Naari Bhakti Sutra - 17 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 17. भक्ति की युक्ति-कर्मयोग

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नारद भक्ति सूत्र - 17. भक्ति की युक्ति-कर्मयोग

17. 

भक्ति की युक्ति-कर्मयोग

लोकहानी चिंता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥६१||
अर्थ : भक्त लोकहानि की चिंता नहीं करता। वह लौकिक तथा वैदिक, सभी कर्मों को प्रभु को निवेदित कर देता है ।।६१।।

प्रस्तुत दो सूत्रों में नारदजी ने उस आध्यात्मिक सीख को समेटा है, जिसे श्रीकृष्ण ने गीता में कर्मयोग के नाम से संसार को दिया था। कर्मयोग, भक्ति की ऐसी युक्ति है जिसे अपनाकर भक्त संसार में रहते हुए, अपने सांसारिक जीवन का निर्वाह करते हुए, ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए भी परम मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इसे समझना उन संसारियों के लिए बहुत आवश्यक है, जो संसार में रहते हुए भक्ति करना चाहते हैं। 

ईश्वर की खोज तो इंसान सदियों से कर रहा है मगर बहुत कम लोग ईश्वर प्राप्ति (स्वअनुभव) के लिए संसार को छोड़, संन्यास मार्ग अपना लेते हैं। ज़्यादातर संसार में रहते हुए, अपनी घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारी निभाते हुए ही भक्ति करते हैं।

हर इंसान चाहे वह भक्त हो या न हो, उसे संसार में अनेक भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। जैसे माता-पिता की भूमिका, संतान की भूमिका, व्यापारी अथवा कर्मचारी की भूमिका, देश के नागरिक की भूमिका आदि। इन सभी भूमिकाओं की अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ और मर्यादाएँ होती हैं। अपनी भूमिकाओं को समझकर, उनके अनुसार सही-सही कर्म करना उस इंसान का कर्तव्य कर्म कहलाता है।

उदाहरण के लिए एक व्यापारी का कर्तव्य है, वह बिना छल-कपट के पूरी ईमानदारी से व्यापार करे और समय से राजस्व चुकाए। एक नेता का कर्तव्य है कि वह जनता और देश के भले के लिए निर्णय ले, उनकी सेवा को ही अपना धर्म समझे। गृहिणी का कर्तव्य अपने परिवार का ध्यान रखना है। इस तरह प्रत्येक इंसान का यह सबसे पहला कर्तव्य है कि वह अपने समस्त कर्तव्य कर्मों को पूरी विवेक बुद्धि द्वारा, बिना अपना फायदा या नुकसान सोचे, उचित तरीके से करे। साथ ही उन कर्मों का जो भी फल आए, उसे पहले ईश्वर को समर्पित कर दे, फिर उन्हें ईश्वर का प्रसाद मानकर प्रसन्नता और स्वीकार भाव से ग्रहण करे।

किंतु हर इंसान ऐसा कहाँ करता है; ज़्यादातर लोग स्वार्थ से तत्पर होकर लोभ और लालच से भरकर ही कार्य करते हैं, जिससे उनका ज़्यादा से ज़्यादा लाभ हो। भले ही इसके लिए उन्हें किसी दूसरे का नुकसान ही क्यों ना करना पड़े। वे मूर्ख, अज्ञानी लोग उस तात्कालिक क्षणिक लाभ को ही स्थायी मानकर, पाप कर्म करते हैं और भविष्य में अपने लिए गड्ढा खोद लेते हैं, जिसमें एक न एक दिन वे स्वयं गिरते हैं।

किंतु ज्ञानी प्रज्ञावान भक्त इस लोक में होने वाले लाभ और हानि की परवाह नहीं करता और पाप कर्म करने से बचता है। वह जानता है कि ईश्वर ही उसके शरीर के माध्यम से अपने कर्म करवा रहा है। वह ईश्वर की संसार रूपी लीला में मात्र अभिनेता है, जो ईश्वर की मर्ज़ी से ही चल रहा है। इसलिए जो भी फल आए उसे चिंता नहीं होती, वह तो भक्ति में मस्त होकर सिर्फ अपने कर्तव्य कर्म करता जाता है और उनके फल को ईश्वर को अर्पण कर, प्रसाद स्वरूप पाता है।

न तदसिध्दौ लोकव्यवहारो हेयः किंतु फलत्यागस्तत्साधनं च कार्यमेव ॥६२॥
अर्थ : जब तक सिद्धि प्राप्त न हो (तब तक) लोक व्यवहार हेय नहीं है किंतु फल त्यागकर कर्म करना ही भक्ति का साधन है ।।६२।।

संसार में रहेंगे तो कर्म तो करने ही होंगे, दायित्व को भी निभाना होगा। इसलिए नारद जी ने ६२वें सूत्र में कहा है, जब तक सभी दायित्व सिद्ध न हो जाएँ, लोक व्यवहार को हेय दृष्टि यानी छोटा मानकर नहीं देखना चाहिए। संसार में अज्ञानी लोग जैसे लोक व्यवहार करते हैं, ज्ञानी भक्त को वैसे ही लोक व्यवहार करना चाहिए किंतु सही तरीके से, पूरी समझ के साथ ताकि उसके आचरण से कोई भी अकर्मण्यता की शिक्षा न ले।

एक अज्ञानी जो काम खुद को कर्ता मानकर, व्यक्तिगत हित साधने के लिए करता है, वही कार्य एक ज्ञानी भक्त ईश्वर को कर्ता मानकर अव्यक्तिगत भावना से करता है। कैसे, आइए समझते हैं।

मान लीजिए, एक टैक्सी ड्राइवर है जो सारे दिन ड्राइविंग करते हुए कभी ट्रैफिक को लेकर, कभी गर्मी को लेकर, कभी थकान को लेकर चिड़चिड़ करता रहता है। वह ड्राइविंग इसलिए करता है ताकि अपनी ज़रूरतों के लिए पैसे कमा सके। कुछ ज़्यादा पैसे बनाने के लिए वह सवारियों के साथ बिल में छोटी-मोटी हेराफेरी से भी नहीं चूकता और उन्हें लंबे रास्ते से ले जाने की कोशिश करता है ताकि मीटर ज़्यादा बढ़े। वह सदा तनाव में ही रहता है क्योंकि उसे वे पैसे कभी भी अधिक नहीं लगते। वह हमेशा ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने की कोशिश में रहता है। जब उसे कम सवारियाँ मिलती हैं तो वह इसलिए बड़बड़ करता है कि उसकी कमाई अच्छी नहीं हुई और जब अधिक सवारियाँ मिल जाती हैं तो इसलिए बड़बड़ करता है कि उसे ज़्यादा काम करना पड़ रहा है यानी वह हर हाल में दुःखी ही रहता है।

वहीं दूसरी ओर एक और टैक्सी ड्राइवर है, जो ज्ञानी भक्त है। वह सवारियों के प्रति सेवा भाव से ड्राइविंग करता है। उसका यही प्रयास रहता है कि लोग आराम से, तसल्ली से और कम खर्चे में अपने गंतव्य तक पहुँचे। उन्हें किसी तरह की कोई दिक्कत ना हो। वह उनके लिए आसान और शॉर्ट रूट का चुनाव करता है। उसे जितनी सवारियाँ मिलती हैं, उसकी जितनी कमाई होती है, वह उसे ईश्वर का प्रसाद मानकर उसमें संतुष्ट रहता है। साथ ही रास्ते में ट्रैफिक और मौसम कैसा भी हो, वह पूर्ण स्वीकार भाव के साथ अपना कार्य करता रहता है। उसे यह स्पष्टता है कि ईश्वर ने उसे आजीविका के लिए यही भूमिका दी है। अतः वह अपने काम को ईश्वर की नौकरी समझकर पूरी ईमानदारी और भक्ति भाव से करता है। इसलिए वह पूरा दिन सुखी, आनंदित रहता है। ऐसा कर्म और ऐसा जीवन भक्ति की सच्ची अभिव्यक्ति है।

एक सच्चा भक्त जानता है कि इस सृष्टि का प्रत्येक तत्त्व या हिस्सा एक दूसरे से किसी ना किसी तरीके से जुड़ा हुआ है। एक के बुरे कर्म का प्रभाव सब पर होता है और इसी तरह एक के अच्छे कर्म का प्रभाव भी सब पर होता है। इसलिए एक सच्चे भक्त की हमेशा यही कोशिश रहती है कि उसके कार्यों से संपूर्ण सृष्टि का भला हो उसका योगदान ईश्वरीय लीला में सकारात्मक रहे। इसलिए वह अपने कर्म को ही भक्ति और सेवा बना लेता है।