जागरण कविता ✧
बाहर के चोर डराते हैं,
पर भीतर का डाकू मौन में लूट लेता है।
उसका चेहरा हर दिन बदलता है,
कभी वासना, कभी धर्म, कभी अहंकार।
भीड़ को जगाने का स्वप्न
नारा बनकर हवा में उड़ जाता है,
जागरण तो बस उन चंद पथिकों के लिए है
जो मौन में सत्य खोजते हैं।
वे अकेले चलते हैं,
पर एक छोटा-सा विश्वास
दीपक की लौ बन जाता है।
धर्म प्रचार से नहीं,
मौन से गहरा होता है।
भीड़ की गंदगी से लड़ना
खुद को गंदा कर लेना है।
तो काम बस इतना है—
जहाँ शांति की हल्की-सी किरण हो
उसे हवा देना।
याद रखना—
सत्य है, आत्मा है,
शांति संभव है।
बाक़ी सब मुखौटे हैं।
पथिक को बस अपने मार्ग पर खड़ा रहना है।