कल्पना के पंख

गुड़िया सी मैं,
गुड्डा संग गुड़िया का
विवाह मैंने खूब रचाया था
हंसता खेलता बचपन बिताया था...
कल्पना के पंख लिए
सितारों से आसमान सजाया था
बाजो ने मेरे पंख नोचे
विश्वास मेरा डगमगया था...
परिधि,मर्यादा के कारागार में
संयम-समर्पण को अपनाया था
अपने ही पंखों को मैंने
अपने हाथों जलाया था...
प्रतिदिन जलती मेरी चिता से
आग ताप रहे थे मेरे अपने
निश दिन चढ़ी मेरी बली
मैंने अपना ही मांस पकाया था...
हिमालय सा अटल मेरा
हिम्मत, हैसियत और हौसला था
फस जाना भी तय था मेरा
अपनों ने ही तो जाल बिछाया था
अब न झूकूंगी, अब न मरूंगी,
अब न जलूंगी, अब न कटुगी,
सारे कर्ज-फ़र्ज़ निभाऊंगी,
नहीं करूंगी अब समझौता,
नए पंख अपने, मैं अब लगाऊंगी

Hindi Poem by TEJKARANJAIN : 111711390
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