उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 26 की
कथानक : अन्तत: ज्ञात हुआ कि जगपाल केस की जाँच का काम अतिरिक्त उपायुक्त को दिया गया जो अगले ही दिन राधोपुर आ भी गए। लेकिन केहर सिंह बीमारी का बहाना बनाकर पंचायत भवन नहीं पहुँचा ताकि जगपाल को चुनाव लड़ने से रोका जा सके। उसने अपने भतीजे के जरिए कहलवा दिया कि सुनवाई दोनों पक्षों के सामने ही होनी चाहिए। उसकी यह अपील मानकर सुनवाई अगली अघोषित तिथि तक टाल दी गई।
एक दिन रमन शहर अम्मा को यह कह कर गया कि वह अपनी बहन जयवंती से मिलना चाहता है। इस तरह उसे जाँच की प्रगति बताने के नाम पर कविता से भेंट करने का बहाना भी मिल गया लेकिन वह अकेले जाकर कविता से मिलना नहीं चाहता था क्योंकि ऐसा करने से कविता की ही स्टाफ के सामने छवि खराब होती।
पहले रमन बहन से मिला और बाद में बहनोई बने मित्र राजू को साथ लेकर कविता से मिलने ऑफिस में पहुँचा।
जब कविता को पता चला कि रमन की बहन का ससुराल इसी शहर में है तो उसने उलाहना दिया कि बहन को क्यों साथ नहीं लाए? साथ ही कहा कि अब छुट्टी के दिन घर लाना, उसे प्रतीक्षा रहेगी। रमन को कहना पड़ा कि उसकी बहन इस इतवार को तो राधोपुर आएगी।
हँसी-मजाक के बीच रमन ने केस की प्रगति के सम्बन्ध में भी अवगत कराते हुए कहा कि सरपंच ने बीमारी का बहाना बनाकर एडीसी साहब को गच्चा दे दिया।
अब राजू ने मैडम से निवेदन किया कि आप राधोपुर जाकर रमन द्वारा विद्या मंदिर को देखने का समय निकालें।
एसडीएम से मिलने कोई अन्य आ गए तो राजू व रमन जाने के लिए उठ खड़े हुए थे। रमन व कविता दोनों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे के प्रति आसक्ति दिखाते हुए विदा ली।
उपन्यासकार ने इस अंक में एक नई बात यह दिखाई कि राजू भी रमन व कविता के बीच के सामीप्य व अपनेपन से अवगत हो गया। शनै:शनै: दोनों के बीच प्रीत की डोर सुदृढ़ होती जा रही है। इस अंक में रमन व उसकी माँ के बीच संवाद तथा रमन की सोच दिखाती पंक्तियाँ पाठकों को परोसी जा सकती हैं:
'क्यों हँस रहा है बेटा?'
'अम्मा जी, आप तो मुझे अभी भी छोटा बच्चा समझ रही हो। मैं अब बड़ा हो गया हूँ, अपनी जिम्मेदारी को समझता हूँ। मेरे होते हुए आपको मन पर बोझ लाने की जरूरत नहीं है।'
'अच्छा! बड़ा हो गया है तो शादी क्यों नहीं करवा लेता? माँ सारा दिन घर में अकेली रहती है।'
'फिर तो अम्मा जी, आप भी मेरे साथ शहर चलो। बहू पसंद कर लेना, साथ लेते आएँगे।'
'तू पहले ढूँढ तो ले बेटे, मैं बाद में पसंद कर लूँगी।'
वह सोचने लगा माँ को क्या मालूम है, जिस बात को वह हँसी में कह रही है वह कितनी सच्ची और कितनी अधूरी है। सच्ची इसलिए कि उनके प्यार की डोर अविचल, अविरत, अविरुद्ध, निश्चल और निस्वार्थ है। उसमें न तो कोई गाँठ है और न ही खण्डित होने का भय। शारीरिक लोलुपता से कहीं दूर दो आत्माओं का मिलन। मीमाँसा पूर्ण सोच, जिसमें हृदय और मस्तिष्क दोनों एक साथ हैं। आधुनिक पाश्चात्य सोच के विपरीत विशुद्ध भारतीय सभ्यता की देन। अधूरी इसलिए कि यथार्थ को परवान चढ़ाने की डगर केवल लंबी ही नहीं, अपितु कठिन भी है।
कविता के माता-पिता की इच्छा क्या है? वह नहीं जानता, वे कौन लोग हैं? उसका भी उसे पता नहीं। क्या ऐसी स्थिति में उनका परिवार, उनकी बिरादरी और समाज इस रिश्ते को स्वीकृति देगा? बेशक, उसकी अपनी ओर से कोई बाधा नहीं है। वह हर बंदिश को तोड़ने के लिए तैयार है..परन्तु यह तो उसकी अपनी सोच है। दूसरे पक्ष का निर्णय तो उसके वश में नहीं है। (पृष्ठ 408-09)
लेखक ने रमन के बारे में यहाँ सब-कुछ स्पष्ट कर दिया है। क्या कविता का भी यही रुख होगा? यह आगामी अंकों में ही स्पष्ट ही सकेगा।
समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
27.12. 202