Naari Bhakti Sutra - 1 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 1. भक्ति अमृत रूपी प्रेम है

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नारद भक्ति सूत्र - 1. भक्ति अमृत रूपी प्रेम है

1.

भक्ति अमृत रूपी प्रेम है


अथातो भक्ति व्याख्यास्यामः।।1।। 
सा त्वस्मिन परम प्रेमरूपा ।।2।।
अर्थ : अब भक्ति की व्याख्या करता हूँ।।१।। 
वह तो ईश्वर में परम प्रेम रूपा है।।२।।

पहले सूत्र में नारदजी कहते हैं, 'मैं भक्ति की व्याख्या करता हूँ' तो भक्ति की व्याख्या कौन कर सकता है? वही जो स्वयं भक्ति का स्वरूप हो, उसका स्त्रोत हो। स्वयं गंगा से ही गंगाजल प्राप्त हो सकता है। इसीलिए नारद के बताए सूत्रों का महत्त्व है क्योंकि भक्ति के वे सूत्र एक परम भक्त से आ रहे हैं।

दूसरे सूत्र में नारद भक्ति को 'ईश्वर में परम प्रेम' स्वरूप बता रहे हैं। इसलिए भक्ति को समझना है तो पहले प्रेम को समझना होगा। 'प्रेम' एक ऐसा दिव्य गुण है, जो अपने आपमें पूर्ण है। उसे न बढ़ाया जा सकता है, न कम किया जा सकता है। उसके एक ही मायने है, एक ही परिभाषा है। मगर इंसानों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार प्रेम को अलग-अलग नाम दे दिए। जैसे ईश्वर से किया गया प्रेम 'भक्ति' हो गया। किसी इंसान या अन्य जीव से किया गया अपेक्षारहित और स्वार्थरहित प्रेम 'सच्चा या मूल' प्रेम हो गया।

तीसरा प्रेम 'चलता प्रेम या अस्थायी प्रेम' कहलाता है, जिसका आधार गिविंग-टेक की पॉलिसी होता है। अर्थात तुम मुझे प्रेम दोगे तो मैं भी तुम्हें प्रेम दूँगा... तुम मेरा केयर करोगे तो मैं भी तुम्हारा केअर करूँगा या करूँगी... इसमें कुछ ऐसा ही चलता है। आज-कल अधिकांश रिश्ते ऐसे ही चलते हैं और प्रेम की हिलती बुनियाद पर टिके होते हैं। उनमें अपेक्षाओं, स्वार्थ और चिपकाव की भरपूर मिलावट होती है।

प्रेम अपने वास्तविक रूप में शुद्ध है, निःस्वार्थ है, बेशर्त है, पूर्ण समर्पित है, अहंकारशून्य है। इसलिए प्रेम में झुकने में पीड़ा नहीं होती बल्कि आनंद मिलता है। जब प्रेम सिर्फ शुद्ध प्रेम के लिए ही किया जाता है तो वह सही मायनो में प्रेम होता है। प्रेम का भाव अपरिवर्तनीय होता है यह किसी घटना, परिस्थिति, बाहरी कारणों या कंडीशन पर निर्भर नहीं करता। यह तो आनंद का निरंतर बहता स्रोत है।

'प्रेम' शब्द को संसार में इतना करप्ट कर दिया गया है कि ईश्वर के प्रति इस भाव के लिए एक अलग नाम रखना पड़ा 'भक्ति' ताकि वह बाकी सांसारिक प्रेम से अलग दिखाई पड़े। यही नहीं इस प्रेम के महत्त्व पर ज़्यादा वजन डालने के लिए इसमें अलग-अलग विशेषण भी जोड़ने पड़े। जैसे 'परम', 'दिव्य', 'उच्चतम'।

प्रेम तो स्वयं ही भाव की उच्चतम अवस्था है, उसके साथ किसी अन्य विशेषण को जोड़ने की गुंजाइश ही नहीं मगर इंसान की सीमित बुद्धि को कैसे समझाया जाए? इस कारण नारद ईश्वर के प्रति किए गए उस प्रेम को 'परम प्रेम स्वरूपा भक्ति' कहते हैं। यानी ऐसा प्रेम जो भाव की उच्चतम अवस्था में है, बेशर्त है, अपेक्षारहित है, पूर्ण समर्पित है और आनंददायी है। यदि आपकी भक्ति में इनमें से किसी भी गुणों का अभाव है तो फिर वह भक्ति अंतिम भक्ति (शुभक्ति) नहीं है।

अमृतस्वरूपाय ॥३॥
अर्थ : (भक्ति) अमृत स्वरूप है || ३ ||

भक्तिसूत्र के तीसरे सूत्र में नारद मुनि भक्ति को अमृत स्वरूप कहते हैं मगर क्यों? आइए, समझते हैं।

पुराणों में अमृत को ऐसा पेय पदार्थ माना जाता है, जिसको पीकर अमरता को प्राप्त किया जा सकता है यानी उसका सेवन करने के बाद इंसान की कभी मृत्यु नहीं होती। अमृत के बारे में यह बात पढ़कर सामान्य जन सोचते हैं, 'काश! मेरे हाथों भी कहीं से अमृत लग जाए और मैं सदा-सदा के लिए इस पृथ्वी पर जीवित रहूँ।' उनके लिए जीवित रहने का अर्थ है, उनके शरीर की कभी मृत्यु न हो। जबकि 'अमरता' स्थूल शरीर के धारण करने (जन्म), उसमें बने रहने या त्यागने (मृत्यु) से परे की अवस्था है। ईसामसीह, संत गुरुनानक, मीरा, कबीर जैसी महान आत्माएँ शरीर मिटने के बाद भी अमर हैं।

यह बात तो आपने पहले भी पढ़ी होगी कि यह संसार परम चेतना (सेल्फ) का प्रकट रूप है। ऐसा कहा जाता है कि 'ईश्वर ने इंसान को बनाया' मगर वास्तविकता यह है कि ईश्वर स्वयं इंसानी शरीर धारण कर पृथ्वी पर आया। उसने स्वयं को जानने के लिए, आश्चर्य और सराहना के लिए, अपने आनंद के लिए संसार की रचना की और स्वयं ही विविध रूपों में प्रकट होकर अलग-अलग भूमिका निभा रहा है।

इस खेल को रोचक बनाने के लिए इंसान के अंदर अहंकार का भाव यानी ‘व्यक्तिगत मैं’ डाल दिया। इस भाव के चलते इंसान स्वयं को सेल्फ (यूनिवर्सल मैं) से अलग मानकर जीने लगा। शरीर धारण कर स्वयं को भूलकर, शरीर से जुड़कर जीना और फिर शरीर के माध्यम से स्वयं की खोज कर, वापस स्वयं पर लौटना... इस धरती पर ईश्वर का यही खेल चल रहा है।

जब इंसान सदा के लिए अपना अहंकार विलीन कर, अपनी पहचान सेल्फ से जोड़ लेता है तब वह सेल्फ ही हो जाता है। वह अवस्था ही अमरता कहलाती है क्योंकि वह जान जाता है कि वही अनादि, अनंत, असीमित सेल्फ है। यह जीव की सर्वोच्च आध्यात्मिक अवस्था है, जिसे आत्मसाक्षात्कार, स्वअनुभव, मोक्ष, मुक्ति जैसे नामों से जाना जाता है। इसी अमरता को प्राप्त करने के लिए अध्यात्म में अनेक मार्ग प्रचलित हैं– जैसे जप-तप, ज्ञान-भक्ति, योग-सेवा आदि। जब नारद मुनि भक्ति को ‘अमृत स्वरूप' बताते हैं तो उनका तात्पर्य यह है कि भक्ति ही वह साधन है, जिसके द्वारा आप अपने अहंकार को समर्पित कर ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं, अपनी वास्तविक पहचान जानकर अमरता यानी मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ||४||
अर्थ : उस भक्ति को पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है।।४।।

चौथे भक्ति सूत्र के पहले भाग में नारद मुनि कहते हैं– जब किसी को वह परमप्रेम स्वरूपा, अमृत स्वरूपा भक्ति मिलती है तो वह सिद्ध हो जाता है। सिद्ध होना यानी क्या? जब किसी को कहा जाता है कि वह इस काम में सिद्ध हो गया है तो इसका अर्थ है, वह उस काम को हर बार पूरी परफेक्शन से कर डालता है। जरा भी इधर-उधर गलती की या भटकाव की संभावना ही नहीं है। जैसे हर बार तीर कमान से निकला और सीधे निशाने पर ही जा लगता है। अर्थात! जो करने आए थे वही किया, जो बनना था वही हो गए... अपना लक्ष्य पूरी तरह से और सहजता के साथ पा लिया। तो कहा जाएगा, आप उसमें सिद्ध हो गए।

इंसान का मूल लक्ष्य है– स्वयं की पहचान करना। अर्थात यह अनुभव से जान लेना कि वह शरीर नहीं बल्कि वही एक परमचैतन्य (सेल्फ) है, जो इस पूरी सृष्टि में व्यापक है। उसका अपना कोई अलग अस्तित्त्व ही नहीं है, बस अहंकार के कारण ऐसा प्रतीत होता रहा है। संसार में जो भी भटकाव है, वह इसी अहंकार ('मैं अलग' का भाव) का ही है। जिसके मिटते ही इंसान अपने मूल स्वरूप में सिद्ध हो जाता है। सिद्ध होने पर न साधना की ज़रूरत रह जाती है, न ही साधनों की। न साधनवाला शेष रहता है और न ही साधा जाने वाला, केवल लक्ष्य बचता है, चारों एक ही हो जाते हैं।

इसी अवस्था को अमरता कहा गया है। सिद्ध होना, अमर होना एक ही बात है। जो करने आए थे, वही कर लिया। जिस बिंदु पर स्वयं को खो दिया था, भटकने के बाद वापस उसी पर पहुँचकर स्वयं को पा लिया तो तृप्त भी हो गए।

सांसारिक तृप्तियाँ अस्थायी होती हैं। एक कामना जगी, वह पूरी हुई और कुछ समय के लिए आपको तृप्ति का एहसास हुआ। किंतु तृप्ति का यह भाव नई कामना के जगते ही गायब हो जाता है। कामना अपने साथ अतृप्ति और व्याकुलता लाती है। आत्मिक तृप्ति तब मिलती है, जब उसकी समस्त कामना शून्य हो जाती है और ऐसा स्वयं को जानकर ही होता है, अपने स्रोत से जुड़कर ही होता है। इंसान की अंतिम प्यास, अंतिम खोज यही है कि वह अपने मूल पर लौट जाए और ये सब भक्ति के साथ ही संभव होता है। इसीलिए नारद कहते हैं– भक्ति को पाकर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है।