Hanumant Pachichi aur any Chhand - 3 in Hindi Spiritual Stories by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | हनुमंत पच्चीसी और अन्य छंद - भाषा टीका श्री हरि मोहन लाल वर्मा - 3

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हनुमंत पच्चीसी और अन्य छंद - भाषा टीका श्री हरि मोहन लाल वर्मा - 3

हनुमंत पच्चीसी और अन्य छंद 3

'हनुमत हुंकार' संग्रहनीय पुस्तक

प्रस्तुत 'हनुमत हुंकार' पुस्तक में हनुमान जी के स्तुति गान और आवाहन से सम्बंधित लगभग 282 वर्ष पहले मान कवि द्वारा लिखे गए 25 छंद हैं , जिनके अलावा उन्ही मान कवि के छह छंद ' हनुमान पंचक' के नाम से शामिल किए हैं, तथा 'हनुमान नख शिख' के नाम से 11 छंद लिए गए हैं।

 

पौन को सपूत पूत, पैज को पलैया, दिपै दारुण दलैया दुष्ट दानव दलीन कौ।

'मान' भनै  जन मन पन कौ लखन बारो, राजत रखन बारो निगम गलीन कौ ॥

औढर ढ़रण दीन दुख कौ दरन खल-जीवन हरन छार करन छलीन कौ।

अरि दल मन्दर  न जाकै भय अन्दर, सो बन्दों वीर बन्दर, पुरन्दर बलीन कौ ॥५॥

 

अर्थः- मान कवि कहते हैं कि हनुमानजी पवन के साहसी सपूत हैं और प्रण को निभाने वाले हैं। तेज से दीप्तिमान होकर वे दुष्ट दानवों के बलों को भयंकर रूप से दलने वाले हैं। वे भक्त के मन और प्रण को देखने वाले हैं, और वेद की मर्यादा की रक्षा करते हुए शोभा पाते हैं। वे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते है, दीनों के दुःखों को दलते हैं, खलों के जीवन को हर लेते हैं, और छलियों को भस्म कर देते हैं। बलशालियों में इन्द्र के समान वीर बानर हनुमान की मान कवि वन्दना करता है, जो पर्वताकार शत्रु दल में बिना तनिक भी भय के प्रवेश कर जाते हैं।

 

राम के जमातदार, ऍड़दार, मैड़दार, अङ्गद के यार, होशियार हर भाँति के।

पैज के पलैया, दाबादार के दलैया जन-मन के जनैया, भैया धनी करामात के ॥

ऐरे महावीर , मेरे पीर के गहीर, कपि-कुल के अमीर, बारगीर दीन दाँत के।

हाय हनुमान, पट्टा ज्वान बलवान, ठड्डा कै कै क्यों न मारे, ठट्ठागीर का बिलात के ॥६॥

अर्थ :- हे हनुमान, तुम रामचन्द्रजी के दरबारी हो, ऐंठ और शान वाले हो, अंगद के मित्र हो, और सब प्रकार चतुर हो, तुम प्रण का पालन करने वाले हो, शत्रु का दलन करने वाले हो, भक्तों के मन की बात जानते हो, और बहुत बड़ी करामातों से सम्पन्न सहायक हो। हे महावीर तुम मेरी पीड़ा को समझते हो और कपि कुल में श्रेष्ठ हो, तथा दीनों की आर्तता देखकर उनके कष्टों का निवारण करने वाले हो। हे हनुमान ! तुम जवान पट्ठा हो और बलवान हो, ठट्ठा  कर-कर क्यों नहीं उनको मारते हो, जो मेरा ठट्ठा उड़ाते हैं। क्या वे बड़े बलशाली दूर देश (बिलायत) के हैं ?

 

जिन ततकाल कालनेमि मुख मोरयो, अहिरावन मरोरयो जिन रोरयो  अच्छ गोत है।

राम मन भायौ गढ़ औगढ़ ढहायौ, गिरि, गजब गिरायौ, बिनसायौ अरि पोत है ॥

भने कवि 'मान' महावीर हनूमान, बल जिनको अमान, जग विक्रम उदोत है।

अच्छ मुख भंजन प्रभंजन कुमार, तिन पंजन सौं हाय, खल भंजन न होत है ॥७॥

 

अर्थ :- जिन्होंने तुरन्त कालनेमि के मुख को मोड़ दिया था, अहिरावण को मरोड़ डाला था, अक्षकुमार की टोली को नष्ट कर दिया था, वे हनुमानजी राम को अत्यन्त प्रिय हैं और गढ़ों तथा टीलों को ढाहने वाले हैं। पर्वतों पर तड़ित प्रहार के समान उन्होंने शत्रु रूपी जहाज नष्ट कर दिया। मान कवि कहते हैं कि महाबलशाली हनुमानजी का, जो अमान (अपार) बल के स्वामी है, बिक्रम संसार में प्रकाशित है। अक्षकुमार के सुख का भंजन करने वाले (मरोड़ देने वाले) पवन कुमार के पंजों से हाय, अब दुष्टों का भंजन क्यों नहीं हो पा रहा है ! (मान कवि अपने आराध्य को शीघ्र कार्य सिद्धि के लिये प्रेरित कर रहे हैं।)

 

 

काल रुद्र ज्वाला सौ जुलाहल ज्वलंत जाके, उदित अतङ्ग शङ्क लङ्क में हहा भई।

 छाया करी छार, खल अच्छ हूँ पछार दये, दाने सब जार दुष्ट दानन महा भई ॥

 बीर बिकराल कलि काल पाय कैसी अब,तेरे क्षोभ छुद्रन के हिय में न हा भई।

राम की नजर तें सुहाई जो नजर तेरी, काल सी नजर, कहूँ कुन्द सी कहा भई ॥८॥

अर्थ: कवि कहता है कि काल-रुद्र की ज्वाला के समान जो ज्वलंत है, और जिसका आतंक प्रकाशवान है, जिससे शंकित लंका में हाहाकार मच गया है, जिसने राक्षसों की छाया तक को भस्म कर दिया अर्थात् नाम तक नहीं रहने दिया, दुष्ट अक्षकुमार जैसे बलशालियों को पछाड़ दिया, सभी दानवों को जला कर दुष्टों और दानवों को जिन्होंने अत्यन्त भयभीत कर दिया, ऐसे हे विकराल वीर ! इस कलिकाल में अब कैसी बात हो गई कि तुम्हारा क्षोभ बढ़ाने वाले क्षुद्र व्यक्तियों के हृदय में तुम्हारा तनिक भी भय नहीं हुआ । तुम्हारी दृष्टि जो राम की कृपा दृष्टि से शोभित है, काल की दृष्टि जैसी , क्या वह कुन्द (मौथरी) तो नहीं हो गई ?

 

द्रोण को लिवैया लक्षमण को जिवैया, लङ्क दाह कौ दिवैया है जितैया  महारन कौ।

भनै कवि 'मान' महाबीर बिरदेत, सुभटन कोटि कैत बाँधे, नेत राम मन कौ ॥

कैसी भई तोय अरे, संकट हरैया, दास पैज को पलैया, तू दलैया दुष्ट गन कौ।

सबै सुखदाई राम यश कौ उपाई, हरि भक्तन को भाई, तू सहाई दीन जन कौ ॥९॥

 

 

अर्थ :- हनुमानजी द्रोण गिरि को लाने वाले हैं, लक्ष्मण को जिलाने वाले हैं, लंका का दाह करनेवाले अर्थात् उसे जलाने वाले हैं, और रण में महान विजेता है। मान कवि कहते हैं कि वे महावीर है, विरद वाले हैं, उन्होंने करोड़ों योद्धाओं को अपने प्रभाव में बाँध रखा है और वे राम के मन की नीति को जानने वाले हैं। है हनुमान ! तुम तो दासों का संकट हरने वाले हो, प्रण को पालने वाले हो, और दुष्टों के समूह का दलन करने वाले हो. तुम्हें क्या हो गया है, तुम तो सभी के सहायक हो, राम के यश का उपाय करने वाले हो, हरि-भक्तों के भ्राता हो, और दीन लोगों के सहायक हो !