Shri Bappa Raval - 12 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - 12 - हरित ऋषि से भेंट

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श्री बप्पा रावल - 12 - हरित ऋषि से भेंट

एकादशम अध्याय 
हरित ऋषि से भेंट

चित्तौड़ के महल के प्रांगण में चहलकदमी करते मेवाड़ नरेश मानमोरी बड़ी व्यग्रता से सूचना की प्रतीक्षा में थे। मंत्री जलसंघ भी उनके साथ खड़े थे, तभी एक सैनिक दौड़ता हुआ उनकी ओर आया। उसे व्यथित देख मानमोरी के मुख पर मुस्कान आ गयी, “कोई विशेष सूचना?” 

“नागदा नरेश नागादित्य और उनकी पत्नी मृणालिनी की भीलों द्वारा हत्या कर दी गयी, महाराज।” 

“मृणालिनी की मृत्यु? ये कैसे सम्भव है?” मानमोरी अचम्भित रह गये। तभी जलसंघ ने मानमोरी के कंधे पर हाथ रख उसे सावधान किया कि कहीं वो आवेश में आकर उस सैनिक के समक्ष अपने रचे षड्यन्त्र का भेद ना खोल दे। मानमोरी को विचलित देख जलसंघ ने उस सैनिक से प्रश्न किया, “कोई सूचना मिली कि ये सब कैसे हुआ?”

“बस इतना ही ज्ञात हुआ कि नागदा के सेनानायक विष्यन्त ने सिंहासन पर अधिकार करने के लिये भीलों को महाराज नागादित्य के विरुद्ध भड़काया, जिसके कारण भीलों ने अमरनाथ यात्रा से लौटते नागदा नरेश के कारवां पर आक्रमण कर दिया। महाराज और महारानी की मृत्यु के उपरान्त विष्यन्त का भेद खुल गया, और भीलों ने उसका भी अंत कर दिया। उनके शवों का भी अंतिम संस्कार कर दिया गया।”

मानमोरी कुछ क्षण वहीं स्तब्ध खड़े रहे। जलसंघ ने उनकी पीठ थपथपाकर सांत्वना देने का प्रयास किया।

मानमोरी ने मुट्ठियाँ भींच अपना साहस एकत्र कर स्वयं को संभाला और उस सैनिक से प्रश्न किया, “और वो बालक कालभोज?”

“तारा नाम की एक विधवा स्त्री उस बालक को लेकर वहाँ से पलायन कर गयी है। उसके साथ नागदा के दस सुरक्षाकर्मी भी थे। सूचना मिली है कि उन्होंने मेवाड़ के ही एक नगर भांडेर के एक आश्रम में शरण ली है। भील उन्हें ढूँढने का भरसक प्रयास कर रहे हैं, किन्तु अब तक सफल नहीं हो पाए हैं।”

“ठीक है, तुम प्रस्थान करो।” जलसंघ के आदेश पर वो सैनिक प्रांगण से निकल गया।

उसके जाने के उपरान्त मानमोरी ने क्रोध में भरकर अपनी तलवार निकाली और अपने सामने लगे वृक्ष की चार अंगुल मोटी शाखा काट डाली। झल्लाहट में उसने जलसंघ की ओर देखा, “मैंने उस विष्यन्त को चेतावनी दी थी, कि मेरी बहन को कुछ नहीं होना चाहिए। मुझे केवल नागादित्य का शव चाहिए था, किन्तु उसने मेरी नहीं सुनी।”

“कदाचित इस पर उसका वश रहा ही ना हो। हमें ये भी तो ज्ञात नहीं कि उसका भेद खुला कैसे?”

दाँत पीसते हुए मानमोरी ने अपने माथे पर लगा स्वेद पोछा, “तो फिर उसकी माता के जीवन का क्या मोल? वध कर देता हूँ मैं उसका।”

“मूर्खता मत करिए, महाराज। यदि इस बात की किसी को भनक भी लग गयी कि मेवाड़ नरेश ने एक निर्बल और असहाय वृद्ध विधवा स्त्री की हत्या कर दी, तो स्वयं विचार कीजिये आपके मान सम्मान की कितनी हानि होगी।”

दांत पीसते हुए मानमोरी मौन हो गये। जलसंघ ने मेवाड़ नरेश का कंधा पकड़ समझाने का प्रयास किया, “जबसे नागदा नरेश से आपकी संधि भंग हुई है, बहुत युवा सैनिकों के मन में विद्रोह पनपने लगा है। उनमें से अधिकतर वहीं हैं जो नागादित्य के विश्वास पर हमारी सेना का हिस्सा बने थे।”

“तो मसल देंगे हम उन विद्रोहियों को।”

“नहीं महाराज, ये उचित न होगा। वो विद्रोही हैं, विश्वासघाती नहीं। उनका विश्वास जीतना होगा और उसका केवल एक ही उपाय है, और वो है नागादित्य का पुत्र कालभोज।”

अपने क्रोध पर नियंत्रण करने का प्रयास करते हुए मानमोरी ने प्रश्न किया, “कैसे?”

“आपने विष्यन्त की माता को चित्तौड़ में रखा है, इसलिए कदाचित विष्यन्त ने आपका रहस्य ना खोला हो। और यदि भीलों के समक्ष ये रहस्य उजागर हुआ भी हो, तो भी नागादित्य की हत्या कर वो मेवाड़ के योद्धाओं की दृष्टि में गिर चुके होंगे। उन पर कोई विश्वास नहीं करेगा। ऐसे में यदि आप नागादित्य के पुत्र कालभोज को खोजकर उसकी शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था कर उसे सेना में उच्च कोटि का पद देने की घोषणा करें, तो हमारे योद्धाओं में भी आपके प्रति विश्वास जागने लगेगा। उनमें विद्रोह की भावना का क्षय होने लगेगा। और यदि सम्भव हो तो ये भी घोषणा कर दीजिए, कि यदि कालभोज वयस्क होकर अपनी योग्यता सिद्ध करता है, तो वो नागदा के सिंहासन पर आपका और आपके वंशजों का प्रतिनिधि बनकर विराजेगा।”

मानमोरी ने कुछ क्षण विचार कर कहा, “योजना उचित है। वैसे भी वो तीन वर्षीय बालक हमारा शत्रु तो है नहीं। क्या पता आगे चलकर वो हमारी ही शक्ति बने।”

“संभावना तो है। इसीलिए आपको स्वयं भांडेर जाना चाहिए। वो गुहिलवंशियों के राजपुरोहितों की नगरी है, उन्होंने अवश्य कालभोज को सुरक्षित रखा होगा।”

“किन्तु वो बालक और वो पुरोहित समुदाय हम पर विश्वास क्यों करेगा ?”

“आप मामा हैं उसके, महाराज। क्यों नहीं करेंगे वो आप पर विश्वास? और यदि कोई अविश्वास की स्थिति उत्पन्न हो, तो उसका एक और उपाय है।” श्वास भरते हुए जलसंघ ने कहा, “आपका पुत्र सुबर्मन भी सात वर्ष का हो गया। उसकी भी तो गुरुकुल जाने की आयु हो गयी है।

“हाँ, तो मेरे पुत्र का इस योजना में क्या काम ?”

“जो बल से ना झुके, वो प्रेम और भ्रातृत्व के आगे नतमस्तक हो जाता है, महाराज। गुहिलवंशियों के राजपुरोहितों का विश्वास जीतने के लिए आप भी अपने पुत्र सुबर्मन को कालभोज के साथ शिक्षा प्राप्त करने भेज दीजिए। दोनों बालक उच्च कोटि के परिवार से हैं, तो सुबर्मन के रूप में कालभोज को एक बड़ा भाई मिल जाएगा। उनमें मित्रता अवश्य हो जायेगी। और ये मित्रता ही भविष्य में हमारी शक्ति बनेगी।”

मानमोरी ने अपनी तलवार निकट के वृक्ष में धँसाई, फिर सर ऊँचा कर प्रांगण से ही दूर अपने महल की चोटी पर स्थित परमार ध्वज की ओर देखा, “कोई भी मैत्री सम्बन्ध यदि बिना किसी आशा के आरम्भ हो, तो उसका सौन्दर्य और सुदृढ़ता कई गुना अधिक बढ़ जाता है। योजना उत्तम है।”

******

चार वर्ष उपरान्त [भांडेर नगरी (मेवाड़)]
दौड़ते हुए बछड़ों के बीच दो छड़ी लेकर भागता कालभोज उन्हें एक दिशा में हाँकने का प्रयास कर रहा था।

किन्तु वो बछड़े बार-बार दौड़कर इधर-उधर भागे जा रहे थे, आखिर घने वनों की हरी-भरी घास देख उन शावकों का मन कैसे लालायित ना होता। उन्हें नियंत्रित करने के प्रयास भागते और फिसलते हुए भोज की धोती भी मैली हो गयी थी। अकस्मात ही उसने स्थिर खड़े होकर सभी बछड़ों की ओर बारी-बारी से दृष्टि घुमाई, फिर कुछ क्षण विचार कर भूमि पर पड़ा एक पत्थर उठाया और वृक्ष की शाखा पर मारने लगा। एक के बाद एक पत्थर उठाकर मारने पर वृक्ष से झड़ते फलों को देख बछड़ों का ध्यान उसी ओर आकर्षित होने लगा। बछड़े दौड़कर उसी ओर आने लगे और फलों के लालच में दसों बछड़े एक स्थान पर एकत्र होने लगे।

तत्पश्चात अपनी दोनों छड़ी भाँजते हुए कालभोज उन बछड़ों के आसपास ही गोलाकार दिशा में दौड़ने लगा। कोई भी बछड़ा उस घेरे से बाहर निकलने का प्रयास करता तो वो उसे छड़ी दिखाकर घेरे में रहने को विवश कर देता, “संध्या हो गयी, अब कहीं नहीं जाना। आखेट बनना है क्या वन्य पशुओं का ?”

इतने में पंद्रह गायों का समूह हाँकते हुए ग्यारह वर्ष का एक बालक भी वहाँ आया। कालभोज को बछड़ों के निकट दौड़ता देख उसकी हँसी छूट गयी, “बछड़ों की मातायें आ गईं, भोज। अब दौड़ना बंद करो।”

उन गायों के आते ही सारे बछड़े अपनी माताओं के निकट चले गये। माथे से स्वेद पोछते हुए कालभोज ने उस बालक की ओर देखा, “आज आपने बहुत विलंब कर दिया, भ्राता सुबर्मन।”

“हाँ, आज तो थोड़ा विलंब हो ही गया। दूध निकालने का समय होने को है शीघ्र चलो, आश्रम में लोग प्रतीक्षा कर रहे होंगे।”

कालभोज ने भी सहमति जताई, और सुबर्मन के साथ गायों को हाँकने लग गया। छड़ी लहराते हुए सुबर्मन ने कालभोज से कहा, “स्मरण है ना, कल गायों को चराने की बारी तुम्हारी है?”

“वो तो पूर्व निश्चित है, कि एक दिन गायों को मैं चराऊँगा और उस दिन आप बछड़ों को संभालेंगे। वैसे सत्य कहूँ तो मुझे बछड़ों को चराना तनिक अधिक कठिन प्रतीत होता है।”

“किन्तु गुरुदेव की आज्ञा है कि हमें इस नियम के अनुरूप ही गायों को चराना होगा। अन्यथा मैं भी रोज बछड़े ही घुमाऊँ।” गायों को हाँकते हुए सुबर्मन बढ़ता रहा।

“हाँ, गुरुदेव महर्षि ‘अग्निहोत्र’ के क्रोध का भागी बनना मुझे भी स्वीकार नहीं है। वैसे आपको इतना विलंब हुआ क्यों?”

सुबर्मन ने एक श्वेत गाय की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये देविका है न, सदैव कहीं न कहीं लुप्त रहती है। संध्या होते होते इसी को ढूँढने में सर्वाधिक समय लगता है।”

“हाँ, ये सत्य कहा। सबसे अंत में यही आती है, अब शीघ्र चलिए अन्यथा गुरुदेव रुष्ट हो जायेंगे।”

सूर्यास्त से पूर्व ही दोनों बालक आश्रम में पहुँचे। उनके प्रवेश करते ही महर्षि अग्निहोत्र और उनके सभी शिष्यों की दृष्टि उन दोनों की ओर मुड़ी। दोनों ने गाय और बछड़ों के समूह को बाड़े में भेजा, फिर आश्रम में प्रवेश किया।

श्वेत लम्बे केश और छाती तक लम्बी दाढ़ी, माथे पर त्रिपुण्ड तिलक धारण किये ऋषि अग्निहोत्र अपने उन दोनों शिष्यों के निकट आने लगे। संध्या का सूर्य अस्त होते हुए अपनी लालिमा से उनके भगवे वस्त्रों की आभा भी बढ़ा रहा था, जिसे देख दोनों शिष्यों के मस्तक सहसा ही श्रद्धा से झुक गये।

“सौ क्षण विलंब से आये हो।”

 “क्षमा करें, गुरुदेव। वो समस्या ये हुई कि.....” 

“बहाने बनाना बंद करो।” ऋषि अग्निहोत्र ने सुबर्मन को डपटा और अपने पीछे खड़े शिष्यों में से एक को संकेत कर कहा, “जाओ, जांच करो।”

“जाँच, कैसी जाँच, गुरुदेव?” कालभोज ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया।

“मौन रहो बालकों, और प्रतीक्षा करो।”

गुरु का कठोर स्वर सुन दोनों बालक मौन होकर प्रतीक्षा करने लगे। उनके आदेश पर एक शिष्य गायों के बाड़े में गया और कुछ समय उपरान्त वहाँ से लौटकर महर्षि अग्निहोत्र को सूचित किया, “आज भी देविका के थनों में दूध नहीं है, गुरुदेव।”

भौहें सिकोड़े ऋषि अग्निहोत्र सुबर्मन और कालभोज की ओर मुड़े, “आज दो सप्ताह हो गये, किसी भी दिन संध्या काल में देविका के थनों में दूध नहीं होता। तुम लोग इसका कारण बताओगे।”

कालभोज और सुबर्मन आश्चर्यभाव से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उन्हें विचलित देख अग्निहोत्र का स्वर और रुष्ट हो गया, वो सीधा कालभोज की ओर मुड़े, “कल गायों को चराने की बारी तुम्हारी है, कालभोज। यदि कल तुमने इस रहस्य से पर्दा नहीं उठाया, तो तुम दोनों पर चोरी का आरोप लगेगा और उसका यथोचित दण्ड भी दिया जायेगा।”

“जो आज्ञा, गुरुदेव।” कालभोज ने सहमति जताई।

******

अगले दिन प्रातः काल दूध दुहने का कार्य सम्पन्न होने के उपरान्त गायों का झुण्ड लेकर कालभोज और सुबर्मन वनों में निकल गये। इस बार दोनों बालक गाय और बछड़ों को निकट ही चरा रहे थे। पूरे दिन तो अन्य गायों के साथ देविका चरती रही, किन्तु संध्या के ठीक पहले वाले प्रहर में वो गऊ समूह छोड़ पश्चिम की ओर जाने लगी।

यह देख सुबर्मन ने बछड़ों को हाँकते हुए कालभोज से कहा, “तुम जाओ कालभोज, मैं इस पूरे दल को संभाल लूँगा।”

सहमति का संकेत देते हुए कालभोज देविका के पीछे लग गया। पश्चिम की ओर जाती देविका ने शीघ्र ही आश्चर्यजनक रूप से एक कन्दरा में प्रवेश किया जैसे वो उस दिशा में जाने को ही दृढ़ निश्चयी हो। कालभोज ने दबे पाँव कन्दरा में प्रवेश किया, कुछ दूरी पर चलकर जब उसने सामने का दृश्य देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। एक अनन्य तेजस्वी ब्राह्मण समाधि की मुद्रा में बैठे थे। सामने जो शिवलिंग था कदाचित वो उसी की उपासना कर रहे थे। देविका नाम की वो श्वेतवर्णी गऊ सीधा शिवलिंग के निकट गयी और स्वयं अपने थनों से दूध गिराकर उसका अभिषेक करने लगी। जीवन में पहली बार ऐसा चमत्कार देख कालभोज स्वयं भी अचम्भित था। वो अपने हाथ जोड़ उस तेजस्वी ब्राह्मण के निकट पालथी मारकर बैठ गया। शिवलिंग का अभिषेक कर देविका गुफा से बाहर चली गयी। 

ब्राह्मण देव को शीघ्र ही आभास हुआ कि निकट में कोई बालक बैठा है। उन्होंने नेत्र खोल कालभोज की ओर देखा। उन्हें चेतना में देख कालभोज ने उन्हें प्रणाम किया और शिवलिंग की ओर संकेत कर कहा, “आप कौन है ब्राह्मण देव? और ये कैसा चमत्कार है?”

ब्राह्मण देव दुग्ध से स्नान किए शिवलिंग की ओर देख मुस्कुराये, “मेरा नाम हरित है, बालक। और जिस चमत्कार की तुम बात कर रहे हो, वो तो गौ देवी की भक्ति है, जो उन्होंने स्वयं महादेव को अपने दुग्ध का अर्पण किया है।”

कालभोज ने शिवलिंग की ओर ध्यान से देखा, “आपको इस गुफा में समाधि लगाये कितने दिन हुए ब्राह्मण देव?”

हरित ऋषि ने क्षणभर उसे मुस्कुराते हुए देखा, “आज सोलहवां दिन हैं।”

यह सुन कालभोज ने निष्कर्ष निकाला, “अर्थात देविका नाम की वो गाय पिछले सोलह दिनों से केवल एक समाधि लगाये भक्त की भक्ति को फलित करने का प्रयास कर रही है।”

उस सात वर्षीय बालक की विश्लेषण क्षमता देख हरित ऋषि को बड़ा आश्चर्य हुआ, “तुम्हीं कालभोज हो न?” 

“आप मेरा नाम कैसे जानते हैं, ऋषिवर?” कालभोज चकित रह गया।

“कहा गया था मुझे, कि एक गुहिलवंशी की पहचान करना इतना दुष्कर नहीं होगा।”

“मैं कुछ समझा नहीं, ऋषिवर।”

हरित ऋषि मुस्कुराते हुए अपना कमण्डल उठाकर उठ खड़े हुए, “चलो आओ, तुम्हारे आश्रम चलते हैं।” कहते हुए वो कन्दरा के बाहर की ओर चले। कालभोज ने भी उनका अनादर करना उचित न समझा और उनके पीछे-पीछे हो लिया।

कन्दरा से बाहर निकल कालभोज ने प्रश्नों की बौछार जारी रखी, “तो आप स्वयं गुरुदेव को बताएंगे कि वो देविका असल में आपकी शिव उपासना में सहायता कर रही थी?”

“सागर मंथन में निकला विष महादेव ने केवल हम मनुष्यों के लिए धारण नहीं किया था, वत्स। उनका उद्देश्य तो समस्त जन जीवन का कल्याण करना था। तो उनकी भक्ति करना केवल हम मनुष्यों का अधिकार तो है नहीं, और गौवंश का स्थान तो हम मनुष्यों से भी ऊपर है।”

“हाँ, ये बात तो है। किन्तु हम गुरुदेव से कहेंगे क्या? वो तो जाने कबसे हमें ही देविका के दूध का चोर समझ बैठे हैं।”

“तुम शेष गायें लेकर आश्रम पहुँचो, मैं तुम्हारी देविका को अपने साथ लेकर आऊँगा।” 

******

“तो तुम कहना चाहते हो कि देविका स्वयं अपने थनों से शिवलिंग का दुग्धाभिषेक कर रही थी ?” अपने समक्ष खड़े कालभोज और सुबर्मन को देख महर्षि अग्निहोत्र की दृष्टि अब भी संदेह से भरी थी।

सुबर्मन भी तिरछी आँखों से कालभोज को देख रहा था, उसे भी कालभोज की ये बात पच नहीं रही थी। किन्तु कालभोज पूरे विश्वास से बोला, “यही सत्य है, गुरुदेव।” 

“देविका है कहाँ?”

“उसे वो ब्राह्मण देव स्वयं लेकर आयेंगे जिनकी समाधि के समक्ष ही देविका महादेव की उस आकृति को दूध से अलंकृत कर रही थी।”

“हम्म।” महर्षि अग्निहोत्र ने इधर-उधर दृष्टि घुमाई, “कहाँ है वो ब्राह्मण देव? और तुमने उनका परिचय जानने का प्रयास किया?”

“हाँ, उन्होंने स्वयं को हरित ऋषि कहा था। इससे अधिक मुझे कुछ ज्ञात नहीं।”

हरित ऋषि का नाम सुन महर्षि अग्निहोत्र की आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गयीं, “महाऋषि हरित, कहीं तुम सूर्यवंशी महाराज इक्ष्वाकु के वंशज हरित ऋषि की बात तो नहीं कर रहे?”

उस नाम से अपने गुरु को इतना प्रभावित देख सुबर्मन और कालभोज दोनों ने एक-दूसरे को आश्चर्य भाव से देखा। इतने में देविका के साथ हरित ऋषि स्वयं वहाँ पधारे।

संध्याकाल के डूबते सूर्य के मद्धिम प्रकाश में हरित ऋषि के दमकते भगवे वस्त्र और मुख पर छाए अनन्य तेज को देख महर्षि अग्निहोत्र का हृदय गदगद हो उठा। वो व्यग्रता में चलकर हरित मुनि के निकट गए और उन्हें आदर पूर्वक प्रणाम किया, “मुझे कालभोज के शब्द सुनकर ही समझ जाना चाहिए था, कि वो किसकी बात कर रहा है। ये हमारे लिए बहुत सम्मान की बात है कि महाऋषि अंगिरस ने अपने तप और प्रशिक्षण के साथ भगवान आदि केशव के आशीर्वाद से आदिकाल में महाराज इक्ष्वाकु के जिन वंशजों को ब्राह्मणत्व धारण करवाया था, उस महान वंश की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले एक मुनिवर आज हमारे समक्ष खड़े हैं। आपकी ज्योतिष विद्या जो जग प्रसिद्ध है, हम आपको सादर प्रणाम करते हैं, महाऋषि हरित।” ऋषि अग्निहोत्र के संकेत पर आश्रम के समस्त शिष्य एक-एक करके हरित ऋषि के चरण स्पर्श करने को आने लगे।

इसके उपरान्त अग्निहोत्र ने उन्हें आश्रम में पधारने की विनती की। समस्त शिष्यों समेत हरित ऋषि भी रात्रि भोज पर बैठे। भोजन ग्रहण करने के उपरान्त हरित ऋषि की विनती पर ऋषि अग्निहोत्र उनसे एकांत में वार्ता करने बैठे।

“तो आप पिछले सोलह दिवस से उस कन्दरा में ध्यानमग्न थे?” अग्निहोत्र ने हरित ऋषि से प्रश्न किया।

खाट पर बैठे वन के वट वृक्षों से बहती निर्मल वायु के बहाव से झड़ते पत्तों को देख हरित मुनि ने कहा, “वायु के बहते प्रहाव की दिशा मनुष्य को कोई ना कोई संकेत अवश्य देती है, ऋषिवर। सहस्त्रों मील दूर भी यदि कोई आपदा आये तो वायु के प्रवाह में आया परिवर्तन ही हमें चेतावनी देने का प्रयास करता है।”

“हम आपकी बात समझ नहीं पाए, ऋषिवर।”

 “मैं अरबी आक्रान्ताओं के विषय में बात कर रहा मुनिवर।”

“किन्तु उन्होंने तो वर्षों से कोई आक्रमण नहीं किया। मेवाड़, कन्नौज और सिंध की सम्मिलित सेना के आगे वो अरब कभी टिक ही नहीं पायेंगे।”

“इराक का सुल्तान अलहजाज पराजय मानने वालों में से नहीं है, मुनिवर। और जबसे सिंध नरेश दाहिर ने अलहजाज और खलीफा से द्रोह करने वाले माविया बिन हारिस और मुहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी को शरण दी है, तबसे अरबों को जैसे एक बहाना मिल गया है सिंध पर बार-बार आक्रमण करके यहाँ की धन संपदा को लूटने का। मुझे कहना तो नहीं चाहिए किन्तु वर्षों से युद्ध से दूर रहने के कारण सिंध अब पुनः शक्तिहीन हो रहा है। क्योंकि अरब सेनापति ऊबेदुल्लाह ने सिंध की सीमा पर स्थित एक नगर मकरान को जीत भी लिया और वहाँ एक विशाल सैनिकों की चौकी भी बना ली, और राजा दाहिर मौन बैठे हैं। वो तैयारी में है, पुनः अपनी शक्ति जुटाकर आक्रमण करने के लिये। इस समय मकरान पर मुहम्मद हारून का शासन है। और पता है मकरान की विशेषता क्या है, कि वहाँ ऐसे-ऐसे संकरीले किन्तु छोटे मार्ग है जहाँ से सहस्रों का दल बड़ी सरलता से छुपते छुपाते सिंध के कई नगरों में प्रवेश कर सकता है। सूचना मिली है कि शीघ्र ही 'ऊबेदुल्लाह' और ‘सलीम बिन जैदी’ सहस्त्रों की सेना लेकर सिंध पर चढ़ाई करेंगे।”

“तो फिर कन्नौज नरेश नागभट्ट, मेवाड़ नरेश मानमोरी इस विषय पर क्या कर रहे हैं?”

“उन्हें लगता है कि केवल सेनायें भेजकर सिंध में सैन्य चौकियाँ बनवा देने से उनका दायित्व पूरा हो गया। उनकी ओर से कोई गुप्तचर तक सक्रिय नहीं है। सम्भव है कि महाराज दाहिर ऊबेदुल्लाह और सलीम पर विजय प्राप्त कर लें, किन्तु विजय बिना मोल चुकाये प्राप्त नहीं होती। आने वाले युद्ध में महाराज नागभट्ट और मानमोरी की अनुपस्थिति सिंध की सैन्यशक्ति को बहुत बड़ी क्षति पहुँचायेगी।”

“ये समस्या तो बड़ी विकट है।” ऋषि अग्निहोत्र का स्वर भी गंभीर हो गया, “और यदि सिंध पर अरबों ने विजय पताका फहरा दी, तो काश्मीर और कई अन्य राज्य जो सिंधुराज के शासन के अंतर्गत आते हैं, वे सभी संकट में पड़ जायेंगे। सिंध की शक्ति का भी दुर्बल होना पूरे भारत के लिए अनिष्टकारी है। किन्तु आपके यहाँ आने उद्देश्य अभी तक समझ नहीं आया।”

“हम यहाँ भीलों की विनती पर आये हैं, मुनिवर। हमारा उद्देश्य कालभोज को पुनः नागदा लेकर जाना है।” हरित ऋषि की विनती सुन अग्निहोत्र को भी थोड़ा संकोच हुआ, “आप तो जानते होंगे ना कि चार वर्ष पूर्व क्या हुआ था? आशा नहीं थी कि आप जैसे ज्योतिष विद्या का महान ज्ञाता ऐसी विनती लेकर आयेगा।”

“ज्योतिष विद्या किसी का सुनिश्चित भविष्य नहीं बताती, मुनिवर। केवल संभावनाओं का विश्लेषण करती है।” हरित ऋषि ने श्वास भरते वटवृक्ष के पत्तों की ओर देखकर कहा, “वायु का प्रवाह अनिष्ट का संकेत दे रहा है। इसलिए सिंध, मेवाड़ और कन्नौज की एकजुट हुई सेना को ऐसे सेनानायक की आवश्यकता है, जिस पर उन्हें ऐसा विश्वास हो कि वो उसके लिए प्राण लुटाने में एक क्षण को भी संकोच ना करें। और मेरा विश्वास है महर्षि अग्निहोत्र, कि ऐसी सेना स्वयं से दोगुने सैन्यबल को भी क्षत विक्षत कर सकती है।”

ऋषि अग्निहोत्र ने कुटिया के निकट गायों के चारे में पानी डाल रहे कालभोज और सुबर्मन की ओर देखा, “तो आपका कहने का अर्थ है कि कालभोज वो योद्धा हो सकता है।”

“महाराज मानमोरी बड़े चतुर हैं, मुनिवर। उन्होंने सिंध की रक्षा के लिए अधितकर उन्हीं योद्धाओं को भेजा है जिन्हें नागदा नरेश नागादित्य के विश्वास पर मेवाड़ी सेना में भर्ती किया गया था। ऐसा उन्होंने इसलिए किया ताकि उनकी अपनी सेना में विद्रोह की संभावना कम से कम हो।”

“और आपको लगता है पुत्र भी पिता के समान उन सैनिकों का विश्वास जीत सकता है?”

महर्षि हरित मुस्कुराये, “पहले तो यही लगता था कि वो केवल इतना ही कर सकता है। किन्तु उसकी विश्लेषण क्षमता देखकर लगता है वो पूरे सिंध की सेना की प्रबल शक्ति बनने का सामर्थ्य रखता है।”

महर्षि अग्निहोत्र ने कुछ क्षण विचार कर कहा, “यदि आपको भीलों पर विश्वास है तो मुझे भी कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु कालभोज का उत्तरदायित्व देवी तारा पर है, और उस पालक माता की आज्ञा लेकर ही आप उस बालक को यहाँ से ले जा सकते हैं।”

“भील केवल एक षड्यन्त्र का आखेट बने थे, ऋषिवर। सत्य तो ये है कि इस कालखण्ड में मातृभूमि का उनसे बड़ा भक्त कोई और नहीं है मेवाड़ में। किन्तु आपने भी उचित कहा, देवी तारा को समझाना आवश्यक है और उसके लिए स्वयं भीलराज बलेऊ को यहाँ आना होगा।” 

******

सात दिवस उपरान्त
नदी के तट पर देवी तारा ने एक के बाद एक तीन घड़ों में जल भरा और उसे अपने माथे पर उठाये आश्रम की ओर आने लगीं। तभी निकट आते पुरुष को देख उनके नेत्र आश्चर्य से फैल गये।

ये कोई और नहीं भीलराज बलेऊ थे। अपने दोनों हाथ जोड़ वो देवी तारा के निकट आने लगा, हड़बड़ी में देवी तारा पीछे हटने लगीं। अकस्मात ही उनके सर पर रखे पानी के घड़े भूमि पर गिरकर टूट गये। विचलित हुई देवी तारा और पीछे हटीं, “पीछे हट जाईये भीलराज, अन्यथा परिणाम उचित नहीं होगा।” 

“ उनको इस प्रकार भयभीत देख बलेऊ के नेत्रों में अश्रु आ गये। वो हाथ जोड़े अपने घुटनों के बल झुक गया, मैं ये नहीं कहता देवी कि मैं निष्पाप हूँ, किन्तु यदि जीवन में एक बार भी आपने मुझ पर विश्वास किया है तो उस विश्वास के लिए बस एक बार मेरा पक्ष सुनने का प्रयास कीजिए।” 

तारा ने भौहें सिकोड़ते हुए कटाक्ष किया, “तुम्हारा कैसा पक्ष, बलेऊ ? मृत्यु शय्या पर कोई असत्य नहीं कहता, और महारानी मृणालिनी ने स्पष्ट कहा था कि भील ही उनके वास्तविक शत्रु हैं।”

“और उनका कथन सत्य था, क्योंकि महाराज नागादित्य पर पहला प्राण घातक प्रहार मैंने ही किया था।”

 “तो फिर ये मगरमच्छ के अश्रु क्यों बहा रहे हो, बलेऊ ? तुम्हें मुझसे क्या प्राप्त होगा?”

“समझने का प्रयास कीजिए, देवी। वो सेनानायक विष्यन्त का रचा एक भयानक षड्यन्त्र जिसका हम सब आखेट बने थे। मैंने भी अपनी पत्नी लाली और पुत्री रसिका के शव देखे, और क्रोध में अपना नियंत्रण खोकर मुझसे ये अपराध हो गया। किन्तु मेरा मन मैला नहीं है, देवी। मुझे एक बार समझाने का अवसर दीजिए।”

“आपकी पत्नी और पुत्री रसिका भी..?” यह सुन तारा भी भावुक हो गयी। कुछ क्षण बलेऊ के नेत्रों की ओर देख तारा को भी उनमें ग्लानि की झलक दिखने लगी, “ठीक है, मैं आपका सत्य सुनने को तैयार हूँ।”

भीलराज ने विष्यन्त के षड्यन्त्र की समस्त जानकारी देते हुए देवी तारा से पुनः क्षमा याचना करते हुए कहा, “मुझसे बहुत बड़ा पाप हुआ है, देवी। किन्तु ये भी सत्य है कि मैं युवराज कालभोज को उनका अधिकार दिलाने को प्रतिबद्ध हूँ।”

“अर्थात उस विष्यन्त ने सिंहासन की लालसा में ये सारा षड्यन्त्र रचा, और एक दिन में ही सम्पूर्ण नागदा अनाथ हो गया?” देवी तारा के नेत्रों में नमी सी आ गयी।

“मैंने आजतक उस दुष्ट को इसीलिए जीवित रखा है, ताकि मैं युवराज कालभोज के समक्ष सत्य को लाकर अपने माथे पर लगा ये कलंक धो सकूँ।” बलेऊ ने हाथ जोड़ते हुए पुनः विनती की, “बस एक बार मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर लूँ, फिर स्वयं अपने हाथों से युवराज कालभोज को नागदा के सिंहासन पर बिठाऊँगा।”

श्वास भरते हुए तारा ने अपने नेत्र बंद किए, “कालभोज तो अब भी यही समझता है कि उस दुष्ट विष्यन्त ने ही उसके माता पिता की हत्या की है, और उसे मृत्युदण्ड भी मिल चुका है। बहुत समझाने के उपरान्त उसने मेरी ये बात मानी, क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि वो बालक अपने हृदय में प्रतिशोध की अग्नि लिए युवा हो। अन्यथा उसका बालपन नष्ट हो जाता।”

“किन्तु नागदा के सिंहासन के साथ-साथ सत्य पर भी युवराज का अधिकार है, देवी। महाराज मानमोरी ने घोषणा की थी, कि कालभोज के युवा होने और योग्यता सिद्ध करने पर नागदा का सिंहासन उन्हें ही सौंपा जायेगा। और योग्यता के कई आधार होते हैं, देवी। ऐसे कटु सत्य को जानकर उचित निर्णय लेना भी अपनी चारित्रिक योग्यता सिद्ध करने का पड़ाव ही तो है। यदि इस पड़ाव में हमारा कोई सहभाग हो तो ये मेरा सौभाग्य होगा।”

“वो अभी बालक है बलेऊ । वो ये सब कैसे....? एक क्षण रुको।” तारा को थोड़ा संदेह हुआ, “मुख तो आपका है, किन्तु शब्द आपके नहीं लग रहे।”

बलेऊ मुस्कुराया, “आपकी विश्लेषण की क्षमता भी कम नहीं है, देवी। निसन्देह ये शब्द मेरे नहीं, अपितु महाऋषि हरित के हैं।”

“महाऋषि हरित, जो हमारे आश्रम में अतिथि बनकर निवास कर रहे हैं। वो तो कन्नौज के प्रतिहारी वंश के राजज्योतिष भी रह चुके हैं। किन्तु वो कालभोज को क्यों....”

“क्योंकि आज से मैं कालभोज की शिक्षा दीक्षा का भार उठाना चाहता हूँ, देवी।” हरित ऋषि का वो स्वर सुन बलेऊ और तारा उनकी ओर मुड़े।

हरित ऋषि के मुख पर छाया अनन्य तेज देख तारा का मस्तक स्वयं उनके समक्ष श्रद्धा से झुक गया और हाथ स्वयं उन्हें प्रणाम करने को जुड़ गये, “हमारा सौभाग्य है ऋषिवर, जो सूर्यवंश के इस गौरव ने कालभोज को अपना शिष्य बनाने के योग्य समझा। सुना है आपकी भविष्यवाणी कभी मिथ्या नहीं हुई। कदाचित कालभोज का भी उज्ज्वल भविष्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।”

हरित मुनि मुस्कुराये, “मैंने महर्षि अग्निहोत्र से भी कहा था और आपसे भी कह रहा हूँ देवी, ज्योतिष विद्या केवल संभावनाओं का संकेत देती है। मनुष्य का प्रारब्ध उसके अपने कर्म तय करते हैं, और हमारा उद्देशय कालभोज को उस योग्य बनाना है कि वो समूचे भारतवर्ष की शक्ति बन सके। किन्तु उसके लिए आपकी आज्ञा आवश्यक है, देवी।”

“सत्य को जान लेने के उपरान्त मैं मना कैसे कर सकती हूँ, ऋषिवर। आप चिंता ना करिए, मैं स्वयं भी कालभोज के साथ नागदा आऊँगी।”

“हम आपके आभारी हैं, देवी।” हरित मुनि मुस्कुराते हुए बलेऊ की ओर मुड़े, “तुम्हें भी कालभोज को सत्य बताकर प्रायश्चित करने का अवसर अवश्य मिलेगा, बले। किन्तु अभी तुम्हें मौन रहना होगा।”

 “किन्तु क्यों, ऋषिवर ?” बलेऊ को थोड़ा आश्चर्य हुआ।

“क्योंकि अभी वो एक बालक है। जिस दिन उसमें इस सत्य को सहन करके तुम्हें क्षमा करने की शक्ति आ जायेगी, मैं तुम्हें इस सत्य को उजागर करने का संकेत दे दूँगा।”

“ठीक है, ऋषिवर।” बलेऊ ने मन मसोसकर सहमति जताई, “आपका संकेत मिलने तक मैं और समस्त भीलजाति के लोग इस सत्य को अपने हृदय में बंदी बनाकर रखेंगे।”

उन दोनों के कुछ क्षण मौन होने के उपरान्त तारा ने संकुचित स्वर में हस्तक्षेप किया, “एक विडंबना और है, ऋषिवर। महाराज मानमोरी का आदेश है कि कालभोज जहाँ जाएगा, मेवाड़ के युवराज सुबर्मन भी उसके साथ जायेंगे। कदाचित दोनों मित्रों में बहुत अधिक प्रेम है, इसीलिए महाराज ने ऐसा आदेश दिया होगा। तो क्या आप उन्हें भी अपना शिष्य..।”

महाऋषि हरित हँस पड़े, “ मेवाड़ नरेश का कोई पग बिना किसी राजनीतिक स्वार्थ के नहीं उठता, देवी तारा। किन्तु फिर भी, हमें सुबर्मन को शिष्य स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। जहाँ तक मुझे समझ आया है वो भी एक योग्य योद्धा बनने का सामर्थ्य रखता है। और मुझे ज्ञात है इसके लिए पहले मुझे मेवाड़ नरेश की आज्ञा लेनी होगी, जो कोई कठिन कार्य नहीं है।”

******

वर्तमान
“तो महाराज नागादित्य की हत्या का सारा षड्यन्त्र मेवाड़ नरेश मानमोरी का था?” बलेऊ के नेत्र आश्चर्य से फैले हुए थे, “और ये सत्य तुम मुझे इतने वर्षों के उपरान्त बता रहे हो?” क्रोध में उसने विष्यन्त के मुख पर मुष्टि प्रहार किया।

बेड़ियों में बंधा विष्यन्त मुख से रक्त उगलता हुआ भूमि पर गिरा। बलेऊ ने उसके केश पकड़ पुनः खींचा, “क्यों? आज तक मेवाड़ नरेश का भेद क्यों छिपाकर रखा तूने?”

विष्यन्त ने कराहते हुए कहा, “मेरी माता को उस मानमोरी ने चित्तौड़ में इसीलिए बंदी बनाकर रखा था, ताकि मैं उनका सत्य उजागर ना करूँ कि ये षड्यन्त्र उन्हीं का था।”

बलेऊ ने पुनः उसे भूमि पर धकेल दिया। हांफते हुए विष्यन्त ने आगे कहा, “अब तक मेरी माता स्वर्ग सिधार गयी होंगी, और आप लोगों की बातों से लगता है नागदा भी मानमोरी की काली छाया से स्वतंत्र हो चुका है। तो यदि मेरी पत्नी और पुत्र यहाँ होंगे तो वो भी सुरक्षित ही रहेंगे। युवराज कालभोज भी युवा हो चुके हैं, तो अब इस भेद को छुपाने का कोई अर्थ ही नहीं था। मैं तो अपराधी हूँ हीं, किन्तु उस नीच मानमोरी को भी उसके अपराधों का दण्ड मिलना चाहिए। ये योजना बनाई तो उसी ने थी।”

बलेऊ ने उसका मस्तक पकड़ कालभोज से प्रश्न किया, “अब आप ही निश्चित कीजिए, युवराज। क्या दण्ड दिया जाये इस नराधम को?”

पत्थर के एक टुकड़े पर बैठा कालभोज क्रोध में भरकर विष्यन्त को घूर रहा था। नेत्रों में रक्त उतर आया था, किन्तु साथ में हृदयविदारक अश्रु भी छलक आये थे। सत्रह वर्ष पूर्व की अनेकों घटनायें उसके नेत्रों के समक्ष तैरने लगीं थीं। मुट्ठियाँ भींचते हुए उसने विष्यन्त की ओर देखा, “तो इसी कारण मुझे बार-बार ये आभास हो रहा था कि इस व्यक्ति को मैंने कहीं तो देखा है।” अपनी जांघों पर हाथ मारते हुए कालभोज उठकर विष्यन्त के निकट आया, “सभी अपराधियों को उनके अपराध का दण्ड मिलेगा।” 

“आप कहें तो हम सेना एकत्र करें, युवराज। अब आपका प्रतिशोध तभी पूर्ण होगा जब मानमोरी का कटा मस्तक आपके चरणों में पड़ा होगा।”

कालभोज का रक्त तो खौल रहा था, किन्तु फिर भी उसने अपने नेत्र मूंदकर मन को शांत करने का प्रयास किया, “ये समय उचित नहीं है, भीलराज। नागदा की बीस सहस्त्र की सेना चित्तौड़ के सैन्यबल का सामना नहीं कर सकती।” “किन्तु दस सहस्त्र भील भी आपके साथ हैं। चालुक्यों के हृदय में भी प्रतिशोध की अग्नि की लपटें उफान मार रही हैं। जबसे महाराज विन्यादित्य के पुत्र विजयादित्य ने शासन संभाला है, वो बस अवसर ढूँढ रहे हैं मेवाड़ नरेश से अपने भाई जयसिम्हा की हत्या का प्रतिशोध लेने का।”

“और कभी ये सोचा है कि ऐसी परिस्थिति में कन्नौज नरेश महाराज नागभट्ट किसका समर्थन करेंगे?”

कालभोज के इस प्रश्न को सुन बलेऊ मौन हो गया। उस विकट परिस्थिति में भी कालभोज ने मुस्कुराते हुए हरित ऋषि की ओर देखा, “मेरे गुरुदेव ने मेरे चारित्रिक बल के परीक्षण के लिये ही सत्य को वर्षों तक मुझसे दूर रखा, तो मैं उनका ये श्रम व्यर्थ तो नहीं कर सकता, भीलराज। केवल प्रतिशोध के लिए लाखों के रक्त नहीं बहाये जा सकते। इस समय हमारी दृष्टि केवल सिंध पर होनी चाहिए। इस समय मेवाड़ की सुरक्षा का सीधा सम्बन्ध राष्ट्र की सुरक्षा से है। मेरा या किसी का भी निजी प्रतिशोध राष्ट्र से बढ़कर नहीं है।”

भीलराज ने सर झुकाकर कालभोज की इच्छा का मान रखा, “जैसी आपकी आज्ञा, युवराज। किन्तु अब समय आ गया है कि आप नागदा के सिंहासन पर विराजकर यहाँ की प्रजा के रक्षण का भार संभालें।”

कालभोज मुस्कुराया, “महाराज मानमोरी ने भले ही नागदा में पग ना रखने का वचन लिया हो, यहाँ की प्रजा और सेना भले ही उनके विरोध में हो। किन्तु अब भी ये उन्हीं का अधिकृत राज्य है। प्रजा की सेवा और रक्षण का कार्य तो मैं बिना राजा बने भी कर सकता हूँ, किन्तु इस समय यदि मैं नागदा के सिंहासन पर बैठा तो मेवाड़ नरेश सावधान हो जायेंगे। उनकी आज्ञा के बिना यदि मैं राजा बना तो इसे विद्रोह ही समझा जायेगा, और ऐसे में वो इस विद्रोह को दबाने के लिए कोई ना कोई प्रयास अवश्य करेंगे। इसलिए इस समय हम मौन रहकर केवल अपनी शक्ति में वृद्धि करेंगे।” कहते हुए वो हरित ऋषि की ओर मुड़ा, “मैं अपने मन पर प्रतिशोध को हावी नहीं होने दूँगा, गुरुदेव। इसलिए इस विष्यन्त को क्या दण्ड दिया जाये, इस विषय पर आपका सुझाव चाहूँगा।”

“ये मृत्युदण्ड का अधिकारी तो है, किन्तु मेरे विचार से अभी के लिए इसे जीवित रखना ही श्रेष्ठ है। वैसे भी महाराज नागादित्य ने भी मृत्युशय्या पर कहा था कि इस दुष्ट का ग्लानि से भरा जीवन ही इसका दण्ड है। इसे बंदी बनाकर ही रखना उचित है। यदि चित्तौड़ पर चढ़ाई करने का प्रसंग उत्पन्न हुआ, तो यही विष्यन्त समस्त नागदा के योद्धाओं के समक्ष मानमोरी के दुश्चरित्र का वर्णन करेगा, जिससे उन योद्धाओं में ये विश्वास जगे कि उनका सामना एक पापी से हो रहा है और वो सत्य के पथ पर हैं। तब तक के लिए किसी को ये सूचना नहीं मिलनी चाहिए, कि नागदा का पूर्व सेनापति विष्यन्त जीवित है।”

“उत्तम सुझाव है, गुरुदेव। हम अभी के लिए इसी योजना पर अमल करेंगे।” कालभोज ने सहमति जताई। 

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ब्राह्मणाबाद
रक्त में नहाये अपने घायल हाथी पर सवार सिंधुराज दाहिरसेन रणभूमि की ओर आ रहे थे। कटे हुए सहस्त्रों मुंड को गिद्ध नोचकर खा रहे थे, मानव शरीरों से फैलते रक्त अनेकों वन्य जीवों के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे। सिंध के अनेकों ध्वज भूमि पर गिरे थे, जिन्हें अरबी सैनिक कुचलते हुए बड़े उत्साह से उनका मानमर्दन कर रहे थे। तभी माथे पर रक्त सना शिरस्त्राण धारण किये, भाला और ढाल उठाये एक अरबी योद्धा वायु में उछला और सीधा दाहिर सेन के घायल हाथी के मस्तक पर प्रहार किया। वो हाथी चिंघाड़ता हुआ भूमि पर गिर पडा, साथ में राजा दाहिर भी लुढ़कते हुए अपने ही योद्धाओं के शवों के ढेर पर आ गिरे।

भूमि पर फैले शवों के बीचों बीच उनकी दृष्टि उनमें से एक कवच पर पड़ी। वो शीश रहित शरीर दाहिर को कुछ पहचाना सा लगा, अकस्मात ही उनका हाथ उस सर कटे शरीर के कंधे पर पड़े जहाँ एक स्वास्तिक की माला लटकी दिखाई दी।

“नहीं..।” चीखते हुए राजा दाहिर अपनी शय्या से उठ गये। उस भयानक स्वप्न के दृश्य ने उनके माथे का पसीना छुड़ा दिया। शीघ्र ही द्वार के खटखटाने का स्वर सुनाई दिया। सिंधुराज ने उठकर द्वार खोला। “मेवाड़ से संदेशवाहक आया है, महाराज।” सामने खड़े सैनिक ने सूचित किया।

“ठीक है, हम शीघ्र पहुँचते हैं।” इतना कहकर सिंधुराज ने किवाड़ बंद किया। फिर अपने शय्या के निकट लौटकर पात्र में रखे जल को पीया और स्वयं से बार-बार कहने का प्रयास किया, “वो बस एक स्वप्न था, और कुछ नहीं।”

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एक प्रहर के उपरान्त मानमोरी का संदेशवाहक सिंध की राजसभा में प्रस्तुत हुआ। वेदान्त और जयशाह भी उस समय राजसभा में ही उपस्थित थे। राजा दाहिरसेन ने संदेश सुनाने का आदेश दिया।

संदेशवाहक ने पढ़ना आरम्भ किया, “आदरणीय सिंधु नरेश को मेवाड़ नरेश मानमोरी का प्रणाम। आशा है हमारी संगठित हिन्द सेना के बल पर सिंधु देश अब तक सुरक्षित होगा। जब तक हम तीनों राजाओं की संयुक्त शक्ति का बल सिंध की रक्षा कर रहा है, अरबियों का आप पर दृष्टि उठाने का साहस नहीं हो सकता। विगत वर्षों में हमने आपसे आर्थिक सहायता राशि के अतिरिक्त और कोई अपेक्षा नहीं रखी, किन्तु इस बार बात हमारे हृदय की है। जबसे हमने नागदा में आपकी पुत्री कमलदेवी पर दृष्टि डाली है, वो हमारे हृदय को भा गयी है। मेरी इच्छा राजकुमारी कमलदेवी से विवाह करने की है, और हमें पूरी आशा है कि आप हमारी संधि का मान रखते हुए अपनी तीन पुत्रियों में से एक को मेवाड़ की पटरानी बनाना अवश्य स्वीकार करेंगे। किन्तु यदि आपने हमारी इस छोटी सी इच्छा का मान भी नहीं रखा, तो हमारे मध्य की ये संधि भंग समझिए।”

पत्र में लिखी बातें समाप्त करने के उपरान्त संदेशवाहक ने राजा दाहिर की ओर देखा, “तो मैं आपकी ओर से क्या उत्तर ले जाऊँ, सिंधुराज?”

दाहिरसेन क्रोध में मुट्ठियाँ भींचे उस संदेशवाहक को घूर रहे थे। वेदान्त की भौहें भी तनी हुई थीं, “वो दुष्ट मानमोरी केवल नागदा में हुए अपने अपमान के प्रतिशोध के लिए कमल को पाना चाहता है। पैंसठ वर्ष की आयु हो गयी उस नीच की, किन्तु वासना का बुखार अभी तक नहीं उतरा।”

जयशाह ने भी वेदान्त का समर्थन करते हुए कहा, “हमारी बहन कोई वस्तु नहीं है महाराज, जो संधि के नाम पर उस दुष्ट को दान में दी जाये। जब कमलदेवी का मन वीर कालभोज को समर्पित है, तो उसका विवाह भी उसी से होगा। भले ही कालभोज का सेनानायक सम्मान छीन लिया गया हो, किन्तु हम स्वयं जाकर वीरवर कालभोज को यहाँ लेकर आयेंगे, और शीघ्र से शीघ्र कमल और उसका विवाह सम्पन्न करेंगे। संधि भंग होनी है तो हो जाये।”

अपने दोनों पुत्रों का समर्थन पाकर राय दाहिरसेन का भी आत्मविश्वास और सुदृढ़ हो गया। उन्होंने संदेशवाहक को स्पष्ट कह दिया, “मेवाड़ नरेश को संदेश भेज दीजिए, हम उनसे संधि भंग करने की घोषणा करते हैं। लिखित में पत्र शीघ्र उन तक पहुँच जायेगा। तुम जा सकते हो।”

संदेशवाहक सर झुकाकर वहाँ से प्रस्थान कर गया। उसके प्रस्थान के उपरान्त दाहिर ने जयशाह से प्रश्न किया, “सिंध के प्रमुख नगर देबल, आलोर और नेरुन की क्या स्थिति है, युवराज?”

“देबल के किले का उत्तरदायित्व ज्ञानबुद्ध के पास है, महाराज। इतने वर्षों से वो हमारे प्रति निष्ठावान रहे हैं, और मुझे विश्वास है उनके बीस सहस्त्र बौद्ध योद्धा अरबों को देबल से आगे नहीं बढ़ने देंगे। जहाँ तक नेरुन की बात है तो दस सहस्त्र योद्धाओं के साथ इस समय काम्हादेव वहाँ की सुरक्षा निश्चित करने में सक्षम हैं। सीसम के किले की रक्षा हमारे प्रतिनिधि बाजवा और पाँच सहस्त्र जाट योद्धा कर रहे हैं। हालांकि वहाँ उपस्थित दो सामंत ‘मोखा’ और 'रासल' आरम्भ से हमारे विरोधी ही रहे हैं, किन्तु हमें विश्वास है कि विदेशी आक्रान्ताओं के समक्ष वो हमारे विपक्ष में खड़े नहीं होंगे। मेरी अनुपस्थिति में आलोर के रावड़ किले की रक्षा इस समय हमारे मित्र शमनी दस सहस्त्र योद्धाओं के साथ कर रहे हैं।”

“और हमारे मित्र काश्मीर के राजा दंतिपत्र ? उनके पास भी तो बीस सहस्त्र का सैन्यदल है।”

“वो भी हमारे समर्थन में हैं, पिताश्री। हमारी ब्राह्मणाबाद और अलोर की सैन्य शक्ति कुल मिलाकर पचास सहस्त्र है। तो पूरी सिंध की सेना की संख्या हुई एक लाख।” जयशाह ने गर्व से भरकर बोला, “मेवाड़ नरेश के एक लाख के सैन्यबल ने यदि हमारा साथ छोड़ भी दिया, तो भी इस विशाल सेना से लोहा लेने की शक्ति अरबों में नहीं है। और यदि कोई संकट आया और समय रहते कन्नौज से महाराज नागभट्ट भी हमारी सहायता को आ गये, तो चालीस सहस्त्र की और भी सेना हमसे आ जुड़ेगी। इसलिए व्यर्थ चिंता ना करें, पिताश्री। हम सुरक्षित हैं।”

 किन्तु जयशाह के इतना कहने पर भी दाहिर के मुख पर चिंता की लकीरें कम ना हुईं, “माना पिछले पाँच वर्षों में हमने अपने कई किले अरबी हाकिमों से मुक्त करवाकर अपनी शक्ति तीन गुना बढ़ा ली। किन्तु मुझे भय केवल एक बात का है।”

“किस बात का पिताश्री ?” वेदान्त के मन की जिज्ञासा भी जागी।

“वर्षों पूर्व एक भविष्यवाणी हुई थी, कि जिस दिन देबल में स्थित महाविष्णु के मन्दिर के साथ वहाँ लहराती हुई लाल पताका ध्वस्त हुई, उस दिन हमारे वंश का नाश होगा, और सिंध में इस्लामिक शासन पहली बार अपने कदम बढायेगा।” श्वास भरते हुए दाहिरसेन ने विचलित स्वर में कहा, “और पिछले कुछ दिनों से लगातार हमें नाना प्रकार के दुस्वप्न आ रहे हैं। मन बड़ा व्यथित सा हो रहा है।”

अपने पिता को विचलित देख जयशाह ने उनका साहस बढ़ाने का प्रयास किया, “गोया ज्योतिष समुदाय की भविष्य वाणी के विषय में मैंने भी सुना है, पिताश्री। किन्तु ये समय अंधविश्वास में पड़कर स्वयं को दुर्बल बनाने का नहीं है।”

“जिसे तुम अंधविश्वास कह रहे हो पुत्र, वो एक कुंजी है जिसने हमारे समस्त प्रतिनिधियों का साहस बनाये रखा है, और हमें आपस में जोड़े रखा है। यदि भगवान महाविष्णु के मन्दिर और उस ध्वज को क्षति पहुँची, तो हमारे समस्त प्रतिनिधियों और मित्रों का साहस टूटने लगेगा। उनमें ये विश्वास पैदा होने लगेगा कि अब वो विजयी हो ही नहीं सकते, हमारी शक्ति पुनः क्षीण हो सकती है।”

दाहिरसेन का तर्क तो उत्तम था, क्योंकि भविष्य वाणी सत्य सिद्ध होती या नहीं किन्तु यदि देबल के मन्दिर की पताका ध्वस्त हो जाती, तो ये अरबों की मनोवैज्ञानिक विजय होती। कुछ क्षणों तक गंभीरता से विचार कर जयशाह ने कहा, “सम्भव है कि मेवाड़ी सेना का हमारा साथ छोड़ने के उपरान्त वो अरब पुनः हम पर आक्रमण का प्रयास करें। मैं अलोर के किले से तीन सहस्त्र योद्धाओं को केवल भगवान महाविष्णु के मन्दिर की सुरक्षा के लिए नियुक्त कर दूँगा। प्रस्थान की आज्ञा दीजिए, महाराज।”

राजा दाहिर ने मुठ्ठियाँ भींचे अपने ज्येष्ठ पुत्र के कण्ठ की ओर देखा, जिसमें स्वास्तिक की वही माला लटक रही थी, जिसे उन्होंने बार-बार स्वप्न में देखा। भविष्य की आशंका से महाराज दाहिर भयभीत हो गये, “नहीं, पुत्र। मेरी इच्छा है कि तुम भी इस समय ब्राह्मणाबाद में ही निवास करो।” दाहिरसेन ने भारी मन से कहा, “तुम्हारा प्रतिनिधि है ना शमिनी, वो आलोर की सुरक्षा का ध्यान रख लेगा।”

“ये आप क्या कह रहे हैं, पिताश्री ? यदि कोई संकट समय आया, और मैं आलोर में नहीं हुआ तो उन दस सहस्त्र योद्धाओं का मनोबल टूट सकता है।”

अपने पुत्र का ये तर्क सुन दाहिर कुछ क्षणों के लिये मौन हो गये। जय उनके निकट आया और उनका हाथ थाम उन्हें आश्वस्त करने का प्रयास किया, “ऐसा क्यों प्रतीत हो रहा है पिताश्री, कि आप मेरी वीरता पर संदेह कर रहे हैं?”

इस पर वेदान्त ने उठकर कहा, “आपने तो चार सहस्त्र योद्धाओं के साथ मिलकर अरबी हाकिम बजील की पंद्रह सहस्त्र की सेना पर विजय पायी थी, भ्राता श्री। भला आपकी वीरता पर कोई कैसे संदेह कर सकता है?”

दाहिर ने भी वेदान्त का समर्थन करते हुए कहा, “मैं तुम्हारी वीरता पर संदेह नहीं कर रहा, पुत्र । किन्तु अब ऐसा आभास होने लगा है, जैसे मेरा शरीर दुर्बल हो रहा है। बस इसीलिए मैं चाहता हूँ, मेरा ज्येष्ठ पुत्र इस समय मेरा कंधा बनकर मेरे साथ रहे।”

यह सुन जय भी थोड़ा भावुक हो गया। अपने पिता का सम्मान रखने के लिए उसने सिंधुराज की विनती स्वीकार कर ली। किन्तु सिंधुराज इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि उनके पुत्रमोह में लिए इस एक निर्णय के चलते सिंध पर कितनी बड़ी आपदा टूटने वाली है।

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उसी रात्रि एक मछुआरा सिन्धु नदी में नाव खेते हुए अपने दो साथियों के साथ मछलियाँ पकड़ रहा था। तभी उसके समानांतर एक और मछुआरी नौका आयी। उस दूसरी नौका ने पहली नौका के नाविक को एक पत्र थमाया और आगे बढ़ गया। जिज्ञासा में नाविक ने पत्र खोला। सिंध और मेवाड़ की संधि टूटनी अब निश्चित है, कदाचित हमें उसके लिए मेवाड़ के युवराज की हत्या का षड्यंत्र रचने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ने वाली।

मछुआरे ने उस पत्र को मोड़ा और तत्काल ही जलाकर नदी में फेंक दिया।

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कुछ दिवस के उपरान्त राजा दाहिर का उत्तर पाकर मानमोरी का रक्त उबलने लगा। कमल से विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार होना सीधा उनके अहंकार पर चोट थी। उसने पत्र अपने कक्ष में रखे दीये से भस्म करते हुए भी उन्हें ये आभास ही नहीं हुआ कि वो अग्नि कब उनकी उँगली के निकट आ गयी, कदाचित हृदय में धधकती अग्नि का संताप उस जलते पत्र से कहीं अधिक था। किन्तु अगले ही क्षण अग्नि की लौ के निकट आते उनकी उंगलियों को एक हाथ ने पीछे खींचा। मानमोरी ने पलटकर देखा तो अपने पुत्र सुबर्मन को अपने समक्ष खड़ा पाया। सुबर्मन की दृष्टि उस जलते हुए पत्र पर पड़ी जो मानमोरी के हाथ से छूटकर भूमि पर गिर चुका था, उस पर सिंध की मोहर देख सुबर्मन को समझते देर नहीं लगी कि असल में बात क्या है।

“तो महाराज दाहिर ने आपके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया?”

सुबर्मन के उन सांत्वना के शब्द भी मानमोरी को किसी कटार की भाँति चुभे, “तो तुम भी इस अवसर पर मेरे जलते हृदय पर कटाक्ष की मिर्च लगाने आये हो?”

“आप मेरे पिता हैं, ऐसा विचार भी आपके मन में कैसे आया?”

अपने पुत्र के मुख से निकले उन व्यथित शब्दों को सुन मानमोरी ने भी अपने क्रोध को शांत करने का प्रयास किया, “सिंध ने सीधे-सीधे मुझे चुनौती देकर मेरा अपमान किया है।”

“किन्तु ये जानते हुए भी कि कमल के मन में कालभोज है, आपने भी तो विवाह का प्रस्ताव भेजकर उचित नहीं किया।”

सुबर्मन के वो शब्द सुन मानमोरी का क्रोध और बढ़ गया, “उस दिन नागदा की प्रजा के अनेकों मनुष्यों के समक्ष कमल ने मुझे अस्वीकार करके अपमानित किया। उस अपमान की अग्नि में मैं अभी भी भभक रहा हूँ। कमल को पाकर ही मेरे आत्मसम्मान पर लगे उस घाव को भुला जा सकता था..।”

“किन्तु कालभोज आपके पुत्र समान था, और किसी स्त्री की इच्छा के बिना उसे..।”

“मेरे पुत्र तुम हो, वो कालभोज नहीं।” सुबर्मन का कथन पूर्ण होने से पूर्व ही मानमोरी फट पड़े, “कालभोज आरम्भ से ही मेरे लिए केवल एक शस्त्र था। उसके पिता नागादित्य ने मेवाड़ में अनेकों योद्धाओं का विश्वास जीता था केवल इसलिए मैंने उसे ही अपना सेनानायक चुना ताकि इस राज्य के युवक बढ़ चढ़कर सेना का भाग बनें। तुम्हें भी उसके साथ मित्रता करने भेजा ताकि वो भावनात्मक रूप से भी हमारे ही समर्थन में खड़ा रहे।”

मानमोरी के वो वचन सुन सुबर्मन स्तब्ध रह गया, “अर्थात कालभोज और मेरी मित्रता केवल राजनीति का एक पासा था?”

“निसन्देह, किन्तु वो दुष्ट एक कन्या के लिए हमारे सारे उपकार भूल गया।”

सुबर्मन कुछ क्षण वहीं स्तब्ध खड़ा रहा। फिर मानमोरी को क्रोध में बैठा देख उसने कटाक्षमय स्वर में कहा, “आपने उसे अपने स्वार्थ के लिए सेनानायक नियुक्त किया, फिर उपकार कैसा? स्त्री शरण में आये तो उसकी रक्षा करना क्षत्रिय का कर्तव्य होता है, और कमल तो कालभोज की होने वाली जीवनसंगिनी थी।”

“किन्तु नागदा में मेरा जो अपमान हुआ, उसे मैं नहीं भुला सकता।” मुठ्ठियाँ भींचते हुए मानमोरी ने भूमि पर पड़े अधजले पत्र को पाँव तले रौंदा, “आज ही मैं आदेश जारी करूँगा कि सिंध से मेवाड़ की समस्त सेना अपने राज्य वापस लौट आये।”

“सम्बन्धों का व्यापार तो आप कर ही चुके हैं, पिताश्री।” सुबर्मन ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा, “राष्ट्र का मत कीजिए।”

“सिंधुराज अपना निर्णय ले चुके हैं। वो स्वयं हमसे संधि भंग करने की घोषणा कर चुके हैं। तुम क्या कहते हो? मैं स्वयं उनके पास जाकर पुनः संधि की विनती करूँ? आवश्यकता हमारी नहीं, उनकी थी।” मानमोरी ने आगे बढ़कर सुबर्मन के नेत्रों में देखा, “राजनीति में इन मैत्री सम्बन्धों का मोल सदैव उपयोगी नहीं होता, युवराज। अब तुम निर्णय लो, कि तुम अपने पिता का साथ दोगे या अपनी राजनैतिक मित्रता का।”

सुबर्मन के मुख पर पीड़ाभरी मुस्कान छा गई, “भले ही आपका मार्ग अनुचित हो, किन्तु एक पुत्र होने के नाते आपसे विमुख तो नहीं हो सकता, महाराज। आप अकेले पड़ जायेंगे, और मैं आपको उस दयनीय स्थिति में नहीं देख सकता।”

अपने पुत्र के शीतल वचनों ने मानमोरी के हृदय में धधक रही अग्नि पर मानों पानी सा डाल दिया। मेवाड़ नरेश ने गर्व में भरकर अपने पुत्र के कंधे थपथपाये, “हम दोनों साथ मिलकर मेवाड़ के ध्वज को प्रकाश की नई ऊँचाइयों तक ले जायेंगे।”

सुबर्मन ने बेमन से ही सही, किन्तु सहमति में सिर हिलाया।

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कुछ दिवस और बीते। नागदा के अखाड़े में कालभोज देवा के साथ शस्त्राभ्यास में लीन था। तभी अश्व पर आरूढ़ हुए योद्धा की वेशभूषा धारण किये एक तेजस्वी पुरुष अखाड़े की ओर आये।

उसे देख कालभोज के मुख पर भी चमक सी आ गयी। वो दौड़ते हुए उनके निकट आया और उस व्यक्ति के चरण स्पर्श किये, “प्रणाम, तातश्री।”

मुस्कुराते हुए शिवादित्य ने उसके मस्तक पर हाथ फेरा, “तो कहो मुझे क्यों स्मरण किया ?”

“आपको संदेश तो भेजा ही था, तातश्री। ये सूचना तो पूरे मेवाड़ में अग्नि की भाँति फैल चुकी है, कि उस दुष्ट मानमोरी ने राजकुमारी कमलदेवी से विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार होने के उपरान्त, सिंध के विभिन्न मोर्चों की रक्षा कर रहे एक लाख योद्धाओं को वापस बुला लिया है। सिंध की रक्षा के लिये अब चालुक्यों से सहायता माँगने का समय आ गया है।”

“हाँ, ये सब तो तुमने संदेश में बताया था।” शिवादित्य का स्वर गंभीर हो गया, “किन्तु जबसे पल्लवों ने षड्यन्त्र रचकर महाराज विन्यादित्य की हत्या करवाई है, तबसे उनके पुत्र महाराज विजयादित्य प्रतिशोध की अग्नि में भभक रहे हैं। उनके लिये इस समय पल्लवराज परमेश्वरवर्मन को दण्ड देने से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है।”

शिवादित्य का कथन सुन कालभोज क्षणभर के लिये विचारमग्न हो गया। यह देख शिवा ने अपने भतीजे का उत्साह बढ़ाते हुए कहा, “तुमने जो संदेश मुझे भेजा था, उस पर मैंने महाराज विजयादित्य से चर्चा की थी। और सर्वसम्मति से चालुक्यों की राजसभा ने एक निर्णय लेकर, तुम्हारे लिए एक प्रस्ताव भेजा है।”

“कैसा प्रस्ताव, तातश्री?”

“महाराज विन्यादित्य के जाने के उपरान्त महाराज विजयादित्य चालुक्यवंश के एकमात्र उत्तराधिकारी हैं। इसलिए उनके प्राणों को संकट में नहीं डाला जा सकता। इसलिये चालुक्य राजसभा ने ये प्रस्ताव भेजा है यदि तुम चालुक्यों की सेना लेकर पल्लवराज परमेश्वरवर्मन को पराजित करके उन्हें बंदी बनाकर चालुक्यों के समक्ष ले आओ, तो चालुक्यों की आधी सेना यथासम्भव तुम्हारी सहायता करने सिंध की ओर चल पड़ेगी।”

यह प्रस्ताव सुन कालभोज कुछ क्षण सोच में पड़ गया, “किन्तु क्या केवल प्रतिशोध के लिये इतना बड़ा युद्ध छेड़ना उचित है, तातश्री?”

“ये एक राजनीतिक माँग है, पुत्र। पिछले कुछ वर्षों से पल्लवों और चालुक्यों के मध्य कड़वाहट और युद्ध की संभावनायें बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में युद्ध करके पल्लवों की शक्ति क्षीण किये बिना यदि चालुक्यराज सिंध की सहायता के लिए सेना भेज देंगे, तो महिष्कपुर असुरक्षित हो जायेगा। अब अपने राज्य को संकट में डालकर तो चालुक्यराज सिंध की सहायता नहीं कर सकते।”

“तर्क तो आपका उचित है, तातश्री।” श्वास भरते हुए कालभोज ने मुट्ठियाँ भींची, “वैसे तो मैं प्रतिशोध की विचारधारा का समर्थन नहीं करता, किन्तु अपने समस्त परिवार को खो चुके युवराज के हृदय की पीड़ा भी समझ सकता हूँ। और इस समय राष्ट्रहित से ऊपर कुछ नहीं है। मैं इस अभियान के लिये तैयार हूँ, तातश्री।”

शिवादित्य ने गर्व में भरकर अपने भतीजे का कंधा थपथपाया, “मैं सामंत शिवादित्य, चालुक्यों की ओर से सेना में तुम्हारा स्वागत करता हूँ।”