Ek Jindagi - Do chahte - 16 in Hindi Motivational Stories by Dr Vinita Rahurikar books and stories PDF | एक जिंदगी - दो चाहतें - 16

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एक जिंदगी - दो चाहतें - 16

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

अध्याय-16

परम फिर कभी ऑफिशियल काम से या कभी अपना व्यक्तिगत काम बताकर पन्द्रह दिन या महीने में एखाद बार तनु की सुविधा देखकर अहमदाबाद आ जाता। दोनों दिन भर साथ रहते, घूमते, मंदिर जाते और शाम को परम वापस लौट जाता। उन्हीं दिनों वाणी जिद करके परम के पास रहने आ गयी थी। पहाड़ों पर तो उसे बैरक में रहना पड़ता था लेकिन जयपुर में उसे क्वार्टर मिला था तो वाणी ने जिद ठान ली साथ चलने की।

माँ ने भी बहुत जोर दिया। छुट्टियों में छत पर जा-जाकर परम चोरी छुपे घण्टों तनु से बात करता रहता था। उन्हें और वाणी को परम के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लग रहे थे। लाचार तीन महीनों के लिए परम को वाणी को अपने साथ लाना पड़ा। तनु से बात करने की खातिर परम काम न होने पर भी घण्टों ऑफिस में बैठा रहता। कभी गाड़ी उठाकर सड़कों पर चक्कर लगाता रहता।

लेकिन रातें लावे पर लोटते हुए गुजरतीं। बहुत दिनों तक वाणी परम को रिझाने की कोशिशें करती रही लेकिन तनु का खयाल करके किसी भी तरह से परम का मन तैयार नही हो रहा था। एक रात परम देर तक टीवी देखने के बाद कमरे मे गया तो पलंग पर नजर पढ़ते ही शर्म से पानी-पानी हो गया। वाणी अपने सारे कपड़े उतार कर पलंग पर पड़ी थी। परम ने एक अफसोस की सांस भरी और उल्टे पैर वापस ड्राइंगरूम में आकर सोफे पर बैठ गया। बरसों पहले एक लउ़की ने उसे इसी कसौटी पर आंका था और आज वाणी भी उसे उसी स्तर पर आंक रही है। परम का माथा जलने लगा। तनु की बेतरह याद आने लगी। मन हुआ इसी समय उससे बात करे, उसके कंधे पर सिर रखकर बैठा रहे और वो उसके बालों में ऊंगलियाँ फेरती रहे। एक तकिए को सीने से चिपटाए उसे वहीं सोफे पर ही नींद लग गयी।

सुबह जब उसकी नींद खुली तो वाणी खा जाने वाली नजरों से उसे देख रही थी। उसके बाद दोनों के बीच जोरदार झगड़ा हुआ। वाणी उससे पूछ रही थी कि उसका किससे अफेयर चल रहा है। तभी वह लगातार वाणी को निगलेक्ट करता जा रहा है। वरना कभी ऐसा हो सकता है कि पति-पत्नी एक ही पलंग पर सोए और फिर भी...

दिन, हफ्ते और महीने बीत जाए।

छुट्टी में वापस कलकत्ता जाने तक के तीन महीने परम ने वाणी के साथ सुलगते हुए और तनु के साथ प्यार की ठंडी छांव मे जीते हुए गुजारे। घर पर होते समय जब भी उसके फोन की घण्टी बजती वाणी के कान चौकन्ने हो जाते। उसकी गिद्ध दृष्टि परम के चेहरे पर जम जाती और परम बहुत असहज सा मजसूस करने लगता, उसे लगता कब छुट्टी मिले और वह वाणी को वापस छोड़ आए और तनु के पास चला जाए।

वैचारिक धरातल पर कितनी समानता थी दोनों में। यही समानता दोनों के बीच के रिश्ते की मजबूती थी। परम सिगरेटें फूंकते हुए रात-दिन बस यही सोचता रहता कि काश उसकी माँ दो साल और रूक जाती तो आज उसके जीवन की कहानी कुछ और होती। तनु उसकी पत्नी होती और वो मानसिक रूप से एक सुखी संतुष्ट और भरापूरा जीवन जी रहा होता।

पर क्या करे उसे ''राईट टू चूज" नहीं मिला।

नहीं मिला तो क्या वह अपने अधिकार के लिए लड़ नहीं सकता, उसकी माँ ने गलती की तो क्या वह अब गलती सुधार नहीं सकता। जरूरी है क्या कि वह एक अनचाहे रिश्ते को उम्र भर बोझ की तरह ढोता रहे?

नहीं और परम ने मन ही मन एक कठोर निर्णय ले लिया। भगवान ने गलती को सुधार कर अपने जीवन में खुशियाँ भरने का एक सुनहरा मौका दिया है उसे और वह इसे गवाँ नहीं सकता। परम छुट्टियों में उस बार जब वाणी को लेकर कलकत्ते गया तो एक ठोस फैसला करके ही गया था।

वाणी ने जयपुर से ही परम की माँ को उसके व्यवहार की अच्छी भली चुगली करके रखी थी। उसकी माँ भरी बैठी थी। कलकत्ते पहुँचने के तीसरे दिन ही सुबह-सुबह घर में जोरदार झगड़ा शुरू हो गया। वाणी ने परम के माता-पिता के सामने ही चिल्लाना शुरू कर दिया कि ये तो मुझसे शादी करना ही नहीं चाहते थे। इन्हें तो मैं पसंद ही नहीं हँू। ये हमेशा मुझसे दूर-दूर भागते हंैं। इनके जीवन में कोई दूसरी लड़की है। घण्टों छत पर जाकर या गैलरी में खड़े होकर किसी से बातें करते रहते हैं। कई दिनों तक घर में रात-दिन यही पुराण चलता रहा। परम अक्सर या तो हुगली के किनारे जाकर बैठा रहता या फिर मेट्रो में बैठा शहर का चक्कर लगाता रहता। एक रात वह गंगा के तट से बहुत देर हुए घर वापस लौटा। ड्राइंगरूम में ही माँ उसके इंतजार में भरी बैठी थी। आते ही उनहोंने फिर वही बातें शुरू कर दी। दुनिया भर की ऊँच-नीच समझाई।

''वो पत्नी है तुम्हारी।" वे बोलीं।

''वो मेरी पत्नी नहीं माँ तुम्हारी बहु है।" परम ने तल्ख स्वर में कहा।

''परम।" वे गरजीं" तुम होश में तो हो। क्या कह रहे हो ये।"

''हाँ मैं पूरे होश में हूँ। और सच कह रहा हूँ माँ। तुमने बचपन से ही मुझे अपनी मर्जी से जीने ही कहाँ दिया है। हमेशा अपनी इच्छाएँ ही थोपती रही हो मेरे सिर पर। जब इन सबसे छुटकारा पाने के लिए मैं फौज में भर्ती हो गया तो आपने वहाँ भी मुझे चैन से जीने नहीं दिया। मेरी मर्जी के बगैर मुझे बताए वगैर, पूछे बिना आपने मेरी शादी तय कर दी।" परम ने जीवन में पहली बार माँ के सामने मुँह खोला था।

''दुर्गा-दुर्गा।" माँ दोनों कानों पर हाथ रखे सिर हिलाकर बोली ''कितना जहर भरा है तुम्हारें अंदर। अरे तेरी शादी कर दी तो क्या बुरा किया। क्या कमी है वाणी में। और तुझे भला उससे अच्छी लड़की मिलती। उसने हाँ कह दी इसे अपनी किस्मत समझ।"

माँ की बात सुनकर परम सिर से पैर तक सुलग गया। ''बात उसके अच्छे-बुरे होने की नहीं है। बात मन के, विचारों के मिलने की है। बात व्यक्तिगत स्वतंत्रता की है। आपने कभी मुझे निर्णय लेने का अधिकार ही नहीं दिया।"

''हो माँ ऽऽ। आज तक तुझे पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया तेरा घर बसाया और आज तू अपनी माँ पर इतना बड़ा आरोप लगा रहा है।" माँ ने अपना कपाल पीट लिया।

''मैंने उस समय आप लोगों को ही नहीं सबको मना किया था यहाँ तक कि वाणी को भी जाकर समझाने की कोशिश की थी कि मैं यह शादी नहीं करना चाहता। वह मेरे साथ खुश नहीं रह पायेगी लेकिन किसी ने मेरी एक नहीं सुनी। सबके सब जिद पर अड़े रहे। वाणी भी बेवकुफाना जिद ठान कर बैठ गयी थी। अब...।" परम ने उलाहने भरे ठंडे स्वर में कहा।

''अब? अब क्या?" माँ ने शंकित स्वर में पूछा।

''अब मैं अपनी गलती सुधारना चाहता हूँ।" परम का स्वर अब भी ठंडा था।

''परम...।" माँ का स्वर कांप गया ''गलती सुधारना चाहता हूँ मतलब?"

''मतलब साफ है माँ तुम लोगों की गलती को अब मै उम्र भर नहीं ढो सकता। वाणी के साथ मेरा किसी भी स्तर पर सामंजस्य नहीं है। उम्र भर हम एक ही घर में रहते हुए भी साथ न चल पाए तो इससे अच्छा है कि हम अलग हो जायें।" परम को लगा इतना कहने में जैसे उसके शरीर की सारी उर्जा चुक गयी हो।

''तू उसे छोडऩा चाहता है?" माँ की आँखेंं अपनी आखरी सीमा तक चौड़ी हो गयी। ''हमारे खानदान में दूर-दूर तक ऐसा कभी नहीं हुआ।"

तेज होती आवाजों को सुनकर उसके पिता भी बाहर वाले कमरे में चले आए। शायद वो बहुत देर से ही उन लोगों की बातें सुन रहे थे। वाणी भी शायद कमरे में जगी पड़ी होगी। सुन रही होगी। लेकिन आज परम को किसी की परवाह नहीं थी।

''अब मुझे समझ में आ रहा है कि वाणी गलत नहीं कह रही थी जरूर तेरे जीवन में कोई और लड़की आ गयी है। उसी ने तेरा दिमाग खराब किया है। आप ही समझाईये इसे। ये तो पागल हो गया है।" माँ उसके पिता की ओर देखकर बोली।

''बेटा वाणी तुम्हारी पत्नी है।" पिता हमेशा ही माँ के सामने कमजोर साबित होते।

''वो मेरी पत्नी नहीं आपकी बहु है। वो मेरी मर्जी से नहीं आपकी इच्छा से इस घर में आयी है।" परम स्पष्ट शब्दों में बोला।

उस रात देर तक बहुत सी बातें चलीं। परम जानता था यह डगर आसान नहीं है। उसे पूरे परिवार का विरोध झेलना पड़ेगा और सिर्फ अपने ही नहीं वाणी के परिवार का भी। लेकिन तनु की खातीर उसे काटों भरा इतना रास्ता तो पार करना ही पड़ेगा वरना तनु का और उसका प्यार, उनका रिश्ता, उनका भविष्य सब एक मजाक बनकर रह जायेगा। पूरी छुट्टी भर परम तनाव से घिरा रहा। घर में रोज ही रोना पीटना मचता, झगड़े होते। माँ ने चाचा-चाची, मामा-मामी सबको खबर कर दी। हर दिन सबके समझाइश भरे फोन आते रहते। वाणी के घर में भी खबर हो गयी। परम चारों ओर से एक दबाव में जी रहा था। घरवाले अकेला छोड़ते नहीं थे तो तनु से भी बात नहीं हो पाती थी। इस समय उसे तनु की बहुत ज्यादा जरूरत थी और उसी से बात नहीं हो पाती थी। कभी पुराने दोस्तों के साथ बहाने से घर से बाहर निकल पाता तो तनु से बात कर लेता। दोनों ही के अंतर में संघर्ष चल रहा था और दोनों ही एक दूसरे को तसल्ली देते रहते थे।

छुट्टियाँ खत्म हुई तो जैसी आशंका थी माँ ने वाणी को भी उसके साथ भेज दिया। जीवन दिन पर दिन जटिल होता जा रहा था। भारतीय समाज में तलाक शर्मनाक माना जाता है। आप भले ही विवाहेतर संबंध बना लें, एक नहीं कई बार लोगों के दो-चार से भी रिश्ते बन जाते हैं, लकिन वो फिर भी चल जाता है।

परन्तु तलाक!

तलाक के नाम से ही बवाल मच जाता है। लोग उम्र भर मरे हुए रिश्ते की दुर्गन्ध सहते हुए जी सकते हैं, अपने साथी का दूसरे के साथ बंटना सह कर उम्र गुजार देते हैं लेकिन साथी को मुक्त करके खुद भी ताजी हवा में सांस लेना और उसे भी चैन लेने देना उन्हें स्वीकार नहीं होता। अनचाहे बंधन का बोझ ढोते हुए उम्र भर एक दूसरे को कोसते रहना मंजूर है लेकिन खुले मन से साथी को मुक्त कर देना मंजूर नहीं होता।

जहाँ विवाह घरवालों की मर्जी से होता है वहाँ उसे बचाए रखना उनके आत्मसम्मान का प्रश्न बन जाता है। वाणी को छोडऩे की बात से ही परम की माँ के अहं को ठेस लगी। वाणी को उन्होंने चुना था और आज परम उनके चुनाव को चुनौती दे रहा था। आज तक घर भर में उनकी बात का किसी ने विरोध नहीं किया था। घर की छोटी से लेकर बड़ी बात तक में अंतिम निर्णय उनका ही होता था। और आज उनका ही बेटा उनके फैसले को सीरे से खारीज कर रहा है।

परम ने ऐसा किया तो कल को उसका छोटा भाई भी ऐसा ही दुस्साहस न कर बैठे।

लेकिन परम तय कर चुका था अपने जीवन को एक लाचार समझौते की सूली पर टांगने की बजाए खुशहाल रास्ते पर हँसते हुए काटने का।

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