राताश्री। पराजय स्वीकार कर लीजिए।” कालभोज का मन सुबर्मन का रक्त देख अब भी व्यथित हो रहा था।
“क्षत्रिय का वचन कभी मिथ्या सिद्ध नहीं हो सकता, वीर कालभोज। मेरे जीवित रहते तुम्हें विजयश्री प्राप्त नहीं होगी।”
सुबर्मन के लड़खड़ाते हुए शब्दों को सुन कालभोज खीज गया, “एक समय ऐसा था, जब हम दोनों एक-दूसरे के लिये रक्त बहा सकते थे। किन्तु आपने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी, कि हम एक-दूसरे का ही रक्त बहाने पर विवश हो गये।” उसने अपनी ठोड़ी से बहते हुए रक्त पर हाथ फेरा, “किन्तु अब उस वार्ता का समय निकल चुका है। कदाचित आपको भी विश्राम की आवश्यकता है और मुझे भी। ठीक एक प्रहर उपरान्त हम यहीं मिलेंगे।”
सुबर्मन को भी अपनी शारीरिक क्षमता ठीक नहीं लगी, इसलिए कालभोज के उस प्रस्ताव पर सहमति में सिर हिलाते हुए वो भी पीछे हट गया। अपने घायल पुत्र को निकट आते देख विचलित हुए मानमोरी ने उसे लाकर अपने निकट बैठाया और चीख पड़े, “शीघ्र करो, वैद्य को बुलाओ।”
इधर कालभोज भी एक बड़े पत्थर पर आकर बैठा, और अपना कवच और शिरस्त्राण उतारे अपने कंधे सीधे किये। सुबर्मन की गदा के भीषण प्रहार का प्रभाव उसकी छाती पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था, जिसने शरीर के छोटे से भाग को यूँ लाल कर दिया था मानों भीतर रक्त का थक्का जमा हुआ हो। अपने मुख पर लगा रक्त पोछते हुए कालभोज की दृष्टि सुबर्मन की ही ओर थी जिसकी मरहम पट्टी मेवाड़ के राजसी वैद्य कर रहे थे।
पात्र से जल पीते हुए कालभोज के कंधे पर अकस्मात ही एक हाथ आया। मुड़कर देखा तो महर्षि हरित उसके समक्ष खड़े थे, “आप यहाँ युद्धभूमि में, गुरुदेव ?”
“सुनने में आया कि तुम पुनः अपने कर्तव्यपथ से भटक रहे हो। तो मुझे आना ही पड़ा।”
अपने गुरु के शब्द सुन कालभोज थोड़ा हिचकिचाया, “वो अत्यंत घायल हो गये थे, तो मेरे विचार से उन्हें थोड़ा समय देना उचित था।”
“तुम अपनी गदा के एक और वार से उसकी पीड़ा का अंत भी तो कर सकते थे, क्यों?”
कालभोज ने सहमति जताते हुए कहा, “तर्क तो आपका उचित है, इन पीड़ाओं का जितनी शीघ्र अंत हो जाये उतना अच्छा है।” अपने मुख पर लगे जल को पोछते हुए कालभोज ने अपना स्वर दृढ़ किया, “किन्तु इस बार मैं उन पर कोई दया नहीं करूँगा।”
“जब भी दया का विचार मन में आये, मेरी ओर देखना। मेरी दृष्टि तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य का बोध अवश्य करायेगी।”
अपने गुरु की आज्ञा सुन कालभोज ने सहमति में सिर हिलाया, “जो आज्ञा, गुरुदेव।”
इधर सुबर्मन के मस्तक पर पट्टी बांधकर राजवैद्य ने उसे हल्दी में गर्म किया हुआ दूध पीने को दिया, “ये आपकी शक्ति में वृद्धि करेगा, युवराज।”
सुबर्मन की दाईं आँख के नीचे के भाग में सूजन आना आरम्भ हो गयी थी। अपने उस पुत्र को दुग्ध पान करते देख मानमोरी का हृदय भर आया, “तुमने मेरे किये दुष्कर्मों का जितना भुगतान करना था कर लिया, युवराज। अब आगे का द्वन्द मुझे करने दो।”
मुस्कुराते हुए सुबर्मन ने दूध का पात्र नीचे रखा, “मैं केवल आपका पुत्र नहीं हूँ मेवाड़ नरेश, एक क्षत्रिय भी हूँ। अपना वचन भंग कर जीवित रहने से उत्तम होगा कि मैं स्वेच्छा से मृत्यु का आलिंगन कर लूँ।”
“तुम्हें अपने महाराज के आदेश का पालन करना ही होगा।” मानमोरी का स्वर और कठोर हो गया।
सुबर्मन ने हाथ जोड़ अपने पिता से विनती की, “आप स्वयं अपने दुष्कर्मों से हमारे वंश पर बहुत कलंक लगा चुके हैं, पिताश्री। अपने जीवन का एक निर्णय तो मुझे लेने दीजिए।” इससे पूर्व मानमोरी कोई और तर्क देते सुबर्मन ने एक और अकाट्य तर्क दिया, “यदि आप मेरे स्थान पर इस द्वन्द में कूद भी गये, तो आपके वीरगति को प्राप्त होने के उपरान्त भी मैं ये द्वन्द जारी रखूँगा। मेरे जीवित रहते कालभोज सम्पूर्ण मेवाड़ का शासक नहीं बन सकता। वचन भंग करके मैं परमारवंश को कलंकित नहीं करूँगा।”
उन अकाट्य तर्कों के आगे मानमोरी को मौन रह जाना पड़ा। मुट्ठियाँ भींचते हुए वो चंद पग पीछे हटे।
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एक प्रहर का समय बीता। हाथ में तलवार और ढाल संभालकर सुबर्मन ने अपने कंधे उचकाये। एक सैनिक उसे शिरस्त्राण पहनाने आया, किन्तु उसने दूर रहने का संकेत दिया, “इस पट्टी के साथ शिरस्त्राण उचित नहीं होगा।”
कालभोज ने भी शरीर पर कवच धारण किया और तलवार के साथ ढाल संभाले सुबर्मन को घूरने लगा। अपने प्रतिद्वंदी को बिना शिरस्त्राण के आता देख, वो भी अपना शिरस्त्राण वहीं पत्थर पर छोड़कर आगे बढ़ा। रक्तरंजित वस्त्रों और कवचों को धारण किये दोनों महारथी पूर्ण गति से विजय की आकांक्षा लिये अपना अंतिम द्वन्द लड़ने दौड़ पड़े।
तलवारों और ढालों के टकराव ने पुनः वातावरण में छाई शांति में एक भूचाल सा ला दिया। लोहे से लोहे के टकराव से उत्पन्न हुई चिंगारियों और दमकते हुए सूर्य की धूप के कारण उन तलवारों की गर्माहट बढ़ती चली जा रही थी। और उस गर्माहट में रक्त पिपासु हुई दोनों तलवारों ने उन वीरों के कंधे, भुजा, जांघ और कमर पर अनेकों घाव बनाकर उनका रक्त पीना आरम्भ कर दिया था।
दोनों ढालें यकायक ही टकराई, और दोनों महावीर बलपूर्वक एक-दूसरे को पीछे घसीटने का प्रयास करने लगे, जहाँ कालभोज का बल थोड़ा अधिक सिद्ध हुआ। उसने सुबर्मन को भूमि पर धकेल दिया, और उसके प्राण लेने की मंशा से तलवार चलाई। लुढ़कते हुए सुबर्मन उस प्रहार से बचा और अपनी ढाल से कालभोज के हाथ पर प्रहार करते हुए भूमि से उठा।
तलवार कालभोज के हाथ से छूट गयी, वहीं सुबर्मन ने पुनः उठकर तलवार के प्रहार आरम्भ किये। कालभोज अपनी ढाल पर उसके प्रहार रोकते हुए बचने के लिए गुलाटियाँ खाता रहा और उसी दौरान उसने भूमि पर गिरा एक भाला उठा लिया और सीधे सुबर्मन की छाती की ओर बढ़ाया। बाईं ओर हटते हुए सुबर्मन उस प्रहार से बचा। उसकी तलवार कालभोज के भाले पर चली। कालभोज के भाले का ऊपरी भाग कटकर गिर गया।
कालभोज ने भाले के बचे हुए भाग से अपने बचाव का प्रयास किया, किन्तु रौद्र रूप धारण किये सुबर्मन ने एक ही प्रहार में उसके भी दो टुकड़े कर दिये। सुबर्मन के नेत्रों में धधकता अंगार देख कालभोज ने भी अपनी ढाल पर कसाव बढ़ाया और गोलाकार दिशा में घूमते हुए अपनी ढाल से उसके लगातार होते प्रहारों को रोकने लगा। सुबर्मन का अगला प्रहार कालभोज के पाँव की ओर हुआ, जिससे बचने हेतु अभी वो उछलकर वापस भूमि पर कूदा ही था कि सुबर्मन की ढाल उसकी छाती पर चोट कर गयी। उसने क्षणभर के लिए अपना संतुलन खोया और सुबर्मन अपनी तलवार लिये उसकी ओर उछला। किन्तु समय रहते कालभोज संभला, और किनारे हटते हुए सुबर्मन के मुख पर ढाल से शक्तिशाली प्रहार किया।
उस भीषण चोट को खाकर सुबर्मन पुनः भूमि पर गिर पड़ा। उसकी नाक से बहते रक्त को देख क्षणभर के लिये कालभोज के पग रुक गये और उसकी दृष्टि महाऋषि हरित की ओर मुड़ी। हरित ऋषि के नेत्रों में झलक रही कठोरता देख कालभोज ने भी अपने हृदय को सुदृढ़ कर लिया। उसने अपने निकट की भूमि पर पड़ा भाले का एक नुकीला टुकड़ा उठाया।
रक्तरंजित मुख लिये भूमि से उठता सुबर्मन किसी घायल सिंह सा प्रतीत हो रहा था। नाक की फूटी नसली से बहता रक्त होंठों के नीचे तक आ फैला था। अपने उस घाव को गर्व से सहलाते हुए उसने कंधे उचकाये और तलवार और ढाल पर पकड़ बनाये किसी भूखे नरव्याघ्र की भाँति गर्जना करते हुए कालभोज की ओर दौड़ पड़ा।
भाले का टुकड़ा और ढाल को हाथ में उठाये कालभोज वहीं स्थिर खड़ा सुबर्मन के निकट आने की प्रतीक्षा करने लगा। पूर्ण आत्मविश्वास में सुबर्मन ने अपनी तलवार अपने प्रतिद्वंदी के कंधे की ओर चलाई, कालभोज उस प्रहार से झुककर बचा और ढाल सुबर्मन के मस्तक की ओर फेंकी। घूमती हुई ढाल की चोट खाकर सुबर्मन का सर चकराया और उसने क्षणभर को अपना संतुलन खोया, जो कालभोज की विजय के लिये पर्याप्त सिद्ध हुआ। हाथ में भाले का नुकीला सिरा लिये कालभोज ने एक हाथ से सुबर्मन की ढाल को किनारे किया, और उसके दूसरे हाथ में थमा वो भाले का टुकड़ा सीधा सुबर्मन के कवच को तोड़ता हुआ, उसके उदर से होते हुए पीठ के पार आ गया।
एक साथ रीढ़ की नसों में हुई भयानक क्षति का संकेत सुबर्मन के मस्तिष्क तक पहुँचते विलंब नहीं हुआ। तलवार और ढाल पर उसकी पकड़ ढीली पड़ गयी। मुख से रक्त उगलते हुए सुबर्मन को शिथिल पड़ता देख कालभोज ने उसे कसकर हृदय से लगा लिया, “इस शत्रुता की समाप्ति के उपरान्त आपका वचन भी पूर्ण हुआ, भ्राताश्री। अब विश्राम का समय है।”
उस भयानक वेदना में भी कालभोज की छाती का स्पर्श सुबर्मन के हृदय को असीम शांति प्रदान करते हुए उसके मुख मण्डल पर मुस्कान खिला गया। रक्त उगलते हुए फूटे हुए शब्दों में सुबर्मन ने अपना अंतिम संदेश दिया, “मेवाड़ की ये पवित्र भूमि अपने कालभोजादित्य रावल का स्वागत करती है।”
उसके अंतिम वचन सुन कालभोज के नेत्रों में भी नमी आ गयी। भाले का नुकीला सिरा अपने भ्राता के शरीर से निकालकर उन्हें और पीड़ा देना उसे उचित नहीं लगा। रीढ़ और मस्तिष्क का जुड़ाव करने वाली नसों में हुए गहरे घाव के कारण सुबर्मन का शरीर शिथिल होने में अधिक समय नहीं लगा, अपना मस्तक अपने मित्र के कंधे पर रख परमारवंश का वो कुलदीपक शांत हो गया। नेत्र मूँदकर कालभोज उसे कुछ क्षण तक अपनी छाती से लगाये रहा। सुबर्मन के शरीर से बही रक्त की धारायें कालभोज के शरीर पर फैल रही थी, मानों उसे आने वाली कई रातों को आने वाले दुस्वप्नों के लिये तैयार कर रही हों।
अपने एक परमवीर शिष्य को मृत्यु के मुख में जाता देख क्षणभर के लिये हरित ऋषि भी भावविभोर हो गये। किन्तु जब उदविघ्न हुए कालभोज ने उनकी ओर देखा, तो एक गुरु होने के कर्तव्य को निभाते हुए उन्होंने अपने मुख पर पीड़ा झलकने नहीं दी। उन्होंने अपने नेत्रों में स्थिरता बनाये रखी, ताकि कालभोज का साहस बढ़ा सकें।
कालभोज ने अपने कंधे पर टिके सुबर्मन के मस्तक पर हाथ फेरा और उसे सम्मानपूर्वक भूमि पर लिटाया। मुख और शरीर पर फैले अब तक के सबसे महान प्रतिद्वंदी के रक्त से अलंकृत हुए कालभोज ने मेवाड़ नरेश मानमोरी की ओर घृणाभरी दृष्टि से देखा।
मानमोरी बिना एक और क्षण विलंब किये, दौड़ते हुए अपने पुत्र की ओर आये और किसी जल बिन मछली की भाँति तड़पते हुए उसमें जीवन के चिन्ह ढूँढने लगे। कालभोज की विजय सुनिश्चित होने के उपरान्त चित्तौड़ के सामंतों ने धीरे-धीरे आगे आकर अपने शस्त्रों का समर्पण करना आरम्भ किया। मानमोरी को अपने पुत्र के लिये छटपटाता हुआ देख चालुक्यराज विजयादित्य और शिवादित्य के मुख पर भी अदम्य संतोष का भाव आ गया। मुस्कुराते हुए विजयादित्य अपने सामंत गुहिलवंशी शिवादित्य की ओर गये और उनके कंधे पर हाथ रख मुस्कुराये, “कदाचित अब हम दोनों आपस की कड़वाहट समाप्त करने का प्रयास कर सकते हैं।”
शिवादित्य ने अपने हाथ जोड़ चालुक्यराज को प्रणाम किया, “आप क्षमा करें या ना करें, मेरी निष्ठा चालुक्यों के प्रति थी और उन्हीं के प्रति रहेगी।”
“वो तो हम भलीभाँति जानते हैं, सामंत शिवादित्य।” मानमोरी की ओर मुड़ चालुक्यराज की भौहें तनीं, “तनिक आगे चलिए, उस दुष्ट की पीड़ा को हम अपने नेत्रों से देखना चाहते हैं।”
पुत्र वियोग में सुबर्मन के निकट घुटनों के बल बैठे मानमोरी को भान ही नहीं हुआ, कि कब हरित ऋषि सहित महाराज नागभट्ट, चालुक्यराज, शिवादित्य और कालभोज ने उसे चहुं ओर से घेर लिया। वो तो बस अपने पुत्र के शव को सहलाये जा रहा था, और किसी चीज की उसे कोई परवाह ही नहीं थी। उनकी विक्षिप्त दशा देख चालुक्यराज को भी क्षणभर के लिये उन पर करुणा सी आ गयी। वो कालभोज की ओर मुड़े, “इन्हें सत्ता से आपने हटाया है। अब आप ही इस दुष्ट का दण्ड निश्चित कीजिए, मेवाड़ नरेश।”
कालभोज हरित ऋषि की ओर मुड़ा। उसके मन में उठते प्रश्नों का अनुमान लगाकर हरित ऋषि ने कहा, “एक योद्धा निष्ठुर हो तो उससे समाज को कोई हानि नहीं होती। किन्तु एक राजा के मन से यदि करुणा का भाव नष्ट हो जाये, तो वो प्रजा के लिए श्राप बन जाता है।”
अपने गुरु का संकेत समझ कालभोज मानमोरी की ओर मुड़ा, “पूर्व मेवाड़ नरेश की मानसिक दशा को देखते हुए यही लगता है कि वो मृत्युदण्ड के पात्र नहीं है। किन्तु इनके पाप भी अक्षम्य हैं, इसलिए मैं मेवाड़ का नया नरेश उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड सुनाता हूँ।
चालुक्यराज ने भी सहर्ष इस निर्णय से सहमति जताई, “उचित कहा आपने, महाराज कालभोज। मृत्यु तो इसे इसकी पीड़ा से मुक्त कर देगी। किन्तु बंदीगृह में अपना शेष जीवन काटकर जब बार-बार इसे स्मरण होगा कि किस प्रकार इसके किये पापों का दण्ड इसके एकमात्र पुत्र को भोगना पड़ा, तो हर दिन अनेकों बार ये मृत्यु का अनुभव करेगा।”
कालभोज ने पुनः मानमोरी की ओर देखा जो अब किसी विक्षिप्त मनुष्य सा प्रतीत हो रहा था, जिसमें ना बोलने की क्षमता थी, ना अश्रु बहाने की, “इस नराधम के प्रारब्ध का निर्णय तो हो गया। अब हमारा अगला लक्ष्य है वो अरबी सेनापति मुहम्मद बिन कासिम।”
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अनेकों अरबी सैनिक घरों को आग के हवाले करते हुए निशस्त्र हुए मनुष्यों की यूँ हत्या कर रहे थे मानों वो कोई भेड़ बकरी हों। घूँ घूँ कर जलते कच्चे घरों के बीच कासिम अपनी तलवार लिए यूँ खड़ा था मानों झल्लाहट से पागल हो जायेगा, “कहाँ गईं? कहाँ गईं वो दोनों शहजादियाँ?”
डरे हुए एक ग्रामीण का गिरेबान पकड़ कासिम ने उसकी आँखों में देखा, “दो महीनों में हमने दसियों गाँव उजाड़ दिये, हजारों की लाशें बिछा चुके हैं। ये गाँव भी तबाह करके रख देंगे। बेहतर यही होगा कि अपनी शहजादियों का पता बता दो।”
“हमें नहीं ज्ञात, सरकार। छोड़ दीजिए हमें।” वो ग्रामीण गिड़गिड़ाने लगा। क्रोध में कासिम ने उसे भूमि पर गिराया और उसका अंत करने की मंशा से तलवार ऊपर की।
“मैं बताता हूँ वो कहाँ हैं।”
वो स्वर सुन वह पीछे की ओर मुड़ा। अरबियों के साथ कभी युद्ध लड़ने वाला मोखा बसाया उसके सामने खड़ा था। उसका दायाँ हाथ कटा हुआ देख कासिम उसके निकट गया, “कहाँ थे अब तक तुम?”
“युद्ध करने की स्थिति में नहीं था, हुजूर। दो महीने लग गये मुझे अपना उपचार करवाके स्वस्थ होने में।”
कासिम ने क्षणभर उसे घूरकर देखा, फिर प्रश्न किया, “जो भी हो। तुम कुछ कह रहे थे उन शहजादियों के बारे में?”
“हाँ, हुजूर। वो दोनों भेष बदलकर सिंध में ही छिपी हुई हैं। आप हमारे साथ चलिये।”
इससे पूर्व कासिम उसके साथ आगे बढ़ता, दौड़ता हुआ एक अरबी सैनिक कासिम के निकट आया और उसे झुककर सलाम किया। उसे विचलित देख कासिम जिज्ञासु हो उठा, “कोई बुरी खबर है?”
“हाँ, हुजूर। बहुत बड़ी खबर है। मेवाड़, जिसने सिंध से नाता तोड़ रखा था, उसका तख्ता पलट हो गया।”
“तो? कौन है वहाँ का नया हुक्मरान ?”
“उसकी आवाम उसे महाराणा कालभोजादित्य रावल के नाम से पुकार रही है। उसके साथ चालुक्यों, प्रतिहारियों की लाखों की फौज सिंध को हमारी गिरफ्त से छुड़ाने के लिए हमला करने वाली है।”
“यह सुन कासिम की आँखें भी आश्चर्य से बड़ी हो गयीं, “अब ये क्या मुश्किल आन पड़ी।” झल्लाहट में कासिम ने उस सैनिक को आदेश दिया, “ब्राह्मणाबाद जाओ और वहाँ के सुल्तान सलीम बिन जैदी को पैगाम दो, कि अपनी फौज को तैयार रखें। मैं सुल्तान को पैगाम भेजकर और मदद मंगाने की कोशिश करता हूँ।”
उस सैनिक के जाने के बाद कासिम मोखा की ओर मुड़ा, “मैं अपनी छावनी की ओर जा रहा हूँ। फौज की एक टुकड़ी लेकर जाओ, और उन दोनों शहजादियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करो। मैं जल्द ही अब्दुल अस्मत को तुम्हारी मदद के लिये भेज दूँगा।”
मोखा ने यूँ भौहें सिकोड़ीं मानों उसका अपमान हुआ हो। उसे मौन देख कासिम ने पुनः टोका, “तुमने सुना नहीं क्या? खड़े क्यों हो यहाँ पे?”
“जी, जी, हुजूर। मैं जाता हूँ।” सर झुकाते हुए मोखा वहाँ से प्रस्थान कर गया।
उसके जाने के उपरान्त कासिम ने निकट खड़े ग्रामीणों की ओर देख अपनी फौज को आदेश दिया, “कैद कर लो इन्हें। खलीफा और सुल्तान को हमें और भी गुलाम भेजने हैं।”
तत्पश्चात कासिम ने निकट में रखा एक जल से भरा मटका उठाया, और अपने मन को शांत करने के लिये पूरा जल अपने ऊपर उड़ेल दिया। अपने गीले हुए मुख से उसने दोपहर को आकाश में चढ़ आये सूर्य की ओर देखा, “महाराणा कालभोजादित्य रावल। उम्मीद है हमारा सामना बहुत जल्द होगा।”
कथा जारी रहेगी अगले खण्ड में..
श्री बप्पा रावल की विजययात्रा 🚩