Naari Bhakti Sutra - 15 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 15.भक्ति के भेद

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नारद भक्ति सूत्र - 15.भक्ति के भेद

15.

भक्ति के भेद


गौणी विधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥५६॥

उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ ५७।।

अर्थ : गौणी भक्ति गुण भेद से तथा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है।। ५६ ।। 

पूर्व क्रम की भक्ति उत्तरोत्तर क्रम से श्रेयस्कर होती है।। ५७।।

नारदजी ने ४७ भक्ति सूत्र में इंसान की त्रिगुण प्रकृति के बारे में बताया था ना कि हर इंसान के अंदर प्रकृति ने मूल रूप से तीन गुणों का समावेश किया हुआ है– तम, रज और सत। इन्हीं त्रिगुणों के संयोग यानी कॉम्बिनेशन से इंसान का स्वभाव तय होता है, उसमें भाव और विचार जगते हैं, बुद्धि निर्णय लेती है और उससे कर्म होते हैं। जिस इंसान में जिस गुण की प्रधानता होती है उसके भाव, विचार, वाणी, क्रिया उसी तरह के हो जाते हैं और उसकी भक्ति भी उसी गुण की प्रधानता लिए होती है।

कहने का तात्पर्य– इंसान के गुणों के आधार पर हम भक्ति को भी तीन प्रकारों में विभक्त कर सकते हैं। जो हैं– तामसिक भक्ति, राजसिक भक्ति और सात्विक भक्ति। भक्ति के भाव और ध्येय तय करते हैं कि भक्ति किस प्रकार की है। आइए, भक्ति के इन तीनों प्रकारों को समझते हैं।

तामसिक भक्ति– तामसिक भक्ति अशुद्ध और मलिन भाव से की जाती है। इसमें हिंसा, बलि आदि का भी प्रयोग होता है। जिस भक्ति का ध्येय किसी को नुकसान पहुँचाना, किसी का अनिष्ट करना होता है, वह तामसिक भक्ति है। तामसिक भक्ति करने वाले भक्तों की चेतना भी तामसिक और निम्न प्रवृत्ति की होती है। वे मंत्र-तंत्र आदि शवों आदि बदले की भावना से और दूसरों का अहित करने के लिए पूजा-पाठ, करते हैं। वे शुद्ध सात्विक ईश्वर के बजाय भूत-प्रेतों, शैतानी शक्तियों, की पूजा करते हैं।

धार्मिक, कट्टरवादी लोग जब भगवान या अल्लाह के नाम पर दूसरे के खात्मे की बात करते हैं... तो वे तामसिक भक्ति कर रहे हैं।

राजसिक भक्ति– संसारिक सुखों की प्राप्ति और व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति हेतु की गई भक्ति राजसिक भक्ति कहलाती है। इसे सकाम भक्ति भी कहते हैं। सरल शब्दों में कहें तो यह बिजनेस भक्ति है। ऐसी भक्ति में भक्त, भगवान के सामने डील करता है–इस हाथ ले, उस हाथ दे...! अर्थात 'भगवान भक्ति चढ़ावा लो और फल दो।' अगर भगवान उन्हें मनचाहा फल नहीं देता तो वे या तो भक्ति छोड़ देते हैं या भगवान बदल देते हैं। ऐसे भक्तों के सामने यदि दो देवता की पूजा का विकल्प रखकर कहा जाए कि पहले देवता की पूजा करोगे तो स्वबोध मिलेगा और दूसरे की करोगे तो संसार में धन, वैभव, सफलता... सब मनचाहा प्राप्त होगा तो वे निश्चित ही दूसरे देवता की पूजा शुरू कर देंगे।

संसार में अधिकतर लोग राजसिक भक्ति ही करते हैं। राजसिक भक्तों की सुविधा के लिए अलग-अलग फल देने वाले देवता और उन्हें प्रसन्न करने के लिए कर्मकांड भी गढ़ लिए गए हैं ताकि जिस भक्त को जो चाहिए, वह उसी फल विशेष के देवता की विधि पूर्वक पूजा कर सके। तामसिक और राजसिक भक्ति ने भक्ति के मूल उद्देश्य को ही बदलकर रख दिया है और उसे दूषित कर दिया है।

सात्विक भक्ति– सात्विक भक्ति ईश्वर प्राप्ति के लिए की जाती है। यह व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर सभी के मंगल के लिए, सभी के लाभ के लिए की जाती है। इसमें भक्ति के साथ-साथ निःस्वार्थ सेवा का भाव भी प्रमुख होता है। तीनों तरह की भक्ति में यह भक्ति श्रेष्ठ है। सात्विक भक्ति करने वाला भक्त क्षमा, दया, शीलता, करुणा जैसे भावों से भरा रहता है इसलिए वह सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सभी के मंगल के लिए भक्ति करता है। वह ईश्वर के प्रेम में डूबकर उसी को पाने के लिए भक्ति करता है। 

नारद जी ने अपने सूत्र में तीनों गुणों पर आधारित तीनों प्रकार की भक्ति को गौण यानी साधारण कहा है। जबकि सात्विक भक्ति तो सुनने में भली प्रतीत होती है। उनके ऐसा कहने के पीछे एक कारण है। सात्विक भक्ति भले ही राजसिक और तामसिक भक्ति से बेहतर हो किंतु वह सर्वश्रेष्ठ नहीं है। उसमें भी भक्त का कर्ता भाव बना रहता है कि 'मैं भक्ति कर रहा हूँ और जिसकी भक्ति कर रहा हूँ, वह देव मुझसे अलग है।' यह द्वैत भाव उसे उच्चतम भक्त बनने से रोकता है। सर्वश्रेष्ठ भक्ति गुणातीत ज्ञान भक्ति है।

ऐसी भक्ति तब मिलती है, जब भक्त ईश्वर के सारे रहस्यों को जान जाता है। जैसे नदी सागर में जाकर सागर ही बन जाती है, वैसे ही भक्त का अहंकार विलीन होकर अपनी आंतरिक परमचेतना में मिल जाता है। इसी अनुभव के बारे में कहा जाता है, 'भक्त और भगवान एक हो गए हैं।' इस अवस्था को ही स्वअनुभव या आत्मसाक्षात्कार कहा जाता है। इस अवस्था पर पहुँचकर भक्त की भक्ति और उसका प्रत्येक कर्म गुणातीत हो जाता है। फिर वह मात्र ईश्वर की प्रसन्नता के लिए उसकी लीला में पूरी समझ और अकर्ता भाव से अपनी भूमिका निभाता है। ऐसे में उसका जीवन बाहर से भले ही संघर्षों और दुःखों से भरा दिखाई दे किंतु वह भीतर से भक्ति और आनंद की अभिव्यक्ति ही कर रहा होता है।

संसार में बहुत से भक्तों जैसे ईसा मसीह, संत ज्ञानेश्वर, मीरा आदि का जीवन बेहद कष्टपूर्ण रहा मगर वे भीतर से आनंद की अभिव्यक्ति ही कर रहे थे। उनकी भक्ति श्रेष्ठ भक्ति थी।

भक्ति के उपरोक्त भेद नारद जी ने गुणों के आधार पर बताए हैं। अब वे उद्देश्य के आधार पर भी भक्ति के भेद बताते हुए कहते हैं 'आर्तादि भेद से भक्ति तीन प्रकार की होती है।' आइए, इन भेदों को समझते हैं।

१. आर्त भक्ति– आर्त माने करुण पुकार। आर्त भक्ति वह होती है जिसमें भक्त किसी न किसी प्रकार के दुःख के अधीन हो जाता है और तड़पकर भगवान से कष्ट हरने की गुहार लगाता है। उदाहरण के लिए शारीरिक कष्ट आ जाने पर, धन-वैभव नष्ट होने पर, दुश्मनों से घिर जाने पर, प्रियजन के बिछड़ जाने पर या अन्य किसी भी प्रकार के संकट से घिर जाने पर उसके भीतर से जो थरथराती प्रार्थना उठती है, वही आर्त भक्ति है। यह बहुत तीव्र होती है किंतु अस्थायी भी। ज़्यादातर भक्त दुःख दूर होते ही भगवान को भूलकर अपने सुखों में मग्न हो जाते हैं।

आपने विष्णु भक्त गजेंद्र हाथी की कहानी सुनी होगी, जिसमें मगरमच्छ द्वारा पैर पकड़ लिए जाने पर वह मदद के लिए उन्हें पुकारता है और विष्णु भगवान उसकी रक्षा के लिए आते हैं। साथ ही कौरवों की सभा में चीर हरण के समय द्रौपदी श्रीकृष्ण से सहायता के लिए करुण प्रार्थना करती है। दोनों प्रसंग आर्त भक्ति के ही उदाहरण हैं।

२. अर्थार्थी– अर्थार्थी भक्ति राजसिक भक्ति का ही दूसरा नाम है। इसमें भक्त सांसारिक भोग, सुख-समृद्धि, मान-सम्मान, पद, शक्ति आदि प्राप्त करने के लिए भगवान की भक्ति करता है। ऐसी भक्ति में साधन, कर्मकांड, विधि-विधान प्रमुख हो जाते हैं और भक्ति भाव गौण रहता है। 

ऐसी भक्ति करने वालों को लगता है, भगवान उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें मनचाहा फल दे देंगे मगर वे अज्ञानी ये नहीं जानते कि फल तो कर्म सिद्धांत से मिलता है, जो कहता है– 'जैसा करोगे, वैसा भरोगे।' अर्थात फल हमेशा कर्म के अनुसार ही मिलता है, भक्ति से तो सिर्फ भगवान मिलते हैं सांसारिक भोग-विलास नहीं। इसीलिए कर्मठ अर्थार्थी भक्तों की भक्ति सफल होती है। जबकि आलसी, निकम्मे अर्थार्थी भक्त कितनी भी भक्ति कर लें, उनके जीवन की दशा में कोई परिवर्तन नहीं होता।

३. जिज्ञासु भक्ति– जिज्ञासु भक्ति में भक्त की प्रवृत्ति खोजी की होती है। वह कामना पूर्ति के लिए या दुःखों को दूर करने के लिए नहीं बल्कि अपने आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए सत्य के मार्ग पर चलता है। वह ईश्वर का, सृष्टि का और स्वयं का रहस्य जानना चाहता है। उसकी यही एकमात्र अभिलाषा होती है और इसके लिए वह कष्ट भी झेल लेता है। गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, नचिकेता जैसे भक्तों की शुरुआत इसी प्रकार की भक्ति से हुई थी।

ये तीनों ही प्रकार की भक्ति सकाम भक्ति है, जिसमें भक्त कोई न कोई कामना लेकर भक्ति करता है, भले ही वह ईश्वर को जानने की कामना ही क्यों न हो। इन तीनों से परे जो शुद्ध, सच्ची भक्ति होती है, वह ज्ञान पर आधारित होती है, जिसे गुणातीत भक्ति भी कहा जा सकता है। ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। स्वबोध पाने के बाद ऐसी ही ज्ञान भक्ति होती है।

५७वें सूत्र में नारद जी भक्ति की श्रेष्ठता के क्रम को बताते हुए कहते हैं– तामसिक से राजसिक, राजसिक से सात्विक और सात्विक से गुणातीत (ज्ञान) भक्ति श्रेष्ठ है। इसी तरह आर्त और अर्थार्थी से जिज्ञासु भक्ति और जिज्ञासु से ज्ञान भक्ति श्रेष्ठ होती है।

अतः भक्त को नित्य सत्य के श्रवण, पठन, मनन, चिंतन द्वारा अपनी भक्ति की अवस्था में क्रमशः विकास करते रहना चाहिए और उसे श्रेष्ठता के स्तर पर ले जाना चाहिए, जो निष्काम ज्ञान भक्ति है।