Naari Bhakti Sutra - 8 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 8. भक्ति बढ़ाने के साधन

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नारद भक्ति सूत्र - 8. भक्ति बढ़ाने के साधन

8.

भक्ति बढ़ाने के साधन


तस्याः साधनानि गायंताचार्याः ||३४||

अर्थ : उस (भक्ति) को प्राप्त करने के साधन बताते हैं ।। ३४।।

जैसा कि आपने पिछले सूत्रों में भी पढ़ा भक्ति साधन नहीं, मंज़िल है। भक्ति की उच्चतम अवस्था में भक्त और भगवान का भेद मिट जाता है यानी भक्त स्वअनुभव पा लेता है। लेकिन भक्ति, भाव की बात है और भाव किसी भी मायावी कारण जैसे सत्वगुणी अहंकार, शंका, संशय, विकार आदि से ऊपर-नीचे हो सकता है। इसलिए भक्ति की अवस्था को बरकरार रखने एवं उसे बढ़ाने के लिए कुछ साधनों का सहयोग लिया जा सकता है। ये साधन भक्तों के भीतर भक्ति को प्रेरित करते हैं और जो पूर्ण भक्त हैं, उनकी भक्ति टिकाए रखते हैं। वरना ऐसे बहुत से साधक हुए हैं, जो भक्ति की उच्चतम अवस्था पाने के बावजूद दोबारा माया की दलदल में फँस जाते हैं।

आपने ऐसी न जाने कितनी पौराणिक कहानियाँ पढ़ी होंगी, जिनमें बड़े-बड़े भक्तों की अवस्था को माया के प्रभाव में आकर डगमग होते दिखाया है और फिर वे दोबारा भक्ति की शरण में जाकर सँभलते हैं। स्वयं नारदजी से जुड़ी हुई भी ऐसी अनेक कथाएँ हैं, जिनमें वे कभी अपने श्रेष्ठ भक्त होने के अभिमान से और कभी आसक्ति में फँसकर अपनी उच्च अवस्था से विमुख हुए हैं।

दरअसल ऐसे सभी किस्से कहानियाँ इसलिए प्रचलित किए जाते हैं ताकि भक्तों को उनसे शिक्षा मिल सके और वे ऐसी गलतियाँ ना करे। अगर गलती हो भी गई तो उन कहानियों में उससे सँभलने का रास्ता भी बताया जाता है। नारद जी ३४वें सूत्र से भक्ति को पाने और उसे निरंतरता से बढ़ाने के ऐसे ही कुछ साधनों का वर्णन कर रहे हैं।

तस्या-विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥३५॥।

अर्थ : वह (भक्ति) तो विषय त्याग तथा संग त्याग से प्राप्त होता है ।।३५।।

३५वें सूत्र में नारद जी भक्ति पाने और बढ़ाने का सबसे पहला साधन विषय त्याग और संग त्याग कहते हैं। आपने किसी भी सत्य सत्संग में एक बात जो बारबार सुनी होगी, वह है 'विषयों का त्याग'। ये 'विषय' क्या हैं और इनके त्याग के क्या मायने हैं, आइए इसे स्पष्टता से समझते हैं।

हमारे भौतिक शरीर में पाँच इंद्रियाँ हैं जो सेंस कर सकती हैं। ये हैं- आँख, कान, नाक, जुबान और त्वचा। अब इन इंद्रियों से अलग-अलग चीज़ों का सेवन किया जाता है। जैसे आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, नाक सूँघती है, त्वचा स्पर्श को महसूस करती है और ज़ुबान स्वाद का अनुभव करती है। इस तरह से हर इंद्रिय किसी न किसी अलग चीज़ का सेवन करती है और यही उस इंद्रिय विशेष का 'विषय' कहलाता है। उदाहरण के लिए आँखों का विषय दृश्य है, कानों का विषय ध्वनियाँ हैं, ज़ुबान का विषय स्वाद है।

अब आप सोचेंगे अगर हम इन सभी विषयों का यानी देखने, सुनने, खाने पीने का त्याग कर दें तो हम जीएँगे कैसे? ये तो संभव ही नहीं है।

यहाँ पर समझने वाली बात यह है कि विषयों का सिरे से त्याग नहीं करना है बल्कि विषयों में आसक्ति का त्याग करना है। कौन सा विषय आपका हित कर रहा है, कौन सा अहित इसका ध्यान रखते हुए ही उनका उपभोग करना है। हमारा चंचल मन लगातार विषयों के पीछे भागता रहता है, उन्हीं में सुख खोजता है और उनमें इतना खो जाता है कि अपने अच्छे-बुरे का ध्यान ही नहीं रखता। उस मन को अनुशासित करना है ताकि वह इंद्रियों का सही-सही उपयोग कर सके।

इंद्रियाँ हमारे शरीर की अभिव्यक्ति के लिए बनाई हुई हैं। हमें उनका सही सही उपयोग करना चाहिए। विषयों की अति में नहीं उलझना चाहिए। उदाहरण के लिए कान का विषय है सुनना लेकिन आप क्या सुन रहे हैं, यह आपके मन और बुद्धि पर निर्भर करता है। उस कान से आप बुराइयाँ, नकारात्मक बातें सुनकर अपनी चेतना गिरा सकते हैं, फिल्मी गाने भी सुन सकते हैं और सत्य श्रवण करके ज्ञान और भक्ति भी बढ़ा सकते हैं। कान तो वही हैं लेकिन आपका मन और बुद्धि उसका कैसा उपयोग कर रहे हैं, यही तय करता है कि यह इंद्रिय आपका भला कर रही है या बुरा। जैसे चाकू एक औजार है, उसे चलाने वाला उससे क्या काम कर रहा है, सब्ज़ी काट रहा है, ऑपरेशन कर रहा है या किसी का गला काट रहा है, यह उस इंसान पर निर्भर करता है।

आपको यदि भक्ति बढ़ानी है तो इंद्रियों के विषयों के रूप में आपके अंदर क्या-क्या जा रहा है, इसकी पूरी खबरदारी रखनी होगी। इसके लिए सर्व प्रथम अपने मन को अनुशासित करना होगा। उसे सत्य के विषयों में लगाना होगा। उसकी ऐसी ट्रेनिंग हो कि वह निंदा की जगह ईश्वर का नाम सुनना पसंद करे, किसी की बुराई करने के बजाय ईश्वर की सराहना करने के लिए मुँह खोले, सर्दी हो, गर्मी हो... चाहे जैसा वातावरण हो वह सम रहे, उसका मन बड़बड़ न करे कि 'अरे ऐसा मौसम है, गर्मी लग रही है... बारिश क्यों हो गई...' आदि। जितना ज़रूरी हो उतना खाए, स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य और भक्ति करने के लिए खाए।

अनुशासित मन और बुद्धि में भक्ति टिकती है वरना माया बड़ी प्रबल है, वह इंद्रियों को एक पल में अपने बस में कर लेती है। आजकल के दौर में जहाँ मन को भटकाने के लिए इतने साधन मौज़ूद हैं। जैसे सोशल मीडिया, मोबाइल फोन, गेम्स आदि ऐसे में मन को संयमित और अनुशासन में रखना बहुत ज़रूरी है वरना भक्ति की बात छोड़िए, इंसान अपना सामान्य जीवन जीना भी छोड़ देता है।

दूसरी बात नारद जी 'संग त्याग' की कर रहे हैं। कहते हैं ना कोयले की दलाली में हाथ काले होते ही हैं... संग का असर पड़ता ही है। एक ऐसे इंसान के भविष्य में शराबी होने के बहुत ज़्यादा संभावनाएँ होती हैं, जिसके दोस्त शराब पीते हैं। इसलिए किसका संग करना है, इसमें भी बहुत खबरदारी रखने की ज़रूरत है। ऐसे प्रत्येक संग का त्याग करना चाहिए, जो आपकी माया में आसक्ति बढ़ाता है, आपको सत्य और भक्ति से दूर ले जाता है। इसके विपरीत सत्य संग करना चाहिए। भक्तों की संगति करें, भक्ति और ज्ञान बढ़ाने वाली पुस्तकों की संगती करें। ऐसा करने से आपमें खुद ही भक्ति भाव बढ़ते जाएगा।