Naari Bhakti Sutra in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 10.सत्य संघ का प्रभाव

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नारद भक्ति सूत्र - 10.सत्य संघ का प्रभाव

10.
सत्य संघ का प्रभाव

मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ||३८||
अर्थ : मुख्यतया महापुरुषों की कृपा से या भगवत् कृपा के लेश मात्र से।। ३८।।

इस सूत्र को समझने के लिए आइए, एक छोटा सा वाकिया पढ़ते हैं। एक पिता अपने तीन-चार साल के बच्चे को बगीचे में झूला झुलाने लाया। पिता ने बच्चे को झूले पर बिठा दिया और उससे कहा, 'अब खुद थोड़ा हिलकर, ज़ोर लगाकर झूले की पींगे बढ़ाने की कोशिश करो।' बच्चा ज़ोर लगाते हुए कोशिश करने लगा लेकिन झूला थोड़ा सा ही हिला। पिता द्वारा प्रोत्साहित करने पर उसने फिर थोड़ा और ज़ोर लगाया तो झूला थोड़ा ज़्यादा झूलने लगा।

अब बच्चा अपनी प्रगति से खुश होकर हर बार प्रयास बढ़ाता रहा और झूले की पेंग बढ़ती गई। जब झूला काफी अच्छे से झूलने लगा तो बच्चा खुश होकर बोला, 'देखो पापा मैंने खुद से झूला झूलना सीख लिया।' उसके पिता ने भी उसकी भरपूर तारीफ की। अब होता यूँ था कि जैसे ही शुरुआत में बच्चा थोड़ा ज़ोर लगाता, उसके पिता पीछे से उसे पुश कर देते और उसे पता भी न चलता। वे हर बार ऐसा ही करते गए और झूले की गति बढ़ती गई। बच्चे को लग रहा था, झूला उसके प्रयास से गति पा रहा है किंतु वह उसके पिता के पुश से ही झूल रहा था।

बस परमपिता परमेश्वर भी हमारे साथ ऐसा ही करते हैं। हमें लगता है हम भक्ति कर रहे हैं, हम उसे पाने का प्रयास कर रहे हैं किंतु वास्तव में वह हमें अपनी ओर खींचता है, वह हमसे भक्ति करवाता है।

हमारे भीतर भक्ति भाव जगना, हमें ईश्वर के बारे में विचार आना, उसे पाने की प्यास जगना, ये सब ईश्वर की कृपा से ही संभव है। इंसान वह लोहे का टुकड़ा है, जिसे लगता है, वह चुंबक (ईश्वर) की ओर जा रहा है किंतु सत्य तो यह है कि ईश्वर रूपी चुंबक ही उसे अपनी ओर खींचता है।

नारद जी प्रस्तुत सूत्र में इसी सत्य को प्रतिपादित करते हुए कह रहे हैं कि भक्ति ईश्वर की कृपा से ही जगती है या फिर महापुरुषों की कृपा से।

यहाँ महापुरुष से उनका तात्पर्य ऐसे इंसान से है जो भक्ति की उच्चतम अवस्था पा चुका है, जिसके सामने सत्य के सारे भेद खुल चुके हैं। आत्मसाक्षात्कारी के भीतर भक्त और भगवान का भेद मिट चुका होता है। उनके अंदर महापुरुष व्यक्तिगत् अहंकार विलीन होकर, वहाँ परमचेतना ही प्रकाशित होती है और वही दूसरों का मार्गदर्शन करती है। इसे यूँ समझिए भगवान उनके शरीर के माध्यम से भक्त पर कृपा करते हैं। संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, मीरा, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, गुरुनानक, संत रैदास आदि न जाने कितनी आत्मसाक्षात्कारी महान विभूतियाँ पृथ्वी पर आईं, जिनकी कृपा से, जिनके संघ लाभ और शिक्षाओं से कोटि-कोटि मनुष्यों के भीतर भक्ति की अलख जागृत हुई है।

महत्संगस्तु दुर्लभो-गम्यो-मोघश्रूय ।।३९।। 
अर्थ : परंतु महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोघ है।। ३९।।

प्रस्तुत सूत्र में नारद जी ईश्वर को जानने वाले आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों की संगती की विशेषता बताते हुए कहते हैं कि उनका साथ मिलना दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है।

आइए, इनकी विशेषता को समझते हैं। दुर्लभ का अर्थ है, जिसका मिलना अत्यंत कठिन हो। सच्चे महापुरुषों की संगती मिलना इसलिए कठिन बताया गया है क्योंकि पहली बात तो सच्चे महापुरुष संसार में बहुत कम होते हैं। दूसरी बात यह कि महापुरुषों का स्वाँग रचने वाले, उनके जैसे दिखने वाले बहुत हैं। दरअसल सामान्य लोग किस्से-कहानियाँ सुनकर महापुरुषों के रंग-रूप, वेशभूषा, व्यक्तित्व के बारे में एक छवि बना लेते हैं और जो भी उस छवि में फिट बैठता है, वे उसे महापुरुष समझकर उसके पैरों में गिर पड़ते हैं। जबकि ऐसा नहीं है, इंसान को बाहर से देखकर उसकी आंतरिक अवस्था का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है।

आजकल साधु-संन्यासियों की वेशभूषा धारण कर किताबों से पढ़कर बड़े-बड़े बोल बोलने वाले हर जगह मिल जाएँगे, उनकी प्रभावी भाषा सुनकर एक सीधा-सादा इंसान बहुत जल्दी आकर्षित होता है और अपना सब कुछ छोड़ उनके साथ चल पड़ता है। आगे जाकर जब उसका भ्रम टूटता है कि उसे भक्ति के नाम पर, अध्यात्म के नाम पर ठग लिया गया है तो उसका दिल टूट जाता है और फिर वह भगवान की राह से ही हट जाता है। ऐसे कपटी, ठग लोग भक्तों का बहुत बड़ा अहित करते हैं। इसीलिए नारद जी कहते हैं सच्चे महापुरुष का, सच्चे गुरु का मिलना बहुत दुलर्भ बात है, जो ईश्वर कृपा से ही संभव है।

नारद जी दूसरी विशेषता बताते हैं कि महापुरुष का संग अगम्य है। अगम्य का अर्थ है दुर्गम यानी कठिन। महापुरुषों के संग में आपको उनकी बताई शिक्षाओं पर चलना पड़ेगा। अपने भाव, विचार, वाणी, क्रिया में उनके कहे अनुसार परिवर्तन लाने पड़ेंगे। मन, बुद्धि, शरीर, इंद्रियों को अनुशासित करना होगा, जो कि सामान्य भक्तों को कठिन प्रतीत होता है। जिसे वास्तव में सत्य की प्यास है, वही महापुरुषों की संगती करने योग्य है क्योंकि वही हर हाल में उनकी शिक्षाओं का पालन करता है।

महापुरुषों के संग की तीसरी विशेषता है, वह अमोघ है। अमोघ का अर्थ है अचूक... जो कभी अपना लक्ष्य भेदने में विफल न हो। नारदजी ने महापुरुषों की संगती को अमोघ, अचूक इसलिए कहा है क्योंकि उनकी कृपा से और उनकी बताई राह पर चलने से भक्त निश्चित ही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था को पा सकता है।

लभ्यते-पि तत्कृपयैव||४०|| 
तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्।।४१।।
अर्थ : उसकी कृपा से ही मिलते हैं।।४०।।
क्योंकि भगवान तथा उसके भक्त में भेद का अभाव है ।।४१।।

प्रस्तुत सूत्र में नारद जी ने उसी बात को दोहराया है, जो आपने अभी-अभी पढ़ी है। ईश्वर की कृपा से ही सच्चे आध्यात्मिक महापुरुषों की सुसंगती मिलती है। ईश्वर ही अपने भक्तों को स्वयं से मिलाने के लिए महापुरुषों के रूप में रास्ते निकालता है। वह भक्तों को उन्हीं के माध्यम से ज्ञान दिलवाता है, स्वयं (ईश्वर) के प्रति प्रेम जागृत करवाता है।

जो स्वयं मंज़िल है वही सद्गुरु के रूप में प्रकाशित होकर, खोजी को भक्ति का रास्ता दिखाता है, उसकी सत्य के प्रति जिज्ञासा और प्यास बढ़ाता है ताकि वह उस तक पहुँच सके। 

४१वें सूत्र में नारद जी बताते हैं कि भगवान और उसके भक्त में कोई भेद नहीं है। दरअसल यह भगवान की लीला ही है जो भगवान, गुरु और भक्त तीन रूप में विभक्त होकर, खुद से खुद की खोज कर रहा है और खुद ही खुद की मदद भी कर रहा है। 

तदेव साध्यताम् तदेव साध्यताम् ||४२|| 
अर्थ : इसलिए उसकी ही साधना करो, उसकी ही साधना करो ।।४२।।

इस सूत्र में नारद जी दृढ़ता से कह रहे हैं, भक्ति पाने के लिए सच्चे आध्यात्मिक महापुरुष की संगति ही सबसे सरल, सहज साधन है; बस उसी को साध लो। अगर यह एक सिरा हाथ में आ गया तो इसी के सहारे पूरा भवसागर पार हो जाएगा... साधना की सारी विषमताएँ, जटिलताएँ मिट जाएँगी। हालाँकि भक्ति की राह सरल नहीं, नित नए व्यवधान आते हैं। माया अपने आकर्षणों से लुभाती है, मन में संशय खड़े करती है। ऐसे में महापुरुष का संग वह झाडू है, जो माया से उपजी तमाम गंदगी, जाले, धूल... हाथोंहाथ साफ करता रहेगा, उसे मन पर जमने नहीं देगा। यही एक साधन है, जो तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हें तुम्हारी मंज़िल पर ले जाएगा।

दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः।।४३।। 
अर्थ : दुसंग सर्वदा त्याज्य है ।।४३।।

एक कहावत है, 'आप जैसा बनना चाहते हैं वैसे दोस्त बना लीजिए, जल्द आप बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के खुद-ब-खुद वैसे बन जाएँगे।' जी हाँ! इतना असर होता है संगती का; जैसा बनना चाहते हैं वैसे लोगों में उठना-बैठना शुरू कर दें, उनकी बातें सुनना शुरू कर दें, उनके संग और आभा मंडल के प्रभाव से उनके गुण अथवा अवगुण आपमें भी आने लगेंगे। इसीलिए नारद जी कहते हैं भक्तों के लिए दुसंग (बुरा संग) सर्वथा त्याज्य है यानी उन्हें कुसंग से सदैव बचकर रहना चाहिए।

सामान्यतः कुसंग की बात की जाती है तो विकारी लोगों की छवि सामने उभरती है। जैसे शराबी, जुआरी, पाप करने वाले, हिंसा करने वाले, दूसरों का बुरा करने वाले, चोर आदि। ऐसे लोगों से तो सामान्य मनुष्यों को भी बचकर रहना चाहिए। किंतु भक्तों के लिए कुसंग का अर्थ बहुत विस्तृत हो जाता है। वह हर एक संग जो उसे भक्ति से हटाकर वापस माया की ओर खींचे, उसके लिए कुसंग है। इस तरह उसके प्रिय मित्र, परिवारजन आदि भी उसके लिए कुसंग सिद्ध हो सकते हैं।

दरअसल हमारे आस-पास ऐसे अनेक लोग होते हैं, जिन्हें हम बुरा नहीं कह सकते क्योंकि वैसे वे अच्छे होते हैं। किंतु गप्पे लड़ाने, इधर-उधर की व्यर्थ बातें करने, किसी की खिंचाई करने, निंदा करने, किसी पर ताने कसने जैसी बातों में वे अपना सुख खोजते हैं।

कुछ लोग लेटेस्ट मोबाइल, कार, लैपटॉप, टी.वी. प्रोग्राम, फिल्मों, टूरिस्ट प्लेस आदि भौतिक संसाधनों और मनोरंजन की ही चर्चा करते रहते हैं। जिससे सुननेवाले का मन भी उनकी ओर खींचता है। सामनेवाले की बातें सुनकर उनमें मायावी संसाधनों और सस्ते मनोरंजन के प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है। लगता है यह हमारे पास भी होने चाहिए।

कुछ लोग अपनी प्राप्तियों, सफलताओं का ऐसा गुणगान करते हैं कि वे सामनेवाले को छोटा महसूस करा देते हैं। उसे लगने लगता कि सभी उससे आगे निकल रहे हैं और वह वहीं का वहीं खड़ा है। ऐसे में सत्य साधक के मन में हीन भावना आ सकती है। वह सोच सकता है कि कहीं भक्ति मार्ग पर चलकर वह कुछ गलत तो नहीं कर रहा... उसके संगी-साथी तो कहाँ से कहाँ पहुँच गए और उसे अब तक कुछ नहीं मिला।

इस तरह के बहुत उदाहरण हैं, जहाँ छोटी-छोटी बातों से भक्त का हृदय डोल सकता है, उसे अपने रास्ते पर शंका हो सकती है और उसका मन वापस उसे माया में खींच सकता है। ऐसे कुसंग से तभी बचा जा सकता है, जब भक्त को अपनी प्राथमिकता पूरी तरह से स्पष्ट हो।

इसके बावजूद बेहतर होगा कि व्यर्थ बात करनेवाले मित्रों, रिश्तेदारों से समय रहते एक निश्चित दूरी बना ली जाए। यदि कुछ ऐसे निकट के लोग हैं, जिनसे आप दूरी नहीं बना सकते तो उन्हें समय पर स्पष्ट कर दें कि आप इस तरह की किसी भी सस्ती और नकली खुशी को पसंद नहीं करते, आपका रास्ता यह नहीं है...! जब आप उन्हें यह क्लियर कर देंगे तो वे स्वयं ही इस बात का ध्यान रखेंगे। यदि नहीं रखते तो आपका वहाँ से हट जाना सहज हो जाएगा क्योंकि आपने उन्हें पहले ही स्पष्ट कर दिया था।

इस प्रकार नारद जी के कहने का तात्पर्य है कि भक्ति टिकानी है, बढ़ानी है तो सत्पुरुषों का संग करना होगा और कुसंग को पूरी तरह छोड़ना होगा।