बाजार ----20/19 धारावाहिक
बम्बे किसी का सूर्य अस्त तो किसी का उदय हो कर डूबने तक का सफर कर चूका होता हैं। कितने मौसम देखे होंगे... उस सूरज ने... कड़कड़ाती धुप कभी बादलो का मंथन... ऐसे ही चलती रही घड़ी समय की बड़ी सुई....
पतझड़ तो कभी बहार कभी दिमाग का सुन्न हो जाना... कभी हैरत मे पैर धरती पे न लगना तो कभी रात ऐसी भी होती थी... कि पूरी रात सोना ही न।
ज़िन्दगी को अलविदा कह गया देव.... पीछे छोड़ गया एक खालीपन.. जुड़े लोगों का दिल से रोना... कैसी थी ज़िन्दगी उसकी। जिसको सब आसानी से मिल गया पर सब कुछ अधूरा ही तो था। आदमी अधूरा ही होता हैं... हसरत हैं तो मंजिल नहीं... मंजिल हैं तो उम्र नहीं... उम्र हैं तो सब कुछ तबाह या बर्बाद होता देखा हैं मैंने।
बम्बे मे मैंने बहुत ऊंचे उड़ते परिंदे भी थक कर कभी फर्श पर गिरते देखे हैं। ब्रांड जिनके नाम पे होते थे, आखरी उम्र मे वही ब्रांड किसी का चूज करते देखा हैं मैंने। वक़्त समझौता सिखाता हैं.. पर मौत से कौन समझौता करता हैं।
रानी वोधका पी रही थी... साथ मे बैठा था शंकर देवदास, दोनों सोच यही रहे थे, फ़िल्म का टूट जाना " देव " की मौत कयो बना।
रानी हल्की मुस्कान से बोली ----" जनाब आप कयो वहम पाले हैं... फ़िल्म का छेवा दिन हैं... दस दिनों बाद चलेगी... डूबेगी नहीं। "
"रानी --- उसकी मौत का बेहद दुःख हैं मुझे... पर तुम्हे कयो नहीं... तुम फिर भी मुस्करा रही हो। "
"कायर और बुजदिल आदमी से अपुन कोई रिश्ता नहीं रख सकता.... सच मे। " शंकर देवदास ने टूटते हुए पूछा।
" ब्लू कलर की शर्ट मे और जींस मे तुम बेहद सुंदर लगती हो... " शंकर देवदास ने कहा।
"थन्कु " ---- फिर वो बोला --" तुम इतनी गहराई से जानती थी देव को, तो कयो बुजदिल कहा उसे। "
रानी को बातो मे कुछ अटपटा सा लगा। तुम्हे पता हैं ये वजूद फ़िल्म अब जनता ने नकार दी हैं, तुम्हे वो देखना पसंद नहीं करती। " रानी ने कहा " मै कुछ समझी नहीं। "
"आओ चले... घूम कर आते हैं... और समझता हूँ.. " रानी टूटे मन से तैयार हो गयी। कार शंकर देवदास चला रहा था.... वो मछली बज़ार को छोड़ कर घूम कर वही फ्लेट की और मुड़ गए थे यहां से देव की लाश मिली थी।
उसने पान वाली शॉप से एक सिगरट की डिबिया लीं। एक लायटर लिया। और दोनों उतर कर सड़क पार करके एक दूसरे का हाथ पकड़ जाने लगे।
तभी -------एक दुःखद आवाज रानी के कानो मे पड़ी।
ये आवाज़ मुंशी दा की थी। अनसुना करना भी उसे अच्छा नहीं लगा। " बेटी राम राम.... " मुंशी दा ने एक पत्र निकाल कर रानी को देना चाहा ही था बीच फुर्ती से शंकर देवदास ने पत्र पकड़ लिया... " बेटी ये पत्र पढ़ लेना.. उन्हों ने मुझे अमानत के तौर पर तुझे देने को कहा था। "
चलो चलता हूँ। " मुशी दा जा चूका था।
रानी चितक थी। बेहद चितक। रुके मे कया ऐसा था, जो देव ने अमानत समझ कर मुझे देने को कहा था। सोचा था उसने -----" छोड़े जाने के बाद रुका लिखा देव ने, फिर उसकी डेथ... माजरा समझ से बाहर था। "
सिगरेट का धुआँ उड़ाता हुआ शंकर देवदास उसके पास चल कर आ रहा था।" सोच रही थी, रानी शंकर देवदास से शायद उसकी कभी शादी नहीं होंगी। ऐसा उसने उल जलूल कयो सोच लिया था। यही कारण था, क्रोध से हम होते हुए काम खुद ही विगाड़ लेते हैं। " सोच थी... मन का वहम था।
शंकर देवदास कान पे फोन लगाते हुए ड्राइवग सीट पे बैठ चूका था। मोबाइल पर वो कह रहा था " अगली फ़िल्म सागर साहब को निर्देशक बना कर उतार दो... पटकथा रानी की होंगी... ये कहानी रानी की होंगी। उसका कलेक्शन मे तेह करुँगा.... ओके "
गाड़ी मे चुप छा गयी थी। उसने रानी को कल जरूर मिलने को कहा था, और कहा था आपने बगले मे.... उसका उसके फ्लेट पर उतारते हुए, शंकर देवदास ने पत्र बिना खोले ही रानी को दें दिया था। और कहा था " रानी अतीत को देखना और पढ़ना और समझना प्रेजन्ट मे उथल पुथल कर देता हैं... कल से तुम राइटर हो मेरी अगली फ़िल्म की। " रानी एक गहरी सोच मे पड़ गयी, लेकिन उसने अनसुना कर दिया था।
"बाय "कह के शंकर देवदास आगे भीड़ मे घुस गया था।
एक खालीपन उसके साथ था... अकेली थी.... चुप।
कमरे की लाइट ऑन की... फिर उसने इतनी स्लो कहा "
" देव बुझदिल कयो निकले तुम " रानी ने एक देसी का गिलास बना कर कहा। साथ खीरे को काटा हुआ प्लेट मे रखा निकाल लिया था। फिर उसने कितनी दफा बुझदिल कह के नम आँखो को पौझ डाला था.... पत्र मे लिखा था... मेरी रानी
मैंने ज़िन्दगी मे कितने ही समझौते किये हैं, लेकिन हार गया। अब तेरी लाइफ से समझौता नहीं कर सकता... झूठ जानो मैंने तुम्हे कभी भी प्यार नहीं किया... सच ये हैं, तुम मेरे लिए सपने कयो बुनती हो, मेरी ज़िन्दगी अंधेरा हैं... रोशनी मत करो। लीवर मेरा खत्म हो चूका हैं... कोई भी कितनी देर जीता हैं... एक आसान करना ------ घर वसा लेना बस।
देव।
रानी की आखें तिलमिला उठी थी... " देव तुम बुझदिल थे, हमेशा वास्ते तुम्हे मैंने इस दिल से निकाल दिया हैं।
" साले तुम कया जानो प्यार.... तुम कायर, डरपोक... किसी के भी काम के नहीं... जिसने आपनी ज़िन्दगी ही मार दी, जो धरती पे भी कभी नहीं आयी.... "
" तुम्हे मै माफ़ कर दू, इसलिए लेटर लिखा हरामजादे... "
उसने लाइटर से रुके को जला दिया था... आँखो मे आंसू थे कितनी राते उसने देव संग भोगी थी। " देव मै नफ़रत करती रहूगी.. तुमसे। फिर जयादा चड़ गयी। और वैसे ही बिस्तर पर लेट गयी... खिड़की का डोर खुला था... ठंडी हवा के झोंके आये कब चले गए... कब रात कब सवेर।
बम्बे पे फिर गाड़ियों की वही भीड़।
इसके संग ये सत्य उपन्यास की कहानी नीरज शर्मा समाप्ति कर रहा हैं।
इसकी 1 से लेकर 20 किश्ते, जो लिखा गया हैं.. कोई और साबत कर दें तो मैं हर तरा से जिम्मेदारी लेता हूँ।
........... नीरज शर्मा ----