Kaarva - 3 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कारवाॅं - 3

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कारवाॅं - 3

अनुच्छेद तीन

अंजलीधर मड़ई में चौकी पर बैठी दो बच्चियों को गणित के प्रश्न हल करा रही थीं। सुबह का समय था दिन रविवार। अंगद डेयरी का दूध बाजार भेज चुके थे। रजिस्टर पर दूध का हिसाब अंकित कर वे निकले ही थे कि करीम ने आदाब किया। अंगद ने भी बढ़कर उनसे हाथ मिलाया। मोलहू और राम जियावन भी राम-राम कहते हुए अंगद से मिले। उनके पीछे तीनों की पत्नियाँ भी थीं। अंगद ने महिलाओं को भी प्रणाम किया। सातों लोग माँ अंजलीधर की मड़ई की ओर बढ़ गए। माँ ने इन लोगों को देखकर बच्चियों को कुछ सवाल हल करने के लिए देते हुए घर भेज दिया। करीम ने पहुँचते ही माँ जी को सलाम किया। 'आओ भाई करीम बैठो' माँ जी ने कहा। तब तक तीनों महिलाएँ भी दिखीं। माँ जी उठ पड़ीं। तीनों महिलाओं से गले मिलीं और उन्हें सम्मान के साथ बगल के तख्ते पर बिठाया। अंगद एक चारपाई और खींच लाए। उस पर करीम, मोलहू और राम जियावन को बिठाया। 'कैसे आना हुआ भाई करीम?' माँ जी ने पूछा। 'माँ जी हम लोग भी इस डेयरी से जुड़ना चाहते हैं। हम लोगों ने यह भी तय किया है कि ईमादारी से रोटी कमाएँगे।' 'यह तो खुशी की बात है। अंगद भाई अपनी समिति के लोगों को भी बुला लो। सबकी सहमति से इस मसले पर निर्णय कर लिया जाय।'

अंगद उठ कर समिति के सदस्यों को बुलाने चले गए। सुबह का समय था इसलिए अधिकांश सदस्य घर ही पर थे। पुरवे की महिलाएँ और पुरुष इकट्ठा हुए। एक बड़ी सी दरी बिछाई गई। उसी पर सभी लोग बैठे। माँ जी भी बैठीं। माँ जी ने सभी से पूछा, 'भाई करीम और उनके साथी राम जियावन और मोलहू ईमानदारी से रोटी कमाना चाहते हैं और हम लोगों की डेयरी में शरीक होना चाहते हैं, आप सब की क्या राय है ?' एक क्षण की चुप्पी के बाद नन्दू की माँ ने कहा, 'माँ जी जौन आप का ठीक लागै ऊ करौ।' 'नहीं भाई तुम लोग भी सोचो-विचारो। हमारे न रहने पर भी तो ये डेयरी चलेगी। सोचना-विचारना सब हमारे ही जिम्मे रखना ठीक नहीं।' 'माँ जी, करीम, मोलहू और राम जियावन भाई अगर ईमानदारी से जुड़ा चाहत हैं तो उन्हें जोड़ा जाय। ई तो खुशी के बात है।' राम दयाल ने चहकते हुए कहा। माँ जी ने करीम, मोलहू और राम जियावन की पत्नियों से पूछा। उनके 'हाँ' कहने पर माँ जी ने सवाल लहराया, 'क्या इन सभी लोगों को डेयरी से जोड़ लिया जाए?' सभी ने माँ जी के सवाल का जवाब 'हाँ' में दिया। सभी के चेहरों पर खुशी की एक लहर दौड़ गई। 'केवल डेयरी ही नहीं आगे के अन्य कामों में ये सभी हमारे साथ होंगे।' माँ जी ने कहा। तब तक तन्नी भी आ गई। उसने भी समर्थन किया। बैठक की कार्यवाही सम्पन्न हो गई। करीम, मोलहू और रामजियावन के परिवार बहुत खुश हुए। 'तो फिर हम चलते हैं' करीम ने माँ को आदाब करते हुए कहा। पुरवे की और महिलाएँ भी अपने घरों की ओर चल पड़ीं। 'बहुत ईमानदारी से काम करना है', करीम ने अपनी टोली के सदस्यों से कहा। 'का यहू मा कौनौ अनेश है' मोलहू की पत्नी झपट पड़ीं। राम जियावन उनके तेवर पर मुस्करा उठे।

अगले दिन से करीम, मोलहू और राम जियावन अपना दूध डेयरी में देने लगे। यह खबर पुरवे के अन्य लोगों को लगी। एक कसमसाहट पैदा हुई। पुरवे के अन्य लोग भी करीम से मिले, बहसें हुईं। करीम ने लोगों के सवालों का जवाब दिया और पुरवे के दस और घरों के लोग डेयरी से जुड़ने के लिए तैयार हो गए। करीम ने उन्हें विकल्प डेयरी से जोड़ने में मदद की। धीरे-धीरे यह खबर अन्य पुरवों तक भी पहुँची। अन्य पुरवे के लोगों में भी डेयरी से जुड़ने को लेकर कसमसाहट पैदा हुई। अन्य पुरवों के लोग दो-दो, चार-चार के समूह में अंगद और माँ जी से मिलने के लिए आने लगे। माँ जी वही सवाल करतीं। यदि ईमानदारी से काम करना है तो जुड़ो । विचार-विमर्श और बहस के बाद तीन पुरवों कचनारी, मिसिर पुरवा, चंडाल पुरवा को छोड़कर सभी नौ पुरवों के लोग विकल्प डेयरी से जुड़ने लगे। डेयरी का काम बढ़ा। अंगद, नन्दू, हरवंश तथा अन्य दो-एक नौ जवानों को साथ लेकर निरंतर काम में जुटे रहते। शहर में भी विकल्प डेयरी की एक पहचान बनने लगी। शहर में अमूल और पराग डेयरी का भी दूध आता था। दुधहा भी दूध बेचते थे पर विकल्प डेयरी को अपना दूध खपाने में कोई दिक्कत नहीं हुई। डेयरी की ईमानदारी से सभी लोग प्रभावित थे। जिन घरों में विकल्प डेयरी का दूध जाता, वे बराबर विकल्प डेयरी का ही दूध लेने की कोशिश करते। माँ जी भी खुश थीं। विकल्प डेयरी का काम बढ़ रहा है। इससे गाँव की तस्वीर बदलेगी ।

ज्यों-ज्यों विकल्प डेयरी का प्रसार होता जा रहा है, प्रधान जी और उनके समर्थकों की चिन्ताएँ बढ़ती जा रही हैं। दुधहा जो दूध ले जाते थे उसका बहाव अब विकल्प डेयरी की ओर हो गया है। दुधहा भी इक्ट्ठा होने लगे। अमरेश और चौधरी प्रसाद ने उनका नेतृत्व सँभाला। प्रधान जी के यहाँ सभी की बैठकें होने लगीं। प्रधान जी कहते 'देखो भाई मुझे अगला चुनाव भी जीतना है। मैं तुम लोगों की मदद के लिए तैयार हूँ। विकल्प डेयरी का फैलाव मैं भी रोकना चाहता हूँ पर उपाय क्या है ? यह तो सोचो।' 'सभी खुराफात की जड़ वहीं अंजलीधर है जिसको पुरवे के लोग माँ जी कहते हैं। क्यों न उसे ही यहाँ से गायब कर दिया जाए।' चौधरी प्रसाद बोल पड़े।

'चौधरी प्रसाद, जो गायब करते हैं, वे शोर नहीं मचाते। शोर मचाकरके किसी को गायब कर पाना बहुत कठिन है। तुम लोग शोर बहुत करते हो, काम कम।' प्रधान जी समझाते रहे। 'यह मसला बहुत कठिन है। हम लोगों को कोई उपाय सोचना होगा।' अमरेश भी बोल पड़े। 'हमारी रोजी छिनी जा रही है', एक दूसरा दुधहा बोल पड़ा।

'हमारी प्रधानी पर भी तो संकट आएगा। विकल्प डेयरी का बढ़ना मेरे लिए बहुत खतरनाक है।' प्रधान जी कहते रहे।

'पर आप कुछ कर नहीं रहे हैं मालिक', एक दुधहा हाथ लहराते हुए बोला। 'बात ठीक कहते हो। मैं अभी सोच नहीं पा रहा हूँ कि क्या किया जाए। मुझे दो दिन का मौका दो। उसके बाद हम लोग बैठेंगे और तय करेंगे कि आगे क्या किया जाए।' प्रधान जी ने एक तरह से बैठक के समापन की घोषणा कर दी।

विपिन जब से आए हैं तन्नी, नन्दू, और हरवंश के मुकदमे की पैरवी में जुट गए हैं। वे कान्ति भाई से मिलकर विचार करते और आगे की योजना बनाते। दोनों ने बहराइच जाकर एडवोकेट आशुतोष से भी बात की। आशुतोष ने उन्हें आश्वस्त करते हुए बताया कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। 
'बहुत ज़रूरी है इन बच्चों को आरोपमुक्त कराना।' विपिन ने कहा। 'तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है। हमें हर कीमत पर इन बच्चों को मुकदमें से छुड़ाना है' आशुतोष ने भी सहमति जताई। 'विपिन भाई, मुझे लगता है कि इस मुकदमे के पीछे जाल करने वालों का एक रैकेट है। उस जाल को तोड़ना होगा। जिस माओवादी के बयान पर इन तीनों को पकड़ा गया है, उससे भेंट करना मुकदमे की पैरवी के लिए ज़रूरी है। यह काम आप ही को करना है।' आशुतोष ने कान खुजाते हुए कहा। 'ठीक है। मैं इस काम को करूँगा। इसका परिणाम भी जल्दी आपको बताऊँगा।' विपिन ने उत्तर दिया। 'तो ठीक है लगो', कहते हुए आशुतोष उठ पड़े। विपिन भी उठे और आशुतोष के कक्ष से बाहर निकल आए।

विपिन दौड़ लगाते रहे। वत्सला और विपिन आपस में जाल तोड़ने की तकनीक पर बात करते। 'इन तीनों का नाम लेने वाले माओवादी से मिलना तो ज़रूरी है ही, पुलिस उपाधीक्षक वंशीधर की गतिविधियों की भी जानकारी लेनी होगी।' वत्सला ने कहा। 'तुम ठीक सोचती हो। पुलिस उपाधीक्षक वंशीधर की गतिविधियों को जाने बिना इस मुकदमे का निपटारा नहीं कराया जा सकता।'

विपिन और आशुतोष जेल के फाटक पर पहुँचे। डिप्टी जेलर को एक प्रार्थना पत्र दिया कि वे अपने मुवक्किल अँगनू से मिलना चाहते हैं। डिप्टी जेलर ने एक नज़र आशुतोष और विपिन को देखा और मिलने की इज़ाज़त दे दी। वकील प्रायः मुकदमे की पैरवी के लिए कैदियों से मिलते रहते हैं। अँगनू पर भी माओवादी होने का आरोप है। अभी तक उसकी ज़मानत नहीं हो सकी है। मुख्य फाटक पार करके आशुतोष और विपिन अन्दर गए। एक पक्के ने अँगनू को उनसे मिलाया। आशुतोष ने जैसे ही कहा-'भाई अँगनू मैं तुम्हारे मुकदमे को लड़ना चाहता हूँ', अँगनू को आश्चर्य हुआ। उसने कहा, 'मालिक हमार नाम आपका कइसे पता चला? जेहल तौ हमार ससुरारि आय। पुलिस जब चाहति है हमका अन्दर कइ देत है। हम तौ छह महीना से यही मा परा हन। आप हमें छोड़ावा चाहत हौ लकिन हम कुछ दै ना पाइब। हमरे पास कुछ हय्यौ नाहीं । दुइ साल पहिले घरैतिन चल बसी। वहिका निमोनिया होइ गवा रहा। दवा दरमद नाइ होइ पाइस। दउरेन बहुत, मुला अब तौ सब पइसे कै खेल है। अब अकेलै हन। चाहे अन्दर रही, चाहै बहिरे। हियों कमाइत खाइत है हुवौं कमाब खाब।' 'अँगनू भाई आप इस आज़ाद देश के नागरिक हैं। आप को नाजायज़ जेल में डाल दिया जाता है तो कोई तकलीफ नहीं होती। आप जेल के बाहर नहीं जा सकते। यह बात क्या तुम्हें खलती नहीं?' आशुतोष ने पूछा, 'वकील साहब जब रोटी कै ठेकाना नाहीं है तब आज़ादी और नाता-रिश्ता सब भुलान रहत है। हम बहुत आज़ादी चाही तौ हमै के छोड़ाई ?' अँगनू ने एक सवाल उछाल दिया। 'हम तुम्हें छुड़ाने के लिए ही मिलने आए हैं।' आशुतोष ने अँगनू की पीठ ठोंकते हुए कहा। 'मालिक, मुला हमे काहे छोड़ावा चाहत हौ ? हमरे कुछ समझ मा नाइ आवत।' 'हम तुमसे कुछ चाहते नहीं हैं अँगनू। तुम्हारे मुकदमे की पैरवी करेंगे।, तुम्हें जेल से छुड़ा लेंगे।' आशुतोष ने सांत्वना देते हुए कहा। 'मुला काहे छोड़इहौ? ई तो बतावौ। हमै कोई अस आदमी नहीं मिला जे बिना कउनों गरज के काम करै। आपन गरजिया तौ बताओ।' 'दुनिया में निस्स्वार्थ सेवा करने वाले लोग भी होते हैं, अँगनू भाई।' विपिन बोल पड़े। 'बतावा नाइ। अबहीं तक हमै कोई अस मिला नाहीं। आपौके कउनौ मतलब होई तब्बै हमें छोड़ावा चाहत हौ। देखौ भाई हरवाही तौ जोति न पाइब। कामौ धाम कम सपरत है। तोहरे घरा चलब केतना काम कै पाइब? कमवा ना सपरी तौ का हमै रोटी देबौ? हियाँ जौन सपरत है, तौन करित है। रुखी-सूखी जौन मिलत है खायकै पर रहित है। कउनौ पचड़ा तौ नाहीं है। आटा सानि देइत है। मालिक लोगन कै सेवा कइ देइत है। पेट भर खाय का मिल जात है। जब घरैतिनौ नाइ है तब का करै बाहर जाई? हियें ठीक है। हमरे पास एक्कौ बिसुवा खेत नाइ है। एक ठौ मड़ई बनाए रहेन, वहौ गिरि-परि गै होई।' 'हम तुम्हारी मड़ई लेने के लिए नहीं आए हैं। हम नाजायज़ सताए गए कैदियों को छुड़ाने का भी काम करते हैं। इसीलिए तुम से मिलने चले आए।' आशुतोष ने समझाया। 'मुला हियों ठीक है मालिक। कमवै करैका है चाहै अन्दर करी, चाहे बहिरे। बिना काम किहे कोई रोटी तौ देई ना।'

तब तक पक्का आ गया। उसने कहा, 'जेलर साहब का हुक्म हैं कि टाइम ख़तम होइगा।' 'हम फिर मिलेंगे अँगनू। तुम सोच विचार कर लो। तुम्हें छुड़ाने में तुम्हारी मड़ई को कोई खतरा नहीं होगा।' आशुतोष ने एक बार फिर उसे समझाने की कोशिश की। 'मालिक हमहूका सोचेका परी कि बहिरे निकरे कउनौ फायदा है कि नाहीं।' 'ठीक है सोच-विचार करो। हम चाहते हैं कि तुम्हें न्याय मिले।' कहते हुए आशुतोष और विपिन लौट पड़े। जेल से कुछ दूर मोटर साइकिल खड़ी थी। उसी पर आशुतोष और विपिन बैठे। बैठते हुए विपिन ने कहा, 'यह केस काफी मुश्किल मालूम होता है।' 'चिंता न करो। मुश्किल केस भी हाथ में आते हैं। इनके साथ थोड़ी और मेहनत करनी पड़ती है।' 'वैसे है यह बहुत खतरनाक स्थिति जब आदमी को जेल के अन्दर और बाहर होने का फर्क ही न दिखाई दे।' विपिन ने कुछ चिन्तित मुद्रा में कहा। 'इस देश में बहुत से ऐसे लोग हैं विपिन जिन्हें आज़ादी और गुलामी में फर्क नहीं दिखता। हम उन्हें आज़ादी का कोई एहसास नहीं करा सके।'

अपने ड्रांइगरूम में बैठे उपकप्तान वंशीधर दरोगा सुकान्त पर त्योरियाँ चढ़ा रहे थे। मैंने कहा था कि कैदी न.३२३ से हठी पुरवा के तीनों मुजरिमों को मिलवा देना। क्या तुमने यह काम किया?' 'सर...।' सुकान्त के मुँह से शब्द न निकल सके। 'सर-सर करते रहते हो, पर ज़रूरी काम से मुँह चुराते हो। दरोगागीरी कैसे करोगे?'

'सर....।'

'कोर्ट में पेश करने के तीसरे ही दिन तीनों को ज़मानत मिल गई। यही है तुम्हारी कार गुज़ारी ?'... तफ्तीश में लापरवाही न हो। अपराधी को जेल भेज देना ही काफी नहीं है। उसे सज़ा भी दिलानी होती है।' वंशीधर की आँखें बिलकुल लाल हो चुकी थीं और दरोगा सुकान्त केवल 'सर' कहने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकते थे? इसी बीच दीवान जी ने जयहिन्द किया। एक लिफाफा वंशीधर के आगे रखा। प्रेषक पर नज़र पड़ते ही वंशीधर के चेहरे का रंग बदल गया। उन्होंने सुकान्त से कहा, 'अभी जाओ। केस पर मेहनत करो।' सुकान्त और दीवान जी के जाते ही वंशीधर ने लिफाफा खोला। उन्हें अपना बयान कराने के लिए मानवाधिकार आयोग ने तलब किया है। तो मानवाधिकार आयोग भी पिण्ड नहीं छोड़ेगा। देख लूँगा इसे भी मैं..... वंशीधर हूँ यह शायद मानवाधिकार आयोग को भी पता नहीं... ऐसी दुलत्ती दूँगा कि आयोग भी याद रक्खेगा. वंशीधर काठ का पुतला नहीं है.... एक तेज दिमाग का इन्सान है...चलो इससे निपटूंगा ही.. पर हठी पुरवा के इन तीनों को भी रहेगा कि हमने किसी वंशीधर से पंगा लिया था.. कोतवाल अपने क्षेत्र का बादशाह होता है... कभी हारा नहीं है वह, समझ लो वह वंशीधर है...।' इसी बीच पलहा चौकीदार ने आकर सलाम किया 'हुज़र आपने बुलाया...।'

'हाँ तुम्हारे गाँव में मैंने रामसेनही से भूसा भेजने के लिए कहा था। कल तक भूसा यहाँ गिरवा दो। गाय के लिए भूसा ख़त्म हो रहा है...।'

'ठीक है हुजूर... आजुइ उनसे मिलिकै इंतजाम करब।' इतना कहकर चौकीदार सलाम करते हुए बाहर चला गया। वंशीधर का दिमाग़ फिर दौड़ने लगा।

उन्होंने हिसाब लगाया-एक साल तीन महीना तेरह दिन ही तो बचे हैं नौकरी के। इतने दिन मानवाधिकार आयोग की जाँच को खींचना ही है। इसके बाद तो स्वतंत्र हो जाऊँगा। मानवाधिकार आयोग की भी ऐसी-तैसी कर दूँगा। यह आयोग तो पुलिस विभाग को काम ही नहीं करने देता।

विकल्प डेयरी का काम बढ़ रहा था। अंगद, नन्दू, हरवंश और तन्नी सभी मुस्तैदी से काम में जुटे थे। करीम खाँ भी व्यवस्था की देख रेख में हाथ बँटाने लगे थे। लाभ की मात्रा बहुत अधिक नहीं थी, पर जो भी लाभ होता सभी के खातों में बँट जाता। सभी दूध देने वालों को लगता कि यह मेरी डेयरी है, इसे ठीक से चलाने की सोचते और आवश्यक सहयोग करते। माँ जी सभी बच्चों को स्कूल भिजवातीं। उन का काम थोड़ा बढ़ गया था। करीम भाई ने उन्हें अपने पुरवे पर बुलाकर महिलाओं को प्रशिक्षित करने की बात कही। तन्नी को साथ लेकर माँ जी करीम के पुरवे में पहुँची। सायं चार बजे का समय । महिलाएँ, बच्चे और पुरुष सभी मोलहू के दरवाजे पर जुटे। सामने पाकड़ का पेड़ था। वसन्त ऋतु में उसकी लाल, पीली, हरी कलियाँ, छोटी-छोटी कोंपलें मन को मुग्ध कर रही थीं। उसी के नीचे दरी बिछाई गई। उसी पर पुरवे की स्त्रियाँ बैठीं। माँ जी ने पाकड़ के पेड़ को देखा। उन्हें याद आ गया कि वे इन कलियों का अँचार बनाया करती थीं। माँ जी के पहुँचते ही महिलाओं ने उठकर उनका स्वागत किया। माँ जी ने उनके अभिवादन का उत्तर दिया और तन्नी के साथ दरी पर बैठ गईं। पुरुष इधर-उधर तख़्तों पर बैठ गए। माँ जी ने पहला प्रश्न यही किया, 'पाकड़ की इन कलियों को तुम लोग क्या कहते हो?' 'हम लोग यहिका सुनगा कहित है', मोलहू की पत्नी ने उत्तर दिया, 'यहकै अचार बनावा जात है।'

'अच्छी बात है। इस बार हम भी इसका अँचार बनाएँगे।' माँ जी ने कहा 'कोंपलें भी तो इन्हीं कलियों से निकलती है।' 'हाँ माँ जी।' मोलहू की पत्नी ने उत्तर दिया। 'हम लोग यहाँ यह जानने के लिए आए हैं कि तुम लोग घर के काम काज के अलावा किसी और काम के लिए समय निकाल सकती हो या नहीं।'

'कोशिश कीन जाई तौ काहे ना निकरी।' एक महिला ने उत्तर दिया। हम यह चाहते हैं कि एक घंटा सब लोग पढ़ाई-लिखाई के लिए निकालो और एक घण्टा कुछ ऐसा काम किया जाय जिससे चार पैसे की आमदनी हो।'

'आपकै बाति बहुत ठीक है माँ जी। हम लोगन का कुछ पढ़हू-लिखे का चाही और चारि पैसा कमाहू वाला कामौ करैका चाही', करीम की पत्नी बोल पड़ीं। माँ जी भी उत्साहित हुईं। उन्होंने कहा 'तुम लोग डेयरी के काम में हाथ बँटा ही रहे हो। हम लोग चाहते हैं कि अँचार बनाने का भी काम किया जाए। लेकिन यह अँचार ऐसा हो जो आदमी की सेहत के लिए भी फायदेमंद हो।'

'आप बहुत ठीक बात कह रही हैं माँ जी', करीम, मोलहू और राम जियावन की पत्नी एक साथ बोल पड़ीं।

'तो ठीक है। हम करीम भाई के हाथ रोज अखबार और पढ़ने के लिए छोटी-छोटी किताबें भेजेंगे। आप लोग तय कर लो कि कितने बजे इकट्ठा हो पाओगी।' महिलाओं में आपस में कुछ खुसुर-फुसुर हुई। 'दोसरी जून ढाई बजे से सब लोग बैठा जाय।' करीम की पत्नी ने कहा।

'क्या ढाई बजे तुम लोग इकट्ठा हो पाओगी? माँ जी ने सभी से पूछा। 'हाँ, कोशिश करके हम लोग इकट्ठा होंगे।' राम जियावन की पुत्रवधू ने उत्तर दिया। वह कक्षा सात तक पढ़ी थी। माँ जी ने उसी से कहा कि सभी को इकट्ठा कर तुम्हीं पढ़ाने की कोशिश करो। किताबें और कापियाँ हम कल तुम्हारे पास भेजवा देंगे। बीच बीच में आकर हम लोग मदद करेंगे। अँचार बनाने के लिए हम लोग तैयारी कर रहे हैं। किन चीजों का अँचार बनाया जाए? कैसे बनाया जाए? यह सब तय करके ही काम किया जाय। अभी तत्काल कुछ पढ़ाई-लिखाई शुरू किया जाए। जल्दी ही हम लोग अँचार का काम शुरू करेंगे। पढ़ने-लिखने के लिए एक घण्टे बैठने में कोई दिक्कत तो नहीं होगी?' माँ जी ने पूछा।

'दिक्कत कौन?' महिलाओं ने आश्वस्त किया। 'तो ठीक है कल से....। माँ जी ने कहा। उनके उठते ही सभी महिलाएँ उठ पड़ीं। स्नेह से उन्हें विदा किया। अधिकांश महिलाओं को लग रहा था कि माँ जी सच्चे मन से हम लोगों की भलाई में जुटी हैं। हमें उनके बताए रास्ते पर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।

'काकी अबतौ तुहुँक पढ़ेका परी। ककहरा हमहीं सिखाइब । अबहीं तक तू कहत रहिउ कि अस करौ, वस करौ, अब हम बताइब यहि मेर लिखउ वहि मेर न लिखउ।' राम जियावन की बहू दीपा ने हँसते हुए कहा।

'भाई बहुएँ हुशियार होई गई हैं तो उनकी हुशियारी से कुछ सिखहिन का परी। लकिन डण्डा न चलायउ, पुचकारि कइ पढ़ायउ।' काकी ने भी हँसते हुए जवाब दिया।

'काकी पढ़ाई प्रेम से होत है। लाठी-डण्डा से पढ़ाई नाहीं होत। जवन मास्टर लड़िकन का थपरियाइ देत हैं, वै लड़के दिन भर सुसकत रहत हैं।' काकी और नववधू की इस ठिठोली को सभी सुनकर आनंद लेती रहीं। 'गुरुवाइन जी को क्या कहा जाएगा'? काकी ने फिर ठिठोली की।

'तौ उनहीं से पूछि लीन जाय', एक महिला ने टिप्पणी की। 'अब ई सब बाति काल्हि होई। आज रहइ देव।' काकी कुछ अधिक उत्साहित थीं। इसी हँसी ठिठोली के बीच सभी महिलाएँ अपने घरों की ओर चल पड़ीं।