हनुमंत पच्चीसी और अन्य छंद 9
'हनुमत हुंकार' संग्रहनीय पुस्तक
प्रस्तुत 'हनुमत हुंकार' पुस्तक में हनुमान जी के स्तुति गान और आवाहन से सम्बंधित लगभग 282 वर्ष पहले मान कवि द्वारा लिखे गए 25 छंद हैं , जिनके अलावा उन्ही मान कवि के छह छंद ' हनुमान पंचक' के नाम से शामिल किए हैं, तथा 'हनुमान नख शिख' के नाम से 11 छंद लिए गए हैं।
श्री हनुमान नखशिख
सूल जनु कासी हर चक्र मथुरा सी, राम तारक विभा सी, कोटि भानु की विभा सी है।
ओज उद्भासी कौच्छ अंजनी प्रकासी राज राजे अमृता सी पद पूजनीय भासी है ॥
तेज बल रासी कवि 'मान' की हुलासी, जन-पोषण सुधा सी, सिद्धि वर्षण मघा सी है।
भाल यों विकासी दृग ज्वाल अति खासी, हतु-मंत की शिखा ये प्रलै पावक शिखा सी है ॥१॥
जिस प्रकार महादेव के त्रिशूल पर काशी बसी है, विष्णु के चक्र पर मथुरा बसी है, उसी प्रकार हनुमानजी की शिखा राम द्वारा तारक मंत्र के समान प्रकाशवान है, और करोड़ों सूर्यों को प्रकाश वितरित करने वाली है। ओज को प्रकट करने वाली, माता अंजनी की कोख से उत्पन्न अमृत स्वरूपा शोभा पाने वाली यह शिखा राम के चरणों को पखारने के लिये तत्पर है। तेज-बल की राशि यह शिखा 'मान' कवि को उल्लास देने वाली, भक्तों का सुधा के समान पोषण करने वाली, तथा मघा नक्षत्र की भाँति सिद्धियों की वर्षा करने वॉयली है। महावीर के भाल पर विकसित शिखा विशिष्ट दृगज्वाला सी है तथा प्रलयाग्नि की लपटों के समान है।
वज्र की झिलन, भानु मंडली गिलन रघु-राज, कपिराज कौ मिलन मजबूत को।
सिन्धु मग झारवो उजारवो विपिन , जंक बारबो उवारवो विभीषण के सूत को।।
भने कवि 'मान' ब्रह्म शक्ति ग्रस जान, राम-भ्रात प्राणदान द्रोण गिरि ले अकूत को।
रंजन धनजंय, सोक गंजन सिया कौ, लखो-भाल खल भंजन, प्रभंजन के पूत को ॥२॥
इन्द्र के वज्र प्रहार को झेलने (सहने) वाले, सूर्य मण्डल को निगलने वाले, श्री राम-सुग्रीव को मैत्री-सूत्र में बाँधने वाले, सिन्धु मार्ग को निष्कंटक बनाने वाले. लंका एवं अशोक वाटिका को उजाड़ने वाले, विभीषण के सारथि के प्राणों की रक्षा करने वाले, ब्रह्म शक्ति को आत्मसात करने वाले. विशाल द्रोणाचल को धारण करते हुए लक्ष्मणजी को प्राणदान देने वाले, अर्जुन को आनन्दित करने वाले, सीता के शोक का निवारण करने वाले तथा दुष्टों के माथे को तोड़ रखने वाले मारुतनंदन के मस्तक की कवि मान वन्दना करता है।
खटकी दसानन के चटकी चढ़ी थी ताक, अकटी घटी न प्राण कला अक्ष-घट की।
ब्रह्म शक्ति फटकी सुतट की तरेर पेख,पटकी ठसक मेघनाद से सुभट की ।।
'मान' कवि दटकी सुतट की प्रतिज्ञा पाल,लटकी त्रिलोक जात देख जाहि मटकी।
प्रकटी प्रभाव तेज त्रिकुटि तरल बंदों, भृकुटि विकट महाबीर मरकट
की ॥३॥
मान कवि मर्कटाधीश महावीर हनुमान की विकट भृकुटि (भौंह) की वन्दना करते हैं। उनकी बाँकी चितवन रावण को खटकने वाली थी। वह जसके चित्त पर चढ़ गई थी, परन्तु वह विलोकन (वक्र दृष्टि) अकाट्य रूप से अक्षयकुमार की देह में प्राण कला छीन रखने के लिये घटी नहीं, उसके प्राण लेकर ही संतुष्ट हुई। ब्रह्मशक्ति से भी अधिक बलशाली उस दृष्टि की फटकी (पाश) देखकर मेघनाद जैसे योद्धा की ठसक (हेकड़ी) पटक गई (कम हो गई)। प्रण-पालन में वह निकट ही तत्पर है। उसके घूमने से विचलित होकर त्रैलोक्य अपने अस्तित्व को मिटा देना चाहता है। वह प्रभावशाली तेज से भरी हुई त्रिकुटि भौहों के बीच प्रखर रूप में जगमगाती है।
तप भरे तेज भरे, राम पद नेह भरे, संतन सनेह भरे, प्रेम की कृपा भरे ।
शील भरे साहस सपूती मजबूती भरे, तर्ज भरे बाल ब्रह्मचर्य की तपा भरे ॥
भने कवि 'मान' भरे दान घमसान भरे, शान भरे इष्ट दुष्ट दलन दपा भरे।
सोचन के मोचन विरोचन के त्रासनीय, बंदों पिंगलोचन के लोचन कृपा-भरे ॥४॥
मान कवि पिंगल-नेत्र (भूरे लाल रंग के नेत्र वाले) हनुमानजी के कृपा-मय नेत्रों की वंन्दना करते हैं, जो तप से, तेज से, राम के चरणों में प्रीति से तथा साधुओं के लिये स्नेह से छलछला रहे हैं। उनके ये नेत्र शील (सदा-चार) से, साहस, शौर्य एवं दृढ़ता से भरे हैं। बाल्यकाल से ब्रह्मचर्य की साधना से प्रदीप्त इन नेत्रों में अनोखा ओज है। दानशीलता एवं रणरंग से भरे हुए इन नेत्रों की अपनी शान है, और ये प्रिय एवं मित्र के प्रति दुष्टता बरतने वालों के लिये दलनशक्ति से परिपूर्ण हैं। हनुमानजी के ये नेत्र सभी चिन्ताओं को मिटाने वाले, पर विरोचन को त्रास देने वाले हैं। 'सुता विरोचन की हत्ती दीरघजिह्वा नाम' के अनुसार हनुमानजी के नेत्र किसी भी दुष्टता को दंडित करने वाले हैं।
जाकी होत हुह उठे अरिन की रूह कूह, फैलत समूह सैन्य भागे जातुधान की।
जाकी सुन हंक मखो लंक में अतंक लंक-पति सौ सशंक निधरंक प्रीत जानकी ॥
भने कवि 'मान' आसुरीन के गरभ गिरे, गभिनी गरभ सिंह रासिभ शशान की।
अम्बुधि अवाज जासौं लागत तराज बन्दौँ, वज्र तें दराज सो गराज हनुमान की ॥५॥
मान कवि कहते हैं कि वज्र की गम्भीर ध्वनि से भी भारी हनुमानजी की गर्जना की वन्दना करता हूँ, जिसके आगे समुद्र की ध्वनि भी धीमी पड़ जाती है। हनुमानजी की हुँकार से शत्रुओं की कठोर आत्मा भी काँप जाती है, राक्षसों की सेना के संगठित समूह भाग कर तितर-वित्तर हो जाते हैं। उनकी हाँक सुनकर लंका में आतंक छा गया, लंकापति रावण भी सशंकित हो गया, पर प्रीतिवश केवल सीताजी निर्भय बनी रहीं। उनकी यह गर्जना सुनकर राक्षसियों के गर्भ उसी प्रकार गिर गये, जिस प्रकार सिंह के गर्जन से गदही और खरही के गर्भपात हो जाते हैं ।
रौद्र रस रेले रन खेले मुख मेले, भार-असुर उसेले जो उबेले सुर गाढ़ तें ।
चखल निशाचर चमून चक चूरे, महि, पूरे लंक भाजन जरूरी जाड़ पाढ़ तें ॥
जानत को दाढ़ें शोक सागर तें काढ़ें सान, 'मान' कबि साढ़े गुन बाढ़ें खल बाढ़ तें।
परे प्रान पाड़े दल दुष्टन को दाढें धन्य-पौन पुत्र डाढ़ें जे उखाड़ें यम डाढ़ तें ॥६
हनुमानजी की दाढें रण भूमि के खेल में रौद्र रस का संचार करने वाली हैं। उनकी दाढ़ों ने मुख में पड़े हुए अनेक राक्षसों को चबा-चबा कर मार डाला और राक्षसों का भार उतार कर देवताओं को कठिनाइयों से उबार लिया। युद्ध में राक्षसी सेना को भली प्रकार समाप्त कर उन्होंने उनके मृत शरीरों से लंका की भूमि पाट दी, और शेष राक्षस प्राण-रक्षा आवश्यक समझ भाग निकले। उनकी दाढ़ों के कौशल को कौन नहीं जानता ? वे शोक-समुद्र से भक्तों को निकालकर दाढ़ें तेज करने वाले हैं। मान कवि कहते हैं कि दुष्टों की बाढ़ देखकर ही उनकी दाढ़ों के गुण बढ़ जाते हैं। इन दाढ़ों की चपेट में आने वालों को प्राणों के लाले पड़ जाते है। दुष्टों के दल को उनके कर्मों का फल देने वाली पवन पुत्र की दाढ़ें धन्य है, जो लोगों को यम-दाड़ों से छुड़ा रखती हैँ।
गिरि गढ़ ढ़ाहन सवाहन हरन वार, युद्ध हो करन वार खल दल भंग के।
भान कवि ओज उद्भूत मजबूत महा विक्रम अकूत तन धरे सफ जंग के ॥
ठोंकत ही जिन्हें रण ठौर तज भाजै अरि, ठहरें न ठीक-ठाक उमड़ उमंग के।
भारी बलवंड काल दंड तें प्रचंड बंदों, उदित उदंड भुजदंड बजरंग के ॥७॥
मान कवि हनुमानजी के अमित बलशाली, कालदंड से भी प्रबल, उभरे हुए पृष्ट पराक्रमी भुजदण्डों की वंन्दना करते हैं। रणभूमि में वाहन पर आरूढ़ होकर हनुमानजी इन भुजाओं से पर्वतों और दुर्गों को ढ़ाते हैं तथा दुष्टों के दलों को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। उनकी ये भुजाएँ ओज से उत्पन्न अत्यन्त सुदृढ़ और अपार विक्रम की देह धारण किये हुए युद्ध की अगली पंक्ति में रहती है। युद्ध-भूमि में ज्यों ही बजरंगबली भुजाओं का ताल ठोक कर बढ़ते हैं, शत्रु भाग खड़े होते हैं, और उनमें उमड़े हुए उत्साह का कहीं कोई चिन्ह नहीं रह जाता। उनकी भुजाओं का स्मरण करने से अखाड़े में उतरने चाले मल्ल (पहलवान) भी उत्तम शौर्य का परिचय देने में समर्थ होते हैं।
राखे निज कुक्ष व्याप ब्रह्म लों अतुक्ष कपि, रिक्ष दल सक्ष जो विपक्ष कुलवंत को।
सुखद सुमक्ष देत उक्ष तरु मुक्ष केश, संकट मुमुक्ष नाम दुक्षर जपंत को ॥
कहै कवि 'मान' महा गरब को गुक्ष पेख,पंच सत दक्ष पूजौ मुक्ष बलवंत को।
यक्ष पति अक्ष लौं रिपु क्षय समक्ष घम-सान मुख मुक्ष वंदो पुक्ष हनुमंत को ॥८॥
मान कवि हनुमानजी के मुख की ओर मुड़ी हुई पूँछ की वन्दना करते है। हनुमानजी इच्छानुसार पूँछ को समेट कर गोद में रख लेते हैं, और विस्तार करने पर वह समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाती है। उनकी यह पूँछ कुलीनता के गुण के अनुरूप कपियों और भालुओं के दल की विपक्षियों से सुरक्षा करने वाली है। जो पूँछ भूख के लिये केश फैला कर ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के सुखदायी फल तोड़ रखती है, वह राम के नाम के दो अक्षरों का जप करने वाले मोक्ष के इच्छुक संकटग्रस्त भक्तों का उद्धार करने वाली है। पंच देवताओं ने भी उन्हें अत्यन्त गर्वीला समझ कर पूजनीय ठहराया है। कुबेरके वरदान द्वारा उनकी गदा से वे युद्ध में अक्षयकुमार जैसे शत्रुओं से सुरक्षित है।
गोपद चरन तोयनिधि के तरन, अक्ष, दल के दरन जे करन खल अंत के।
अपदा हरन दया दीन पे धरन काल-नेमि संघरन और आभरन संत के ॥
औढर ढरन 'मान' कवि के भरन चारों, फल के फरन जे दरन अरि दंत के।
असरन सरन अमंगल हरन, वंदों, रिद्ध सिद्ध करन चरन हनुमंत के ॥९।।
मान कवि हनुमानजी के उन चरणों की वन्दना करते हैं, जो अशरण के शरण हैं, अनिष्ट को मिटाने वाले हैं और रिद्धि-सिद्धि (सभी प्रकार के वैभव) के दाता हैं। उनके चरणों का ध्यान करने से मनुष्य भव-सागर (संसार रूपी समुद्र) को गौ के खुर की भाँति उसी प्रकार सहज में पार कर लेता है, जिस प्रकार हनुमानजी ने समुद्र को लाँघ कर पार किया था। उनके चरण अक्षय-कुमार के दल को दलने वाले और दुष्टों का अन्त करने वाले हैं। आपदा (संकट) हरने वाले दीनों पर दया करने वाले तथा कालनेमि का संहार करने वाले ये चरण साधुओं के लिये आभूषण के समान श्री वृद्धि करने वाले हैं। सहज ही प्रसन्न हो जाने वाले, मान कविके पोषक तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों फलों के देने वाले ये चरण शत्रुओं के दाँतों को तोड़ रखने वाले हैं।
ज्वाला सों जलै न जलजोर सों जलै ना अस्त्र, अरि कौ घले ना जो चले ना जिमी जंग की।
काल दंड ओट सत कोट की न लागे चोट, सात कोटि महामंत्र मंत्रित अभंग की ॥
कहै कवि 'मान' मघवान मिल गीरबान, दीनौ वरदान मान पान के प्रसंग की।
जीत मोह माया मार कीन्हों छार छाया, राम जाया कर दाया, धन्य काया बजरंग की ॥१०॥
बाल्यकाल में सूर्य को एक फल समझ कर निगल जाने वाले हनुमानजी की ठोड़ी पर इन्द्र ने वज्र-प्रहार किया था। पवन देव ने क्रुद्ध होकर समस्त प्राणियों का श्वासोच्छ्वास अवरुद्ध कर दिया अर्थात् रोक दिया। तब अग्नि और वरुण, यम और विश्वकर्मा, इन्द्र और शिव- सभी देवताओं ने हनुमानजी को कई वरदान दिये कि उनका कभी भी कोई अनिष्ट न होगा। उसी समय से पवनपुत्र 'हनुमान' कहलाये । 'हनु' का अर्थ है 'ऊपर का जबड़ा', 'चिबुक' या 'ठोड़ी।'
हनुमानजी अग्नि से जल नहीं सकते, उन पर जल का जोर नहीं चल सकता, और न युद्ध-भूमि में उनको शत्रु का अस्त्र लग सकता है। सत्य के कोट द्वारा वे यम-दण्डसे दूर है, उन्हें कोई चोट नहीं लग सकती, तथा वे सात कोटि ( अर्थात् करोड़ों) बार अभंग (अखंड) राम महामंत्र से अभिमंत्रित है। मान कवि कहते हैं- कि इन्द्र ने गीर्वाण (देवताओं ) के साथ मिल कर उनके मान-सम्मान की वृद्धि का वरदान दिया। जिन हनुमानजी ने मोह-माया एवं मार (कामदेव) को जीत कर उसकी छाया तक भी नष्ट कर दी है, उनकी दिव्य देह धन्य है, क्योंकि उन पर सीताजी की कृपा है।
अरुण ज्यों भौम सीय दृग लौं असोम सोम, कोमल ज्यों छेम करें कर सिय कंत के।
महा प्रलै ओम मुनि लोमस के लोमन लौं, बैरिन विलोम अनलोम सुर संत के ॥
वज्र मुद मोम छबि 'मान' सत सोम जे, अ-सोम ग्रह सोम कर अरिन के अंत के।
खलन के खोम जोम होत है अजोम जोम, ज्वालिन के तोम बन्दौं रोम हनुमंत के ॥११॥
हनुमानजी की रोम-राशि (रोमावली) की वन्दना करते हुए कवि मान कहते हैं कि वह मंगल ग्रह की लालिमा से अनुरंजित है, चन्द्रमा के समान कोमल है, तथा श्रीराम के करकमलों के समान संतापहारी और कल्याणकारी है। लोमश मुनि की भाँति वह महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होती। शत्रुओं के लिये प्रतिकूल तथा देवों और संतों के अनुकूल इस रोमावली के समक्ष वज्र और मुग्दर भी मोम जैसे प्रतीत होते हैं। उसकी शोभा सैकड़ों चन्द्रमा जैसी है, और वह अशुभ ग्रहों को शुभ में बदलने वाली तथा शत्रुओं के लिये संहार-कारी है। वह ज्वाला का समूह रोम राशि दुष्टों के समूह के भारी अभिमान को मिटा रखने वाली है।
[ नखशिख सम्बन्धी छन्द राजस्थानी विद्यापीठ, साहित्य संस्थान, उदय-पुर द्वारा प्रकाशित 'हनुमत पचासा' से साभार उद्धत । अर्थ स्वतंत्र रूप से किया गया है।]
शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार देवताओं का वर्णन नख से शिख तक और मानवो का शिख से नख तक किया जाना चाहिये, परन्तु परम साधक 'मांन' का ही यह अधिकार था, जो उन्होंने हनुमानजी की शिखा से चरण-कमलों की ओर निहारा है।