‘राखी’ महज़ डोर नहीं है रेशम के धागों की,
ये डोर है चिर - संचित स्नेहिल रागों की ।
न स्वार्थ का लेप, न इच्छाओं का अवलंबन,
है चट्टान सा मजबूत भाई-बहन का बंधन ।
कभी पूर्णमासी की भोर तो कभी उजली - सी उषा,
खोल देती है दिल में मेरे यादों की मंजूषा ।
कभी लड़ते - झगड़ते करते थे अठखेलियाँ,
कभी तकरार भरी हम बुझाते थे पहेलियाँ ।
रूठने पर मनुहार में बीते वो सुनहरे पल,
जहाँ प्यार का बसेरा था, नहीं था कोई भी छल ।
फिर न जाने कब हम अचानक से बड़े हो गए,
अपने - अपने जीवन की उलझन में कहीं खो गए ।
वो हक, वो झगड़े, वो बचपन अब कहीं खो गया है,
हम बड़े क्या हुए हर रिश्ता अब मेहमान हो गया है ।
न होती कोई आनाकानी, न
चलती मनमर्ज़ियाँ,
रिश्ते चुप बैठ गए, बोलने लगी खामोशियाँ ।
काश ! चुरा पाती बचपन के कुछ पल,
जहाँ निश्छल प्रेम की बहती थी निर्झरी हर पल ।
उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’