Naari Bhakti Sutra - 16 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 16.भक्ति की विशेषता

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नारद भक्ति सूत्र - 16.भक्ति की विशेषता

16.
भक्ति की विशेषता

अन्यकमात् कौलभ्यं भक्तौ ॥५८॥
अर्थ : अन्य की अपेक्षा भक्ति सुलभ है ।।५८।।

परम भक्त नारदमुनि ही नहीं अन्य सभी श्रेष्ठ भक्त विभूतियाँ भक्ति को सबसे सहज, सरल और सुलभ मार्ग मानते हैं। सभी आध्यात्मिक ग्रंथ भी यही कहते हैं। सुलभ यानी जो आसानी से उपलब्ध हो जाए, जिसे पाने के लिए आपको ज़्यादा प्रयत्न न करने पड़ें।

मान लीजिए, आपको किसी से प्रेम है और आपसे पूछा जाए- 'प्रेम करने के लिए आपको क्या-क्या कष्ट उठाने पड़े?' तो आपका यही जवाब होगा कि 'प्रेम करने के लिए कष्ट उठाने की क्या ज़रूरत है, प्रेम तो यूँ ही हो जाता है।' अर्थात कष्ट तो सांसारिक प्राप्तियों में उठाया जाता है या अपने प्रेमी को पाने के लिए किए गए प्रयासों में उठाया जाता है। लेकिन यदि आपके भीतर यह कामना ही न हो कि आपका प्रेमी आपको मिले तो फिर कैसा कष्ट... फिर तो आप सिर्फ बैठे-बैठे प्रेम में डूबे हुए, प्रेमी को याद करते हुए आनंद ही लेंगे।

किसी के प्रेम में होना सरल और सहज है। इसके लिए कुछ और करने की आवश्यकता नहीं। प्रेम होना ही काफी है। एक बात और किसी से प्रेम ज़बरदस्ती भी नहीं किया जा सकता, यह तो आंतरिक अनुभूति है, जो स्वयं ही उत्पन्न होती है।

सकाम भक्तों को ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए बड़े-बड़े जप-तप, कर्मकाण्ड आदि करने पड़ते हैं ताकि ईश्वर उनकी सुन ले और उन्हें मनचाहा फल दे। लेकिन निष्काम भक्त इन सब कामना, वासनाओं से दूर सिर्फ ईश्वरीय प्रेम में ही डूबा रहता है। इसके अतिरिक्त उसे कुछ भी नहीं करना पड़ता। निष्काम भक्ति ही वास्तव में भक्ति है।

प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात्॥ ५९ ।।
अर्थ : भक्ति स्वयं प्रमाण रूप है, अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं ।। ५९ ।।

बाकी सभी आध्यात्मिक मार्ग में साधक द्वारा किए जा रहे प्रयासों के परिणाम में यदि भक्ति प्राप्त हो रही है तो यह इस बात का प्रमाण है कि साधक सही राह पर चल रहा है। किंतु भक्ति मार्ग पर चलने वाले साधक के लिए तो फल भी भक्ति ही है; भक्ति ही भक्ति का आरंभ है, भक्ति ही भक्ति की मंज़िल है और भक्ति ही भक्ति की कसौटी एवं प्रमाण है।

शांतिकरूपात्पवमानंदरूपाच्च ॥६०॥ 
अर्थ : भक्ति शांति तथा परमानंद रूपा है।।६०।।

भक्ति प्रेम है और प्रेम शांति एवं आनंद का दूसरा नाम है। प्रेम आपसे वह सब करवा सकता है, जो कोई दूसरा भाव नहीं करा सकता। आइए, इसे एक उदाहरण से समझते हैं।

एक कुम्हार था। वह दिनभर मिट्टी के घड़े, बर्तन, दीये आदि बनाता रहता। उसे अपने कार्य से अत्यधिक प्रेम था। वह सुबह उठकर मिट्टी से तरह-तरह के सामान बनाने शुरू कर देता। ज़रूरत न होने पर भी उन्हें बनाता रहता। पूरा दिन कैसे निकलता उसे पता ही नहीं चलता। वह मुस्कराता हुआ, गुनगुनाता हुआ, बड़े आनंद और शांति से अपना काम करते रहता।

उसकी बनाई चीज़ों में एक अलग ही कलाकारी दिखती, जो उन चीज़ों को बाकी कुम्हारों के काम से अलग खड़ा कर देती। इसलिए उसका बनाया सामान हाथोंहाथ बिक जाता। मिट्टी का सामान बनाते हुए वे बहुत बार टूट भी जाते लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। कभी किसी वस्तु में कोई कमी रह जाती तो वह लगन और मेहनत की परवाह किए बिना उसे स्वयं तोड़कर दोबारा बनाने लगता।

एक रात बहुत तेज़ तूफान और बारिश आई जिससे उसका सारा मिट्टी का कच्चा सामान गल गया और जो पका हुआ था, वह टूट-फूटकर बिखर गया। यह देख उसकी पत्नी बहुत दुःखी हुई। कहने लगी, 'इतने दिनों की सारी मेहनत, सारे पैसे बेकार चले गए।' मगर उस कुम्हार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वह अगली सुबह पहले की तरह गुनगुनाते हुए, मुस्कराते हुए फिर से काम में लग गया और रचनात्मकता से भरपूर नई-नई चीज़ें बनाने लगा।

देखा आपने प्रेम इंसान से क्या करवाता है। कुम्हार को अपने कार्य से बेहद प्रेम था। उसे मिट्टी से चीजें बनाने में आनंद आता था। उसका आनंद उसके कर्म के परिणाम पर निर्भर नहीं था। कर्म ही उसके लिए भक्ति थी। इसलिए परिणाम जो भी आए वह सदा आनंदित ही रहता था। जबकि उसकी जगह कोई और होता तो उसका जीवन सुख-दुःख के उतार-चढ़ाव से जूझता रहता।

ऐसे ही ईश्वर से सच्चा प्रेम करने वाला भक्त सदा आनंदित रहता है। जीवन के उतार-चढ़ाव उसकी आनंदित अवस्था को ज़रा भी प्रभावित नहीं करते।