Kaarva - 8 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कारवाॅं - 8

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कारवाॅं - 8

अनुच्छेद- आठ

जब से ग्राम पंचायतों को सीधे विभिन्न मदों में धन मिलने लगा है, ग्राम प्रधान के चुनाव में भी अब लोग पूरी ताकत लगा देते हैं। ग्राम पंचायत के जो मतदाता बाहर होते हैं उन्हें भी बुलाने की पूरी कोशिश की जाती है। कही-कहीं लोग साड़ियाँ, कम्बल बाँटते भी देखे गए हैं। ग्राम पंचायत में आने वाला घन सही ढंग से खर्च हो इसके लिए खुली बैठकों का प्रावधान तो है पर बहुत सी ग्राम पंचायतों, खासकर बड़ी ग्राम पंचायतों, में प्रधान खुली बैठक से बचने की कोशिश करते हैं। कागज़ पर ही खुली बैठकों का होना दर्शा दिया जाता है। खुली बैठक करने में काफी धैर्य, पारदर्शिता और ईमानदारी की ज़रूरत होती है। जो भी प्रधान कुछ पैसा बनाने की कोशिश करते हैं, वे प्रायः पारदर्शी कार्य नहीं कर पाते। विभिन्न शासकीय योजनाओं से ग्राम पंचायतों का परिवेश बदला है। गाँवों में नालियाँ, संपर्क मार्ग, खड़ंजा आदि काफी बने हैं। जिनके पास साधन नहीं थे उनको इंन्दिरा आवास योजना के अन्तर्गत सहायता देकर एक कमरे का घर उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता रहा। इंदिरा आवास के साथ शौचालय जोड़ देने से शौचालयों की संख्या बढ़ी है पर उनका रख रखाव और उपयोग ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। बहुत से शौचालयों में लोग कंडा (उपला) रखते मिलेंगे। गाँवों के सही विकास के लिए उपलब्ध संसाधनों एवं वित्तीय मदद का सही उपयोग आवश्यक है। सोसल आडिट का प्रावधान तो किया गया पर उसका क्रियान्वन प्रायः सही ढंग से नहीं हो पाता। किसी प्रकरण पर यदि कुछ लोग कहते हैं गलत काम हुआ है तो उसको दूसरा पक्ष सही ठहराने का कुछ न कुछ जुगाड़ कर ही लेता है। मनरेगा जैसी योजनाओं में भी पर्याप्त सावधानी के बाद भी भ्रष्टाचार के प्रकरण सामने आते ही रहते हैं। भ्रष्ट लोगों की एक शृंखला बन जाती है और वे एक दूसरे की मदद करते हुए अपना हित साधते रहते हैं।

जो प्रधान ईमानदारी और सदिच्छा से काम करना चाहते हैं उनके सामने भी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। विभिन्न योजनाओं में यदि ऊपर के लोग पैसे माँगते हों तो ईमानदार प्रधान का काम प्रायः रुक जाता है। जनता का दबाव रहता है कि काम कराइए। कभी-कभी ईमानदार प्रधान पूरी सदिच्छा के साथ काम करते हुए भी असफल होने के लिए विवश हो जाता है। ईमानदारी की सजा आमजन को भुगतनीपड़ जाती है। यह बहुत कष्टकर स्थिति है। जो रुपये का लेन-देन करने में कुशल होते हैं, उनके प्रस्तावों पर पैसा आसानी से उपलब्धकरा दिया जाता है। यदि गाँव का विकास करना है तो इन विसंगतियों को दूर करना होगा। ईमानदार लोगों को मुख्य धारा में लाने की कोशिश करनी होगी। यह बात आश्चर्य जनक है कि भ्रष्ट अधिकारियों की पदोन्नति या उनका सेवाविस्तार आसानी से हो जाता है। मुख्य सचिव जैसे पद पर भी भ्रष्ट अधिकारियों के सेवाविस्तार की सिफारिश सरकारें क्यों करती हैं? यह प्रश्न अपने आप में भी प्रशासनिक ढाँचे की तस्वीर को सामने रख देता है। जनता के पास इतना धैर्य कहाँ कि वह प्रधान की ईमानदारी के बदले योजनाओं के लाभ से वंचित हो जाए। लोग कह सकते हैं कि प्रधान को धरना-प्रदर्शन आयोजित करना चाहिए पर हर छोटे-मोटे काम के लिए धरना-प्रदर्शन आयोजित करना इतना आसान भी नहीं होता। कमजोर वर्ग के लोग अपनी मजदूरी छोड़कर कितने दिन धरने पर बैठ सकते हैं और धरने का निहितार्थ गलत दिशा में मोड़ने के लिए भ्रष्ट लोग किन तिकड़मों को करेंगे इसका कोई अंत भी नहीं है। एक ईमानदार प्रधान की सुनवाई किसी न किसी स्तर पर सुनिश्चित की जानी चाहिए तभी ईमानदारी को प्रोत्साहन मिलेगा और ईमानदार लोग भी भ्रष्ट होने से बचेंगे। अंजलीधर सोचते सोचते वज्रासन की मुद्रा में बैठ गईं। 'क्या करना चाहिए?' यह प्रश्न बार-बार उन्हें उद्वेलित करता रहा।

ग्राम पंचायत गुलरिहा में कुल दो हजार वोटर हैं। जैसे ही चुनाव आयोग द्वारा निर्वाचन तिथियों की घोषणा हुई अखबार, टीवी, रेडियो सभी जन जन तक यह खबर पहुँचाने में जुटे ही, गुलरिहा के भुल्लुर तो जैसे पागल हो उठे। भुल्लुर पहले भी बहक कर बात करते थे, अब तो पंख लग गए। हर तरफ चुनाव की ही चर्चा। चुनाव का भी एक अर्थ होता है। हर व्यवसायी इस चुनाव से कुछ कमा लेना चाहता है। नारा लगाने, पोस्टर बनाने छापने वाले सभी दौड़ पड़े। यही मौका है कुछ कमा लेने का। जो बच्चे चौराहों-बाज़ारों में बिना काम के इधर-उधर घूमा करते थे उनकी भी पूछ बढ़ गई है। सम्भावित प्रत्याशी उन्हें अपना सैनिक बना अभियान में झोंकने के लिए तत्पर । पर भुल्लुर काका सबसे अलग। चाय-पानी चाहे जिसकी तरफ से हो वे बात अपने मन की ही करेंगे। यही कारण है कि बहुत सी गोपनीय सूचनाएँ भी उन तक पहुँच ही जातीं और विभिन पक्षों के लोग उनसे मिलकर भेद की बातें जानने की कोशिश करते।

'पुराने तौर-तरीके से चुनाव नहीं जीता जा सकता।' चुन्नू की दूकान पर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए पुत्तू ने लोगों को झकझोरा। कल्लू ने भी आते ही सवाल कर दिया, 'अबसी प्रथान के बनी पुत्तू ?'

'जे पैसा खर्च करी।' पुत्तू ने जवाब दिया।

'काउ!' जे पैसा खर्च करी? कल्लू चौंक गए। 'और का निरहू-घुरहू जिति-हैं?' पुत्तू ने पास ही बैठी कुतियाको दुलत्ती मारी। 'का प्रधानी निरहू-घुरहू खातिर नहीं है?'

'बस वोट देय के खातिर है। निरहू-घुरहू प्रधान न होइ पइ हैं।'

'होइ पैहें पुत्तू भाई ऐसन दिन आई।'

'ऐसन दिन कब्बौ न आई.....कब्बौ न आई।' पुत्तू ने कहते हुए ताल ठोंकी फिर चुन्नू से कहा, 'कल्लू भाई को भी चाय....।' चुन्नू ने चटपट कल्लू को भी एक गिलास में आधी चाय पकड़ाई। चुन्नू सबकी सुनते हैं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। उनकी दूकान पर विभिन्न दलों के लोग आते। गर्मागरम बहस करते। चाय पीते, कभी-कभी समोसा भी खाते और चले जाते। कुछ लोग बकाया कर जाते। उसमें से कुछ मिलता, कुछ नहीं भी मिलता पर चुन्नू की दूकान पर बहस का बाज़ार गर्म ही रहता। शाम को तो पूरा जमावड़ा ही हो जाता। दिहाड़ी से लौटे बतरस में समय काटते, गाँव - जँवार की हालत पर चर्चा करते लोग चुन्नू की दूकान को आबाद रखते। चुन्नू की दूकान ही गुलरिहा का काफी हाउस है, जहाँ आस-पास के लोग जुटते, बहस करते, कभी एक दूसरे को पुचकरते, कभी तमाशा खड़ा करते। चुन्नू खुली आँखों से सभी को देखते, सुनते पर अपनी ज़बान बन्द ही रखते। गुलरिहा और आसपास की ख़बर जाननी हो तो चुन्नू की दूकान पर थोडी देर बैठ जाइए और पूरा हालचाल ले लीजिए।

सड़क पर दूकान होने के नाते चुन्नू की दूकान पर बाहर से भी लोग आते -जाते रहते। आज दो आदमी एक नई मोटर साइकिल पर आए। दूकान पर चाय पी और बताने लगे कि उन्हें प्रधानी का चुनाव हर हाल में जीत ही लेना है चाहे इसमें दस-पन्द्रह लाख रुपये खर्च करना पड़े। चुन्नू ने उन दोनों को गौर से देखा। एक आदमी धोती-कुर्ते में चेहरे पर मूछें, रंग साँवला, नाक ऊँची पर एक आँख दबी हुईं, पैरों में साधारण चप्पल, कुर्ते की सामने की जेब में डायरी, उम्र पचास के आस पास, दूसरा पैंट शर्ट में, हाथ में टच स्क्रीन मोबाइल, चेहरे पर खसखसी दाढी, रंग गेहुँआ, जूते स्पोर्टी, उम्र पच्चीस के आस पास। जैसे दोनों एक दूसरे के पूरक हों। भुल्लुर काका दूकान के पास ही बैठे थे। पूछ बैठे-'पन्द्रह लाख खर्च करोगे तो कितना कमाओगे?'

अधेड़ आदमी मुस्कराते हुए मोटर साइकिल पर पीछे बैठ गया। युवक ने किक मारी और नई गाड़ी चमक विखेरती सरसराती चल पड़ी।

भुल्लुर बड़बड़ा उठे, 'जो देखो वही वोट खरीद के मालिक बना चाहत है। रुपैया जैसे पेंड़ मा फरत है। कौनो जरूरी काम की खातिर चार पैसा न निकरी और वोट की खातिर लाखों की बात होय रही है। पहले लोग राज खरीदत रहे अब परधानी खरीदत हैं, मुला ई खरीदी परधानी केहकै भला करी?' कल्लू भी अपना वैरावा (पानी लगाया) खेत देखकर लौटे थे। भुल्लुर की बात पर ठुमका लगाते हुए बोल पड़े 'आपन'। भुल्लुरने पीछे मुड़कर ताका, 'ठीकै कहत ही कल्लू।'

रात में ठंडक होने लगी थी पर दिन में अभी गर्मी होती। दिन का अधिकतम तापक्रम अब २६ सेंटीग्रेड तक पहुँच गया। गेहूं बोने का यह उत्तम समय । पर बहुत से लोग चुनाव में सक्रिय हो गए थे। उन्हें लग रहा था कि पाँच साल में एक बार प्रधानी का चुनाव आता है। पहले इससे निपट लेना ही ठीक है। गेहूँ दस-पाँच दिन बाद बो लिया जायगा। गुलरिहा में दलहनी फसलों के अन्तर्गत रबी में मसूर बोने का ही प्रचलन अधिक है। अरहर तो पूरे गाँव से गायब ही हो गई है। कुछ रोगों और कुछ नील गायों के प्रकीप से लोगों ने अरहर बोना छोड़ दिया है। छुट्टा बछवों, साँड़ों और गायों से भी खेती को बहुत नुकसान हो रहा हैं। जो हर जगह चालाकी से काम लेना जानते हैं, उनमें से कुछ लोग चुपके से जानवरों की स्मगलिंग भी कराते रहते हैं। कभी पकड़े गए तो थोड़ा हो हल्ला मचता पर अधिकतर अपने अभियान में सफल हो जाते हैं। अक्सर भैंस पालने वाले किसानों की भैंसे भी रात में लोग खोल ले जाते। सड़कें बन जाने से जानवर चोरों को भी फायदा हुआ है। अब वे छोटी गाड़ियों से रात में आते और मौका देखकर भैंसों को लाद ले जाते। जब से पंचायत चुनाव की घोषणा हुई है, भैंस-गाय चोरों का प्रकोप कुछ घट गया है। सचमुच यह शोध का विषय है। रात में जगह-जगह लोग जुटकर चुनाव की ही चर्चा करते। लोगों के गुट भी बनने-बिगड़ने लगे। प्रत्याशी फनफना रहे थे। वोटरों का पैर छूना शुरू हो गया था, मान मनौवल भी। वोटर भी कभी ऐंठता, कभी कुनमुनाता, कभी प्रत्याशी की हमदर्दी पर पानी-पानी हो जाता।

गुलरिहा ग्राम सभा से शहर जाने वाली सड़क गढ्ढों से बनी है या गड्ढे की ही सड़क है, कह पाना मुश्किल है। अधिकतर साइकिल, मोटर साइकिल सवार और पैदल यात्री सड़क किनारे की कच्ची पगडंडी पर ही चलते। सड़क पर हिचकोले खाते चलना और कमर दर्द मोल लेना सबके बस की बात नहीं। सड़कों को बनाने का ठेका प्रायः सांसदों, विधायकों तथा अन्य नेताओं के सगे सम्बन्धी ही लेते। जिसको निगरानी करना था, वह बनाने वाला हो गया। फिर कौन जाँचे, परखे? गाँवों में चार पहिये भी आ गए हैं। गुलरिहा में भी प्रधान जी के पास कार थी। एक बीडीसी सदस्य भी मारुति ले आए हैं। मोटर साइकिलें तो कई लोगों के पास हो गई हैं। जो नियमित वेतन पाने वाले लोग हैं, उन्हें किश्तों पर मोटर साइ‌किल और कारें मिल जाती हैं पर ईंट, सरिया, सीमेन्ट कोई किश्तों पर नहीं देता।

प्रधान जी ने अपने घर पर कुछ विश्वस्त लोगों की बैठक बुलाई। प्रधान को लेकर कुल तेरह लोग। बड़े कमरे में सभी बैठे। दरवाजा उढ़का दिया गया।

प्रधान जी चौकन्ने। दीवारों के कान होते ही हैं, फुसफुसाहट भी गुड़-गोबर कर सकती है। मिष्ठान्न नमकीन के साथ पेय भी हल्का कठोर दोनों। प्रधानी की बात शुरू हुई।

'कैसे जीता जाई?' प्रधान जीने प्रश्न कर दिया। एक क्षण सन्नाटा। फिर..धीरे धीरे लोग मुँह खोलने लगे। विलायती का एक घूँट लेकर करुना बोल पड़े, 'जीते का तो आपै का है प्रधान जी लेकिन......'लेकिन क्या करुना? जब लेकिन लाग है तो जीत कैसे होई?' प्रधान जीने प्रश्न भरी दृष्टि से देखा। 'जीत तो होइबै करी मुला देशी के बदले वियालती बँटे का चाही।' करुना ने दूसरा घूँट भी गले के अन्दर उतारा।

'धत्त करुना, बात उठी भी तो विलायती की। इसका इन्तजाम तो रहबै करी पर चुनाव आयोग की नज़र से बचाइ के।' प्रधान जी ने इत्मीनान से बात रखी। 'सिर्फ विलायती से जीतब मुश्किल है?' एक चम्मच नमकीन मुँह में डालते रामकरन बोल पड़े।

'आखिर कुछ बतैहौ कि सवालै करत रहबी?' करुना ने भी एक चम्मच नमकीन मुँह में डाला और चुलबुलाने लगे। 'अब वही पुरान समय नहीं रहा कि विलयाती पिए की खातिर वोट भरभराय के परि जाईं। अब लोग ज्यादा हुशियार होय गए हैं। उन्हें बतावै का परी कि गाँव के लिए काम कीन जाईं।' रामकरन ने नमकीन चुलबुला कर कहा।

'तुम्हारा मतलब है कि विकास की गंगा कैसे बही, ई बतावै का पड़ी।' करुना ने अपनी समझ के अनुसार अर्थ-विस्तार किया।

'ठीक कहत हैं करुना। नया ज़माना कुछ दूसर सोचि रहा है। लड़िके सड़क, पानी , बिजली, रोजगार, पढाई जाने क्या-क्या मांगे लगे हैं।' रामकरन ने तर्जनी घुमाते हुए कहा।

'लडिकनौ जौन चाहत हैं वही जरूरी है मुला', करुना ने दो घूँट और चढ़ाया। 'ई मुला काव आय करुना भाई, ?' रामकरन ने भी दो घूँट चढ़ाया।

'मुला कै मतलब ई है कि गाँव मा विकास की गंगा बही तो प्रधान जी का काउ बची? फिर हमें सबका ई बिलायती कैसे मिली? और प्रधान जी जौन खर्च करि हैं सूद-बियाज सहित कैस वसूलि पैहैं? अफसर, नेता सब डुबकी कैसे लगइहैं?' कहकर करुना खिलखिला उठे।

प्रधान जी कुछ देर तक लोगों की बात सुनते रहे फिर धीरे से बोले, 'जीतब जरूरी है, ई तो जानते हो।'

'यहू मा कौनो शक है' करुना चिहुंक उठे।

'तो वही की तैयारी करो। साम, दाम दंड भेद....., समझ गए न? 'समझ गएन'.. .. रामकरन बोल पड़े। 'आज सब लोग घर जाव। जीते का है, ई सोचि कै प्लान बनाओ।' प्रधान जीने मीटिंग खत्म की।

कई पेशियों के बाद आखिर आशुतोष, तन्नी, नन्दू, हरवंश के मुकदमे को अन्तिम परिणति तक ले ही आए। अँगनू की गवाही हो चुकी है। उन्होंने तन्नी, नन्दू, हरवंश से किसी तरह की जान पहचान से इनकार किया। उन्होंने कहा कि इन बच्चों को कभी भी किसी भी माओवादी कार्यक्रम में सहभागी होते नहीं देखा। मेरे साथ इन बच्चों का नाम जोड़ना किसी की शरारतपूर्ण कार्यवाही है। अँगून ने शासकीय अधिवक्ता के सभी प्रश्नों का सीधा जवाब दिया। शासकीय पक्ष हाथ मल कर रह गया।

वंशीघर के दबाव के बाद भी दरोगा सुकान्त के मन में इन बच्चों के लिए कहीं एक कोमल कोना सुरक्षित था। माँ का आह्वान, 'निर्दोष को बचाना' उनके मन-मस्तिष्क में बार-बार कौंध जाता। इसीलिए अपने पक्ष की हार में भी उन्हें सन्तोष का अनुभव हो रहा था। पर सबसे अधिक कष्ट हुआ उपाधीक्षक वंशीधर को। जैसे ही उन्हें प्रकरण की सूचना मिली, उनके मुँह से गालियाँ निकल पड़ीं।

गवाही और बहस हो जाने के बाद आशुतोष, विपिन, कान्ति भाई सभी आश्वस्त हो गए थे कि तीनों बच्चे बरी हो जाएँगे। अब केवल कुछ ही दिनों की बात है। अदालत ने आदेश की तारीख भी निश्चित कर दी है।

जैसे ही हठी पुरवा में कान्ति भाई और विपिन पहुँचे सभी की निगाहें दोनों के चेहरों पर टिक गईं। माँ अंजलीथर के सामने एक एक बात कान्ति भाई ने विस्तार से बताई। यह भी बताया कि अगली पेशी पर आदेश हो जाने की पूरी उम्मीद है। 'बच्चे छूट जाएँगे तो पुरवे की प्रगति का रोड़ा खत्म हो जायगा।' माँ जी ने आश्वस्त होते हुए कहा। अंगद और रामदयाल भी आ गए, बच्चों की माँएँ भी। सभी को माँ ने स्नेहपूर्ण शब्दों में समझाया। एक आश्वस्ति भाव सभी के चेहरे पर उभर आया पर रामदयाल के मुख से निकल ही गया, 'ई कचहरी होय बच्चे छूटि जायँ तब जानौ ।'

'छूटे समझो।' कान्ति भाई ने समझाने की कोशिश की।

'जिन दिन बच्चे छूट कर आएँगे उस दिन पूरा पुरवा थिरक उठेगा, विकल्प के लोग भी।' अंगद अपनी बात रख ही रहे थे कि वीरेश एक पर्चा लिए आया। उस पर्चे में भुल्लुर ने प्रधान पद के लिए अपनी दावेदारी मज़ाकिया लहजे में प्रस्तुत की थी। विपिन ने पर्चा लेकर कुछ पंक्यिाँ पढ़ीः

'भाइयों मैं भी प्रधान बनना चाहता हूँ सिर्फ इसलिए कि अपना चार-छह कमरे का बढ़िया घर बनवा सकूँ, चार पहिए की गाड़ी खरीद सकूँ जिससे आपके न्योते में फर्राटे से पहुँच सकूँ। कुछ खेत भी खरीद पाऊँ तो और अच्छी बात होगी। मेरी अगली पीढ़ी आराम से रहेगी तो आप सबको दुआ देगी। आपके एक वोट से दस-पाँच लाख मेरे खाते में आ जायँ तो कितनी अच्छी बात होगी।'

पर्चे को पढ़कर सभी को हँसी छूट गई। कान्ति भाई, बोल पड़े,' 'भुल्लुर ने जो लिखा है वही बहुत से प्रधान कर ही रहे हैं। यह बात ज़रूर है कि वे ऐलान नहीं करते।'

ग्राम पंचायत चुनाव की घोषणा हो जाने से सभी पुरवों में चहल-पहल शुरू हो गई है। भावी प्रत्याशी हवा का रुख भाँपने में लग गए हैं पर हठी पुरवा के लोग अभी चुप हैं। पिछले चुनाव में पुराने प्रधान के खिलाफ वोट देकर पूरे पाँच साल सरकारी सहायता से वंचित रहे। प्रधान को न्याय पूर्ण कार्य करना चाहिए यह बात सभी कहते हैं पर व्यवहार में यही देखा जाता है कि जो प्रधान के साथ होते हैं, वे

अधिक लाभान्वित होते हैं। हठी पुरवा के लोग इस चुनाव के लिए भी आपस में विचार विमर्श करेंगे ही।

विपिन और कान्ति भाई घर लौटने के लिए उठे। माँ जी ने कहा, 'बच्चों को जितनी जल्दी हो सके छुड़ाओ।