अंगन में खेलती थी गुड़िया, चहकती थी चिड़िया,
आज दोनों की यादों से ही भरता है ये सीलन-सा दामन।
कभी खिलखिलाहट से गूंजता था मेरा बूढ़ा-सा आँगन,
आज खामोशी ऐसे बैठी है जैसे कोई कर्ज़ उतारना हो।
गुड़िया जब दुल्हन बनकर ससुराल चली गयी,
उसके साथ उड़ गयी वो चिड़िया भी,
जो मेरे सिरहाने सुबह की धूप रख जाती थी।
मैं बस चौखट पर बैठा रह जाता हूँ,
हथेलियों में उसके बचपन की गर्माहट दबाए हुए,
कभी उसकी हँसी, कभी उसकी माँग का सिंदूर
इन दीवारों से टकराकर वापस मेरे सीने में गिर पड़ते हैं।
क्या कहूँ… बाप का दिल भी अजीब होता है,
बेटी को विदा करते वक़्त सभी कहते हैं—
“ये खुशी का मौका है।”
पर कोई नहीं जानता कि उस खुशी का आधा हिस्सा
मेरे भीतर रोता हुआ रहता है।
आज जब हवा चलती है,
तो लगता है जैसे गुड़िया दौड़ती हुई आ जाएगी—
“बाबा, देखो मैंने क्या बनाया!”
पर हवा सिर्फ़ सूनेपन को हिलाकर
मुझे याद दिलाती है कि वो लौटी नहीं।
आँगन में पड़ी चारपाई पर
मैं हर शाम सोचता हूँ—
घर बदलने से बचपन नहीं लौटता,
बेटी के जाने से बाबू का मन उजड़ जाता है।
गुड़िया चली गयी तो चिड़िया भी उड़ गयी,
और मैं…
बस उसी उड़े हुए आकाश के नीचे
अपनी अधूरी धड़कनों के साथ बैठा हूँ।
आर्यमौलिक