Naari Bhakti Sutra in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - प्रस्तावना

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नारद भक्ति सूत्र - प्रस्तावना


“यह ग्रंथ समर्पित है भारत के उन संतों को, जिन्होंने भक्ति की समझ देकर सामान्य जन को भी ईश्वर प्रेम का अनुभव कराया।”
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भक्ति मनन प्रश्न
‘भक्ति करने से ईश्वर नहीं मिलता होता तो भी क्या आप भक्ति करते?’ यदि आपका जवाब ‘हाँ’ है तो आप भक्ति को समझ रहे हैं।

भक्ति सूत्र
भक्ति अपने आपमें परिपूर्ण है... भक्ति रास्ता भी है और मंज़िल भी।

भक्ति सार
ज्ञान योगी भक्ति पर इस समझ के साथ मनन करें कि ज्ञान के अंत में भक्ति प्रकट होती है और भक्ति के अंत पर ज्ञान प्रकट होता है। कर्मयोगी कीर्तन को, जप को अपना तेजकर्म बनाएँ। ध्यान योगी भक्ति को अपना ध्यान बनाएँ।
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[ विषय सूची ]

प्रस्तावना - देवर्षियों में मैं नारद हूँ
ईश्वर से बेशर्त प्रेम करने की कला

1. भक्ति अमृत रूपी प्रेम है

2. भक्ति पाकर कैसी दशा होती है।

3. भक्ति के अनुकूल कर्म कैसे हो

4. विभिन्न मतों से भक्ति के लक्षण

5. आध्यात्मिक प्रेम और सांसारिक आसक्ति में अंतर

6. ज्ञान बड़ा या भक्ति ?

7. भक्ति का स्वादिष्ट फल

8. भक्ति बढ़ाने के साधन

9. श्रवण, कीर्तन, भजन से भक्ति में बढ़ोत्तरी

10. सत्य सघ का प्रभाव

11. विकारों का प्रभाव

12. विकारों से बचाव

13. कर्म फल का त्याग

14. प्रेम का स्वरूप और पात्रता

15. भक्त, भगवान और भक्ति की त्रिवेणी

16. भक्ति में क्या करें, क्या न करें

17. भक्ति की युक्ति कर्मयोग

18. भक्ति की विशेषता

19. एकांत भक्त की महिमा

20. भक्ति के ग्यारह तरीके

21. भक्ति के भेद

22. भक्ति की रक्षा

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देवर्षियों में मैं नारद हूँ 
ईश्वर से बेशर्त प्रेम करने की कला

कुदरत का सबसे पवित्र भाव है प्रेम। प्रेम वह नहीं जिसमें लेन-देन हो कि ‘तुम मुझसे प्रेम करोगे तो ही मैं तुमसे प्रेम करूँगा... तुम मुझे खुश रखोगे तो ही मैं तुम्हें खुश रखूँगा।’ कुदरती प्रेम या ईश्वरीय प्रेम-बेशर्त, निःस्वार्थ, शुद्ध होता है, उसमें किसी और भाव या विकार की मिलावट नहीं होती। वह स्थायी, अनंत, अनन्य होता है। यह वह प्रेम नहीं है जो किया जाता है। यह वह प्रेम है जो ईश्वर द्वारा इंसानी शरीर के माध्यम से नाना प्रकार से प्रकट होता है, अभिव्यक्त होता है। जैसे अलग-अलग फूलों के माध्यम से विभिन्न प्रकार के खुशबू से वातावरण सुगंधित होता है, वैसे ही भक्ति की खुशबू भी इंसान के जीवन को और आस-पास के परिवेश को सुगंधित कर देती है तथा अन्य शरीरों में भी भक्ति के सुप्त बीज को अंकुरित कर देती है।

ऐसा शाश्वत प्रेम आत्मबोध युक्त महात्माओं, संतों या प्रकृति में ही देखने को मिलता है। पेड़ से फल मिलते हैं, भले ही उन पर पत्थर फेंका जाए या उन्हें काटा जाए; नदियों से सबको पानी मिलता है; सूरज से सभी को समान रूप से ऊर्जा मिलती है। किंतु अधिकतर इंसानी शरीरों में यह कुदरती, ईश्वरीय, शाश्वत, सनातन और अनंत प्रेम सुप्त ही पड़ा रह जाता है और असंतुष्टि को समेटे, इंसानी शरीर पंचतत्वों में विलीन हो जाता है। अधिकतर लोग इस अद्भुत और बेशर्त प्रेम से अनभिज्ञ रहते हैं। कुछ तो सांसारिक प्रेम, जो ईश्वरीय प्रेम की परछाई मात्र है, उसे भी ढंग से सँभाल नहीं पाते। एक इंसान सामने वाले से प्रेम करता है मगर सामने वाले के व्यवहार में ज़रा सा बदलाव होते ही उसका प्रेम कम हो जाता है।

इंसान ऐसी मिलावट ईश्वर के प्रति प्रेम में भी करता है। संसार में अनेक धर्म, संप्रदाय हैं और सभी के अनगिनत अनुयायी हैं, जो स्वयं को ईश्वर का भक्त मानते हैं। भक्ति में वे दूसरे मतों के लोगों से उलझते, लड़ते हैं। इस पुस्तक से वे समझ पाएँगे कि भक्ति और कुछ नहीं, विशुद्ध प्रेम ही है और प्रेम में प्रेम के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता।

शरीर से ईश्वर के बेपनाह प्रेम का अनुभव करना भक्ति है; ईश्वरीय प्रेम को शरीर से प्रकट होने देना भक्ति है; शरीर का बाँसुरी की तरह खाली हो जाना भक्ति है; शरीर ईश्वर का अनुगामी हो जाना भक्ति है; शरीर का मंदिर बन जाना भक्ति है; शरीर का ईश्वरीय बोध से परिपूर्ण हो जाना भक्ति है; ईश्वर ही है, तुम हो कि नहीं, यह पता चलना, यह पक्का होना भक्ति है। बाकी सब भक्ति के नाम पर चल रहे आडंबर हैं।

भक्ति कोई मत नहीं, कोई बंधा हुआ मार्ग नहीं... यह तो जीवन जीने की लीला है, देने का आनंद है, सजाने का उत्सव है। भक्ति में डूबे इंसान जितना सुखी, संतुष्ट, तृप्त कोई नहीं होता। हालाँकि देखने वालों को लगेगा, ‘अरे! इसके पास क्या है जो ये इतना खुश नज़र आता है... इसके पास तो कुछ भी नहीं...’ मगर वह 'कुछ भी नहीं' वास्तव में सब कुछ है।

प्रेम के उच्च स्तरीय व अलौकिक स्वरूप का अनुभव व अभिव्यक्ति होने देना ही भक्ति है। यह अवस्था फलित होने के लिए भक्ति के बारे में बनी मान्यताओं तथा भक्ति के मूल स्वरूप के प्रति सजगता आवश्यक है ताकि ईश्वरीय प्रेम के प्रकाश में मान्यताओं से मुक्त होकर भक्ति की ज्योति जगमगाती रहे।

भक्ति के बारे में प्रचलित मान्यताओं के प्रति सजगता ही भक्ति के बीज को अंकुरित होने में सहयोगी होगी। वैसे तो ईश्वरीय प्रेम और भक्ति के रस रंग में डूबे संत महात्माओं ने कई तरह से कहने का प्रयास किया है। जैसे— प्रेम गली अति सांकरी, जामे दो न समाए... भक्ति ऐसी नदी है जिसे किनारे पर खड़े होकर समझा नहीं जा सकता है। उसमें उतरकर, उसमें आकंठ डूबकर ही भक्ति और ईश्वरीय प्रेम का अनुभव संभव है।

यूँ तो भक्ति को समझना, मानवीय मस्तिष्क की क्षमता से परे है। फिर भी जीवन में भक्ति अंकुरित होने के लिए ‘भक्ति क्या है व क्या नहीं है’ की समझ बहुत आवश्यक व सहयोगी है। भक्ति की ध्वजा फहराता हुआ 'नारद भक्ति सूत्र' आपके जीवन में उसी समझ को जागृत करने वाला है।

देवर्षि नारद को कौन नहीं जानता, लगभग सभी पौराणिक कथाओं में उनका आगमन 'नारायण-नारायण' के जाप से होता है। उनकी उपस्थिति, उनके वचन उस कथा को एक नई दिशा में मोड़ देते हैं। इस तरह से वे लगभग सभी पौराणिक कथाओं के एक अनिवार्य पात्र हैं। शास्त्रों के अनुसार नारद ब्रह्मा के छह पुत्रों में से एक कहे जाते हैं। कहा जाता है, उन्होंने भगवान विष्णु की कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया। उन्हें ईश्वर के नारायण रूप का प्रथम और परम भक्त कहा जाता है। उनकी भक्ति के स्तर का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि श्रीमद्भगवदगीता के दसवें अध्याय के २६ वे श्लोक में स्वयं श्रीकृष्ण ने उनकी उच्चतम अवस्था को स्वीकार करते हुए कहा है— 'देवर्षिणाम् च नारदः' यानी देवर्षियों में मैं नारद हूँ।

उनकी उसी उच्चतम भक्त अवस्था से निकला है— 'नारद भक्ति सूत्र', जो भक्तों के लिए उनके द्वारा दिया गया एक अनमोल उपहार है। अनमोल इसलिए क्योंकि 'नारद भक्ति सूत्र' को समझने के बाद किसी भी इंसान को ईश्वर व ईश्वरीय प्रेम का अनुभव होने के लिए बड़े और जटिल आध्यात्मिक ग्रंथों को घोंटना ज़रूरी नहीं, बस इसके एक-एक सूत्र पर गहराई से मनन करते जाएँ, उसे क्रिया में उतारते जाएँ... इतना ही काफी है।

मानो, एक विद्यार्थी को परीक्षा पास करने के लिए एक बड़ी मोटी पुस्तक का अध्ययन करना है। ऐसे में यदि कोई उसे दो पन्ने पकड़ाकर कहे कि 'इसमें मैंने सभी ज़रूरी फार्मूले लिख दिए हैं, बस इन्हें पढ़कर समझ लो, तुम अच्छे अंकों से पास हो जाओगे' तो कल्पना कीजिए उस विद्यार्थी की अवस्था कैसी होगी... वह तो खुशी के मारे उछल पड़ेगा। बस यह समझिए, बड़े आध्यात्मिक ग्रंथों में जटिलता से वर्णित , ईश्वरीय अनुभव से युक्त ज्ञान को नारद जी ने सरल रूप में छोटे-छोटे ८४ सूत्रों में पिरो दिया है। यदि इन सूत्रों पर कार्य हुआ तो ईश्वर का प्रसाद प्रकट हो ही जाएगा।

हो सकता है, यहाँ कुछ लोगों के मन में संशय उठे कि नारद भक्ति सूत्र तो मात्र भक्ति पर आधारित हैं, ज्ञान पर नहीं... फिर बिना ज्ञान के ईश्वर प्राप्ति यानी स्वअनुभव कैसे हो सकता है? ऐसे में यह स्पष्ट होना आवश्यक है कि ज्ञान और भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। ईश्वर प्राप्ति में ज्ञान का अपना महत्त्व है और ज्ञान के बिना भक्ति गलत मार्ग पर भटक सकती है। लेकिन यह भी सत्य है कि वह ज्ञान इंसान के व्यवहार में तभी उत्तर पाता है, जब खोजी के भीतर भक्ति जाग्रत होती है वरना भक्तिरहित ज्ञान इंसान को अहंकारी बना देता है।

वास्तव में ज्ञान दाता ईश्वर, भक्त के हृदय में ही बैठा हुआ है। अगर उसकी भक्ति सच्ची है तो ईश्वर उस तक ज्ञान पहुँचाने के लिए कुछ न कुछ रास्ता निकाल ही लेता है। जैसे भक्त मीरा के लिए संत रविदास, संत नामदेव के लिए संत विसोबा को निमित्त बनाया गया। भक्ति की परम अवस्था में ही परमज्ञान की प्राप्ति होती है और वही स्वअनुभव की अवस्था है।

इन सब बातों को समझते हुए आइए, इस ग्रंथ से देवर्षि की महान रचना का अमृतपान करना आरंभ करें। पढ़ने के बाद भी यह ग्रंथ आपको नहीं छोड़ेगा यानी जीवन में भक्ति बढ़ाने का कार्य करेगा और आपको भक्ति के परमपद पर लाकर छोड़ेगा।