एक जिंदगी - दो चाहतें
विनीता राहुरीकर
अध्याय-18
''मैं पहले से ही जानती थी। बहुत दिनों से शक हो रहा था मुझे कि आपके जीवन में कोई और लड़की है। मैं तो शुरू से ही आपको पसंद ही नहीं थी। जबरदस्ती गले पड़ी थी आपके। लेकिन इसमें मेरा क्या दोष है। मैं आपको छोड़ नहीं सकती। मैं कानूनन आपकी पत्नी हूँ....।" वाणी का प्रलाप बहुत देर तक चलता रहा। ''मैं घर की इज्जत हूँ। गाजे बाजे के साथ घर लाए थे आप लोग मुझे। मैं कोई मिट्टी की प्रतिमा नहीं हूँ कि मन भर गया तो विर्सजन कर दिया।"
''मन भरने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि मेरा मन तुम्हारें साथ कभी रहा ही नहीं।" परम स्पष्ट स्वर में बोला।
''आपको क्या हक है मेरी जिंदगी खराब करने का।"
''मैं तीन जिंदगियाँ बचाने की कोशिश कर रहा हूँ। देखो वाणी हमारे विचार आपस में बिलकुल नहीं मिलते। हमारे बीच कोई आत्मीयता, कोई लगाव, सामंजस्य कुछ भी नहीं है। हम एक दूसरे के साथ यूँ भी खुश नहीं रह सकते तो क्यों न खुशी से अलग हो जायें। मजबूरी में बेमन से साथ रहेंगे तो पूरी जिंदगी घुटते रहेंगे। तीन-चार सालों में भी तुम मुझे कभी समझ ही नहीं पायी। समाज के नाम पर परिवारों के नाम पर मैं एक बार अपनी खुशियों की बली चढ़ा चुका हूँ अब और नहीं।" परम ने फैसला कर लिया था अगर वाणी कानूनन उसे मुक्त नहीं करती तब भी वह उसके साथ नहीं निभा पायेगा।
दिन बीते, हफ्ते बीते, महीने बीतने लगे। लोग क्यों व्यक्ति से ज्यादा समाज को और रिश्ते को महत्व देते हैं पता नहीं कभी कोई समझ नहीं पाता कि रिश्ते व्यक्ति के कारण होते हैं व्यक्ति रिश्तों के कारण नहीं।
बड़ी मुश्किलों के बाद जाकर वाणी को भी अहसास हो गया कि सिर्फ रस्मों के जोर पर किसी व्यक्ति को उम्र भर निभाया नहीं जा सकता यदि मन एक न हो।
महीनों बाद वह आपसी सहमती से तलाक लेने के लिए अदालत जाने को तैयार हुई। उसे भी समझ में आ गया था कि अपनी जिद के चलते इस बेमेल विवाह को निभाने के चक्कर में उसकी खुद की उम्र व्यर्थ हो जायेगी। जब परम वापस छुट्टी में कलकत्ते गया तो उसने फैमिली कोर्ट में वकील के द्वारा तलाक की अर्जी दे दी। पूरे घरवाले उससे बुरी तरह नाराज थे। घर में एक तरह से अबोला और मनहूसियत छायी हुई थी। जज ने वाणी और परम की अलग-अलग काउंसलिंग की। परम का दिल घबरा रहा था। कहीं अपने वकील के बहकावे में आकर वाणी जज के सामने अपना फैसला न बदल दे। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। वाणी अपने मायके चली गयी।
घर पर पिताजी थोड़ी बहुत बात कर लेते थे लेकिन माँ ने उसके साथ पूरा ही अबोला कर रखा था। परम छुट्टी खत्म होने के पहले ही जयपुर लौट आया। अब तलाक की दूसरी पेशी छ: महीने बाद थी। इन छ: महीनों में परम घर ही नहीं गया। अलबत्ता दूर के पास के सभी रिश्तेदारों के, वाणी के रिश्तेदारों के दबाव भरे फोन आते रहते थे। हर कोई फोन लगाकर उन्हीं बातों का पुराण लेकर बैठ जाता। परम तंग आ गया था रोज-रोज वही बातें, समझाइशें।
एक इंसान को अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने की कोई आजादी नहीं थी। लोग चुभती हुई बातें कहते, तनु को कोसते। उसे ताने मारते। परम को आश्चर्य होता जो लोग वाणी को ठीक से जानते भी नहीं थे। शादी में ही जिन्होंने वाणी को बस देखा भर होगा वो लोग भी उसकी पैरवी करने लगते। परम का सिर भन्ना जाता। लोगों को दूसरे की जाती जिंदगी में दखल देने में इतना मजा क्यँॅू आता है पता नहीं। तमाशबीन जैसे खड़े हो जायेंगे।
ऐसे तपते समय में बस एक तनु ही चैबीसों घण्टे मरहम का फाहा रखती रहती। वो भी परम के साथ ही हालात से, लोगों से, अपने आप से संघर्ष कर रही थी। परम तनु से मिलने आता रहता। कभी दोनों मंदिर में बैठकर ईश्वर से प्रार्थना करते कि इस कठिन समय में उन्हें स्थिर रहने की शक्ति दे। कभी तनु और परम तनु की माँ के पास जाकर बैठते। माँ उन्हें हिम्मत दिलाती। और समझाती कि जब वो दोनों साथ हैं, एक दूसरे को समझते हैं, तो फिर किसी से भी डरने की क्या जरूरत। ये तो छोटी सी एक कठिन घड़ी है गुजर जायेगी। परम तनु की माँ के पास बैठकर बहुत राहत मजसूस करता। कितनी सुलझी हुई हैं, अपने बच्चो का मन कितना अच्छे से जानती पहचानती हैं। कितनी अण्डरस्टैडिंग है उनमें।
'काश’
उसक अपनी माँ भी ऐसी होती।
उसे समझतीं।
प्यार करती।
तो परम आज तक इतना अकेला न रह जाता।
तनु की माँ से मिलकर उनसे बातें करके परम का आत्मविश्वास बढ़ जाता। तनु के साथ एक सुखद भविष्य को लेकर वह आशान्वित हो जाता।
''तुम चिंता मत करो बेटा सब ठीक हो जायेगा। और जहाँ तक लोगों का सवाल है उनका काम ही बोलना होता है। उन्हें नजरअंदाज करना ही ठीक है। तुम अब किसी के भी फोन रिसीव करना बंद कर दो। लोग साथ तो देते नहीं हैं, फालतू बाते करके मन में बेवजह का तनाव और पैदा कर देते हैं।" उन्होंने परम को समझाया।
परम ने आँखों में ढेर सा आभार भरकर उन्हें देखा। तनु की माँ उठकर अंदर किचन में सबके लिए खाना लगवाने चली गयीं।
परम ने तनु की ओर देखा। वह धीरे से मुस्कुरा दी। परम के मन मे अचानक उसे गले लगाने और चूमने की इच्छा धधक उठी। अपनी तेज होती सांसो को संयत करने और अपनी इच्छा को दबाने के लिए परम ने जल्दी से अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।
उन्हीं दिनों राणा की स्पेशल पोस्टिंग छ: महीने के लिए जयपुर हो गयी थी। परम उससे मिलकर बहुत खुश हुआ। राणा को परम ने सारी बातें बताई।
''ऐ साले कालिये! फंसा ही ली आखीर सोनी कुड़ी।" राणा परम की पीठ पर धौल जमाता हुआ बोला।
परम जवाब में मुस्कुरा दिया। उसके कानों की लवें गरम हो गयीं।
''मैं तुम्हारे निर्णय की सराहना करता हूँ बड्डी।" राणा अचानक गंभीर होकर बोला ''बरना लोग किसी दूसरे साथी को पसंद करने लगते हैं, उसके साथ विवाहेतर संबंध बनाने में भी उनको कोई ऐतराज नहीं होता, लेकिन जहां तक समाज के सामने उसे स्वीकारने की बात होती है तो उतनी हिम्मत किसी में नहीं होती। तुमने वो हिम्मत दिखाई है। और ऐसी हिम्मत सिर्फ वही दिखा सका है जो अपने आप में खुद के प्रति भी और अपने साथी के प्रति भी बहुत ईमानदार और सच्चा हो। मैं बहुत खुश हूँ कि तुमने उम्र भर बेमन से किसी को निभाए जाते रहने की बजाए एक स्वस्थ रास्ता चुना। किसी को धोखे में खुश रखने की जगह तुमने सच्चाई का मुश्किल रास्ता चुना। ये समय अभी जरा मुश्किल लग रहा है पर देखना तुम्हारा आने वाला कल ढेर सारी खुशियों से भरा होगा।
लोग सच का सामना करने से डरते हैं और विवाहेतर संबंध की आड़ में अपनी पूरी उम्र अपने पार्टनर को धोखे में रखकर गुजार देते हैं। मैं बहुत खुश हूँ कि तुमने सबके साथ वफादारी निभाई।"
और परम को लगा उसके सीने से मानो बोझ उतर गया। कोई एक व्यक्ति भी आपको समझ ले तो पूरा जीवन सफल हो जाता है।
''थैंक्स यार बड्डी" परम ने राणा के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
''ओए खाली थैंक्स से काम नहीं चलेगा। चल उठ पैग बना। आज तो दोनों यार मिलकर जश्न मनाएँगे।" राणा ने हँसते हुए कहा। परम उठकर दो ग्लास में व्हिस्की ले आया।
''मेरे यार की खुुशी के नाम।" राणा ने अपना जाम परम के ग्लास से टकराते हुए कहा।)
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