जान के भी अंजान रहता है
ये खामोश ज़माना
कइसौ कहानियाँ कहता है
आँखों को मीचे
खुदको अंधा कहता है
सब देखके अनदेखा करता है
ये बात सच साबित करता है
मरता और क्या ना करता
आगे बढ़ता या ज़माने से डरता
तलाश में मुझ जैसे कई है
अफसोस के अपनी आँखों पर भी पट्टी बंधी है
हाल बहुत बेहाल है जहा देखूं बस शर्मिंदगी है
ज़ुबां को लखवां मार जाता है
होठों तक आते आते सवाल रह जाता है
अपने घर का खयाल ऐ ज़माने मेरे जजबात दबाए रखता है
_हर्षद मोलिश्री