परंपरा
फ़फ़क कर रो पड़ी देख बाप के लाश को,
मुखाग्नि मैं ही दूंगी कैसे कहे समाज को,
मैं बाबुल की सबसे प्रिय थी जानते है सभी,
तोड़ दुं कैसे वादे अटूट से विस्वाश को ,
कैसी परंपरा है ये ईश्वर ने तो बनाई नही,
हमें किसी ने माना नही कैसे मानू इस रिवाज़ को,
मैं बेटी मैं ही बेटा मैं ही सब कुछ थी उनके लिए,
कैसे कोई छीन लेगा हक है जिनके लिए,
अब मैं सुनूँगी सिर्फ मेरे अपने एहसास को,
पोटली में बांध दूंगी मिल रहे इस परिहास को,
क्या कमी है मुझमें जो काबिल नही परंपरा के,
सभी रश्में निभादूँगी बन बेटा इस समाज को,
क्यो मौन हो बोलो समाज क्या कुछ गलत कही है,
मेरे भी बच्चे है क्या मुझमें समझ नही है,
उठाने दो कंधे पर इतनी भी कमजोर नही,
बाप है मेरे मैं बेटी हु कोई और नही,