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श्रवण, कीर्तन, भजन से भक्ति में बढ़ोत्तरी
अव्यावृत भजनात् ||३६||
अर्थ : (अथवा) अखंड भजन से ।। ३६ ।।
नारदजी भक्ति बढ़ाने का एक साधन अखंड भजन बताते हैं। अखंड भजन यानी हमारे भीतर निरंतरता से चलने वाला ईश्वर भजन। यहाँ पर भजन का अर्थ न पकड़ें। हमारे भाव, विचार, वाणी, क्रिया से अगर हम ईश्वर के ध्यान में डूबे हैं, उसी के बारे में सोच रहे हैं, बोल रहे हैं या सुन रहे हैं तो यह अखंड भजन या अखंड जाप ही है।
जैसे यदि किसी प्रेमिका का प्रेमी किसी दूसरे नगर गया है। वैसे तो वह अपने घर के कामकाज़ कर रही है लेकिन उसका मन परदेश गए अपने प्रेमी में ही अटका है, वह हर समय उसी का चिंतन करती है, अपनी सहेलियों से उसी की बातें करती हैं , उसकी याद में गीत गाती है... तो उसकी अवस्था अखंड भजन की ही है, जो वह अपने प्रेमी के लिए कर रही है। एक भक्त का प्रेमी उसका आराध्य होता है। वह हर समय उसी का चिंतन करता है और जितना अधिक उसमें रमा रहता है, उतना भक्ति भाव में डूबा रहता है।
आपने कबीरदासजी, संत रैदास जैसे गृहस्थ भक्तों की कहानियों में पढ़ा होगा कि वे कैसे भक्ति भाव में डूबे हुए, भजन गाते हुए अपने दैनिक कार्य किया करते थे। कबीर बुनकर थे, कपड़ा बुनते हुए उनका चिंतन परमेश्वर में ही लगा रहता था। संत रैदास जूते बनाते थे, वे भी अपना काम भक्ति में डूबकर भजन गाते हुए करते थे। बस ऐसे ही एक भक्त को दिनभर अपने भीतर रहनेवाले परमपिता ईश्वर से लौ लगाए रखनी है, उसका ध्यान करना है, उसका भजन करना है।
अखंड भजन या जाप भक्ति को टिकाए रखने और बढ़ाने का यह सरलतम तरीका है क्योंकि इंसान का मन एक ऐसा भूत है, जो खाली नहीं बैठ सकता। खाली होते ही वह बेकार के खयालों में उलझ जाता है, भविष्य की चिंता करने लगता है, भूतकाल पर पछताने लगता है, दूसरों की निंदा, चुगली, बुराइयों में लग जाता है। ऐसे व्यर्थ चिंतन से मुक्त करने के लिए सबसे ज़रूरी है, मन को कोई सार्थक काम देकर व्यस्त रखा जाए। ऐसे में ईश्वर भजन से ज़्यादा सार्थक काम और क्या होगा? अतः जब भी ये चंचल मन इधर-उधर भटके, उसे पकड़कर ईश्वर चिंतन, भजन, जाप पर ले आएँ। बारंबार अभ्यास करते रहने से यह मन का संस्कार बन जाएगा, उसकी आदत बन जाएगी। यदि एक बार आदत बन गई तो बिना प्रयास के वह सतत अखंड भजन करता ही रहेगा। और ऐसा करते हुए उसके दैनिक कर्म में भी कोई व्यवधान नहीं आएगा। हाथ अपने कर्म करेंगे और मन ईश्वर भजन करेगा।
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ईश्वर भजन अथवा जाप भक्ति का ऐसा सरल साधन है, जिसके लिए कोई नियम, कोई विधि-विधान नहीं है। जिस भी भजन, शब्द से आपके भीतर भक्तिभाव बढ़ता है, आप उसे अपना सकते हैं, गुनगुना सकते हैं। किसी की देखा-देखी कभी भजन का चुनाव ना करें। अपना भजन स्वयं चुनें। हो सकता है किसी और के लिए जिस भजन से भक्ति भाव बढ़ते हों, वह आपके लिए उतना असरदार ना हो।
बहुत से लोग ऐसी भाषाओं के शब्दों का, ऐसे मंत्रों का निरंतर जाप करते हैं, जिनका उन्हें मतलब भी नहीं पता होता। जिन शब्दों, प्रार्थनाओं या मंत्रों का आपको अर्थ नहीं पता, उन्हें दोहराने, गुनगुनाने से कोई लाभ नहीं है। भजन आपके भीतर के भाव तभी प्रबल करेगा, जब वह आपके अपने हों, आप उसे समझकर दिल से गुनगुना सकें। कबीर, नानक के दोहों को, तुलसी, मीरा के भजनों को सुनें तो पाएँगे कि वे उनके अपने थे, न कि वे किसी पुराने कठिन संस्कृत के श्लोकों को गाते थे। भक्ति तभी बढ़ेगी जब शब्द, भाव... सब आपके अपने होंगे... आपके दिल से निकले हुए तभी वे ईश्वर तक पहुँचेंगे और आपकी भक्ति बढ़ाएँगे।
लोके-पि भगवद्गुणश्रवण किर्तनात् ||३७||
अर्थ : लोक-समाज में भी भगवद् गुण श्रवण तथा कीर्तन से ।।३७।।
इस सूत्र में नारदजी भक्ति प्रेरित करने का एक और साधन बताते हुए कह रहे हैं कि भक्तों को न सिर्फ घर में बल्कि लोक-व्यवहार में, सामाजिक जीवन में भी भक्ति की अभिव्यक्ति करनी चाहिए। उन्हें सामाजिक रूप से भक्ति करने के जो भी मौके मिले, उनका लाभ लेते हुए ईश्वर के गुणों पर श्रवण, मनन करते हुए, कीर्तन, सेवा आदि करना चाहिए। इससे भक्तों का अपना लाभ तो होता ही है, साथ ही उनका भजन-कीर्तन बाकी लोगों में भी भक्ति बढ़ाने में सहायक होता है।
हर धर्म में ऐसी व्यवस्थाएँ हैं, जो सामाजिक रूप से लोगों की भक्ति बढ़ाने का कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए हर धर्म में प्रार्थना घर है। जैसे मंदिर, मस्ज़िद, चर्च आदि... जहाँ पर लोग इकट्ठा होते हैं और प्रार्थनाएँ, सत्संग, श्रवण, गुरुद्वारा, कीर्तन, सेवा आदि करते हैं। हर धर्म में कुछ न कुछ ऐसे त्यौहार होते हैं, जो सामूहिक रूप से लोगों की भक्ति बढ़ाने का कार्य करते हैं। जैसे हिंदू धर्म में नवरात्रि, गणपति उत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी आदि। मुस्लिम धर्म में रमजान, ईसाई धर्म में ईस्टर, क्रिसमस आदि...। इन त्यौहारों पर लोग सामूहिक रूप से इकट्ठा होकर भक्ति, प्रार्थनाएँ करते हैं।
नगर में संकीर्तन फेरियाँ निकालने का तरीका बहुत पुराना है, वे जहाँ-जहाँ से गुज़रती हैं, उन्हें देख-सुनकर लोगों में भी भक्ति जागती है। समाज में सत्संग, भागवत् कथाएँ, रामायण, गीता पाठ जैसे आयोजन भी होते रहते हैं, जिनमें ईश्वर की लीलाओं का, उनके गुणों का श्रवण करने से भक्ति जाग्रत होती है।