बालक ने देखा, तोता धीरे-धीरे डरते-डरते पीपल की एक डाल से उड़कर दूसरी पर बैठता है, दूसरी से तीसरी पर। ऐसा जान पड़ता था मानो पंख डरकर इसलिए फड़फड़ाता है कि कहीं पिंजरे की परिधि से टकराएं न, आहत न हों और जब उसने देखा, वे हिल-डुलकर भी पिंजरे से नहीं टकराते, तब वह पेड़ पर से उड़कर बिजली के खम्भे पर बैठ गया, जो घर से अधिक दूर था और फिर यहां से दूसरे खम्भे पर। बालक को जान पड़ा, वह अपने को विश्वास दिला रहा है कि अब पिंजरे के सीखचों से घिरा नहीं हूं, बाहर हूं, स्वच्छंद हूं और फिर वह एकाएक आह्लाद और अभिमान से भरकर उड़ा और उड़ गया दृष्टि की सीमा से परे...
[उपन्यास~ शेखर: एक जीवनी-1]
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