1 संघर्ष
आज है परेशान बहुत,
थोड़ा कल भी तु बिखरेगा
आने वाले कल में,
बनकर सम्राट निकलेगा
डर मत इन कठिनाइयों से,
ये तो एक बहाना है
कठिनाईयां सिंच तुम्हें,
खोलते अक्ल का ताला हैं
लोग हंसेंगे क्या कहेंगे,
इसकी नातु फिक्र कर
खुद देखो तुम अपने कष्ट,
किसकी के आगे जिक्र ना कर
परिस्थितियां टटोलकर,
बदलना तु सीखेगा
आने वाले कल में,
बनकर सम्राट निकलेगा
2 धर्म की पड़ी है
क्या ज़माना आई,
क्या आई ये घड़ी है
रोजी-रोटी छोड़ लोगों को,
धर्म की पड़ी है
कोई मस्जिद में मंदिर ढूंढे,
कोई मंदिर में मस्जिद
एक दूजे को निच समझने का,
कैसा है ये जिद
भारत की खूबसूरती पर,
जाने किसकी नजर पड़ी है
रोजी-रोटी छोड़ लोगों को
धर्म की पड़ी है
बात समझने की भी,
थोड़ी सी है जरूरी
धर्म का चोला ओढ़े रहोगे,
तो चलती रहेगी छुरी
नफरत का पर्दा चढ़ गया ऐसा,
मोहब्बत रो पड़ी है
रोजी-रोटी छोड़ लोगों को,
धर्म की पड़ी है
3 हिन्दी
एक सुन्दर-सा शब्द,
और प्यारा सा रीत है हिन्दी
हम सभी भारतवासियों को,
एक सूत्र में बांधने का प्रीत है हिन्दी
जब निकलते हैं कोई भाव इससे ,
मन और दिल मे चुभ जाते हैं
शायरों के कलमों को भी,
ये खूब भाते हैं
अहो भाग्य हमारे कितने,
हिन्दी के घर में जन्म मिले
विश्व स्तर पर ले जाने को,
हिन्दी लिखने का कर्म मिले
गौरव रहे इस देश का हिन्दी,
यही मेरी अभिलाषा है
कितना सुंदर और सजीला,
मेरी अपनी हिन्दी भाषा है
4 माँ
माँ तेरी आंचल में,
खुशियाँ मिले हजार
तेरी चरणों में जन्नत है,
सजदा करूं बार - बार
तन मन से पाली मुझको,
गोद में अपने खिलाई हो
गिले में तू खुद सोकर,
सूखे बिस्तर पर सुलाई हो
कैसे कर्ज भरूंगा तेरी,
मैं तेरा कर्जदार हूँ
तेरी पावन चरणों का मैं,
थोड़ा तो हकदार हूँ।
5 भूलते संस्कार
धीरे-धीरे भूल रहे हैं,
संस्कार परिवार का
कर रहे हत्या अपने,
पुरखों के विचार का
जाने कौन सी आई घड़ी है,
जाने कौन ज़माना
माता-पिता को पड रहा है
अपना सिर झुकाना
आज के युवा समझ रहे हैं ,
हमें पुराने खयालात के
जी रहे हैं ये सभी,
बिना हाँक - दाब के
जिस राह से गुजर रहे हो,
वह राह छोड़ी हमने
कांटे ही कांटे हैं उनपर,
ये अनुभव की हमने
नम्र निवेदन है तुमसे,
थोड़ा कर लो लाज- शरम
ना भूलो अपनी संस्कृति,
ना भूलो अपना धरम।
6 एक किसान का दर्द
सर्दी हो या कड़क धूप में,
खुद को खिंचता हूँ
अपने पसीने और गहरे खून से,
इन फ़सलों को सिंचता हूँ
मरने से पहले भर देता हूँ पेट तुम्हारा,
अपने अस्थियों से सारा,
खेतों को बिजता हूँ
इतना करने के बाद भी,
इन्साफ़ नहीं मिलता साहब
तभी तो खुदकुशी कर लेता हूं
कर्ज का बोझ जितना है मेरे उपर,
कोई समझता ही नहीं
क्या बीतता है मेरे उपर,
कोई जानता ही नहीं
बस यूहीं एक दिखावटी सहानुभूति से,
लोग अपना वाह वाही लूटते हैं
अकाल पड़ने पर हमसे,
कई गुना भी वसूलते हैं ।
- Er.Vishal Kumar Dhusiya