संन्यास
- प्रगति गुप्ता
एक माँ की सुंदरतम कृति
होती है उसकी संतान
लगाती है जिसके
लालन- पालन में अथाह मेहनत
समर्पित कर देती है
जीवन के दिन और रात,
बगैर किसी विश्राम..
फिर अपनी अनुपम कृति से
तोड़ आसक्ति, भरने देती है
एक नई ऊंची उड़ान
नए नीड़
नए संग-साथ को थाम...
नही होता आसान,
अपनी सुंदरतम कृति को
सहर्ष उन्मुक्त छोड़ना,
यहीं कहीं से शुरू होता है
एक माँ का संन्यास की
पहली सीढ़ी की ओर बढ़ना...
छोड़ आसक्ति और मोह को
अपने कर्मों के
लेन-देन के गहरे उतरना...
कहीं न कहीं धैर्य धारण कर
उमड़ते भावों की सीमाओं को
यथार्थ की गाँठ से बाँधना...
फिर अपने प्रारब्ध के लिए
सचेत रहकर मौन रहना
और बहुत कुछ
अपने मौन में ही गुनना...